अध्याय 9 - भारतीय राष्ट्रवाद का उदय
पिछले अध्याय में तुमने 1857 ई० के विद्रोह को कुचल देने के बाद भारत के आर्थिक जीवन में हुए परिवर्तनों के बारे में, धार्मिक तथा सामाजिक सुधार के आंदोलनों के बारे में और संस्कृति के विभिन्न क्षेत्रों के विकास के बारे में पढ़ा। 1857 ई० के विद्रोह को देने को कुचल देने बाद कई साल तक देश के विभिन्न भागों में ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह होते रहे। साथ ही, जनता में राजनीतिक तथा राष्ट्रीय चेतना उभरने लगी तो एक अलग प्रकार का आंदोलन जन्म लेने लगा जिसने जल्दी ही स्वतंत्रता के देशव्यापी संघर्ष का रूप धारण कर लिया।
१८५७ ई० के बाद के सशस्त्र विद्रोह
सैयद अहमद बरेलवी द्वारा शुरू किए गए विद्रोह के बारे में तुम पहले पढ़ चुके हो। सैयद अहमद के अनुयायियों को प्रायः वहाबी कहा जाता है। वहाबियों की विद्रोही गतिविधियां 1857 ई० के बाद भी जारी रही। वहाबियों को अंततः 1870 ई० के दशक में कुचलने के लिए अंग्रेजों को हजारों सैनिकों का इस्तेमाल करना पड़ा। इस्लाम की धार्मिक शिक्षा के लिए 1867 ई० में उत्तर प्रदेश के सहारनपुर शहर के नजदीक देवबंद स्थान पर एक विद्याकेंद्र की स्थापना हुई। यह विद्याकेंद्र अपने विद्यार्थियों में स्वातंत्र्य- प्रेम की भावनाएं उभारता रहा। इसने सर सैयद अहमद खां की गतिविधियों का विरोध किया। सैयद अहमद मुसलमानों में अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार में जुटे हुए थे और ब्रिटिश शासन के प्रति वफादार बने हुए थे। इन्हीं दिनों पंजाब के सिक्खों में गुरु राम सिंह ने एक नया आंदोलन खड़ा किया। इसे कूका आंदोलन कहते हैं। कूकाओ ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ हथियार उठाए, परंतु उन्हें 1872 ई० में क्रूरता से कुचल दिया गया। कई कूका विद्रोहियों को फांसी दी गई। उनमें से कुछ को तोप के मुंह के साथ बांध कर उड़ा दिया गया। 1857 ई० के बाद कई किसान विद्रोह भी हुए। बंगाल के नीलहों के विद्रोह का उल्लेख किया जा चुका है। बंगाल, बिहार और महाराष्ट्र में अन्य किसान विद्रोह भी हुए। देश के विभिन्न भागों के आदिवासी समूह ने भी विद्रोह किए। 1879-80 ई० में, और पुनः 1886 ई० में आंध्र में रमया विद्रोह हुआ। यह विद्रोह न केवल ब्रिटिश शासन के खिलाफ बल्कि जमीदारों तथा महाजनों के शोषण के खिलाफ भी था। बिहार के छोटा नागपुर क्षेत्र में मुंडा आदिवासियों ने 1890 ई० के दशक में विद्रोह किया बिरसा मुंडा ने उनका नेतृत्व किया। 1900 ई० में इस विद्रोह को कुचल दिया गया। बिरसा मुंडा को पकड़कर जेल में डाल दिया गया जहां जल्दी ही उनकी मृत्यु हो गई। कहा जाता है कि उनको जहर दिया गया था। मणिपुर में ब्रिटिश-विरोधी विद्रोह का नेतृत्व तिकेंद्रजीत ने किया। उस विद्रोह को कुचल दिया गया और तिकेंद्रजीत को फांसी दी गई। महाराष्ट्र में वासुदेव बलवंत फड़के ने 1879 ई० में अंग्रेजो के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह का संगठन किया। महाजनों और साहूकारों से पैसा लूट कर उन्होंने एक सशस्त्र सेना खड़ी करने का प्रयास किया। मगर यह विद्रोह ज्यादा दिनों तक नहीं चला। फड़के को पकड़ लिया गया और आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।
1857 ई० के बाद के काल में देश के विभिन्न भागों में और भी कई सशस्त्र विद्रोह हुए। ये विद्रोह ब्रिटिश शासन के खिलाफ देश में व्याप्त गहरे असंतोष के सूचक थे। मगर यह अधिकतर स्थानीय विद्रोह थे, इसलिए भारत में ब्रिटिश शासन के लिए बड़ा खतरा नहीं बने।
राष्ट्रीय चेतना का उदय
इन विद्रोह के अलावा भारत में धीरे-धीरे एक ऐसा आंदोलन उभरा जो भारतीय जनता की आकांक्षाओं को एक राष्ट्र के रूप में व्यक्त करता था। यह पहले के विद्रोहों और आंदोलनों से अधिक व्यापक था। यह एक वर्ग या एक समुदाय या एक धर्म की नहीं, बल्कि समूचे राष्ट्र की मांगों का प्रतिनिधित्व करता था। इसके साथ ही स्वतंत्रता के आंदोलन ने राष्ट्रीय स्वरूप प्राप्त कर लिया। इसने पहली बार भारतीय जनता को एक सत्ता के रूप में एकजुट किया।
तुमने अपनी 'प्राचीन भारत' और 'मध्यकालीन भारत' पुस्तकों में पढ़ा है कि भारतीय जनता ने इतिहास के अपने लंबे दौर में किस प्रकार एक मिलीजुली समृद्ध संस्कृति का विकास किया। अशोक और अकबर जैसे महान सम्राटों ने भारत के विभिन्न भागों को एक साम्राज्य में संगठित किया। राजनीतिक विभेद के भी लंबे दौर चले। अठारहवीं सदी में देश छोटे-बड़े अनेक राज्यों में बटा हुआ था। ये राज्य आपस में लड़ते झगड़ते थे। प्रत्येक राज्य दूसरे को हड़प कर अपना विस्तार करना चाहता था। तुम्हें उन परिस्थितियों की भी जानकारी है जिनके कारण अंग्रेज भारत में अपना शासन स्थापित कर पाए। देश में एकता का अभाव होने के कारण केवल शासकों में एकता न होना ही नहीं था। लोगों को एकता के सूत्र में बांधने वाली कई बातों का, जैसे एक रूप आर्थिक जीवन का, अभाव था। एकता के अभाव के और भी कई कारण थे, जैसे, जातिप्रथा। मगर समाज में एकता का अभाव होने का मतलब यह नहीं था कि लोग एक दूसरे से लड़ते रहते थे या एक दूसरे से नफरत करते थे। इसके विपरीत, एक संयुक्त संस्कृत का विकास वस्तुतः एकता का ही द्योतक था। धार्मिक विश्वासों, रीति-रिवाजों, भाषाओं तथा कलाओं में तब भी विविधता थी और आज भी है। इन्होंने एक-दूसरे को निरंतर प्रभावित किया है। आदान-प्रदान की यह प्रक्रिया भारतीय जनता की संस्कृति की एक महत्वपूर्ण विशेषता रही है। इसने विभिन्न जन-समुदायों तथा धर्मों के बीच पारस्परिक सहिष्णुता तथा आदरभाव को जन्म दिया है। शासकों के बीच हुए संघर्षो और युद्ध ने आम जनता के बीच संघर्षों को जन्म नहीं दिया है। जब हम एकता के अभाव की बात करते हैं तो उसका मतलब है इस अनुभूति का अभाव कि भारत के सभी निवासियों के समान लक्ष्य तथा समान सरोकार है। जिनके कारण वे दूसरे लोगों से भिन्न है।
तुम पहले पढ़ चुके हो कि यूरोप में राष्ट्रवाद का उदय और राष्ट्रों का निर्माण किस प्रकार हुआ था। जो देश कई राज्यों में बंटे हुए थे उन्होंने अपने एकीकरण के प्रयास किए और जो विदेशी शासन में थे उन्होंने स्वतंत्र होने के लिए संघर्ष किया। कई देशों में राजाओं ने मध्यवर्ग का व्यापारीयों, उत्पादकों, तथा दूसरों का सहयोग प्राप्त करके अपने शासन को दृढ़ बनाया। सामंती सरदारों की शक्ति को नष्ट करके उन्होंने अपने देश में एकता स्थापित की। कुछ देशों में कुछ समय बाद जनता ने जनतांत्रिक सरकार स्थापित करने के लिए संघर्ष किया। उन्होंने मांग की कि उनके देश की सरकार उनके द्वारा चुनी जानी चाहिए और यह केवल उनके हितों की रक्षक होनी चाहिए। फलतः कई देशों ने राजाओं की शक्ति को नष्ट कर दिया गया। फ्रांस में, 1789 ई० की क्रांति के बाद, राजतंत्र को खत्म कर दिया गया और फ्रांस के राजा का सिर काट दिया गया। इस प्रकार राष्ट्रवाद और जनतंत्र एक-दूसरे से मिल गए। जो राष्ट्र छोटी-छोटी राजनीतिक इकाइयों में बंटे हुए थे या जिन पर विदेशियों का शासन था उनकी जनता ने राष्ट्रीय एकता, स्वाधीनता तथा जनतंत्र के लिए आंदोलन खड़े किए। मगर जब यूरोप में ये घटनाएं घट रही थी तब भारत विदेशी शासन का शिकार हुआ। ब्रिटिश शासन ने भारत की पुरानी सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था को और राजनीतिक तंत्र को नष्ट कर डाला। इसलिए भारत में राष्ट्रवाद का उदय ब्रिटिश शासन द्वारा पैदा की गई परिस्थितियों में हुआ।
भारतीय जनता द्वारा ब्रिटिश शासन का विरोध
तुमने पहले देखा है कि अंग्रेजों ने अपने ही राजनीतिक और आर्थिक हितों की वृद्धि के लिए भारत पर शासन किया। ब्रिटिश शासकों ने भारत का शोषण प्रशासन के एक क्षेत्र के रूप में इस्तेमाल किया। भारतीय जनता के हितों में और अंग्रेजों के भारत पर शासन करने के उद्देश्यों में कोई साम्य नहीं था। मगर भारतीयों में कुछ ऐसे वर्ग भी थे जिनकी अंग्रेजों ने अपना शासन मजबूत बनाने के प्रयोजन से, मदद की। इन चंद वर्गों को छोड़कर शेष समूची भारतीय जनता के हित भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान भारत के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन में जो परिवर्तन आए उन्होंने जनता को एकजुट होने तथा ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक आंदोलन में संगठित होने में मदद दी। ये परिवर्तन अंग्रेजों द्वारा अपने हित-साधन के लिए अपनाई गई नीतियों के परिणाम थे। मगर इनके परिणामस्वरुप ही जनता ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एकजुट हुई। ब्रिटिश शासन ने स्वयं अपने विनाश के लिए परिस्थितियां पैदा की।
राजनीतिक और प्रशासनिक एकता
ब्रिटिश शासन के अंतर्गत लगभग समूचे देश का एक राजनीतिक इकाई के रूप में एकीकरण हुआ। भारत के जो क्षेत्र सीधे ब्रिटिश शासन के अंतर्गत थे उनके अलावा भारतीय शासकों के अंतर्गत भी राज्य थे जिन पर ब्रिटिश शासन का नियंत्रण था वे पूर्णतः ब्रिटिश शासन की कृपा पर आश्रित थे और केवल नाममात्र के लिए स्वतंत्र थे। वे दूसरे देशों के साथ संबंध स्थापित नहीं कर सकते थे। दूसरे देशों से उनकी "रक्षा" की जिम्मेदारी पूर्णतः ब्रिटिश शासन के हाथों में थी इन राज्यों की जनता ब्रिटिश प्रजा नहीं मानी जाती थी। इनमें से कुछ राज्यों का निर्णय खुद अंग्रेजों ने किया था। भारत की राजनीतिक एकता का एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी, यद्यपि यह विदेशी शासन के अंतर्गत और उनके हित साधन के लिए प्राप्त की गई थी। इस एकता को ब्रिटिश-शासित प्रदेशों में स्थापित प्रशासन के एकरूप व्यवस्था ने अधिक मजबूत बनाया। एकरूप कानून बनाए गए और कम से कम सिद्धांत रूप में, उन्हें हर व्यक्ति पर समान रूप से लागू किया गया। चूंकि कानून की नजर में सबको समान अधिकार प्राप्त थे, इसलिए कानून के सामने समानता एकता की एक अंग बन गई। समूचे देश में प्रशासन की शासन व्यवस्था ने और एकरूप कानून ने देश के विभिन्न भागों में निवास करने वाले लोगों में समानता एवं एकता की भावना को बढ़ाया।
आर्थिक परिवर्तन
तुम पहले पढ़ चुके हो कि ब्रिटिश शासन के कारण भारत के आर्थिक जीवन में किस प्रकार के परिवर्तन हुए। इन परिवर्तनों के कारण देश के विभिन्न भाग एक-दूसरे पर अधिकाधिक आश्रित हो गए और एक समान आर्थिक जीवन का विकास हुआ। परिवहन के साधनों में विकास हुआ, विशेषकर रेल मार्गों के निर्माण के कारण, तो माल को और लोगों को पहले की अपेक्षा अधिक आसानी तथा अधिक तेजी से देश के एक भाग से दूसरे भाग तक ले जाना संभव हुआ। इनमें से कई परिवर्तन अंग्रेजों ने जनता पर थोपे थे, इसलिए उसे काफी कष्ट झेलने पड़े। मगर अन्योन्याश्रय में हुई इस वृद्धि ने लोगों को एकजुट करने और उन्हें समान आकांक्षाएं पैदा करने में महत्व की भूमिका अदा की।
आर्थिक क्षेत्र में हुआ एक और महत्वपूर्ण विकास था - भारत में आधुनिक उद्योग की स्थापना। तुम पहले पढ़ चुके हो कि अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों के कारण भारतीय दस्तकारी का विनाश हुआ। भारत ब्रिटिश उत्पादकों के लिए बाजार और ब्रिटिश उद्योगों के लिए कच्चे माल का स्रोत बन गया। ब्रिटिश सरकार द्वारा अपनाई गई नीति के कारण भारत में उद्योगों का विकास बहुत धीमी रफ्तार से हुआ। यह विकास भी एकांगी था। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, मशीन निर्माण जैसे कुछ बुनियादी उद्योगों की एकदम उपेक्षा हुई। जो चंद उद्योग स्थापित हुए वे देश के कुछ ही क्षेत्रों में सीमित थे। इन सब न्यूनताओं के बावजूद आधुनिक उद्योग की शुरुआत होने से आर्थिक क्षेत्र में अत्यंत महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए।
आधुनिक व्यापार और उद्योग एकीकरण की प्रबल शक्तियां हैं। ये देश के विभिन्न भागों को एक-दूसरे के नजदीक लाती हैं। यदि कोई उद्योग देश के किसी अलग-थलग भाग में भी हो, तो भी उसके लिए कच्चे माल का उत्पादन काफी दूर के क्षेत्रों में हुआ हो सकता है। उसी प्रकार, किसी कारखाने में उत्पादित चीजें केवल उसी क्षेत्र के लोगों द्वारा उपयोग में नहीं लाई जाती। इस प्रकार देश के विभिन्न क्षेत्र एक-दूसरे पर आश्रित हो जाते हैं और एक-दूसरे के नजदीक आते हैं। इस तरह की अन्योन्याश्रयता से लोगों के बीच एकता बढ़ती है। आधुनिक उद्योग बड़े शहरों को जन्म देते हैं जहां बड़ी संख्या में लोग साथ-साथ काम करते हैं। उद्योगों में काम करने वाले लोग देश के विभिन्न क्षेत्रों के और विभिन्न जातियों तथा संप्रदायों के होते हैं। अतः ऐसी परिस्थितियां पैदा होती है कि उनमें जातीय, सांप्रदायिक तथा क्षेत्रीय महत्व मिटने लग जाता है। कारखानों में काम करने वाले लोगों में भाईचारे की भावना पैदा होती है। इससे वे एकजुट होते हैं और खास लोगों के लिए तथा देश के अन्य भागों के लोगों के साथ मिलकर व्यापक मांगों के लिए आंदोलन शुरू कर सकते हैं। शहर राजनीतिक आंदोलन के जन्मक्षेत्र बन जाते हैं। इन सब कारणों से उद्योगों का विकास लोगों को एक राष्ट्र में आबद्ध करने की महान भूमिका अदा करता है। उन्नसवीं सदी के उत्तरार्ध में भारत में शुरू हुए आधुनिक उद्योग के विकास में राष्ट्रीय चेतना को उभारने में मदद दी।
आर्थिक जीवन में हुए परिवर्तनों के कारण समाज में जो नए वर्ग तथा समुदाय पैदा हुए उनके बारे में तुम पहले पढ़ चुके हो। उद्योगों का विकास होने लगा तो समाज में दो महत्वपूर्ण वर्गों का उदय हुआ - पूंजीपति वर्ग और औद्योगिक मजदूरों का वर्ग। इन दोनों वर्गों का अधिक विकास होने के लिए देश का औद्योगिकरण होना महत्वपूर्ण था। चूंकि ब्रिटिश शासन भारत के औद्योगिक विकास में बाधक बना हुआ था इसलिए वह इन दोनों वर्गों का भी विरोधी था, यद्यपि इन दोनों वर्गों के हित कई मामलों में एक से नहीं थे। इनमें से प्रत्येक वर्ग के अपने एक से सार्वदेशिक हित भी थे। उदाहरण के लिए, सारे देश के सूती कपड़ा कारखानों के मालिक अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों के कारण समान रूप से प्रभावित हुए थे और उनकी एक सी समस्याएं तथा एक से उद्देश्य थे। नए शिक्षित मध्यवर्ग के भी एक से हित थे और ब्रिटिश शासन के विरुद्ध उनकी एक ही शिकायतें थी। राष्ट्रीय चेतना - यह चेतना कि वे एक ही राष्ट्र के नागरिक हैं, सर्वप्रथम इन वर्गों तथा समुदायों में पैदा हुई और उन्होंने भी भारतीय जनता की मांगों तथा आकांक्षाओं को उठाने की अग्रणी भूमिका अदा की।
आधुनिक शिक्षा का प्रभाव
आधुनिक शिक्षा के प्रसार ने राष्ट्रीय चेतना को उभारने में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। अंग्रेजी शिक्षा अंग्रेजों ने जिस उद्देश्य से शुरू की थी वह सीमित था। उसके प्रशासकों के निम्न स्तरों में काम करने के लिए कुछ अंग्रेजी शिक्षक भारतीयों की जरूरत थी। ब्रिटिश शासक सोचते थे कि अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्राप्त करने वाले भारतीय उनके शासन के समर्थक बनेंगे। मगर राममोहन राय जैसे भारतीय नेताओं ने अंग्रेजी शिक्षा का स्वागत भिन्न प्रयोजन से किया था। उनका विचार था कि अंग्रेजी शिक्षा से भारत के लोगों को दुनिया के उन्नत ज्ञान की जानकारी मिलेगी। इसलिए स्वयं भारतीय नेताओं ने अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार के प्रयास किए।
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में भारत में शिक्षा का काफी प्रसार हुआ। शिक्षित भारतीयों को यूरोपीय भाषाओं के साहित्य की और दुनिया के अन्य भागों की घटनाओं की जानकारी मिली। अठारहवीं और उन्नीसवीं सदियों में पश्चिम में अनेक क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। तुम अमरीका और फ्रांसीसी क्रांतियों के बारे में पढ़ चुके हो। पश्चिम के महान विचारकों ने जनतंत्र, समानता तथा राष्ट्रवाद के समर्थन में ग्रंथ लिखे। अमरीकी स्वातंत्र्य की घोषणा और मानव तथा नागरिक के अधिकारों की फ्रांसीसी घोषणा ने नए क्रांतिकारी विचारों को बल प्रदान किया। उन्होंने बलपूर्वक कहा कि किसी भी देश के वास्तविक शासन वहां के लोग हैं और लोगों को यह अधिकार है कि वह ऐसी सरकार को उखाड़ फेंकें जो उनकी आकांक्षाओं के अनुरूप काम नहीं करती और उनका उत्पीड़न करती है।
ब्रिटिश शासकों ने स्कूलों और कालेजों में उनकी सरकार के प्रति वफादारी के विचार फैलाने के प्रयास किए। मगर शिक्षा का प्रभाव एकदम उल्टा पड़ा। शिक्षा ने भारतीयों के लिए आधुनिक ज्ञान के दरवाजे खोल दिए और उनमें राष्ट्रवाद तथा जनतंत्र के विचार पनपने लगे। दूसरे देशों के क्रांतिकारी और राष्ट्रवादी आंदोलन उनके लिए प्रेरणा के स्त्रोत बन गए।
सारे देश के शिक्षित भारतीयों का देश की समस्याओं के बारे में एक समान दृष्टिकोण बनने लगा। जनतंत्रवादी और राष्ट्रवादी विचारों से प्रभावित होने पर वे देश की समस्याओं के बारे में अपने-अपने वर्गों या बिरादरियों की दृष्टि से नहीं, बल्कि समूचे देश की दृष्टि से सोचने लगे। समान दृष्टिकोण का विकास होने लगा तो वे एक-दूसरे के नजदीक आकर भारतीय समाज के सम्मुख उपस्थित हुई समस्याओं के बारे में विचार-विमर्श करने लगे। चूंकि उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी थी, इसलिए सभी शिक्षित भारतीय अंग्रेजी भाषा जानते थे। इससे देश के विभिन्न भागों को एक-दूसरे से संपर्क स्थापित करने में आसानी हुई।
पिछले अध्याय में तुमने धार्मिक व सामाजिक सुधार के आंदोलनों के बारे में और सांस्कृतिक जीवन के विविध क्षेत्रों में हुए विकास के बारे में पढ़ा है। उन्होंने भारत की समस्याओं को अधिकाधिक महसूस कराने की और जनता को एकजुट करने की महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। ये आंदोलन विभिन्न प्रदेशों की सीमाएं लांग कर और कभी-कभी विभिन्न बिरादरियों की भी सीमाएं लांघकर, सारे देश में फैल गए। सामाजिक कुरीतियों तथा सामाजिक असमानता को दूर करने के लिए किए गए प्रयासों से और अंधविश्वासों तथा संकुचित दृष्टिकोण की निंदा किए जाने से भी लोगों को अपनी राजनीतिक दुर्दशा को पहचानने में मदद मिली। भारत के अतीत की खोज ने और विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य ने और प्रेस ने लोगों के स्वाभिमान तथा राष्ट्रीय चेतना की जो भावना जगाई उसकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं।
शिक्षित भारतीयों ने सारे देश में राष्ट्रीयता के विचार फैलाने में प्रमुख भूमिका अदा की उन्होंने यूरोपीय भाषाओं के ग्रंथों का भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया और उन्होंने स्वयं ग्रंथ लिखे तथा पत्र-पत्रिकाएं निकाली। उन्होंने भारत की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं पर रोशनी डाली। इससे देश के अधिकाधिक लोगों को भारतीय समाज की समस्याओं की तथा भारत पर ब्रिटिश शासन के प्रभाव की जानकारी मिली। उन्होंने राजनीतिक आर्थिक तथा सामाजिक मामलों पर अखिल भारतीय स्तर पर लोगों को संगठित करने की भी आवश्यकता महसूस की।
ब्रिटिश शासन के प्रति असंतोष
पहले बताया जा चुका है कि भारतीय जनता के हितों में और ब्रिटिश शासकों के हितों में बुनियादी विरोधी था। तुम पहले पढ़ चुके हो कि भारत में ब्रिटिश शासन की आर्थिक नीतियों के कारण किसान, शिल्पकार और कारीगर बर्बाद हो गए थे। भारतीय जनता के घोर दरिद्रय का अंदाजा इसी से लग जाता है कि उन्नसवीं सदी के उत्तरार्ध में बार-बार पड़े अकालों में तीन करोड़ लोगों की मौत हुई थी। भारत के आर्थिक पिछड़ेपन के लिए भी ब्रिटिश शासन की आर्थिक नीतियां ही जिम्मेदार थी। ब्रिटिश शासन भारतीयों के हितों का विरोधी है, यह अनुभव किए जाने पर ही भारतीय जनता में राष्ट्रीय चेतना का उदय हुआ। जो शिक्षित भारतीय आरंभ में सोचते थे कि ब्रिटिश शासन भारत के औद्योगिक विकास में और आधुनिकरण में योग देगा उन्होंने अंततः अनुभव किया कि उनकी आशाएं व्यर्थ थी।
भारत में ब्रिटिश शासन को चलाने में जो भारी खर्च होता था उसे भारतीय जनता वहन करती थी। भारत की ब्रिटिश सरकार ने दूसरे देशों के साथ जो लड़ाइयां लड़ी उनमें भारतीय जनता के शोषण में वृद्धि हुई। भारतीय जनता का दमन करने के लिए और जिन देशों से भारतीय जनता की कोई दुश्मनी नहीं थी उनसे लड़ाई में लड़ने के लिए भारत के ब्रिटिश शासन ने जो विशाल सेना खड़ी की थी उसका खर्च भारतीय जनता से वसूल किए गए करों से पूरा होता था। एक ओर भारतीय साधनों का ऐसे कामों में खर्च हो रहा था जिनका भारतीय जनता के लिए कोई लाभ नहीं था, तो दूसरी तरफ सिंचाई, शिक्षा आदि लोक-कल्याण के कामों की उपेक्षा हुई। इसलिए सेना आदि का खर्च कम करने और जनता पर लादे गए करों को कम करने की मांग उठने लगी।
भारत में ब्रिटिश शासन को चलाने में जो भारी खर्च होता था उसे भारतीय जनता वहन करती थी। भारत की ब्रिटिश सरकार ने दूसरे देशों के साथ जो लड़ाइयां लड़ी उनमें भारतीय जनता के शोषण में वृद्धि हुई। भारतीय जनता का दमन करने के लिए और जिन देशों से भारतीय जनता की कोई दुश्मनी नहीं थी उनसे लड़ाई में लड़ने के लिए भारत के ब्रिटिश शासन ने जो विशाल सेना खड़ी की थी उसका खर्च भारतीय जनता से वसूल किए गए करों से पूरा होता था। एक ओर भारतीय साधनों का ऐसे कामों में खर्च हो रहा था जिनका भारतीय जनता के लिए कोई लाभ नहीं था, तो दूसरी तरफ सिंचाई, शिक्षा आदि लोक-कल्याण के कामों की उपेक्षा हुई। इसलिए सेना आदि का खर्च कम करने और जनता पर लादे गए करों को कम करने की मांग उठने लगी।
आज यह कल्पना करना कठिन है कि ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीयों को कितना अपमान सहना पड़ा। यह एक आम बात है कि सभी साम्राज्यवादी शासित लोगों से जातीय नफरत करते हैं। शासित देश के शासक वर्ग में जातीय श्रेष्ठता की भावना पनपती है। वे सोचने लगते हैं कि निकृष्ट जातियों पर शासन करने के लिए ईश्वर ने उन्हें खासतौर से पैदा किया है। शासित देश के लोग को वे अधम समझते हैं। भारत के ब्रिटिश अफसरों की भारतीयों से जातीय नफरत एक आम बात थी। यद्यपि ऐसे अनेक ब्रिटिश व्यक्ति थे, भारत में और ब्रिटेन में भी, जो भारतीय जनता के प्रति सहानुभूति रखते थे और उनकी सहायता करते थे, मगर ब्रिटिश शासन ने भारतीय जनता के प्रति जातीय घृणा और जातीय घमंड की भावना को ही बढ़ावा दिया। उन भारतीयों को भी अपमानित किया गया जो धनी थे और न्यायाधीश जैसे उच्च पदों पर आसीन थे। आम लोगों को पीटा गया और यातनाएं दी गई। यदि किसी अंग्रेज ने अपने भारती नौकर को पीट-पीटकर मार डाला हो तो अंग्रेज जज मामूली जुर्माना अदा करने का दंड देकर मुफ्त कर देता था। ऐसे भी स्थान थे जहां भारतीयों के लिए प्रवेश मना था। रेलगाड़ी में गौरांगों के लिए सुरक्षित कंपार्टमेंट होते थे। ऐसे सुरक्षित पार्क थे जहां केवल यूरोपवासी ही जा सकते थे। राष्ट्रीय चेतना में उभार आने लगा तो ऐसे अपमानों के खिलाफ रोष बढ़ने लगा।
राष्ट्रीयता का उत्थान होने लगा तो सोचने, भाषण देने और अपने को व्यक्त करने जैसी बुनियादी आजादियों पर भी पाबंदियां लगनी शुरू हो गई। समाचारपत्रों पर प्रतिबंध लगाए गए। पुस्तकों पर भी प्रतिबंध लगाए गए। उदाहरण के लिए, इतालवी एकीकरण के नेता मज्ज़िनी की जीवनी पर रोक लगा दी गई थी। यहां तक कि अंग्रेजों द्वारा लिखी गई कुछ पुस्तकों पर भी रोक लगा दी गई थी। मगर इस नीति के बावजूद भारतीय जनता में पनप रही राष्ट्रीय चेतना राष्ट्रीय संगठन के रूप में प्रकट होने लगी। ये संगठन विशिष्ट शिकायतों और मांगों को व्यक्त करने के लिए शुरू किए गए थे। धीरे-धीरे ये संगठन विदेशी शासन से पूर्ण आजादी प्राप्त करने के लिए एक संयुक्त देशव्यापी आंदोलन में बदल गए।
राजनीतिक सभाओं की स्थापना
उन्नीसवीं सदी के मध्यकाल के आसपास भारतीयों की राजनीतिक सभाएं स्थापित होने लगी। इनकी स्थापना कलकत्ता, बंबई तथा मद्रास जैसे प्रांतीय नगरों में हुई। 1851 ई० में कलकत्ता में ब्रिटिश "इंडियन एसोसिएशन" की स्थापना हुई। इसने अन्य बातों के अलावा देश के प्रशासन में भारतीयों को भागीदार बनाने की मांग उठाई। भारतीय जनता के कल्याणार्थ भारत तथा ब्रिटेन के ब्रिटिश अधिकारियों के पास अभिवेदनों को भेजने के लिए 1852 ई० में "बंबई एसोसिएशन" की स्थापना हुई।
ऐसे ही उद्देश्य के लिए 1852 ई० में "मद्रास नेटिव एसोसिएशन" की स्थापना हुई। उन्होंने इस बात की भी मांग उठाई कि भारतीयों को प्रशासन में उच्च पद मिलने चाहिए। इन सभी एसोसिएशनों (सभाओं) के सदस्य अधिकतर भारतीय समाज के उच्च वर्गों के लोग थे। इनकी सीमित गतिविधियां थी - प्रशासन में सुधार करने के लिए, सरकार के संचालन में भारतीयों का भागीदार बनाने के लिए, करों में कमी करने के लिए और भारतीयों के प्रति भेदभाव की नीति खत्म करने के लिए सरकार और ब्रिटिश पार्लियामेंट के पास याचिकाएं भेजना। यद्यपि ये सभाएं मुख्यतः अपने-अपने प्रांतों में ही काम करती थी, मगर इनके घोषित उद्देश्य भारतीय जनता के उद्देश्य थे, न कि देश के किसी एक प्रदेश या समुदाय के उद्देश्य थे। बाद में एसे कई संगठन बने जो उपर्युक्त सभाओं की अपेक्षा जनता का ज्यादा प्रतिनिधित्व करते थे। ऐसे कुछ संगठन थे - 1870 ई० में स्थापित पुणे सार्वजनिक सभा, 1876 ई० में स्थापित इंडियन एसोसिएशन, 1884 ई० में स्थापित मद्रास महाजन सभा और 1850 ई० में स्थापित बांबे प्रेसिडेंट एसोसिएशन। ये संगठन सरकार की आलोचना करने के पहले के संगठनों की अपेक्षा अधिक प्रखर और भारतीयों के प्रति सरकार द्वारा अपनाई गई भेदभाव और दमन की नीतियों के खिलाफ सभाएं आयोजित करने में नहीं हिचकिचाते थे। मगर इन संगठनों की गतिविधियां भी अपने-अपने प्रदेशों तक ही सीमित थी, यद्यपि इनकी मांगे अखिल भारतीय स्वरूप की थी।
फिर कुछ घटनाओं के कारण 1870 ई० और 1880 ई० के दशकों में ब्रिटिश शासन के खिलाफ असंतोष और अधिक बढ़ गया। सरकार ने भारतीयों की मांगों को पूरा करने के प्रयास करने की बजाय ने दमनकारी कदम उठाए। 1878 ई० में 'शस्त्र कानून' बना जिसने भारतीयों के शस्त्र रखने पर प्रतिबंध लगा दिया। उसी साल भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों पर कड़े प्रतिबंध लगाए गए। 1883 ई० में सरकार ने भारत में रहने वाले अंग्रेजों और अन्य यूरोप वासियों के जातीय अहंकार को चोट पहुंचाने वाले एक ऐसे विधेयक (बिल) को वापस ले लिया जो उसने स्वयं पेश किया था। 'इल्बर्ट बिल' नामक इस विधेयक के अंतर्गत भारत में रहने वाले किसी अंग्रेजी या यूरोपवासी पर भारतीय न्यायाधीश की अदालत में मुकदमा चलाया जा सकता था। भारत में अंग्रेज और भारतीय न्यायाधीशों के बीच समानता स्थापित करने के उद्देश्य से ही यह विधेयक पेश किया गया था। मगर भारत में रहने वाले अंग्रेजों और यूरोपवासियों के विरोध के कारण इस विधेयक को सरकार ने वापस ले लिया।
एक लंबे अरसे से यह आवश्यकता महसूस की जा रही थी कि भारतीय अभिमत का प्रतिनिधित्व करने वाला एक अखिल भारतीय संगठन होना चाहिए। सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने कलकत्ता में इंडियन एसोसिएशन की स्थापना करके इस दिशा में कुछ कदम भी उठाए थे। सुरेंद्रनाथ बनर्जी इंडियन सिविल सर्विस में चुने गए थे मगर निहायत तुच्छ कारणों से उन्हें बर्खास्त कर दिया गया था। वे पहले भारतीय नेता थे जिन्होंने दिसंबर 1883 ई० में कोलकाता में आयोजित अखिल भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन में देश के सभी भागों के लोगों को एकत्र किया। उन्होंने दिसंबर 1885 ई० में कलकत्ता में एक और राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया। उसी बीच कुछ अन्य नेताओं ने एक अन्य अखिल भारतीय सम्मेलन बुलाया जो मुंबई में दिसंबर 1885 ई० में आयोजित हुआ। यही थी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जो भारतीय जनता की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाला संगठन बना और जिसने भारतीय जनता के आजादी के संघर्ष का नेतृत्व किया।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना
देश के सभी प्रांतों से आए 72 प्रतिनिधियों का मुंबई में 1885 ई० में 28 से 30 दिसंबर तक सम्मेलन हुआ। उसी के साथ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। कांग्रेस की स्थापना में भारत के एक अवकाश प्राप्त ब्रिटिश अफसर एलान आक्टेवियन ह्यूम ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। उन्होंने देशभर के चोटी के भारतीय नेताओं से संपर्क स्थापित किया और कांग्रेस की स्थापना में उनका सहयोग प्राप्त किया। मुंबई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज में आयोजित कॉलेज के प्रथम अधिवेशन में सम्मिलित हुए कुछ प्रमुख भारतीय नेता थे - दादा भाई नौरोजी, काशीनाथ त्रयंबकं तेलंग, फिरोजशाह मेहता, एस. सुब्रमण्यम अय्यर, आनंद चारलू, दिनशा एदलजी वाचा, गोपाल गणेश आगरकर, जी. सुब्रमण्यम अय्यर, एम. जी. चंदावरकर , एम. वीराराघवचारियर, रहमतुल्ला एम. सयानी और उमेशचंद्र बोनर्जी। जो एक महत्वपूर्ण नेता अनुपस्थित थे वे थे सुरेंद्रनाथ बनर्जी। उन्होंने उसी दौरान कलकत्ता में एक राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया था।
भारत में स्थापित प्रथम राष्ट्रीय राजनीतिक संगठन के महत्व को जल्दी ही महसूस किया गया। अधिवेशन के समाप्त होने के मुश्किल से एक सप्ताह बाद कलकत्ता में समाचार पत्र द इंडियन मिरर ने लिखा : मुंबई में आयोजित प्रथम राष्ट्रीय कांग्रेस भारत में ब्रिटिश शासन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय जोड़ती है। जिस दिन इस कांग्रेस का उद्घाटन हुआ वह, यानी 28 दिसंबर, 1885 ई० का दिन, देशी जातियों की राष्ट्रीय प्रगति के इतिहास में एक स्मरणीय दिन होगा। यह कांग्रेस हमारे देश के भविष्य की संसद का केंद्रबिंदु बनेगी और हमारे देशवासियों के कल्पनातीत कल्याण की श्रेयभायी बनेगी। यदि हमसे पूछा जाए कि हमारे जीवन का सबसे गौरवशाली दिन कौन-सा है तो हम निसंकोच कह सकते हैं कि यह वह दिन है जब पहली बार मद्रास, मुंबई, पश्चिमोत्तर प्रांत तथा पंजाब के हमारे सभी भाई इस राष्ट्रीय कांग्रेस को सफल बनाने के लिए गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज की छत के नीचे एक मंच पर एकत्रित हुए। हम उम्मीद रखते हैं कि कांग्रेस की स्थिति से आगे भविष्य में राष्ट्रीय प्रगति का अधिक तेजी से विकास होगा।
कांग्रेस के प्रथम अध्यक्ष उमेश चंद्र बनर्जी थे। उनके द्वारा घोषित कांग्रेस के उद्देश्य थे - देश के विभिन्न भागों के नेताओं को एकजुट करना, जाति, धर्म तथा क्षेत्र से संबंधित सभी संभव विद्वेषों को खत्म करना, देश के सम्मुख उपस्थित प्रमुख समस्याओं पर विचार विमर्श करना और निर्णय करना कि भारतीय नेताओं को कौन से कदम उठाने चाहिए। कांग्रेस में पास हुए नौ प्रस्तावों में ब्रिटिश नीति में परिवर्तन करने और प्रशासन में सुधार करने की मांग की गई।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस : आरंभिक दौर
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बंबई में आयोजित पहले अधिवेशन के बाद हर साल दिसंबर में और प्रतिवर्ष प्रायः भिन्न-भिन्न स्थान पर कांग्रेस के अधिवेशन आयोजित होते रहे। कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन 1886 ई० में कलकत्ता में हुआ जिसमें करीब 450 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। सुरेंद्रनाथ बनर्जी और इंडियन एसोसिएशन के अन्य नेता इस बार कांग्रेस के अधिवेशन में शरीक हुए। इस तथा बाद के अधिवेशन में सम्मिलित होने वाले प्रतिनिधि स्थानीय स्तर पर आयोजित सम्मेलनों में चुने जाने लगे। कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन को भारत की प्रथम राष्ट्रीय सभा और हमारे देश की भविष्य की संसद का केंद्र कहा गया था। कालांतर में यह सचमुच ही देश की जनता का प्रतिनिधि संगठन बन गया।
कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन के अध्यक्ष दादा भाई नौरोजी थे। सुधार आंदोलनों के संदर्भ में हम उनकी चर्चा कर चुके हैं। वे 20 से भी अधिक साल तक कांग्रेस के एक अग्रणी नेता थे। इंग्लैंड में अपने निवासकाल में उन्होंने भारतीय जनता की मांगों के लिए ब्रिटिश नेताओं तथा वहां की जनता का समर्थन प्राप्त करने के उद्देश्य से एक संगठन बनाया था। वे तीन बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने। वे ब्रिटिश पार्लियामेंट के भी सदस्य चुने गए और वहां उन्होंने भारत के हितों के लिए आवाज उठाई। ऐसे आरंभिक नेता थे जिनका मत था कि भारतीय जनता का दारिद्रय अंग्रेजों द्वारा भारत के शोषण और भारत के धन को इंग्लैंड ले जाने का परिणाम है। उन्होंने भारत के पितामह के रूप में जाना जाता है।
आरंभ से ही कांग्रेस ने धार्मिक तथा अन्य भेदभाव से रहित जन-एकता पर जोर दिया। इसके अधिवेशन को हर साल विभिन्न स्थलों पर आयोजित करने का भी यही उद्देश्य था। 1887 ई० में मद्रास में आयोजित कांग्रेस के अध्यक्षपद से इसी बात पर बल देते हुए बदरुद्दीन तैयबजी ने कहा था : "यह कांग्रेस भारत के किसी एक समुदाय या एक बिरादरी या भारत के एक भाग के प्रतिनिधियों की नहीं है बल्कि भारत के विभिन्न समुदायों की है।" कांग्रेस के आरंभिक दौर में कुछ अंग्रेज़ भी इसके नेता रहे। 1888 ई० में इलाहाबाद में आयोजित अधिवेशन में करीब 1300 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। एक अंग्रेज जॉर्ज यूले इस अधिवेशन के अध्यक्ष थे। कांग्रेस के अध्यक्ष बने अन्य अंग्रेज थे - विलियम वेडरबर्न, अल्फ्रेड वेब और हेनरी काटन। 1885 ई० से 1905 ई० तक की अवधि में कांग्रेस के कुछ अन्य अध्यक्ष थे - फिरोजशाह मेहता, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, रहमतुल्ला सयानी, आनंद चारलू, शंकरण नायर, रमेश चंद्र दत्त और गोपाल कृष्ण गोखले। इस काल में कांग्रेस के अधिवेशन में महिलाओं ने भी भाग लेना शुरू किया। देश के राजनीतिक जीवन में कांग्रेस के अधिवेशनों का महत्व दिनोंदिन बढ़ता गया।
कांग्रेस के आरंभिक 20 साल (1885-1905) आमतौर पर "नरम" दौर के नाम से जाने जाते हैं। इस काल में कांग्रेस ने धीरे-धीरे सुधार लागू करके और सरकार तथा प्रशासन में भारतीयों को अधिकाधिक स्थान देने की मांग उठाई। इसने विधानसभाओं को ज्यादा अधिकार देने और इन सभाओं के सदस्यों को निर्वाचित करके विधानसभाओं को प्रतिनिधि संस्थाएं बनाने की मांग उठाई। कांग्रेस ने यह मांग भी उठाई कि जिन प्रांतों में विधानसभाएं नहीं है वहां इनकी स्थापना की जाए। इसने मांग की कि भारतीयों को उच्च सरकारी पदों पर भर्ती किया जाए और सिविल सर्विस की परीक्षाएं भारत में भी हो ताकि योग्य भारतीय इन सेवाओं के लिए आयोजित प्रतियोगिताओं में भाग ले सकें। इसने यह मांग भी उठाई की भू-राजस्व में कमी की जाए और भारतीय उद्योगों के विकास के लिए सरकार की आर्थिक नीतियों में परिवर्तन किया जाए। इसने प्रशासन तथा सेना पर होने वाले भारी खर्च तथा भारतीय धन के विदेश में जाने का विरोध किया। अन्य प्रमुख मांगे थे - भाषण तथा बोलने की आजादी, लोक-कल्याण की योजनाओं का विस्तार और शिक्षा का प्रसार। कांग्रेस ने मांग की कि सरकार को भारतीयों के कल्याण का काम करना चाहिए और ब्रिटेन के हितों के लिए भारत के शोषण को बंद करना चाहिए।
ये सभी नरम मांगे थी। इस दौर के कांग्रेस के नेता भारतीय समाज के उच्च वर्गों के थे। वे अंग्रेजी-शिक्षित थे और सोचते थे कि उनकी जायज मांगे सरकार स्वीकार कर लेगी। उनका दृष्टिकोण ब्रिटिश विरोधी नहीं था। उनका विश्वास था कि उनकी न्यायोचित मांगों पर सोचने और उन्हें स्वीकार करने के लिए सरकार विवश होगी। इसके लिए उन्होंने प्रस्ताव पास किए और प्रतिवेदन तैयार करके विचारार्थ सरकार के पास भेजें। इन मांगों को इंग्लैंड में प्रचारित किया गया। भारतीय नेताओं ने इंग्लैंड के उन समाजसेवियों का सहयोग प्राप्त करने के प्रयास किए जो भारत से सहानुभूति रखते थे। उन्हें आशा थी कि अनुनय के इस तरीकों से भारतीय जनता धीरे-धीरे अधिकार प्राप्त कर लेगी जो ब्रिटिश जनता को प्राप्त है और अंततः भारत स्वतंत्र हो जाएगा।
कांग्रेश के प्रति ब्रिटिश रवैया
ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस की मांगों पर कोई ध्यान नहीं दिया। आरंभ में ब्रिटिश शासकों ने कांग्रेस के प्रति कुछ सहानुभूति दर्शाए थी और कुछ ब्रिटिश अधिकारी कांग्रेस के अधिवेशनों में भाग भी लेते थे मगर जल्दी ही उन्होंने विरोधी रवैया अपनाया। अफसरों के कांग्रेस अधिवेशनों में भाग लेने पर रोक लगा दी गई और कांग्रेस को एक राजद्रोही संगठन समझा जाने लगा। कांग्रेस का प्रभाव बढ़ता गया तो ब्रिटिश प्रशासन, वायसराय भी, कांग्रेस को अल्पसंख्यकों का एक संगठन कह कर प्रचारित करने लगा। ये कहने लगे कि भारत एक राष्ट्र नहीं बल्कि अनेक राष्ट्रों का समूह है और इनके कोई सामान हित नहीं है। उन्होंने भारतीय जनता को धर्म के आधार पर बांटना शुरू किया। उदाहरण के लिए, वे कहने लगे कि हिंदू और मुसलमानों के हित अलग-अलग हैं। वे कुछ उच्चवर्गीय मुसलमानों को कांग्रेस की गतिविधियों में भाग लेने से रोकने लगे, यह कह कर कि कांग्रेस की मांगों को स्वीकार करने से उनके हितों का नुकसान होगा। इंग्लैंड में, जहां कांग्रेस अनेक समर्थक प्राप्त करने में सफल हुई थी, सरकार का विरोधी रवैया कायम रहा। ब्रिटिश पार्लियामेंट के कुछ सदस्यों ने भारत में सुधार लागू करने का समर्थन किया, मगर सामूहिक रूप से पार्लियामेंट ने भारत में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
कांग्रेस में नई प्रवृत्तियों का उदय
तुमने 1892 ई० के काउंसिल एक्ट के बारे में पढ़ा है। इसने भारतीय नेताओं की आशाओं पर पानी फेर दिया। वे धीरे-धीरे ब्रिटिश सरकार से निराश होते गए। उन्हें विश्वास होने लगा कि सरकार से किसी प्रकार की न्याय की उम्मीद रखना व्यर्थ है। यदि भारतीय जनता को अधिकार प्राप्त करने हैं तो इनके लिए उन्हें संघर्ष करना होगा। केवल योजनाओं से काम नहीं चलेगा। आरंभिक वर्षों में कांग्रेस द्वारा चलाया आंदोलन उद्योगपतियों, व्यापारियों, वकीलों और समाज के मध्य तथा उच्च वर्गों के शिक्षित लोगों तक सीमित रहा। मगर धीरे-धीरे अन्य समुदाय, आरंभ में निम्न मध्यवर्ग और बाद में आम जनता इसमें शामिल हुए। इससे कांग्रेस का स्वरूप बदल गया और अंततः वह एक जन-आंदोलन बन गया।
उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में भारतीय जनता को बड़े कष्ट झेलने पड़े। भारत के कई भागों में अकाल पड़ा और उसमें लाखों लोगों की मौत हुई। गरीबी सबसे प्रमुख सवाल बन गया। भारतीय नेताओं ने जनता की गरीबी के लिए सरकार की नीतियों को दोषी ठहराया। वे ब्रिटिश शासन की पहले की अपेक्षा स्पष्टता से निंदा करने लगे।
उन्नीसवीं सदी के अंत समय से सरकार की दमन की कार्रवाइयों में वृद्धि हुई। कर्ज़न ने, जो 1897 ई० में गवर्नर जनरल बना, खुली घोषणा की कि भारतीय लोग महत्वपूर्ण पदों को संभालने के लिए योग्य नहीं है। उसने कांग्रेस को नष्ट करने के अपने लक्ष्य की घोषणा की इसके लिए उसने पुरानी 'फूट डालो और शासन करो' की नीति अपनाई। इस दिशा में उठाया गया सबसे महत्वपूर्ण कदम था - बंगाल का विभाजन। कर्ज़न जिस समय भारत से वापस गया उस समय कांग्रेस का आंदोलन पहले से कहीं अधिक बलशाली बन गया था।
उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में राष्ट्रीय आंदोलन में नई प्रवृत्तियों को उभारने वाले नेता थे - बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल। इन नए नेताओं ने कांग्रेस की नीतियों को "नरम" कह कर उनकी आलोचना की। उन्होंने कहा कि सरकार से भलाई की उम्मीद रखने की बजाय जनता को अपने बल पर भरोसा करना होगा। उन्होंने कहा कि प्रशासन में सुधारों की मांग करना पर्याप्त नहीं है। भारतीय जनता का उद्देश्य होना चाहिए स्वराज प्राप्त करना। तिलक ने प्रसिद्ध नारा दिया : "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे प्राप्त करके रहूंगा।" इसके लिए जनता में काम करना और राजनीतिक आंदोलनों में जनता को सहभागी बनाना जरूरी था। इन नेताओं ने जनता की देशभक्ति को जगाया और उन्हें देशहित के लिए बलिदान देने को कहा। तिलक का 'केसरी' पत्र राष्ट्रवादियों के इस नए समूह का प्रवक्ता बना। इन राष्ट्रवादियों ने जनता को राजनीतिक दृष्टि से जागृत करने के लिए लोकप्रिय उत्सव का भी उपयोग किया। उन्होंने हड़ताल और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार जैसे राजनीतिक आंदोलन के नए तरीके भी अपनाए।
ये प्रवृतियां अधिकाधिक लोकप्रिय होती गई और जल्दी ही राष्ट्रीय आंदोलन पर छा गई। जिस कांग्रेस का आरंभ प्रार्थना-पत्रों और प्रतिवेदनों के जरिए सरकार में धीरे-धीरे सुधार लाने के लिए हुआ था उस पर नए नेताओं का भी वर्चस्व स्थापित हो गया। 1905 ई० में राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में एक नए दौर की शुरुआत हुई।
कांग्रेस ने आरंभ के अपने बीस वर्षों के एक व्यापक राष्ट्रीय उद्देश्य के लिए लोगों को एकजुट करने का काम किया। बाद के वर्षों में वह एकता अधिक मजबूत हुई और उद्देश्य अधिक स्पष्ट हो गए। आरंभ में जिस आंदोलन में समाज के केवल छोटे वर्ग सक्रिय थे वह लाखों लोगों का एक ऐसा आंदोलन बन गया जिसका लक्ष्य था स्वतंत्रता प्राप्त करना।