Vaidikalaya

अध्याय 12 - स्वतंत्र भारत

दूसरा महायुद्ध और राष्ट्रीय आंदोलन

फ़ासिस्ट देशों की आक्रामक और विस्तारवादी नीतियों के कारण दूसरा महायुद्ध हुआ। सितंबर 1939 ई० में हिटलर की सेना द्वारा पोलैंड पर हमला करने के साथ दूसरा महायुद्ध शुरू हुआ। यह मानवता के इतिहास का सबसे व्यापक और नृशंस युद्ध साबित हुआ।

युद्ध की स्थिति पैदा हो जाने पर ब्रिटेन ने, भारतीय जनता से सलाह किए बगैर भारत को युद्ध में शामिल कर लिया। जैसा कि तुमने पहले पढ़ा है भारतीय राष्ट्रवादी नेता फ़ासिज़्म के खतरे को पहचानते थे। उन्होंने फ़ासिस्ट शक्तियों के विरुद्ध चीन, स्पेन, इथियोपिया और अन्य देशों की जनता को समर्थन दिया था। उन्होंने युद्ध के बढ़ते खतरे से जनता को सूचित किया था और घोषणा की थी कि दुनिया की शांति तथा प्रगति के लिए फ़ासिज़्म और साम्राज्यवाद दोनों को ही खत्म करना आवश्यक है। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने फ़ासिस्ट देशों के प्रति पाश्चात्य साम्राज्यवादियों के रवैए की भी निंदा की थी। साम्राज्यवादी देशों में फ़ासिस्ट देशों के आक्रमण को नजर अंदाज कर दिया। कम्युनिज्म के प्रति उनकी नफरत ने उन्हें अंधा बना दिया था और इसलिए वे फ़ासिज़्म के खतरे को समझ नहीं पाए। युद्ध शुरू हुआ तो भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने फ़ासिस्ट देशों की निंदा की। यद्यपि फ़ासिस्ट देश भारतीय जनता पर शासन कर रहे ब्रिटेन के खिलाफ लड़ रहे थे, फिर भी भारतीय जनता जानती थी कि फ़ासिस्ट देश भी उसके दोस्त नहीं हो सकते। वह जानती थी कि यदि फ़ासिस्ट देशों की विजय होती है तो किसी भी देश की स्वाधीनता सुरक्षित नहीं रह सकती। मगर ब्रिटेन में भारतीय जनता को गुलाम बनाए रखा था और भारतीय जनता की सलाह लिए बिना उसे युद्ध में खींच लिया गया था। कांग्रेस ने मांग की कि तुरंत राष्ट्रीय सरकार बनाई जाए और ब्रिटेन वादा करें कि युद्ध समाप्त होते ही भारत स्वतंत्र हो जाएगा। मगर ब्रिटिश सरकार ने यह मांग अस्वीकार कर दी। स्पष्ट था कि ब्रिटेन अपने साम्राज्यवादी लक्ष्यों के लिए युद्ध लड़ रहा था। प्रांतों में बने हुए मंत्रिमंडल ने नवंबर 1939 ई० में इस्तीफे दे दिए। भारत को युद्ध से खींचने के खिलाफ देश के विभिन्न भागों में हड़तालें हुईं, प्रदर्शन हुए।

मार्च 1940 ई० में कांग्रेस का अधिवेशन रामगढ़ में हुआ। मौलाना अबुल कलाम आजाद कांग्रेस के अध्यक्ष बने। कांग्रेस ने पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की और निर्णय लिया कि इसके लिए वह सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू कर देगी। अक्टूबर 1940 ई० में कांग्रेस ने व्यक्तिगत सत्याग्रह का आंदोलन शुरू कर दिया। इसका मतलब यह था कि कांग्रेस द्वारा चुने गए सत्याग्रही, एक-एक करके, सार्वजनिक स्थलों पर पहुंचेंगे, युद्ध के खिलाफ भाषण देंगे और अपनी गिरफ्तारी देंगे। इस आंदोलन के लिए चुने गए पहले सत्याग्रही विनोबा भावे थे। थोड़े अरसे में ही करीब 25,000 सत्याग्रही गिरफ्तार हो कर जेल में बंद हो गए। इनमें कांग्रेस के अधिकांश प्रमुख नेता थे। इनमें थे - श्रीकृष्ण सिन्हा और चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य जो क्रमशः बिहार वह मद्रास के प्रीमियर (उन दिनों मुख्यमंत्री को 'प्रीमियर' कहते थे) रह चुके थे, पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष मियां इफ्तिखार- उद्दीन, महाराष्ट्र कांग्रेस के अध्यक्ष जी. वी. गाडगिल, सरोजिनी नायडू, जी. वी. मावलंकर, अरुणा आसफ अली और सत्यवती।

इसी बीच दुनिया में बड़े महत्वपूर्ण परिवर्तन हो रहे थे।

जून 1941 ई० में जर्मनी में सोवियत संघ पर हमला किया और दिसंबर 1941 ई० में जापान में अमेरिका के नौसेना अड्डे पर्ल हार्बर पर हमला किया। इसके साथ ही ये दो देश भी युद्ध में शामिल हो गए। फ़ासिस्ट शक्तियों के साथ लड़ने वाले देशों के उद्देश्य अब सुस्पष्ट हो गए। उन्होंने सभी राष्ट्रों की स्वाधीनता को अपना समर्थन दिया‌। जनता द्वारा अपने पसंद की सरकार बनाने के अधिकार को भी उन्होंने समर्थन दिया। इस प्रकार महायुद्ध सभी देशों की स्वाधीनता के लिए और जनतंत्र के लिए एक शक्तिशाली साध्य बन गया। मगर ब्रिटिश सरकार ने घोषणा की कि आत्म निर्णय का सिद्धांत भारत पर लागू नहीं होता। फ़ासिज़्म का शत्रु मानने वाले जवाहरलाल नेहरू और अबुल कलाम आजाद जैसे नेताओं ने कहा भारतीय जनता अपने देश की सरकार पर नियंत्रण स्थापित करने के बाद फ़ासिज़्म के खिलाफ लड़ाई में शामिल हो जाएगी। परंतु युद्ध समाप्त हो जाने पर भी भारत को स्वाधीनता देने का वादा करने से ब्रिटिश सरकार ने इंकार कर दिया।

सन् 1942 ई० के आरंभ में युद्ध की स्थिति ने अंग्रेजों को भारतीय नेताओं से बातचीत करने के लिए मजबूर कर दिया। जापानी सेना ने दक्षिण-पूर्व एशिया के कई देशों में ब्रिटिश सेना को भारी क्षति पहुंचाई। जापानियों ने भारत के कुछ भागों पर हवाई हमले भी किए थे। उसी समय ब्रिटिश मंत्री सर स्टाफ़ोर्ड क्रिप्स भारतीय नेताओं से बातचीत करने भारत आया। इसे 'क्रिप्स मिशन' कहा जाता है। लेकिन बातचीत असफल रही। ब्रिटिश एक वास्तविक राष्ट्रीय सरकार की स्थापना को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुए। उन्होंने राजाओं के हितों को बढ़ावा देने की भी कोशिश की। उन्होंने संविधान सभा की मांग को तो स्वीकार कर लिया मगर कहा कि राजाओं द्वारा नामजद प्रतिनिधि ही संविधान सभा में भाग लेंगे। रियासतों की जनता को संविधान सभा में प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा।

भारत छोड़ो आंदोलन 

अप्रैल 1942 ई० में क्रिप्स मिशन असफल रहा। उसके बाद चार महीने के भीतर ही आजादी के लिए भारतीय जनता का तीसरा महान संघर्ष शुरू हुआ। इस संघर्ष को 'भारत छोड़ो' आंदोलन के नाम से जाना जाता है।

बंबई में 8 अगस्त, 1942 ई० को आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने एक प्रस्ताव पास किया। प्रस्ताव में घोषणा की गई कि भारत में ब्रिटिश शासन को जल्दी से समाप्त करना अति आवश्यक हो गया है। आजादी और जनतंत्र की विजय के लिए फ़ासिस्ट देशों तथा जापान के विरुद्ध लड़ रहे मित्र राष्ट्रों के लिए भी यह जरूरी है कि भारत को जल्दी से स्वाधीनता मिल जाए। प्रस्ताव में कहा गया कि भारत से ब्रिटिश सत्ता को हटा दिया जाए। प्रस्ताव में यह भी कहा गया कि स्वतंत्र हो जाने पर भारत अपने पूर्ण साधनों सहित उन देशों के साथ महायुद्ध में शामिल हो जाएगा जो फ़ासिज़्म और साम्राज्यवादी आक्रमण के  खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। प्रस्ताव में देश की आजादी के लिए 'सबसे व्यापक स्तर पर अहिंसात्मक जन-आंदोलन' शुरू करने की स्वीकृति दे दी। प्रस्ताव के पास हो जाने पर गांधी जी ने अपने भाषण में कहा- "मैं आपको एक संक्षिप्त मंत्र देता हूं। इसे आप ह्रदय में पक्का बिठा लीजिए और अपनी प्रत्येक सांस के साथ इसे व्यक्त होने दीजिए। मंत्र है- करो या मरो। इस प्रयास से हम या तो आजाद होंगे या मर मिटेंगे। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान "करो या मरो" और "भारत छोड़ो" का रणनाद हर जगह सुनाई पड़ने लगा।

9 अगस्त, 1942 ई० की सुबह कांग्रेस के अधिकांश नेता गिरफ्तार कर लिए गए। उन्हें देश के विभिन्न भागों की जेलों में बंद कर दिया गया। कांग्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। देश के हर हिस्से में हड़तालें हुई, प्रदर्शन हुए। सरकार ने दमन का सहारा लिया। गोलियां चली, लाठीचार्ज हुए और सारे देश में गिरफ्तारियां हुई। गुस्से में आकर जनता भी हिंसा पर उतर आई। लोगों ने सरकारी संपत्ति पर हमले किए, रेल-पटरियों को तोड़ा और डाक तार व्यवस्था में रुकावटें पैदा कर दी। कई स्थानों पर पुलिस के साथ मुठभेड़ हुई। आंदोलन के बारे में समाचार के प्रकाशन पर सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया। कई अखबारों ने अपना प्रकाशन बंद कर दिया, क्योंकि उन्हें प्रतिबंध स्वीकार नहीं थे। 1942 ई० के अंत तक करीब 60,000 लोग जेल में बंद हो गए और सैकड़ों की मृत्यु हो गई। मरने वालों में अनेक बच्चे और वृद्ध महिलाएं भी थी। प्रदर्शन में भाग लेने पर तमलुक (बंगाल) में 73 साल की मातंगिनी हजारा को, गोहपुर (असम) में १३ साल की कनकलाता बरूआ को, पटना (बिहार) में सात तरुण विद्यार्थियों को और अन्य सैकड़ों को गोलीयां मारकर मौत के घाट उतार दिया गया। देश के कुछ भाग- जैसे उत्तर प्रदेश में बलिया, बंगाल में तमलुक, महाराष्ट्र में सतारा, कर्नाटक में धारावाड़ और उड़ीसा में बालासोर तथा थलचर- ब्रिटिश शासन से मुक्त कर लिए गए और वहां की जनता ने अपनी सरकार स्थापित की। पूरे महायुद्ध के दौरान जयप्रकाश नारायण, अरूणा आसफ अली, एम. एम. जोशी, राममनोहर लोहिया आदि अनेकों द्वारा आयोजित क्रांतिकारी गतिविधियां जारी रही। 

महायुद्ध के दौरान भारतीय जनता को भयंकर कष्ट झेलने पड़े। ब्रिटिश सेना और पुलिस ने तो यातनाएं दी ही, बंगाल में भयंकर अकाल भी पड़ा। अकाल में करीब ३० लाख लोग मरे‌। भुखमरी के शिकार लोगों को राहत पहुंचाने में सरकार ने कोई विशेष दिलचस्पी नहीं ली।

आजाद हिंद फौज

दूसरे महायुद्ध के दौरान आजादी के संघर्ष की एक महत्वपूर्ण घटना थी आजाद हिंद फौज की स्थापना और उसकी गतिविधियां। रासबिहारी बोस ने जो एक क्रांतिकारी थे और भारत से भाग निकलने के बाद कई साल से जापान में रह रहे थे, दक्षिण पूर्व-एशिया के देशों में रह रहे भारतीयों के सहयोग से 'इंडियन इंडिपेंडेंस लीग' की स्थापना की। जापान ने ब्रिटिश फौजों को हराकर दक्षिण-पूर्व एशिया के लगभग सभी देशों पर कब्जा कर लिया था। जापान ने ब्रिटिश सेना के हजारों भारतीय सैनिकों को बंदी बना लिया था। लीग ने ब्रिटिश शासन से भारत को आजाद करने के उद्देश्य से भारतीय युद्ध बंदियों को लेकर आजाद हिंद फौज बनाई। जनरल मोहन सिंह ने, जो अंग्रेजों की भारतीय सेना में एक अफसर थे, आजाद हिंद फौज बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इस बीच 1941 ई० में, सुभाष चंद्र बोस भारत से भाग निकलने में सफल हुए। वे भारत की आजादी के लिए काम करने हेतु जर्मनी में पहुंच गए। इंडियन इंडिपेंडेंस लीग का नेतृत्व करने और आजाद हिंद फौज का पुनर्निर्माण करने तथा इसे कार्यक्षम बनाने के लिए सुभाष चंद्र बोस १९४३ ई० में सिंगापुर पहुंच गए। आजाद हिंद फौज में करीब 45000 सैनिक थे। इसमें भारतीय युद्ध बंदियों के अलावा वे भारतीय भी थे जो दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में बसे हुए थे।

21 अक्टूबर, 1943 को सुभाष चंद्र बोस ने, जो अब नेताजी के नाम से प्रसिद्ध हो गए थे, सिंगापुर में स्वतंत्र भारत (आजाद हिंद( की अंतरिम सरकार की स्थापना की घोषणा की। जापान ने अंडमान दीपों पर कब्जा कर लिया था। नेताजी अंदमान गए और वहां भारत का झंडा फहराया। 1944 ई० के आरंभ में आजाद हिंद फौज की तीन टुकड़ियों ने अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के उद्देश्य से भारत के पूर्वोत्तर भाग पर हुए हमले में भाग लिया। आजाद हिंद फौज के कुछ सैनिक भारतीय क्षेत्र में पहुंच गए। आजाद हिंद फौज के एक प्रमुख अफसर शाह नवाज़ खान के अनुसार, जो सैनिक भारतीय देश पर पहुंच गए थे वे "जमीन पर लेट गए और उन्होंने मातृभूमि की पवित्र मिट्टी को चूमा"। मगर आजाद हिंद फौज को भारत को आजाद करने में सफलता नहीं मिली।

तुमने पहले पढ़ा है कि जापान खुद एक साम्राज्यवादी देश बन गया था और युद्ध में उसने जर्मनी तथा इटली के साथ हाथ मिलाए थे। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने जापान की सरकार को भारत का मित्र नहीं माना। इसकी सहानुभूति उन देशों की जनता के प्रति थी जो जापानी आक्रमण के शिकार हुए थे। मगर नेताजी का विश्वास था कि आजाद हिंद फौज की सहायता से और जापान की मदद से और भारत के भीतर किए जाने वाले विद्रोह के सहयोग से भारत में ब्रिटिश शासन को खत्म किया जा सकता है। आजाद हिंद फौज जिसका नारा था "दिल्ली चलो" और जिस का अभिवादन था "जय हिंद", भारतीयों के लिए देश में और देश के बाहर, प्रेरणा का स्त्रोत थी। नेता जी ने दक्षिण-पूर्व एशिया के सभी पंथों तथा धर्मों के भारतीयों को भारत की आजादी के लिए एकमत किया। भारत की आजादी की गतिविधियों में भारतीय स्त्रियों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। कैप्टन लक्ष्मी स्वामीनाभन् के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज़ में महिलाओं की एक रेजीमेंट की बनाई गई थी। भारत की जनता के लिए आजाद हिंद फौज एकता और वीरता का प्रतीक बन गई। बताया जाता है कि जापान के समर्पण कर देने के कुछ दिन बाद एक विमान दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु हो गई।

फ़ासिस्ट शक्तियों की पराजय के साथ 1945 ई० में दूसरा महायुद्ध खत्म हो गया। युद्ध में लाखों लोगों की मृत्यु हुई। अब महायुद्ध समाप्ति पर था और इटली तथा जर्मनी की पराजय हो चुकी थी, तब अमेरिका ने दो जापानी नगरों- हिरोशिमा और नागासाकी के खिलाफ एटम बमों का इस्तेमाल किया। कुछ ही क्षणों में यह नगर पूर्णता तबाह हो गए और 2,00,000 से ज्यादा लोगों की मौत हुई। उसके तुरंत बाद जापान ने समर्पण कर दिया। यद्यपि एटम बमों के प्रयोग ने युद्ध को समाप्त कर दिया, मगर इसने दुनिया में नए तनाव पैदा कर दिए और अधिकाधिक विध्वंसक हथियार बनाने की एक नई होड़ शुरू करके मानवता के अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया।

युद्ध के बाद राष्ट्रीयता की लहर

दूसरे महायुद्ध की समाप्ति के साथ दुनिया के इतिहास में एक नए युग की शुरुआत हुई। दुनिया का राजनीतिक नक्शा बदल गया था पहले ब्रिटेन एक महान साम्राज्य था, मगर अब दूसरे दर्जे की शक्ति बनकर रह गया था। अब सोवियत संघ दुनिया की दो महान शक्तियों में से एक बन गया था। दूसरी महान शक्ति थी अमेरिका। युद्ध स्वतंत्रता और जनतंत्र के नाम पर लड़ा गया ।था युद्ध की समाप्ति के साथ दुनिया में एक नए राजनीतिक वातावरण ने जन्म लिया। पूर्वी यूरोप के कई देश समाजवादी हो गए तभी साम्राज्यवादी देशों की अंतरराष्ट्रीय स्थिति कमजोर हो गई। समूचे एशिया और अफ्रीका में स्वाधीनता के लिए जनता की एक व्यापक लहर उठी। अब स्वाधीनता के आंदोलन को कुचलना आसान नहीं था। इस तरह, युद्ध के परिणाम स्वरूप फ़ासिज़्म का खात्मा हुआ और पुराने साम्राज्यवादी देश भी कमजोर पड़ गए। ब्रिटेन में लेबर पार्टी सत्ता में आई। लेबर पार्टी में ऐसे कई व्यक्ति थे जिनकी भारतीय जनता के आजादी के संघर्ष के प्रति सहानुभूति थी।

ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारत में एक बहुत बड़ी लहर उठी। ब्रिटिश सरकार ने आजाद हिंद फौज के तीन अफसरों पर दिल्ली के लाल किले में मुकदमा चलाया। उन पर ब्रिटिश फौजों के खिलाफ लड़ने का अभियोग था। वे तीन अफसर थे- शाह नवाज खान, पी. के. सहगल और जी. एस. ढिल्लो। मुकदमे के विरुद्ध सारे देश में प्रदर्शन और हड़तालें हुई। तीनों अफसरों को सजा सुनाई गई, मगर उन्हें रिहा कर देना पड़ा। आजाद हिंद फौज के अफसरों पर चलाए गए मुकदमे के खिलाफ प्रदर्शन आयोजित करने में विद्यार्थियों ने बड़े महत्व की भूमिका अदा की। ब्रिटिश शासन को खत्म करने के लिए प्रदर्शनों और हड़तालों का सिलसिला जारी रहा। जनता आजादी की अंतरिम लड़ाई में कूद पड़ी। नौसेना में भी असंतोष फैला हुआ था। फरवरी 1946 ई० में रॉयल इंडियन नेवी के नाविकों ने कई स्थानों पर विद्रोह कर दिया। मजदूरों तथा दूसरों ने उनका साथ दिया। नाविकों तथा उनके समर्थकों और ब्रिटिश फौज तथा पुलिस के बीच जो संघर्ष हुआ उसमें बंबई में करीब 300 लोगों की मृत्यु हुई। ब्रिटिश शासन के खिलाफ जनता की बढ़ती लहर से और सेना में फैलती जा रही सहानुभूति से यह स्पष्ट हो गया कि ब्रिटिश शासन के दिन खत्म होने को आ रहे हैं। ब्रिटिश शासकों ने भी महसूस किया कि अब भारतीय जनता को परतंत्रता में रख पाना संभव नहीं है।

स्वतंत्र भारत का उदय

ब्रिटिश सरकार ने 1946 ई० में घोषणा की कि वह भारत में अपना शासन समाप्त करना चाहती है। ब्रिटिश मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों का एक दल जिसे 'कैबिनेट मिशन' के नाम से जाना जाता है, सत्ता के हस्तांतरण के बारे में भारतीय नेताओं से बातचीत करने के लिए भारत आया। उसने अंतरिम सरकार बनाने और संविधान सभा बुलाने का प्रस्ताव रखा। प्रस्ताव में कहा गया कि संविधान सभा में प्रांतीय विधानसभाओं द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों और भारतीय रियासतों के शासकों द्वारा मनोनीत व्यक्ति होंगे। जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में एक अंतरिम सरकार बनी। संविधान सभा ने दिसंबर, 1946 ई० में अपना काम शुरू कर दिया, मगर मुस्लिम लीग और राजाओं ने उस में भाग लेने से इनकार कर दिया।

मुस्लिम लीग ने प्रथम पाकिस्तान की मांग पर जोर दिया। लॉर्ड माउंटबेटन ने, जो मार्च 1947 ई० में न‌ए वायसराय बनकर भारत आए थे, भारत को दो स्वतंत्र राज्यों हिंदुस्तान और पाकिस्तान में बांटने की योजना प्रस्तुत की। 1946 ई० में बंगाल, बिहार, बंबई तथा अन्य जगहों में दंगे हुए। जिनमें हजारों हिंदुओं तथा मुसलमानों की जानें गई। विभाजन की घोषणा के बाद और भी दंगे हुए, विशेषकर पंजाब में। कुछ ही महीनों में करीब 5,00,000 हिंदू और मुसलमान मारे गए। लाखों लोग बेघर हो गए। इस तरह का नृशंस हत्याकांड देश के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था। सांप्रदायिक दलों द्वारा फैलाए गए घृणा के परिणाम सामने आए। ब्रिटिश शासकों ने इन सांप्रदायिक दलों को प्रोत्साहन दिया था। दंगों के दौरान मानवता को भुला दिया गया और अत्यंत शर्मनाक तथा नृशंस घटनाएं घटित हुई। सभी समुदायों में अनेक लोगों ने सांप्रदायिक आग बुझाने के लिए जी तोड़ कोशिश की। कई लोग दूसरे संप्रदायों के लोगों को बचाने के प्रयास में शहीद हो गए। इन घटनाओं से गांधी जी को भयंकर क्लेश हुआ, क्योंकि उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए अथक प्रयास किए थे। उन्होंने दंगाग्रस्त इलाकों का दौरा किया और विश्व शांति तथा विवेक स्थापित करने के लिए जी-जान से जुट गए।

कांग्रेस शुरू से ही एकीकृत स्वतंत्र भारत के लिए प्रयास करती आ रही थी। मगर अंत में उसने भारत के विभाजन को मान लिया। कांग्रेस ने दो राष्ट्र के सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया था, मगर महसूस किया कि आजादी प्राप्त करने के लिए और बिगड़ती स्थिति को रोकने के लिए विभाजन को स्वीकार करने के सिवा कोई चारा नहीं है। 15 अगस्त, 1947 ई० को भारत स्वतंत्र हो गया। पश्चिम पंजाब, पूर्वी बंगाल, सिंध और पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत को मिलाकर पाकिस्तान का पृथक राज्य बना। भारतीय जनता ने करीब एक सदी के संघर्ष के बाद विदेशी शासन को उखाड़ फेंका, हालांकि यह भयंकर दुखद घटनाओं के बीच हुआ। जवाहरलाल नेहरू स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री बने। आधी रात को जब १५ अगस्त का दिन शुरू हुआ तो, जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में भारत में, जीवन और स्वतंत्रता का उदय हुआ।

संविधान सभा स्वतंत्र भारत के संसद के रूप में भी काम करने लगी। 14 अगस्त, 1947 को नेहरू ने संविधान सभा में भाषण देते हुए भारतीय जनता के अगले कार्यों और कर्तव्य के बारे में बतलाया। ये कार्य थे- "गरीबी, अज्ञान, रोग और अवसरों की असमानता को दूर करना।" उन्होंने "भारत, भारत की जनता और उससे भी बढ़कर मानवता की सेवा" करने का व्रत लेने को कहा। उन्होंने स्वतंत्र भारत के लिए एक ऐसा भव्य प्रासाद बनाने को कहा जहां भारत के सभी बच्चे रह सके। १५ अगस्त की सुबह लाल किले पर स्वतंत्र भारत का झंडा फहराया गया। भारत के लोग स्वयं अपने भाग्य के निर्माता बन गए। नए भारत के निर्माण का कार्य शुरू हो गया।

भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र

स्वतंत्र भारत को जिस मार्ग पर आगे बढ़ना था वह आजादी के संघर्ष के दौरान ही निश्चित हुआ था। आजादी की लड़ाई भारतीय जनता को प्रभुसत्ता-संपन्न बनाने के उद्देश्य से लड़ी गई थी। अर्थात्, यह लड़ाई एक ऐसा जनतंत्र स्थापित करने के लिए थी जिसमें सारी सत्ता समूची जनता के हाथों में रहनी थी, न की किसी एक या दूसरे समूह के हाथों में।

भारत में विभिन्न धर्मों को मानने वाले, विभिन्न भाषाएं बोलने वाले और विभिन्न रीति-रिवाजों का अनुसरण करने वाले लोग थे। यद्यपि देश में विभेद पैदा करने वाले सांप्रदायिक दलों जैसे तत्व मौजूद थे, मगर आजादी के आंदोलन को किसी एक या दूसरे समुदाय का आंदोलन बनाने में उन्हें सफलता नहीं मिली। इस प्रकार, राष्ट्रीय आंदोलन एक धर्मनिरपेक्ष आंदोलन था। अर्थात् यह सभी समुदायों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाला ऐसा आंदोलन था जो धर्म को व्यक्ति का निजी मामला समझता था। प्रत्येक नागरिक को अपने धर्म का पालन करने का अधिकार दिया गया। किसी भी धर्म को कोई विशेष स्थान नहीं दिया गया। धर्म-निरपेक्षता हर जनतांत्रिक आंदोलन का अभिन्न अंग होती है। जनतंत्र में सब नागरिक बराबर होते हैं। अर्थात्, सब के समान अधिकार होते हैं। समान अधिकार- फिर वे भाषण देने के हो या धर्म पालन के हो , तभी संभव है जब सभी नागरिक समान हो। इस प्रकार राष्ट्रीय आंदोलन ने देश में जनतंत्र की स्थापना को अपना प्रमुख लक्ष्य बनाया था। यह भारत को एक धर्म-निरपेक्ष देश बनाना चाहता था। राष्ट्रीय आंदोलन स्वतंत्र भारत में धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं चाहता था और धर्म को लोगों का निजी मामला बनाना चाहता था।

राष्ट्रीय आंदोलन में एक न्यायोचित समाज की स्थापना के लिए भारतीय समाज के पुनर्निर्माण का लक्ष्य भी सामने रखा गया था। यह लक्ष्य समाजवादी विचारों के प्रसार के साथ अधिक स्पष्ट हो गया था। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु स्वतंत्र भारत को समाज में मौजूद असमानताओं को दूर करने के लिए तेजी से आर्थिक विकास करने के लिए और आर्थिक शक्ति के सकेंद्रण को रोकने के लिए कड़ा संघर्ष करना था।

राष्ट्रीय आंदोलन ने दुनिया के मामलों में भी एक नई नीति बनाई थी। यह सभी लोगों की समानता के सिद्धांत पर आधारित थी। अतः इसका अर्थ यह था कि स्वतंत्र भारत उन सभी लोगों को सहयोग देगा जो राष्ट्रीय स्वाधीनता के लिए लड़ रहे हैं। राष्ट्रीय आंदोलन का दृढ़ विश्वास था कि स्वतंत्रता अविभाज्य है और जब तक हर एक देश स्वतंत्र नहीं होता तब तक किसी भी देश की स्वतंत्रता सुरक्षित नहीं है। उसने शांति की नीति पर भी जोर दिया था, क्योंकि शांति रहने पर ही पुनर्निर्माण का कार्य पूरा हो सकता है और विश्वबंधुत्व की भावना का विकास किया जा सकता है। शांति की नीति इस विश्वास पर भी आधारित थी कि संसार के सभी आम लोगों के हित में कोई विरोध नहीं है। इस तरह, आजादी और शांति स्वतंत्र भारत की विदेश नीति का आधार बन गई।

इस सिद्धांतों से प्रेरित होकर भारत की जनता ने 1947 ई० में एक स्वतंत्र राष्ट्र की जीवन यात्रा आरंभ की।

तात्कालिक कार्य

स्वतंत्र भारत के सामने कई तात्कालिक कार्य थे। पहला कार्य देश में राजनीतिक एकता स्थापित करना था। तुम पहले देसी राज्यों की जनता के संघर्ष के बारे में पढ़ चुके हो। जब ब्रिटिश शासन का समाप्त होना निश्चय हो गया, तो राजा-महाराजाओं ने अपने दमन में वृद्धि कर दी। जम्मू तथा कश्मीर, हैदराबाद, त्रावणकोर तथा राजस्थान के कुछ रियासतों में यह दमन अधिक बर्बर था। कुछ राजाओं ने स्वतंत्र शासक बनने की योजना बनाई थी। राष्ट्रीय आंदोलन ने, राज्यों की जनता की मदद से उनकी योजना को विफल कर दिया। राज्यों का विभाग सरदार बल्लभ भाई पटेल के जिम्मे था। उनके प्रयास से भारत के स्वतंत्र होने के पहले ही सभी राज्यों को भारत में मिला लिया गया था। केवल तीन ही राज्य १५ अगस्त 1947 तक भारत में नहीं मिले थे। वे तीन राज्य थे- जम्मू तथा कश्मीर हैदराबाद, और जूनागढ़। स्वतंत्रता के तुरंत बाद कश्मीर पर पाकिस्तान ने हमला कर दिया। मगर जम्मू तथा कश्मीर की जनता अपने को भारत का अंग समझती थी। उसने पाकिस्तानी हमलावरों का डटकर मुकाबला किया। वे राज्य भारत में मिल गए। पाकिस्तानी हमलावरों को मार भगाने के लिए भारतीय सेना वहां भेजी गई।

जूनागढ़ का नवाब पाकिस्तान भाग गया। फरवरी 1948 ई० में जूनागढ़ की जनता ने भारत में मिल जाने के पक्ष में मत दिया। हैदराबाद के निज़ाम ने मान लिया कि जनता के प्रतिनिधियों द्वारा बनाई गई एक सरकार भारत में मिल जाने के बारे में फैसला करेगी। मगर उसने इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाए। विपरीत, उसने हथियारबंद धर्मांधों को जनता पर जुल्म करने के लिए उकसाया। सितंबर 1948 ई० में भारतीय सैनिक सिकंदराबाद में घुसे और निज़ाम ने आत्मसमर्पण कर दिया। बाद में वह राज्य भारत में मिल गए।

भारत के स्वाधीनता और राजनीतिक एकीकरण से संबंधित इस प्रकरण को समाप्त करने के पहले कुछ ऐसे मामलों का जिक्र करना आवश्यक है जो स्वाधीनता तथा एकीकरण की प्रक्रिया के अंग हैं, मगर काफी बाद में घटित हुए। ये मामले भारत में पुर्तगाल और फ्रांस के उपनिवेशों से संबंधित हैं। इन उपनिवेशों का इस पुस्तक में पहले जिक्र तो हुआ है, मगर इन क्षेत्रों की आजादी के आंदोलन के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया। ये क्षेत्र थे- फ्रांसीसी शासन के अंतर्गत पांडिचेरी, कराइकल, यमन, माहे तथा चंद्रनगर और पुर्तगाली शासन के अंतर्गत गोवा, दमन, दीव तथा दादरा नगर हवेली। इन क्षेत्रों में भी आजादी के आंदोलन का और शेष भारत के साथ मिल जाने का लंबा इतिहास है। मगर इन क्षेत्रों में विदेशी शासन का अंत भारत के स्वतंत्र होने के कई साल बाद हुआ।

फ्रांस के भारतीय उपनिवेश में आजादी के लिए संघर्ष काफी पहले शुरू हो गया था, मगर दूसरे महायुद्ध के बाद यह ज्यादा तीव्र हो गया। १९४८ ई० में माहे में विद्रोह हुआ और प्रशासन ने समर्पण कर दिया। 1949 ई० में चंद्रनगर भारत में मिल गया। 1954 ई० में फ्रांस द्वारा शासित क्षेत्रों की जनता ने भारी बहुमत से भारत में मिलने का फैसला किया। तब भारत और फ्रांस के बीच एक समझौता हुआ जिसके अंतर्गत सभी फ्रांस-शासित क्षेत्र भारत में मिल गए।

पुर्तगाली उपनिवेशों में सशस्त्र संघर्ष काफी पहले शुरु हो गया था और अठारहवीं, उन्नीसवीं तथा बीसवीं सदियों में जारी रहा। गोवा में राष्ट्रीय आंदोलन के पिता त्रिस्ताओ ब्रगांजा कुन्हा थे। उन्होंने 1928 ई० में कांग्रेस कमेटी की स्थापना की थी। गोवा के अनेक स्वाधीनता सेनानियों को यातनाएं दी गई और जेलों में ठूंसा गया। उनमें से कुछ को तो अनेक सालों तक पुर्तगाल की जेलों में रखा गया। कईयों को मृत्युदंड दिया गया। 1954 ई० में स्वाधीनता सेनानियों ने दादर और नगर हवेली को पुर्तगाली शासन से मुक्त किया।

भारत सरकार लंबे समय तक पुर्तगाल की सरकार को समझाती रही कि वह अपने उपनिवेश छोड़ दें। उस समय पुर्तगाल यूरोप का एक सबसे पिछड़ा हुआ देश था और उस पर एक तानाशाह का शासन था। बावजूद इसके, कई पाश्चात्य देशों उसका समर्थन कर रहे थे, विशेषकर ब्रिटेन। अमेरिका भी इस बेहूदे दावे का समर्थन करता रहा कि गोवा पुर्तगाल का एक प्रांत हैं। 1955 ई० में सत्याग्राही आंदोलन शुरू हुआ। निहत्थे सत्याग्रहियों ने गोवा में प्रवेश किया। पुर्तगाली सैनिकों ने उन पर गोलियां चलाई और उसमें से कईयों को मार दिया। पुर्तगाल के शासन को उखाड़ फेंकने के लिए गोवा के कुछ लोगों ने सशस्त्र दल बनाए। अंत में दिसंबर, 1961 ई० में भारतीय सेना गोवा में पहुंची और पुर्तगालियों ने समर्पण कर दिया। गोवा भारत का अंग बन गया। उसके साथ ही समूचा भारत स्वतंत्र हो गया। तुम्हारे लिए यह जानकारी दिलचस्प होगी कि कुछ साल बाद पुर्तगाल की जनता ने अपने देश की उस तानाशाही को खत्म कर दिया जिसने उनका कई दशकों तक दमन किया था। उसके तुरंत बाद पुर्तगाल की नई सरकार ने अफ्रीका के पुर्तगाल उपनिवेशों के आजादी के आंदोलनों के नेताओं से बातचीत की और वहां पुर्तगाल शासन समाप्त हो गया।

भारत के स्वतंत्र होने के कुछ ही दिनों बाद भारतीय जनता को एक महान विपत्ति का सामना करना पड़ा। गांधी जी ने भारतीय जनता की जागृति ने महान भूमिका अदा की थी।‌ उन्होंने आजादी की लड़ाई में भारतीय जनता का अनेक सालों तक नेतृत्व किया था। वे आधुनिक भारत के महानतम मानव थे और मानवता के इतिहास के एक श्रेष्ठतम पुरुष थे। उनके मार्गदर्शन और नेतृत्व में भारत ने आजादी की लड़ाई लड़ी और अंत में आजादी प्राप्त की। इसलिए उन्हें राष्ट्रपिता माना जाता है। जिन कार्यों के लिए उन्होंने अपना जीवन अर्पित किया था उनमें से एक प्रमुख था हिंदू-मुस्लिम एकता का कार्य। जब सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे तो उन्होंने दंगाग्रस्त क्षेत्रों का दौरा किया और शांति तथा सांप्रदायिक मैत्री स्थापित करने के लिए प्रेम तथा बंधुत्व का उपदेश दिया। जिस दिन भारत स्वतंत्र हुआ उस दिन गांधीजी कलकत्ता के दंगों से प्रभावित क्षेत्र में थे। हिंदुओं तथा मुसलमानों की हत्याओं से और देश में विभाजन से उन्हें बेहद पीड़ा हुई थी। कुछ लोग प्रेम और बंधुभाव के उनके संदेश को पसंद नहीं करते थे। दूसरे समुदायों के प्रति उनके दिमागों में नफरत का जहर भरा था। 30 जनवरी, 1948 ई० को एक हिंदू धर्मांध ने गांधी जी को, जब वे प्रार्थना सभा में जा रहे थे, गोली मार दी। भारती जनता विगत साल में हुई सांप्रदायिक हत्याओं तथा विनाश के आघात से जैसे-तैसे अपने को संभालने का प्रयास कर रही थी, तो पुनः गहन शोक में डूब गई। जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि, "हमारे जीवन से प्रकाश गायब हो गया है"। गांधीजी कलह से भरे विश्व में प्रेरणा के स्रोत और प्रकाश के स्तंभ थे। वे सारे संसार में महात्मा के नाम से जाने जाते थे। उन्होंने हर व्यक्ति के आंसू पहुंचने और हर जगह से दुख दूर करने के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया था। उनके सपने को पूरा करना हम सबका कर्तव्य है।

स्वतंत्र भारत के सामने एक तत्कालीक प्रमुख समस्या थी - विस्थापितों को फिर से बसाना। जो इलाके पाकिस्तान के हिस्से में गए थे वहां से लाखों लोग बेघर होकर भारत आए थे। उनको सहायता तथा रोजगार देने और बसाने की समस्या आई। उन्होंने भी अपनी तकलीफ साहस के साथ झेली और स्थिर होकर नई जिंदगी शुरु कर दी।

देश के विभाजन ने कई आर्थिक समस्याएं पैदा की। कई उद्योगों के लिए कच्चे माल का अभाव हो गया। जूट तथा सूती कपड़े के अधिकांश कारखाने भारत में रह गए, मगर जूट तथा कपास का उत्पादन करने वाले अधिकांश क्षेत्र पाकिस्तान के हिस्से में चले गए। परिणाम-स्वरूप जूट और सूती कपड़े के कई कारखाने बंद हो गए। बड़ी मुश्किल से कच्चे माल का अभाव मिटाया जा सका। गेहूं और चावल पैदा करने वाले विशाल क्षेत्र पाकिस्तान में चले गए थे। आबादी के अनुपात की दृष्टि से सिंचित भूमि का बड़ा हिस्सा पाकिस्तान में चला गया था। इसलिए कुछ दिनों तक भारत में अन्न का अभाव भी रहा। दूसरे महायुद्ध और विभाजन के कारण देश की परिवहन व्यवस्था भी अस्त-व्यस्त हो गई थी।

इसी बीच स्वतंत्र भारत के लिए संविधान बनाने का कार्य भी चल रहा था। संविधान सभा ने अपना कार्य 26 नवंबर, 1949 ई० को पूरा किया। 26 जनवरी,1950 ई० को भारत का गणतंत्र बन गया। उसी दिन संविधान लागू हो गया। वह दिन 1930 ई० से ही स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जा रहा था। उस दिन भारत का गणतंत्र घोषित किया गया, इसलिए तब से वह दिन गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है।