Vaidikalaya

कूर्म अवतार: समुद्र मंथन की कथा और भगवान विष्णु का कच्छप अवतार




धार्मिक पुराणों और मान्यताओं  के आधार पर कूर्म अथवा कच्छप अवतार भगवान विष्णु का दूसरा अवतार माना जाता हैं। कच्छप अवतार को लेकर श्रीमद्भागवतमहापुराण, विष्णु पुराण, अग्नि पुराण, नरसिंह पुराण  आदि विभिन पुराणों में कथाएँ मिलती हैं। इस अवतार में भगवान विष्णु ने समुंद्र मंथन के समय कछुए का रूप धारण करके मंदार पर्वत को अपनी पीठ पर सहारा देखर देवताओ की सहायता की थी।  


कच्छप अवतार कथा 

कच्छप अवतार कथा का वर्णन कई पुराणों में हैं किन्तु इस लेख में जो कथा विष्णु औरश्रीमद्भागवतमहापुराण में वर्णित हैं, उसी का वर्णन यहाँ पर किया गया हैं। तो चलिए शुरू करते है।

कथा
एक समय की बात हैं जब दुर्वासा ऋषि पृथ्वी पर विचर रहे थे। घूमते-घूमते उन्होंने एक विद्याधरी के हाथों में सन्तानक पुष्पों की एक दिव्य माला देखी । उसकी गन्ध से सुवासित होकर वह वन एवं वनवासियों के लिये अति सेवनीय हो रहा था। तब ऋषि ने वह सुन्दर माला देखकर उसे उस विद्याधर- सुन्दरी से माँगा, उनके माँगनेपर उस बड़े-बड़े नेत्रोंवाली कृशांगी विद्याधरी ने उन्हें आदरपूर्वक प्रणाम कर वह माला दे दी। तब  उन ऋषि ने उसे लेकर अपने मस्तक पर डाल लिया और पृथिवी पर विचरने लग।  इसी समय उन्होंने उन्मत्त ऐरावत पर चढ़कर देवताओं के साथ आते हुए त्रैलोक्याधिपति शचीपति इन्द्र को देखा। उन्हें देखकर मुनिवर दुर्वासा ने उन्मत्त के समान वह मतवाले भौरों से गुंजायमान माला अपने सिरपर से उतारकर देवराज इन्द्रके ऊपर फेंक दी। देवराजने उसे लेकर ऐरावत के मस्तक पर डाल दी; उस समय वह ऐसी सुशोभित हुई मानो कैलास पर्वत के शिखर पर श्रीगंगाजी विराजमान हों। किन्तु उस मदोन्मत्त हाथी ने भी उसकी गन्धसे आकर्षित हो उसे सूँड से सूँघकर पृथ्वी पर फेंक दिया। यह देखकर मुनिश्रेष्ठ भगवान् दुर्वासाजी अति क्रोधित हुए और देवराज इन्द्रसे इस प्रकार बोले।


दुर्वांसाजी ने कहा -- अरे ऐश्वर्य के मद से दूषित चित्त इन्द्र ! तू बड़ा ढीठ है, तूने मेरी दी हुई सम्पूर्ण शोभा की धाम माला का कुछ भी आदर नहीं किया ! अरे ! तूने न तो प्रणाम करके 'बड़ी कृपा की' ऐसा ही कहा और न हर्ष से प्रसन्न वदन होकर उसे अपने सिरपर ही रखा | रे मूढ़ ! तूने मेरी दी हुई मालाका कुछ भी मूल्य नहीं किया, इसलिये तेरा त्रिलोकीका वैभव नष्ट हो जायगा ॥ इन्द्र ! निश्चय ही तू मुझे और ब्राह्मणों के समान ही समझता है, इसीलिये तुझ अति मानी ने हमारा इस प्रकार अपमान किया है। अच्छा, तूने मेरी दी हुई माला को पृथिवी पर फेंका है इसलिये तेरा यह त्रिभुवन भी शीघ्र ही श्रीहीन हो जायगा रे देवराज! जिसके क्रुद्ध होने पर सम्पूर्ण चराचर जगत् भयभीत हो जाता हैं उस मेरा ही तूने अति गर्व से इस प्रकार अपमान किया ऋषि दुर्वासा को इस प्रकार क्रोधित देखकर - इन्द्र तुरन्त ही ऐरावत हाथी से उतरकर निष्पाप मुनिवर दुर्वासाजी को [ अनुनय-विनय करके ] प्रसन्न करने लगे तब इंद्रा के अनुनय विनय से प्रसन्न होकर मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा जी उससे इस प्रकार कहने लगे 

दुर्वासाजी बोले- इन्द्र ! मैं कृपालु चित्त नहीं हूँ, मेरे अन्तःकरण में क्षमा को स्थान नहीं है। वे मुनिजन तो और ही हैं; तुम समझो, मैं तो दुर्वासा हूँ न ? गौतमादि अन्य मुनिजनों ने व्यर्थ ही तुझे इतना मुँह लगा लिया है; पर याद रख, मुझ दुर्वासा का सर्वस्व तो क्षमा न करना ही है। दयामूर्ति वसिष्ठ आदिके बढ़- बढ़कर स्तुति करने से तू इतना गर्वीला हो गया कि आज मेरा भी अपमान करने चला है। अरे! आज त्रिलोकी में ऐसा कौन है जो मेरे प्रज्वलित जटा कलाप और टेढ़ी भृकुटि को देखकर भयभीत न हो जाय ? रे शतक्रतो! तू बारम्बार अनुनय-विनय करने का ढोंग क्यों करता है? तेरे इस कहने-सुनने से क्या होगा ? मैं क्षमा नहीं कर सकता। इस प्रकार कहकर वे विप्रवर वहाँ से चल दिये और इन्द्र भी ऐरावत पर चढ़कर अमरावती को चले गये।

हे श्रोतागणों ! तभीसे इन्द्र के सहित तीनों लोक वृक्ष लता आदि के क्षीण हो जाने से श्रीहीन और नष्ट-भ्रष्ट होने लगे। तब से यज्ञों का होना बन्द हो गया, तपस्वियोंने तप करना छोड़ दिया तथा लोगों का दान आदि धर्मो में चित्त नहीं रहा। हे द्विजोत्तम! सम्पूर्ण लोक लोभादिके वशीभूत हो जानेसे सत्त्वशून्य ( सामर्थ्यहीन ) हो गये और तुच्छ वस्तुओंके लिये भी लालायित रहने लगे। जहाँ सत्त्व होता है वहीं लक्ष्मी रहती है और सत्त्व भी लक्ष्मीका ही साथी है। श्रीहीनों में भला सत्त्व कहाँ ? और बिना सत्त्वके गुण कैसे ठहर सकते हैं?


बिना गुणों के पुरुष में बल, शौर्य आदि सभी का अभाव हो जाता है और निर्बल तथा अशक्त पुरुष सभी से अपमानित होता है।अपमानित होने पर प्रतिष्ठित पुरुष की बुद्धि बिगड़ जाती है।इस प्रकार त्रिलोकी के श्रीहीन और सत्वरहित हो जानेपर दैत्य और दानवों ने देवताओं पर चढ़ाई कर दी। सत्त्व और वैभव से शून्य होने पर भी दैत्यों ने लोभवश निःसत्त्व और श्रीहीन देवताओं से घोर युद्ध ठाना। अन्त में दैत्यों द्वारा देवता लोग परास्त हुए। तब इन्द्रादि समस्त देवगण अग्निदेव को आगे कर महाभाग पितामह श्रीब्रह्माजीकी शरण में गये। 

देवताओं से सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनकर श्री ब्रह्माजीने उनसे कहा, 'हे देवगण! तुम दैत्य-दलन परावरेश्वर भगवान् विष्णुकी शरण जाओ, जो संसार की उत्पत्ति,स्थिति और संहार के कारण हैं किन्तु [ वास्तवमें] कारण भी नहीं हैं और जो चराचर के ईश्वर, प्रजापतियों के स्वामी, सर्वव्यापक, अनन्त और अजेय हैं तथा जो अजन्मा किन्तु कार्यरूप में परिणत हुए प्रधान ( मूलप्रकृति) और पुरुषके कारण हैं एवं शरणागतवत्सल हैं। [शरण जानेपर ] वे अवश्य तुम्हारा मंगल करेंगे '।

सम्पूर्ण देवगणों से इस प्रकार कह लोकपितामह श्रीब्रह्माजी भी उनके साथ क्षीरसागर के उत्तरी तटपर गये। वहाँ पहुँचकर पितामह ब्रह्माजीने समस्त देवताओं के साथ परावरनाथ श्रीविष्णु भगवान्‌की अति मंगलमय वाक्यों से स्तुति की। ब्रह्माजी कहने लगे – जो समस्त अणुओं से भी अणु और पृथ्वी आदि समस्त गुरुओं ( भारी पदार्थों ) -से भी गुरु (भारी) हैं; उन निखिललोकविश्राम, पृथिवी के आधारस्वरूप, अप्रकाश्य, अभेद्य, सर्वरूप, सर्वेश्वर, अनन्त, अज और अव्यय नारायणको मैं नमस्कार करता हूँ। मेरे सहित सम्पूर्ण जगत् जिसमें स्थित हैं, जिससे उत्पन्न हुआ है और जो देव सर्वभूतमय है तथा जो पर (प्रधानादि) से भी पर है; जो पर पुरुषसे भी पर है, मुक्ति-लाभके लिये मोक्षकामी मुनिजन जिसका ध्यान धरते हैं तथा जिस ईश्वरमें सत्त्वादि प्राकृतिक गुणका सर्वथा अभाव है वह समस्त शुद्ध पदार्थोंसे भी परम शुद्ध परमात्मस्वरूप आदिपुरुष हमपर प्रसन्न हो। जिस शुद्धस्वरूप भगवान्‌की शक्ति (विभूति) कला - काष्ठा और मुहूर्त आदि काल-क्रमका विषय नहीं है, वे भगवान् विष्णु हमपर प्रसन्न हों। इस प्रकार कई तरीकों से देवताओंने भगवान विष्णु की स्तुति की तब भगवान ने प्रसन्न होकर उनके सम्मुख प्रकट हुए। तब उस शंख - चक्रगदाधारी उत्कृष्ट तेजोराशिमय अपूर्व दिव्य मूर्ति को देखकर पितामह आदि समस्त देवगण अति विनयपूर्वक प्रणामकर उन कमलनयन भगवान की स्तुति करने लगे। तब भगवान ने उनकी स्तुति सुनकर और उसी प्रकार उनके हृदय की बात जानकर भगवान मेघ के समान गंभीर वाणी से बोले। 


श्रीभगवान् ने कहा- ब्रह्मा, शङ्कर और देवताओ! तुमलोग सावधान होकर मेरी सलाह सुनो। तुम्हारे कल्याणका यही उपाय है। इस समय असुरों पर काल की कृपा है। इसलिये जबतक तुम्हारे अभ्युदय और उन्नतिका समय नहीं आता, तबतक तुम दैत्य और दानवों के पास जाकर उनसे सन्धि कर लो। देवताओ ! कोई बड़ा कार्य करना हो तो शत्रुओंसे भी मेल-मिलाप कर लेना चाहिये। यह बात अवश्य है कि काम बन जानेपर उनके साथ साँप और चूहेवाला बर्ताव कर सकते हैं तुमलोग बिना विलम्बके अमृत निकालने का प्रयत्न करो। उसे पी लेनेपर मरनेवाला प्राणी भी अमर हो जाता है पहले क्षीरसागर में सब प्रकार के घास, तिनके, लताएँ और ओषधियाँ डाल दो। फिर तुमलोग मन्दराचलकी मथानी और वासुकि नाग की नेती बनाकर मेरी सहायता से समुद्र का मन्थन करो। अब आलस्य और प्रमाद का समय नहीं है। देवताओ ! विश्वास रक्खो – दैत्यों को तो मिलेगा केवल श्रम और क्लेश, परन्तु फल मिलेगा तुम्हीं लोगोंको देवताओ ! असुर लोग तुमसे जो-जो चाहें, सब स्वीकार कर लो । शान्ति से सब काम बन जाते हैं, क्रोध करने से कुछ नहीं होता पहले समुद्र से कालकूट विष निकलेगा, उससे डरना नहीं और किसी भी वस्तुके लिये कभी भी लोभ न करना। पहले तो किसी वस्तुकी कामना ही नहीं करनी चाहिये, परन्तु यदि कामना हो और वह पूरी न हो, तो क्रोध तो करना ही नहीं चाहिये

देवताओं को यह आदेश देकर पुरुषोत्तम भगवान् उनके बीच से अन्तर्धान हो गये। वे सर्वशक्तिमान् एवं परम स्वतन्त्र जो ठहरे। उनकी लीलाका रहस्य कौन समझे
 उनके चले जानेपर ब्रह्मा और शङ्कर ने फिर से भगवान्‌ को नमस्कार किया और वे अपने-अपने लोकोंको चले गये, तदनन्तर इन्द्रादि देवता दैत्यों के राजा बलि के पास गये देवताओं को बिना अस्त्र-शस्त्र के सामने आते देख दैत्य सेनापतियों के मनमें बड़ा क्षोभ हुआ। उन्होंने देवताओं को पकड़ लेना चाहा। परन्तु दैत्यराज बलि सन्धि और विरोधके अवसरको जाननेवाले एवं पवित्र कीर्तिसे सम्पन्न थे। उन्होंने दैत्योंको वैसा करनेसे रोक दिया। इसके बाद देवतालोग बलि के पास पहुँचे। बलि ने तीनों लोकों को जीत लिया था। वे समस्त सम्पत्तियों से सेवित एवं असुर सेनापतियों से सुरक्षित होकर अपने राजसिंहासन पर बैठे हुए थे बुद्धिमान् इन्द्र ने बड़ी मधुर वाणी से समझाते हुए राजा बलि से वे सब बातें कहीं, जिनकी शिक्षा स्वयं भगवान्ने उन्हें दी थी वह बात दैत्यराज बलिको जँच गयी। वहाँ बैठे हुए दूसरे सेनापति शम्बर, अरिष्टनेमि और त्रिपुरनिवासी असुरोंको भी यह बात बहुत अच्छी लगी तब देवता और असुरों ने आपस में सन्धि समझौता करके मित्रता कर ली

श्रोतागणों! वे सब मिलकर अमृतमन्थनके लिये पूर्ण उद्योग करने लगे
 इसके बाद उन्होंने अपनी शक्ति से मन्दराचल को उखाड़ लिया और ललकारते तथा गरजते हुए उसे समुद्रतट की ओर ले चले। उनकी भुजाएँ परिघके समान थीं, शरीर में शक्ति थी और अपने अपने बलका घमंड तो था ही परन्तु एक तो वह मन्दरपर्वत ही बहुत भारी था और दूसरे उसे ले जाना भी बहुत दूर था। इससे इन्द्र, बलि आदि सब-के-सब हार गये। जब ये किसी प्रकार भी मन्दराचलको आगे न ले जा सके, तब विवश होकर उन्होंने उसे रास्ते में ही पटक दियावह सोनेका पर्वत मन्दराचल बड़ा भारी था। गिरते समय उसने बहुत-से देवता और दानवोंको चकनाचूर कर डाला उन देवता और असुरो के हाथ, कमर और कंधे टूट गए और मन भी टूट गया। उनका उत्साह भंग हुआ देख गरुड़ पर चढ़े हुए भगवान सहसा वही प्रकट हुए और मन्दराचल को समुंद्रतट तक ले जाने में सहायता की। 

इसके बाद देवता और असुरों ने नागराज वासुकि को यह वचन देकर कि समुद्रमन्थन से प्राप्त होनेवाले अमृत में तुम्हारा भी हिस्सा रहेगा, उन्हें भी सम्मिलित कर लिया। इसके बाद उन लोगों ने वासुकि नाग को नेती के समान मन्दराचल में लपेटकर भली भाँति उद्यत हो बड़े उत्साह और आनन्द से अमृतके लिये समुद्रमन्थन प्रारम्भ किया। उस समय पहले-पहल अजित भगवान् वासुकि के मुखकी ओर लग गये, इसलिये देवता भी उधर ही आ जुटे, परन्तु भगवान्‌ की यह चेष्टा दैत्य सेनापतियों को पसंद न आयी उन्होंने कहा कि पूँछ तो साँप का अशुभ अङ्ग है, हम उसे नहीं पकड़ेंगे हमने वेद-शास्त्रों का विधि पूर्वक अध्ययन किया है, ऊँचे वंश में हमारा जन्म हुआ है और वीरता के बड़े-बड़े काम हमने किये हैं। हम देवताओं से किस बातमें कम हैं ?' यह कहकर वे लोग चुपचाप एक ओर खड़े हो गये। उनकी यह मनोवृत्ति देखकर भगवान् ने  मुसकराकर वासुकि का मुँह छोड़ दिया और देवताओं के साथ उन्होंने पूँछ पकड़ ली इस प्रकार अपना-अपना स्थान निश्चित करके देवता और असुर अमृत प्राप्ति के लिये पूरी तैयारी से समुद्रमन्थन करने लगे। जब समुद्रमन्थन होने लगा, तब बड़े-बड़े बलवान् देवता और असुर कि पकड़े रहने पर भी अपने भार की अधिकता और नीचे कोई आधार न होनेके कारण मन्दराचल समुद्र में डूबने लगा इस प्रकार अत्यन्त बलवान् दैव के द्वारा अपना सब किया-कराया मिट्टी में मिलते देख उनका मन टूट गया। सबके मुँहपर उदासी छा गयी 

उस समय भगवान्‌ ने देखा कि यह तो विघ्नराज की करतूत है। इसलिये उन्होंने उसके निवारणका उपाय सोचकर अत्यन्त विशाल एवं विचित्र कच्छप का रूप धारण किया और समुद्र के जलमें प्रवेश करके मन्दराचल को ऊपर उठा दिया। भगवान्‌ की शक्ति अनन्त है। वे सत्यसङ्कल्प है। उनके लिये यह कौन-सी बड़ी बात थी
 देवता और असुरोंने देखा कि मन्दराचल तो ऊपर उठ आया है, तब वे फिरसे समुद्र मन्थनके लिये उठ खड़े हुए। उस समय भगवान्‌ने जम्बूद्वीप के समान एक लाख योजन फैली हुई अपनी पीठपर मन्दराचल को धारण कर रखा था जब बड़े-बड़े देवता और असुरोंने अपने बाहुबलसे मन्दराचलको प्रेरित किया, तब वह भगवान की पीठपर घूमने लगा। अनन्त शक्तिशाली आदि कच्छप भगवान को उस पर्वतका चक्कर लगाना ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई उनकी पीठ खुजला रहा हो साथ ही समुद्र मन्थन सम्पन्न करने के लिये भगवान्‌ने असुरोंमें उनकी शक्ति और बलको बढ़ाते हुए असुररूप से प्रवेश किया। वैसे ही उन्होंने देवताओं को उत्साहित करते हुए उनमें देवरूप से प्रवेश किया और वासुकिनाग में निद्राके रूपसे। इधर पर्वतके ऊपर दूसरे पर्वतके समान बनकर सहस्रबाहु भगवान् अपने हाथोंसे उसे दबाकर स्थित हो गये। उस समय आकाशमें ब्रह्मा, शङ्कर, इन्द्र आदि उनकी स्तुति और उनके ऊपर पुष्पों की वर्षा करने लगे 

इस प्रकार देवता और दानव भगवान की सहायता से समुन्द्रमंथन करने लगे, इस प्रकार समुंद्र मथे जाने पर सबसे पहले उसमे से हलाहल नामक अत्यंत उग्र विष निकला, वह विष दिशा, विदिशा में, ऊपर निचे सभी जगह उड़ने और फैलने लगा, इस विष से जीवन को बचने के लिए भगवान शंकर ने उसे ग्रहण कर लिया और विष के प्रभाव से भगवान शंकर का कंठ नीला पड़ गया और वे नील कंठ कहलाये। इस प्रकार जब भगवान शंकर ने विष पी लिया, तब देवता और दानव बड़े प्रसन्न हुए और उत्साह के साथ समुन्द्र मथने लगे। अब समुन्द्र से कामधेनु गाय प्रकट हुई जिसे ब्रम्हवादी ऋषियों ने ले लिया, फिर उच्चैश्रवा नामक घोड़ा निकला जिसे असुरो ने लिया, फिर ऐरावत नामक हाथी निकला जिसे इंद्र ने लिया, फिर कौस्तुभ नामक मणि निकली जिसे अजित भगवान ने लिया, इसके बाद स्वर्गलोग की सोभा बढ़ानेवाला कल्पवृक्ष निकला, फिर अप्सराएँ प्रकट हुई, इसके बाद शोभा की मूर्ति स्वयं भगवती लक्ष्मी देवी प्रकट हुई जो श्री विष्णु भगवान के वक्षस्थल में विराजमान हुई। इसके बाद वरुणीदेवी प्रकट हुई जिन्हे भगवान की अनुमति से असुरो ने ले लिया।

तदन्तर, अमृत की इच्छा से जब और समुन्द्र मंथन किया गया तो अंत में  शरीर पर पीताम्बर धारण किये हुए, भगवान विष्णु के अंशअवतार, आयुर्वेद के प्रवर्तक भगवान धन्वन्तरि, हाथ में अमृत का कलश लिए हुए  प्रकट हुए।   

जब दैत्यों की दृष्टि अमृत कलश पर पड़ी, तब उन्होंने उस अमृत कलश को धन्वन्तरि के हाथ से छीन लिया। इस प्रकार असुरों द्वारा कलश छीन लिए जाने पर देवता परेशान हुए और भगवान विष्णु के पास गए कि वे उनकी सहायता करे, तब भगवान विष्णु ने मोहिनी नामक एक स्री का रूप धारण किया जो अत्यंत सुन्दर और मन को मोह लेने वाला था। इधर असुरों में झगड़ा हो रहा था की अमृत को पहले कौन पियेगा वे झगड़ रहे थे की पहले मैं पियूँगा, पहले मैं पियूँगा, उसी बीच वहां मोहिनी अवतार धारण किये हुए भगवान आ पहुंचे, जिनके रूप को देख कर असुर मोहित हो गए और उससे उसका परिचय पूछने के बाद उससे बोले की हम लोग इस अमृत को पिने के लिए झगड़ रहे हैं, तुम न्याय के अनुसार निष्पक्ष रूप से इसे हम लोगो में बाँट दो, जिससे हमरा झगड़ा खतम हो जाये। ऐसा कहकर असुरो ने अमृत कलश उस स्त्री के हाथ में दे दिया। मोहिनी अवतार भगवान ने अमृत कलश अपने हाथ में लेकर मुस्कुराते हुए मीठी बाणी से कहा -  मैं उचित या अनुचित जो भी करू, वह सब यदि तुम लोगो को स्वीकार हो  तो मैं यह अमृत बाँट सकती हूँ। असुर उनकी चालाकी को न समझकर, एक स्वर में बोल पड़े 'स्वीकार है '  

इसके बाद एक दिन का उपवास करके सबने स्नान किया। हविष्य से अग्नि में हवन किया। दान दिए और अपनी - अपनी रूचि के अनुसार वस्त्र धारण करके पूर्व दिशा की ओर मुँह करके कुशासनों पर बैठ गए, उसी समय हाथो में अमृत का कलश लेकर मोहनी अवतार भगवान वहा आ पहुंचे। तब भगवान ने विचार किया की असुर तो जन्म से क्रूर स्वभाव वाले हैं इन्हे अमृत पिलाना सर्पों को दूध पिलाने जैसा होगा। ऐसा विचार कर भगवान ने असुरो और देवताओ की दो अलग - अलग पंक्तियाँ बना दी और फिर देवता और दानव अपने - अपने दल में बैठ गए। तब मोहिनी अवतार भगवान देवताओं को अमृत पिलाने लगे, जिसे पी कर बुढ़ापे और मृत्यु का नाश हो जाता हैं। भगवान ने सारा अमृत देवताओ को पीला दिया और असुर अपनी प्रतिज्ञा के कारण कुछ न बोल सके किन्तु जब भगवान देवताओ को अमृत पीला रहे थे उसी समय राहु नामक दैत्य देवताओं के बीच भेष बदलकर आ बैठा और देवताओ के साथ उसने भी अमृत पी लिया किन्तु उसी समय चन्दमा और सूर्य ने उसका भेद खोल दिया, भेद खुलते ही भगवान ने अपने चक्र से उसका सर काट दिया, अमृत का संसर्ग न होने के कारण उसका धड़ निचे गिर गया किन्तु सर अमर हो गया। जब देवताओं ने अमृत पी लिया तब भगवान ने मोहिनी रूप त्याग कर अपने असली रूप में आ गए और अपने गरुण पर सवार होकर अपने धाम को चले गए। इधर देवताओं को अपनी खोई हुई हर वस्तु प्राप्त हो गयी और वे भी अपने लोको को चले गए। 

इस प्रकार भगवान के कूर्म और मोहिनी अवतार से समुन्द्र मंथन सफल हुआ और देवताओं को अमृत और अपने खोए हुए वैभव की प्राप्ति हुई।