अध्याय 11 - राष्ट्रीय आंदोलन (१९२३-१९३९ ई०)
असहयोग आंदोलन को वापस लेने के बाद कुछ साल तक कोई देशव्यापी जन-आंदोलन नहीं हुआ। कुछ समय तक देश में व्यापक निराशा छाई रही। सांप्रदायिक दंगे हुए। असहयोग आंदोलन के पहले और इसके दौरान जो हिंदू-मुस्लिम एकता बनी थी वह टूटती नजर आने लगी। आजादी के आंदोलन को स्पष्टतः क्षति पहुंची थी। 1923 ई० में स्थापित स्वराज पार्टी ने और कांग्रेस के रचनात्मक कार्यक्रम ने आजादी के आंदोलन की भावना को जीवित रखा और इसके संदेश को सारे देश में फैलाया। इस बीच राष्ट्रीय आंदोलन के संघर्ष के उद्देश्यों को पहले की अपेक्षा अधिक प्रखर और स्पष्ट बनाया। जल्दी ही पहले से अधिक व्यापक स्तर पर देशव्यापी जन-आंदोलन पुनः शुरू हुआ।
स्वराज पार्टी और रचनात्मक कार्यक्रम
असहयोग आंदोलन को वापस लेने के बाद कांग्रेस दो दलों में बंट गई। जब असहयोग आंदोलन शुरू हुआ था, तब विधान परिषदों का बहिष्कार करने का निर्णय लिया गया था। एक दल, जिसका नेतृत्व चितरंजन दास, मोतीलाल नेहरू और विट्ठलभाई पटेल कर रहे थे, चाहता था कि कांग्रेस को चुनावों में भाग लेना चाहिए और परिषदों को उनके भीतर पहुंचकर तोड़ना चाहिए। दूसरा दल, जिसका नेतृत्व बल्लभ भाई पटेल, चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य और राजेंद्र प्रसाद कर रहे थे, इस प्रस्ताव का विरोधी था। वे चाहते थे कांग्रेसी रचनात्मक कार्य में लगी रहे।
सन् 1922 ई० में कांग्रेस का अधिवेशन गया में हुआ। इसके अध्यक्ष चितरंजन दास थे। इस अधिवेशन ने परिषदों में न जाने के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। इस प्रस्ताव के समर्थकों ने 1923 ई० में 'कांग्रेस खिलाफत स्वराज पार्टी' की स्थापना की। यह 'स्वराज पार्टी' के नाम से प्रसिद्ध हुई। अबुल कलाम आजाद की अध्यक्षता में दिल्ली में आयोजित विशेष अधिवेशन में कांग्रेस ने स्वराज्य को चुनाव लड़ने की अनुमति दे दी। स्वराजियों ने केंद्रीय और प्रांतीय परिषदों में काफी संख्या में सीटें प्राप्त की। इस काल में व्यापक राजनीतिक गतिविधियां नहीं हुई, मगर ब्रिटिश-विरोधी भावनाओं को जीवित रखने में स्वराजियों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। उन्होंने ब्रिटिश शासकों द्वारा प्रस्तुत उनकी नीतियों तथा प्रस्तावों के लिए परिषदों की सम्मति प्राप्त करना लगभग असंभव बना दिया।
उदाहरण के लिए सरकार ने 1928 ई० में विधान परिषद में एक ऐसा बिल पेश किया जिसके तहत वह भारत के आजादी के संघर्ष को समर्थन देने वाले किसी भी गैर-भारतीय को देश से निकाल सकती थी। वह बिल पास नहीं हुआ। सरकार ने पुनः उस बिल को पेश करने की कोशिश की तो परिषद के अध्यक्ष विट्ठलभाई पटेल ने उसे पेश करने की अनुमति नहीं दी। परिषदों में होने वाली बहसों में भारतीय सदस्य अक्सर सरकार को पछाड़ देते थे और उसकी निंदा करते थे। इन बहसों के समाचार सारे देश में बड़े चाव से पढ़े जाते थे।
सन् 1930 ई० में पुनः राजनीतिक जन-संघर्ष शुरू हुआ, तो फिर से विधान परिषदों का बहिष्कार किया गया।
फरवरी 1924 ई० में गांधी जी जेल से छूटे और रचनात्मक कार्यक्रम जिसे कांग्रेस के दोनों गुटों ने स्वीकार किया था, कांग्रेस की प्रमुख गतिविधियां बन गया। रचनात्मक कार्यक्रम के सबसे प्रमुख घटक थे - खादी का प्रचार, हिंदू-मुस्लिम एकता को मजबूत बनाना और अस्पृश्यता को दूर करना। किसी भी कांग्रेस कमेटी के सदस्य के लिए यह अनिवार्य हो गया कि वह हाथों से काते तथा बुने हुए खद्दर का ही इस्तेमाल करें और प्रति माह 2000 गज सूत काते। अखिल भारतीय खादी संगठन की स्थापना हुई। देशभर में खादी भंडार खोले गए। गांधीजी खादी को गरीबों की दरिद्रता से मुक्ति देने वाला और देश के आर्थिक उत्थान का साधन मानते थे। इसने लाखों लोगों को जीविका के साधन प्रदान किए। इससे आजादी के संघर्ष के संदेश को देश के हर हिस्से में, विशेषकर देहाती क्षेत्रों में, पहुंचाने में योग दिया। इसने देश की आम जनता को कांग्रेस के नजदीक पहुंचाया और आम आदमी का उद्धार करना कांग्रेस के कार्य का अनिवार्य अंग बन गया। चरखा आजादी के आंदोलन का प्रतीक बन गया।
असहयोग आंदोलन को वापस लेने के बाद देश के कुछ भागों में सांप्रदायिक दंगे शुरू हुए थे। जनता की एकता को मजबूत बनाने के लिए और आजादी के संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए सांप्रदायिकता के दानवों के खिलाफ लड़ना आवश्यक था। गांधी जी का अस्पृश्यता-निवारण का कार्य भारतीय समाज की सबसे बड़ी बुराई को खत्म करने और भारतीय समाज के दलित व उत्पीड़ित वर्गों को आजादी के संघर्ष में खींचने के लिए आवश्यक था।
किसानों और मजदूरों का आंदोलन
तुमने पहले पढ़ा है कि भारत में ब्रिटिश शासन स्थापित होने के बाद से देश के विभिन्न भागों के किसानों ने कई बार विद्रोह किए। आज़ादी के प्रथम वास्तविक जन-आंदोलन असहयोग आंदोलन में किसानों ने बड़ी संख्या में भाग लिया। देश के विभिन्न भागों में किसान सभाएं बनी और उन्होंने जमीदारों तथा ब्रिटिश अधिकारियों के दमन के खिलाफ लड़ाइयां लड़ी। कई स्थानों में किसानों ने कर तथा लगान देने से इंकार कर दिया। किसानों को संगठित करने वाले कुछ नेता थे - बाबा रामचंद्र, विजय सिंह पथिक, सहजानंद सरस्वती और एन. जी. रंगा। अल्लूरि सीतारामराजू ने आंध्र के किसानों तथा आदिवासियों के विद्रोह का नेतृत्व किया। उन्हें पकड़ लिया गया और 1924 ई० में मार दिया गया। असहयोग आंदोलन के दौरान मोपला विद्रोह के बारे में तुम पहले ही पढ़ चुके हो। भारत में गांधीजी की कुछ आरंभिक गतिविधियां किसानों के संघर्ष से संबंधित थी।
किसान आंदोलनों के दो पहलू थे। दोनों का ही आजादी के राष्ट्रीय संघर्ष से संबंध था। एक पहलू था किसानों का आजादी के संघर्ष में शामिल होना। इसने संघर्ष को व्यापक जन-आधार प्रदान किया और इसे एक वास्तविक जन-आंदोलन बना दिया। दूसरा पहलू किसानों की शिकायतों से संबंधित था। जैसे, जमीदारों, सरकार तथा महाजनों द्वारा किसानों का शोषण, ऊंचे कर तथा लगान और उनका भूमिहीन होना। किसानों की इन कठिनाइयों को दूर करना आजादी के संघर्ष का एक प्रमुख अंग बन गया। किसानों की विशिष्ट मांगों के लिए किए गए संघर्षों में अनेक राष्ट्रीय नेताओं ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। 1928 ई० में वल्लभभाई पटेल ने भू-राजस्व में वृद्धि के खिलाफ बारदोली के किसानों के संघर्ष का नेतृत्व किया। यद्यपि देश के अनेक भागों में किसानों के संगठन स्थापित हुए थे, मगर किसानों का पहला अखिल भारतीय संगठन 1936 ई० में स्थापित 'ऑल इंडिया किसान सभा' था। इस संगठन ने किसानों की मांगों और आजादी के संघर्ष के बीच गहरे संबंध स्थापित किए।
औद्योगिक मजदूर भारतीय समाज में एक नए वर्ग के रूप में उभरे थे। बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों से उन्होंने भी अपने को संगठित करना शुरू कर दिया था। आरंभिक दौर का एक प्रमुख मजदूर संगठन था। 1918 ई० में स्थापित 'मद्रास लेबर यूनियन' बी. पी. वाडिया, थिरू कल्याणसुंदरम् चक्कराई चोटि्टयार इसके प्रमुख नेता थे। मजदूरों के इस तरह के संगठन देश के अन्य प्रमुख नगरों में भी स्थापित हुए। सरकार में ट्रेड यूनियन आंदोलन के अग्रणी नेता नारायण मल्हार जोशी थे। उन्होंने मजदूरों के पहले अखिल भारतीय संगठन 'ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस' की स्थापना में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इस संगठन की स्थापना बंबई में 1920 ई० में हुई थी। इसके प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष लाला लाजपत राय थे। किसानों के आंदोलन की तरह मजदूरों का यह आंदोलन भी राष्ट्रीय आंदोलन के साथ गहराई से जुड़ा था। मजदूरों के आंदोलन का प्रमुख लक्ष्य मजदूरों के जीवन-स्तर को सुधारना था। चितरंजन दास, जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस जैसे चोटी के अनेक नेता ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस के अध्यक्ष बने।
मजदूरों और किसानों के आंदोलन पर समाजवादी विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा था। भारत के समाजवादी आंदोलन के नेताओं ने मजदूरों और किसानों को संगठित करने में अत्याधिक महत्व की भूमिका अदा की है। आजादी के संघर्ष में शामिल होकर उन्होंने इसके सामाजिक और आर्थिक उद्देश्य को बड़ी गहराई से प्रभावित किया।
समाजवादी विचारों का फैलाव
तुमने प्रथम अध्याय में उन्नसवीं सदी में यूरोप में समाजवादी विचारों तथा आंदोलनों के उदय के बारे में और 1917 ई० की रूसी क्रांति के बारे में पढ़ा है। समाजवादी विचारों तथा उन पर आधारित आंदोलनों का लक्ष्य था पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा निर्मित असमानता को खत्म करना। समाजवादी आंदोलन अपने दृष्टिकोण में अंतर्राष्ट्रीयवादी थे, यानी वे सभी देशों के आम लोगों और मजदूरों को भाई-भाई मानते थे और एक देश द्वारा दूसरे पर शासन करने के विरोधी थे। उन्होंने दुनिया के सभी भागों में सामाजिक व आर्थिक समानता स्थापित करने में प्रयत्नशील आंदोलनों को और साम्राज्यवादी शासन से मुक्ति पाने के लिए किए जा रहे संघर्षों का समर्थन किया।
भारत की आजादी के कुछ नेता, विशेषकर भारत के बाहर सक्रिय कांतिकारी, यूरोप के समाजवादी आंदोलन के नेताओं के संपर्क में आए थे और समाजवादी विचारों से प्रभावित हुए थे। रूसी क्रांति ने रूस के सम्राट (ज़ार) के निरंकुश शासन को खत्म करके सोवियत संघ में समाजवाद के निर्माण का कार्य शुरू कर दिया था। सोवियत संघ में रूस के अलावा रूसी सम्राट द्वारा विजित कई अन्य प्रदेश शामिल हुए थे। रूसी क्रांति ने घोषणा की कि प्रत्येक देश को अपना लक्ष्य निर्धारित करने का अधिकार है। रूसी क्रांति ने आजादी के लिए संघर्ष कर रहे सभी लोगों को अपना समर्थन दिया। भारत के बाहर रह रहे क्रांतिकारी मानवेंद्र नाथ राय ने कई देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा स्थापित कम्युनिस्ट इंटरनेशनल में कई साल तक सक्रिय काम किया। समाजवादी विचारों तथा रूसी क्रांति से प्रभावित होकर भारत में समाजवादी विचारों का प्रचार करने के उद्देश्य से कई समाजवादी तथा कम्युनिस्ट समूह की स्थापना हुई। इन समूहों के अधिकांश नेताओं ने असहयोग आंदोलन में भाग लिया था इन समूहों के कुछ नेता थे श्रीपाद अमृत डांगे, एम. सिंगारवेलू, शौकत उस्मानी और मुज़्ज़्फर अहमद। इनमें से कुछ समूह एक-दूसरे के नजदीक आए और उन्होंने 1925 ई० में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की। मजदूरों और किसानों को संगठित करने में कम्युनिस्टों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
समाजवादी विचार और रूसी क्रांति का देश के तरुण तथा राष्ट्रीय आंदोलन के तरुण नेताओं पर गहरा प्रभाव पड़ा। भारत में समाजवादी विचार को लोकप्रिय बनाने वाले राष्ट्रीय आंदोलन के सबसे प्रमुख नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उन्होंने बेहतर जीवन के लिए आजादी के आंदोलन को मेहनतकश जनता के संघर्ष के साथ जोड़ने की आवश्यकता पर बल दिया। जवाहरलाल के प्रभाव में 1934 ई० में 'कांग्रेस समाजवादी पार्टी' की स्थापना हुई। इस पार्टी ने कांग्रेस के साथ जुड़कर काम किया। इसने किसानों तथा मजदूरों को संगठित करने में और आजादी के संघर्ष के सामाजिक तथा आर्थिक उद्देश्यों से संबंधित कांग्रेस की नीतियों को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
किसानों तथा मजदूरों के आंदोलन के उदय का और देश में समाजवादी विचारों की बढ़ती लोकप्रियता का आजादी के संघर्ष पर गहरा प्रभाव पड़ा। यह प्रभाव आजादी के संघर्ष के अगले दौर में अधिकाधिक स्पष्ट होता गया।
क्रांतिकारी आंदोलन
बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में क्रांतिकारी दलों की जो गतिविधियां रही उनके बारे में तुम पढ़ चुके हो। प्रथम महायुद्ध के बाद कुछ साल तक क्रांतिकारियों की गतिविधियां शिथिल रही। असहयोग आंदोलन के दौरान लाखों लोगों ने, हिंसा को अपनाए बिना, सरकार का खुलेआम विरोध किया था। इसलिए हर एक को यह स्पष्ट हो गया था कि व्यक्ति-विशेष के खिलाफ हिंसा की कार्रवाइयां करना निरर्थक है। असहयोग आंदोलन को वापस लेने से जो निराशा फैलीं थी उससे 1920 ई० के दशक में क्रांतिकारी गतिविधियां शुरू हुई। सचिन सान्याल, योगेश चटर्जी तथा दूसरों ने मिलकर 'हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन' नामक एक संगठन स्थापित किया। इसका उद्देश्य था ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के लिए एक सशस्त्र विद्रोह का संगठन करना। 1925 ई० में क्रांतिकारियों के एक दल ने हरदोई से लखनऊ जा रही एक रेल को काकोरी स्थान पर रोका और एक बक्से में बंद सरकारी खजाने को लूट लिया। क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए पैसा जुटाने के उद्देश्य से यह काम किया गया था। इस घटना के बाद कई क्रांतिकारियों को पकड़ा गया और काकोरी षड्यंत्र केस के अंतर्गत उन पर मुकदमा चलाया गया। उनमें से चार - रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खां, रोशन सिंह और राजेंद्र लाहिरी को मृत्युदंड सुना कर फांसी दी गई। दूसरों को लंबे कारावास की सजाएं दी गई। चंद्रशेखर आजाद भी हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य थे, मगर वे पकड़े नहीं गए। उन्होंने दूसरे क्रांतिकारियों के साथ मिलकर 1928 ई० में "हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी" की स्थापना में योगदान दिया। इस संगठन के प्रमुख नेता भगत सिंह थे। दिसंबर, 1928 ई० में पुलिस अफसर सौंडर्स की हत्या कर दी गई। पुलिस द्वारा पीटे जाने के कारण लाला लाजपत राय की मृत्यु हुई थी। सौंडर्स को कुछ घटना के लिए जिम्मेदार समझा गया था। सबसे नाटकीय घटना 8 अप्रैल 1929 ई० को केंद्रीय विधानसभा में घटित हुई। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने केंद्रीय विधानसभा में दो बम फेंके। नए दमनकारी कानूनों का और कुछ समय पहले मार्च में की गई 31 मजदूर नेताओं की गिरफ्तारी का विरोध प्रकट करने के लिए उन्होंने यह कार्य किया था। स्पष्ट था कि केवल विरोध प्रकट करने के लिए ही बम फेंके गए थे, न कि किसी की हत्या करने के लिए। भगत सिंह और दत्त ने भागने की कोशिश नहीं की। वे वहीं पर खड़े रहे और 'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा लगाते रहे। वे गिरफ्तार कर लिए गए। बाद में इस दल के अधिकांश क्रांतिकारियों को भी पकड़ लिया गया। जेल में उनके साथ बुरा सलूक किया गया, तो विरोध में उन्होंने भूख-हड़ताल शुरू की। भूख हड़ताल के 64वें दिन एक क्रांतिकारी जतिन दास की मृत्यु हो गई तो सारे देश को बड़ा सदमा पहुंचा। मुकदमे के दौरान क्रांतिकारियों ने बड़े साहस का परिचय दिया और वे आख्यान पुरुष बन गए। भगत सिंह के साहस का सारे देश को विशेष गौरव हुआ। तीन क्रांतिकारियों - भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा दी गई। शेष क्रांतिकारियों में से सात को आजीवन कारावास की सजा दी गई। देशभर के लोगों के विरोध के बावजूद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को 23 मार्च, 1931 ई० को फांसी दे दी गई। फांसी के समाचार से जनता को बड़ा धक्का लगा। सारे देश में हड़तालें हुई, जुलूस निकाले गए और शोक सभाएं हुई। चंद्रशेखर आजाद पुनः भाग निकलने में सफल हुए। मगर इलाहाबाद में पुलिस के साथ हुई एक भिंड़त में उनकी मृत्यु हो गई।
क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास की एक सबसे महत्वपूर्ण घटना 1930 ई० में बंगाल में घटित हुई। 18 अप्रैल, 1930 ई० को इंडियन रिपब्लिक आर्मी के क्रांतिकारियों ने सूर्य सेन के नेतृत्व में चटगांव के पुलिस शस्त्रागार पर हमला किया। कुछ समय तक चटगांव में ब्रिटिश शासन नहीं चला। उसके तुरंत बाद दूसरे स्थानों पर भी क्रांतिकारी हिंसा की घटनाएं घटी। पंजाब में हरिकिशन ने पंजाब के गवर्नर की हत्या की कोशिश की। दिसंबर 1930 ई० में तीन जवानों - विनय बोस, बादल गुप्ता और दिनेश गुप्ता ने कोलकाता के राइटर्स बिल्डिंग में प्रवेश करके जेलों के पुलिस अधीक्षक की हत्या कर दी। इंडियन रिपब्लिकन आर्मी के जो अधिकांश नेता ब्रिटिश फौज से लड़ने के बाद भाग निकले थे उन्हें बाद में गिरफ्तार कर लिया गया। उनमें से दो - सूर्य सेन और तारकेश्वर दस्तीदार को मृत्युदंड दिया गया। इंडियन रिपब्लिकन आर्मी की गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाली दो तरुण लड़कियां थी - प्रीतिलता वाडेदार और कल्पना दत्त। अंग्रेजों के हाथों में न पड़े इसलिए प्रीतिलता ने जहर खा लिया। कल्पना दत्त को आजीवन कारावास की सजा दी गई।
सन् 1920 ई० के दशक के आरंभ में जो क्रांतिकारी गतिविधियां फिर से शुरू हुई थी वे देश के विभिन्न भागों में कुछ सालों तक जारी रही। इस बीच क्रांतिकारी महसूस करने लगे की हिंसात्मक घटनाओं से कोई लाभ नहीं होगा। उनमें से अधिकांश समाजवादी विचारधारा की ओर आकर्षित हु भगत सिंह और उसके साथियों ने देश में समाजवादी क्रांति लाने के लिए किसानों और मजदूरों को संगठित करने पर जोर दिया। विभिन्न जेलों में, अंदमान के सेलुलर जेल में भी बंद क्रांतिकारियों को जब रिहा कर दिया गया, तो उनमें से अधिकांश ने किसानों और मजदूरों के संगठन बनाए। उनमें से अनेक कांग्रेस तथा कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए और उन्होंने देश के आजादी के जन-संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करना शुरू कर दिया।
यद्यपि राष्ट्रीय आंदोलन के अधिकांश नेता क्रांतिकारियों के तरीकों के विरोधी थे और अधिकांश लोगों ने संघर्ष का अहिंसात्मक तरीका अपनाया था, परंतु लोगों के लिए क्रांतिकारी प्रेरणा के सतत स्रोत बने रहे।
जब जन-संघर्ष शिथिल पड़ गया था, तब क्रांतिकारियों की गतिविधियों ने देश में लड़ाकू वातावरण पैदा करने में मदद दी। उन्होंने देश को संघर्ष के अगले दौर के लिए तैयार करने की महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
नए नेताओं का उदय
वर्तमान सदी के तीसरे दशक में तरुण नेताओं के एक नए समूह का उदय हुआ जिसने राष्ट्रीय आंदोलन में अधिकाधिक महत्व की भूमिका अदा की। इन तरुण नेताओं ने जनता को संगठित करने पर जोर दिया। उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन के उद्देश्य को स्पष्ट करने में योग दिया। जैसा कि तुमने देखा है, आरंभिक वर्षों में राष्ट्रीय आंदोलन मुख्यतः शिक्षित लोगों और मध्यवर्ग तक ही सीमित रहा। इसके उद्देश्य, जैसे कि भारतीयों के लिए उच्च सेवाओं में और सरकार में पद प्राप्त करना, वस्तुतः मध्यवर्ग के उद्देश्य थे। मगर नए नेताओं ने इस बात पर बल दिया कि केवल जनता ही सर्वोच्च सत्ता है और राष्ट्रीय आंदोलन को आम जनता की आकांक्षाओं के साथ जोड़ने पर ही यह सफल हो सकता है। उन्होंने जोर देकर कहा कि भारत के दारिद्रय और पिछड़ेपन को दूर करने के लिए आजादी हासिल करना आवश्यक है। उनके अनुसार राष्ट्रीय आंदोलन का उद्देश्य था भारतीय समाज की पुनर्रचना करना, दारिद्रय और पिछड़ेपन को खत्म करना और समानता तथा न्याय पर आधारित समाज की स्थापना करना। इसके लिए सबसे पहले आजादी प्राप्त करना आवश्यक है और केवल जनता के अपने संघर्ष से ही आजादी मिल सकती है। इन नए नेताओं ने देश के जवानों को बड़ा प्रभावित किया।
समाजवादी विचारों के प्रभाव की चर्चा हम पहले कर चुके हैं। राष्ट्रीय आंदोलन के तरुण नेता पर समाजवादी विचारों तथा रूसी क्रांति का गहरा प्रभाव पड़ा था। सोवियत संघ की साम्राज्यवाद विरोधी विदेश नीति ने और रूसी क्रांति के बाद सोवियत संघ के एशियाई भागों ने की प्रगति ने उन्हें बड़ा प्रभावित किया था। नए नेताओं ने समाजवादी विचारों को लोकप्रिय बनाने में मदद की और समानता पर आधारित समाज की स्थापना को राष्ट्रीय आंदोलन का लक्ष्य बनाकर इसे मजबूती प्रदान की।
नए नेताओं में सबसे प्रमुख थे जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस। जवाहरलाल नेहरू मोतीलाल नेहरू के बेटे थे। मोतीलाल नेहरू कांग्रेस के एक प्रमुख नेता थे। जवाहरलाल का जन्म 1889 ई० में हुआ था और उन्होंने इंग्लैंड में शिक्षा प्राप्त की थी। भारत लौटने पर वे गांधीजी के संपर्क में आए, उनसे प्रभावित हुए और आजादी के संघर्ष में शामिल हो गए। असहयोग आंदोलन के दौरान उन्हें जेल की सजा हुई। उत्तर प्रदेश के देहातों की अपनी यात्राओं के दौरान वे किसानों के संपर्क में आए और उन्होंने उनके कष्टों को देखा। बेहतर जीवन के लिए आम लोगों की आकांक्षाओं के वे हिमायती बन गए। उनकी दृष्टि में जनता की स्थिति में सुधार के लिए किया जाने वाला संघर्ष आजादी के लिए किए जाने वाले संघर्ष से पृथक नहीं था। वे एक ऐसे पहले राष्ट्रीय नेता थे जिन्होंने भारतीय राजाओं द्वारा शासित राज्यों की जनता के कष्टों को महसूस किया। इनमें से अधिकांश राज्यों में हालात शेष देश के हालात से बदतर थे। नाभा राज्य में अकाली सिखों द्वारा भ्रष्ट महंतों के खिलाफ शुरू किए गए संघर्ष को जब जवाहरलाल नेहरू देखने गए तो वहां उन्हें जेल में डाल दिया गया। राष्ट्रीय आंदोलन अंग्रेजों द्वारा सीधे शासित प्रदेशों तक सीमित था। जवाहरलाल नेहरू ने राजाओं द्वारा शासित राज्यों में शुरू हुए जनता के संघर्ष को आजादी के राष्ट्रीय आंदोलन का अंग बनाने में मदद दी। गांधीजी के बाद जवाहरलाल नेहरू भारतीय जनता के आजादी के संघर्ष के सबसे बड़े नेता बन गए।
सुभाष चंद्र बोस का जन्म कटक में 1897 ई० में हुआ था। उनके पिता वकील थे और उन्हें रायबहादुर की पदवी दी गई थी जो उन्होंने बाद में लौटा दी थी। कटक और कोलकाता में पढ़ाई पूरी करने के बाद माता-पिता के आग्रह पर सुभाष चंद्र आगे की पढ़ाई के लिए इंडियन सिविल सर्विस की परीक्षा की तैयारी करने के लिए इंग्लैंड गए। 1920 ई० में वे इंडियन सिविल सर्विस में चुने गए। सफल विद्यार्थियों में उन्होंने चौथा स्थान प्राप्त किया था। जलियांवाला बाग हत्याकांड ने उन्हें बड़ा सदमा पहुंचाया था। अप्रैल 1921 ई० में उन्होंने इंडियन सिविल सर्विस में इस्तीफा दे दिया और वह भारत लौट आए। लौटने के तुरंत बाद वे राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़े। उन्होंने असहयोग आंदोलन में भाग लिया और वे चितरंजन दास के निकट संपर्क में आए। 1924 ई० में उन पर क्रांतिकारियों की मदद करने का आरोप लगाया गया और तीन साल जेल में रखा गया। देश के विद्यार्थियों और जवानों को संगठित करने में और उन्हें आजादी के संघर्ष में लाने में सुभाष चंद्र बोस ने बड़े महत्व की भूमिका अदा की। वे राष्ट्रीय आंदोलन के एक बहुत बड़े नेता थे और नेताजी के नाम से लोकप्रिय हुए।
जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस राष्ट्रीय आंदोलन के एक नए समूह के नेता थे। वे ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष को अधिक तीव्र बनाना चाहते थे। वे स्वराज के नारे से संतुष्ट नहीं थे। स्वराज का मतलब था साम्राज्य के अंतर्गत स्वशासन प्राप्त करना। अतः यह पूर्ण आजादी नहीं थी। उन्होंने जोर देकर कहा कि राष्ट्रीय आंदोलन का उद्देश्य पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त करना होना चाहिए और आम जनता के सक्रिय सहयोग से ही इस लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। उनके प्रभाव के अंतर्गत राष्ट्रीय आंदोलन अधिकाधिक लड़ाकू बनता गया।
साइमन कमीशन
सन् १९२२ ई० के बाद राष्ट्रीय आंदोलन में जो एक प्रकार की नीरवता आ गई थी वह सन् 1922 ई० में टूट गई। उस साल ब्रिटिश सरकार ने 1919 ई० के इंडियन एक्ट के कामकाज की जांच करने के लिए एक कमीशन (आयोग) की नियुक्ति की। उस कमीशन के अध्यक्ष 'सर जॉन साइमन' थे, इसलिए वह 'साइमन कमीशन' के नाम से जाना जाता है। उस कमीशन की नियुक्ति से भारतीय जनता को बड़ा गहरा धक्का लगा। कमीशन के सभी सदस्य अंग्रेज थे। उसमें एक भी भारतीय को शामिल नहीं किया गया था। सरकार में स्वराज की मांग स्वीकार करने के बारे में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। कमीशन के गठन के भारतीय जनता की आशंका की पुष्टि कर दी थी।
कमीशन की नियुक्ति से सारे देश में विरोध की लहर फैल गई। 1927 ई० में कांग्रेस का आर्थिक अधिवेशन मद्रास में हुआ। अधिवेशन में कमीशन का बहिष्कार करने का निर्णय लिया। मुस्लिम लीग ने भी कमीशन का बहिष्कार करने का फैसला किया।
कमीशन 3 फरवरी, 1928 ई० को भारत पहुंचा। उस दिन सारे देश में हड़ताल हुई। उस दिन दोपहर को कमीशन की निंदा करने और कमीशन के बहिष्कार की घोषणा करने के लिए सारे देश में सभाएं हुई। मद्रास में प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाई गई और अन्य अनेक स्थानों पर लाठीचार्ज हुआ। कमीशन जहां भी गया वहां उसके खिलाफ जबरदस्त प्रदर्शन हुए और हड़तालें हुई। केंद्रीय विधानसभा ने बहुमत से फैसला किया कि वह कमीशन को कोई सहयोग नहीं देगी। सारे देश में "साइमन वापस जाओ" का नारा गूंज उठा। पुलिस ने दमन शुरू कर दिया। हजारों लोग पीटे गए। प्रदर्शनों के उसी दौर में पंजाब केसरी लाला लाजपत राय की पुलिस ने बेरहमी से पिटाई की। पुलिस की मार से जख्मी होने के बाद उनकी मृत्यु हो गई। लखनऊ में अन्य प्रदर्शनकारियों के साथ जवाहरलाल नेहरू और गोविंद बल्लभ पंत को भी पुलिस की लाठियां खानी पड़ी। लाठियों की मार से गोविंद बल्लभ पंत अपंंग हो गए।
साइमन कमीशन के खिलाफ किए गए आंदोलन ने पुनः एक बार भारतीय जनता की एकता को और आजादी हासिल करने के उसके संकल्प को व्यक्त किया। भारतीय जनता ने अब एक बड़े संघर्ष के लिए अपने को तैयार किया।
डा. एम. ए. अंसारी की अध्यक्षता में मद्रास में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में एक प्रस्ताव पास करके घोषणा की गई थी कि भारतीय जनता का लक्ष्य पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करना है। यह प्रस्ताव जवाहरलाल नेहरू ने पेश किया था और एस. सत्यमूर्ति ने इसका अनुमोदन किया था। इस बीच पूर्ण स्वराज की मांग को तेज करने के लिए इंडियन इंडिपेंडेंस लीग नामक एक संगठन की स्थापना की गई थी। जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, श्रीनिवास अय्यंगर, सत्यमूर्ति और शरतचंद्र बोस जैसे कई नेता इस लीग का नेतृत्व कर रहे थे।। दिसंबर 1926 ई० में मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का अधिवेशन कलकत्ता में हुआ। इस अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस और दूसरे कई नेताओं ने पूर्ण स्वाधीनता की मांग करने के लिए कांग्रेस पर जोर डाला। मगर कांग्रेस के स्वतंत्र उपनिवेश (डोमिनियन) के स्वरूप की सरकार की मांग का प्रस्ताव पास किया। इसका मतलब था पूर्ण स्वाधीनता से कम की मांग। परंतु कांग्रेस ने यह घोषणा भी की कि यदि एक साल के अंदर स्वतंत्र उपनिवेश का शासन नहीं दिया जाएगा तो वह पूर्ण स्वाधीनता की मांग करेगी और इसे प्राप्त करने के लिए जन-आंदोलन शुरू कर देगी। इंडियन इंडिपेंडेंस लीग 1929 ई० में पूरे साल भर पूर्ण स्वाधीनता के लिए जनमत बनाने में जुटी रही। कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन होने तक देशभर की जनता का रुख बदल गया था।
पूर्ण स्वाधीनता की मांग
जब 1929 ई० में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन लाहौर में हुआ, तो देश में नया वातावरण था। जवाहरलाल नेहरू अधिवेशन के अध्यक्ष थे। यह कांग्रेस के ऊपर उन नए नेताओं के प्रभाव का सबूत था जो ब्रिटिश शासन के खिलाफ अधिक जोरदार संघर्ष की मांग कर रहे थे।
स्वतंत्र उपनिवेश के स्वरूप की सरकार देने के लिए दिया गया एक साल का समय समाप्त हो गया, तो गांधी जी द्वारा 31 दिसंबर 1929 ई० को पेश किया गया यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। उस प्रस्ताव में घोषणा की गई कि कांग्रेस के संविधान की धारा1 के 'स्वराज' शब्द का अर्थ होगा 'पूर्ण स्वाधीनता'। प्रस्ताव में कहा गया कि कोई भी कांग्रेसी और राष्ट्रवादी विधानसभाओं के चुनाव में भाग न ले और सभी विधानसभाओं की सदस्यता से इस्तीफा दे दें। पूर्ण स्वाधीनता की प्राप्ति के लिए सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाने का निर्णय किया गया। कांग्रेस ने हर साल 26 जनवरी का दिन सारे देश में 'स्वतंत्रता-दिवस' के रूप में मनाने का निर्णय लिया। 26 जनवरी 1930 ई० का दिन सारे देश में स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया गया। उस दिन देशभर में आयोजित हजारों सभाओं में लोगों ने शपथ ली : "हमारी मान्यता है कि अन्य देशों की जनता की तरह ही भारतीय जनता का भी यह अहरणीय अधिकार है कि वह आजादी हासिल करें, अपने श्रम का सुख भोगे और जीवन की जरूरतों को प्राप्त करें, ताकि उसे विकास के पूरे अवसर उपलब्ध हो जाएं। हमारी यह भी मान्यता है कि यदि कोई सरकार जनता के इन अधिकारों का हरण करती है और जनता का दमन करती है तो जनता को यह अधिकार है कि वह ऐसी सरकार को बदल दे या उसे समाप्त कर दें। भारत की ब्रिटिश सरकार ने न केवल भारतीय जनता की आजादी छीन ली है, बल्कि उसने जनता का शोषण किया है और भारत को आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से भी कंगाल बना दिया है। इसलिए हमारी मान्यता है कि भारत को ब्रिटेन से संबंध तोड़ कर पूर्ण आजादी हासिल करनी चाहिए।" घोषणा की गई कि ब्रिटिश शासन की गुलामी करते रहना 'मानवता और ईश्वर के प्रति अपराध' करना है। 26 जनवरी का दिन भारतीय जनता के इतिहास में एक महत्वपूर्ण दिन बन गया। जब तक भारत पर ब्रिटिश शासन कायम रहा, तब तक हर साल 26 जनवरी का दिन स्वाधीनता दिवस के रूप में मनाया जाता रहा। स्वाधीनता मिलने पर भारतीय जनता के प्रतिनिधियों ने देश का संविधान बनाया। 26 जनवरी के स्मरणीय दिन को 1950 ई० में भारत के गणतंत्र दिवस के रूप में चुन लिया गया और उसी दिन से भारत का नया संविधान भी लागू हो गया।
सविनय अवज्ञा आंदोलन
सन् 1930 ई० में स्वाधीनता दिवस मनाने के बाद गांधी जी के नेतृत्व में सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हुआ। यह आंदोलन गांधी जी की प्रसिद्ध डांडी यात्रा से शुरू हुआ। १२ मार्च, 1930 ई० को गांधीजी ने अहमदाबाद के अपने साबरमती आश्रम से, आश्रम के अन्य 78 सदस्यों के साथ, डांडी की ओर पैदल यात्रा शुरू की। डांडी अहमदाबाद से करीब 385 किलोमीटर दूर भारत के पश्चिमी समुद्र तट पर है। गांधी जी और उनके साथी 6 अप्रैल, 1930 को डांडी पहुंचे। गांधी जी ने नमक कानून तोड़ा। चूंकि नमक के उत्पादन पर सरकार का एकाधिकार था, इसलिए किसी के लिए भी नमक बनाना गैरकानूनी था। समुद्र के पानी के वाष्पीकरण के बाद बने नमक को उठाकर गांधी जी ने सरकारी कानून को तोड़ा।
नमक कानून को तोड़ने के बाद सारे देश में सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हुआ। सविनय अवज्ञा आंदोलन के पहले दौर में सारे देश में नमक कानून तोड़ने की घटनाएं हुई। नमक कानून तोड़ना सरकार के विरोध का प्रतीक बन गया। तमिलनाडु में च. राजगोपालाचार्य ने डांडी यात्रा की तरह त्रिचनापल्ली से वेदराण्यम् तक की यात्रा की। धरसाणा (गुजरात) में सरोजनी नायडू ने, जो एक प्रसिद्ध कवयित्री थी, कांग्रेस की एक प्रमुख नेता थी और कांग्रेस की अध्यक्ष बनी थी, नमक के सरकारी डिपो तक अहिंसात्मक सत्याग्रहियों की यात्रा का नेतृत्व किया। पुलिस द्वारा किए गए बर्बर लाठीचार्ज में 300 से ऊपर सत्याग्रही जख्मी हुए और दो की मृत्यु हुई। देशभर में प्रदर्शन हुए, हड़तालें हुई, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार हुआ और बाद में लोगों ने कर देने से इनकार कर दिया। लाखों लोगों ने, बड़ी तादाद में महिलाओं ने भी, आंदोलन में हिस्सा लिया।
सभी प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार किया गया और कांग्रेस पर प्रतिबंध लगाया गया। गोलीबारी और लाठीचार्ज में सैकड़ों लोग मारे गए। आंदोलन शुरू होने के एक साल के भीतर करीब 90,000 लोगों को जेल में बंद कर दिया गया। आंदोलन देश के सारे हिस्सों में फैल गया था। पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में आंदोलन का नेतृत्व खान अब्दुल गफ्फार खां ने किया। वे 'सरहदी गांधी' के नाम से मशहूर हुए। आंदोलन के दौरान उस प्रदेश में एक महत्वपूर्ण घटना हुई। गढ़वाली सिपाहियों के दो पलटनों को पेशावर के प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाने का हुक्म दिया गया, मगर उन्होंने उसे मानने से इनकार कर दिया। कुछ दिनों तक पेशावर शहर पर ब्रिटिश सत्ता नहीं रही। सोलापुर में गांधीजी की गिरफ्तारी के खिलाफ विद्रोह हुआ और लोगों ने शहर में अपना शासन स्थापित किया। सूर्य सेन के नेतृत्व में चटगांव में और अन्य स्थानों में क्रांतिकारियों की जो गतिविधियां रही उनकी चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं।
साइमन कमीशन द्वारा सुझाए गए सुधारों पर विचार करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने नवंबर 1930 ई० में लंदन में पहला गोलमेज़ सम्मेलन आयोजित किया। देश की आजादी के लिए लड़ रही कांग्रेस ने उस सम्मेलन का बहिष्कार किया, मगर भारतीय राजाओं, मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा तथा कुछ अन्य संगठनों के प्रतिनिधि उसमें शामिल हुए। ब्रिटिश सरकार जानती थी कि कांग्रेस की सहमति के बिना भारत में संविधानात्मक फेर-बदल के बारे में फैसले किए जाते हैं तो वे भारत की जनता को स्वीकार नहीं होंगे। वायसराय इरविन ने 1931 ई० के आरंभ में दूसरे गोलमेज सम्मेलन में शामिल होने के लिए कांग्रेस को राजी करने के प्रयास किए। गांधीजी और इरविन के बीच एक समझौता हुआ। सरकार ने उन सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा करना स्वीकार कर लिया जिनके खिलाफ हिंसा के आरोप नहीं थे। कांग्रेस ने भी सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस लेना स्वीकार कर लिया। अनेक राष्ट्रीय नेता इस समझौते से संतुष्ट नहीं थे। मगर वल्लभ भाई पटेल की अध्यक्षता में मार्च में 1931 ई० में कराची में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में समझौते को मान लेने और दूसरे गोलमेज सम्मेलन में सम्मिलित होने का निर्णय लिया गया। सम्मेलन के लिए गांधीजी को कांग्रेस का प्रतिनिधि चुना गया। सम्मेलन सितंबर 1931 ई० में हुआ।
कांग्रेस के कराची अधिवेशन में मौलिक अधिकारों और आर्थिक नीति के बारे में एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव स्वीकार किया गया। उसमें देश की सामाजिक और आर्थिक समस्याओं के बारे में राष्ट्रीय आंदोलन की नीति निर्धारित की। प्रस्ताव में उन मौलिक अधिकारों का जिक्र था जिन्हें, जाति तथा धर्म के भेदभाव के बिना, जनता को प्रदान करने का वादा किया गया था। प्रस्ताव में कुछ उद्योगों के राष्ट्रीयकरण, भारतीय उद्योगों के विकास और मजदूरों तथा किसानों के लिए कल्याणकारी योजनाओं को भी स्वीकार किया गया था। यह प्रस्ताव राष्ट्रीय आंदोलन पर समाजवादी विचारों के बढ़ते प्रभाव का परिचायक था।
गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने वाले कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि गांधी जी थे। गांधी जी के अलावा अन्य भारतीयों ने भी सम्मेलन में भाग लिया। उनमें भारतीय राजे और हिंदू, मुस्लिम तथा सिक्ख संप्रदायों के नेता थे। राजाओं को प्रमुख रूप से अपना शासन टिकाए रखने में ही दिलचस्पी थी। सम्मेलन के लिए सांप्रदायिक नेताओं का चुनाव ब्रिटिश सरकार ने किया था। वे देश का नहीं बल्कि अपने-अपने समुदायों का प्रतिनिधि होने का दावा करते थे, हालांकि उनके अपने समुदायों में भी उनका प्रभाव सीमित था। कांग्रेस के प्रतिनिधि के रुप में केवल गांधी जी ही सारे देश का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। भारत की आजादी में न तो राजाओं को दिलचस्पी थी, न ही सांप्रदायिक नेताओं की। इसलिए कोई समझौता नहीं हो सका, और दूसरा गोलमेज सम्मेलन असफल रहा। गांधी जी भारत लौटे और सविनय अवज्ञा आंदोलन पुनः शुरु कर दिया गया। सरकार का दमन-चक्र सम्मेलन के दौरान भी जारी था। अब उसमें अधिक वृद्धि हुई गांधीजी और दूसरे नेता गिरफ्तार हुए। आंदोलन को कुचलने के लिए सरकार द्वारा किए गए प्रयासों का अंदाजा इसी से लग जाता है कि करीब एक साल के भीतर 1,20,000 लोगों को जेल में बंद कर दिया गया। आंदोलन को 1934 ई० में वापस ले लिया गया। 1934 ई० में कांग्रेस ने एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव पास किया। मांग की गई कि वयस्क मताधिकार से जनता द्वारा चुनी गई विधानसभा को बुलाया जाए। इस प्रकार इस बात पर बल दिया गया कि केवल जनता को ही अपनी पसंद की सरकार चुनने का अधिकार है।
कांग्रेस यद्यपि अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल रही, मगर देश के इस दूसरे महान जन-आंदोलन में बड़े पैमाने पर लोगों को खींचने में उसे सफलता मिली। उसने भारतीय समाज में बदलाव लाने के लिए पुरोगामी उद्देश्यों को भी स्वीकार किया।
देशी रियासतों के विरुद्ध आंदोलन
तुमने पहले पढ़ा है कि भारत में अंग्रेजों द्वारा शासित प्रदेशों (ब्रिटिश भारत) के अलावा भारतीय नवाबों, राजाओं द्वारा शासित रियासतें भी थी। ये रियासतें पूर्ण स्वतंत्र नहीं थी। अंग्रेजों ने अपने शासन को मजबूत करने के लिए इन रियासतों को बनाए रखा था। इन रियासतों की संख्या करीब 562 थी और इनमें भारत की करीब पंचमांश आबादी बसी हुई थी। इनमें जम्मू व कश्मीर, मैसूर और हैदराबाद जैसे कुछ राज्य तत्कालीन यूरोप के कुछ राज्यों से भी बड़े थे, मगर कुछ अन्य राज्य चंद देहातों से अधिक बड़े नहीं थे। इनमें से अधिकांश राज्यों में जनता की दशा शेष देश की जनता की दशा से भी बदतर थी। ज्यादातर राजा अपनी रियासतों को अपनी निजी संपत्ति समझते थे। ये राजा विलास का जीवन भोग रहे थे। शिक्षा के प्रसार या गरीबी दूर करने का या जनता का जीवन स्तर सुधारने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया था। रियासतों की जनता को नहीं के बराबर नागरिक अधिकार मिले हुए थे। इस प्रकार से शासकों का मनमौजी व्यवहार ही कानून था। इनमें से कई रियासतों में अभी भी कई अमानवीय प्रथाएं जारी थी; जैसे बेगारी की प्रथा, यानी बिना मजदूरी दिए लोगों से काम करवाना। ब्रिटिश भारत में राष्ट्रीय आंदोलन का उदय हुआ तो रियासतों के लोगों में भी जागृति आने लगी। वे जनतांत्रिक अधिकारों और जनतांत्रिक सरकार की मांग करने लगे। वे राज्यों के शासकों के भोग विलास के जीवन की निंदा करने लगे।
बीसवीं सदी के तीसरे दशक के आरंभ से रियासतों के लोगों ने प्रशासन में सुधारों की मांग करने और शासकों के उत्पीड़न को खत्म करने के लिए अपने को संगठित करना शुरू कर दिया। उन्होंने जनता के प्रति उत्तरदाई प्रतिनिधि सरकार की स्थापना करने की और निरंकुश शासन के स्थान पर कानूनी शासन कायम करने की मांग उठाई। लोगों के अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए इन राज्यों में प्रजामंडल जैसे संगठन स्थापित किए गए। प्रारंभिक प्रजामंडल विजय सिंह पथिक, मणिक्यलाल वर्मा आदि के नेतृत्व में राजस्थान के रियासतों में स्थापित हुए। रियासतों की जनता के सभी संगठन 1927 ई० में एक अखिल भारतीय संगठन - ऑल इंडिया स्टेट पीपुल्स कांग्रेस में एकीकृत हुए। बलवंत राय मेहता जिन्होंने भावनगर (गुजरात) में प्रजामंडल की स्थापना की थी, इस नए संगठन के सचिव बने। इस संगठन ने मांग की कि भारतीय रियासतों को भारतीय राष्ट्र का अंग माना जाना चाहिए। इस संगठन ने सारे देश की जनता को रियासतों की उत्पीड़न दशा का परिचय कराने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
बीसवीं सदी के चौथे दशक में भारतीय रियासतों की जनता का आंदोलन काफी शक्तिशाली बना आंदोलनों के कुछ प्रमुख नेता थे - राजस्थान में जय नारायण व्यास तथा जमनालाल बजाज, उड़ीसा में सारगंधर दास, त्रावणकोर में एन्नी मस्करेने तथा पद्यमथानु पिल्लाई और जम्मू तथा कश्मीर में शेखर मुहम्मद अब्दुल्ला। हैदराबाद में आंदोलन का नेतृत्व स्वामी रामानंद तीर्थ ने किया। राजाओं ने दहशत फैलाकर आंदोलन को कुचलने के प्रयास किए। उदाहरण के लिए, पंजाब के प्रजामंडल के एक प्रमुख नेता सेवा सिंह ठिकीवाला को पटियाला की जेल में डालकर यातनाएं दी गई। जिससे उनकी मृत्यु हुई। राजा-महाराजाओं ने सविनय अवज्ञा आंदोलन को कुचलने में भी अंग्रेजों की मदद की। रियासतों के आंदोलनों को कुचलने के लिए अंग्रेजों ने राजा-महाराजाओं को मदद दी और कभी-कभी ब्रिटिश सेना भी भेजी। ब्रिटिश सरकार ने आजादी के आंदोलन को कमजोर करने के लिए भारतीय रियासतों का इस्तेमाल किया। गोलमेज सम्मेलनों के दौरान और ब्रिटिश सरकार के साथ किए जा रहे अन्य समझौतों के दौरान राजा-महाराजाओं ने उन कदमों का विरोध किया जो देश को आजादी दिलाने के मार्ग पर आगे बढ़ रहे थे। बाद में जब देश आजादी प्राप्त करने की स्थिति में पहुंचा तो कई राजा-महाराजाओं ने दावा किया कि उनकी रियासतें स्वतंत्र है और उन्हें स्वतंत्र रहने का अधिकार है। वे यह सोचने में असमर्थ थे कि भारत एक देश है और भारत की जनता एक राष्ट्र की जनता है। ब्रिटिश शासकों की तरह राजाओ, नवाबों ने भी धर्म के आधार पर लोगों में फूट डालने के प्रयास किए। कभी-कभी उन्होंने उन आंदोलनों को संप्रदायिक घोषित कर दिया जो उनके उत्पीड़न के खिलाफ थे, क्योंकि कुछ राज्यों में बहुसंख्यक लोगों का धर्म शासक के धर्म से भिन्न था।
कांग्रेस ने कई सालों तक रियासतों के मामलों में हस्तक्षेप न करने की नीति अपनाई, यद्यपि कई कांग्रेसियों ने रियासतों के आंदोलनों में भी भाग लिया था और कांग्रेस ने रियासतों की जनता की मांगों का समर्थन किया था। कांग्रेस ने रियासतों में अपनी शाखाएं खोलने की अनुमति भी नहीं दी थी। सुभाष चंद्र बोस की अध्यक्षता में 1938 ई० में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में घोषणा की गई कि पूर्ण स्वराज का लक्ष्य रियासतों सहित समूचे देश के लिए है।
कांग्रेस ने घोषणा की कि वह रियासतों को भारतीय राष्ट्र के हिस्से मानती है और रियासतों की जनता को वहीं राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक अधिकार मिलेंगे जो कि शेष भारत की जनता को मिलेंगे। धीरे-धीरे राजाओं, नवाबों के खिलाफ शुरू हुआ संघर्ष राष्ट्रीय स्वाधीनता के बड़े संघर्ष का हिस्सा बन गया। 1930 के दशक के बाद के सालों में राजाओं, नवाबों के कुशासन तथा उत्पीड़न के खिलाफ शुरू हुए आंदोलनों से आजादी के संघर्ष के नेताओं के संबंध बढ़ते गए। जवाहरलाल नेहरू को, जो कई सालों से रियासतों की जनता के संघर्ष को सहयोग दे रहे थे, 1939 में ऑल इंडिया स्टेट पीपुल्स कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया।
सांप्रदायिक दल और उनकी भूमिका
तुमने पहले पढ़ा है कि ब्रिटिश सरकार ने अपना शासन कायम रखने के लिए और राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करने के लिए किस प्रकार भारतीय जनता में फूट डालने के प्रयास किए। जैसा कि तुमने देखा है उनकी एक चाल थी सांप्रदायिकता प्रोत्साहन देना। मुस्लिम लीग की स्थापना इसी तरह हुई थी। 1915 ई० में हिंदू महासभा की स्थापना हुई। सांप्रदायिकता का जहर 1920 ई० के बाद तेजी से फैलने लगा। हिंदू और मुसलमानों में धर्म परिवर्तन के आंदोलन शुरू हुए। उन्होंने विभिन्न बिरादरियों में अक्सर तनाव पैदा किया। 1920 ई० के दशक में धर्म पर के नाम पर दंगे हुए और अनेक देश बेकसूर लोग मारे गए। सांप्रदायिक तनाव के फैलाव को रोकने के प्रयास हुए और एकता स्थापित करने के लिए कई सम्मेलन हुए। 1924 ई० में गांधी जी ने २१ दिन का अनशन करके शांति स्थापित करने का प्रयास किया। मगर यह सभी प्रयास थोड़े समय के लिए ही सफल रहे। 1931 ई० में कानपुर में संप्रदायिक दंगे हुए। राष्ट्रीय आंदोलन के एक प्रमुख नेता गणेश शंकर विद्यार्थी शांति स्थापित करने के लिए दंगाग्रस्त क्षेत्र में गए। मगर उन दंगों के दौरान हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए वे शहीद हो गए। दोनों समुदायों के हमलावरों से हिंदुओं और मुसलमानों को बचाने के प्रयास में वे मारे गए।
सन् 1916 ई० से, कुछ साल तक मुस्लिम लीग और कांग्रेस ने मिलकर काम किया था। मुस्लिम लीग ने अपने अधिवेशन उसी स्थान और उसी समय करने शुरू किए जहां कांग्रेस के अधिवेशन होते थे। 1924 ई० में यह प्रथा बंद हो गई। उसी समय हिंदू महासभा भी सक्रिय हो गई। भ्रष्ट महंतों के खिलाफ चलाए गए अकालियों के आंदोलनों के बारे में तुम पहले पढ़ चुके हो। सिक्खों के बीच में सांप्रदायिक नेताओं ने भी संप्रदायिक मांगे उठानी शुरू कर दी। मुसलमानों के लिए सांप्रदायिक निर्वाचन की जो प्रथा पहले शुरू की गई थी उसे 1932 ई० में सिक्खों पर भी लागू कर दिया गया।
धर्म पर आधारित संगठनों ने आजादी के संघर्ष में बड़ी हानिकारक भूमिका अदा की। इन संगठनों का दावा तो यह था कि वे अपने समुदायों का हित-साधन कर रहे हैं, मगर असल में उन्होंने ब्रिटिश शासकों को लाभ पहुंचाया। जिन दौरों में आजादी के संघर्ष में भाग लेने वाले हजारों लोग जेल में पहुंच गए थे, उस समय सांप्रदायिक संगठन अलग रहे। कभी-कभी उन्होंने ब्रिटिश सरकार से हाथ मिलाए और उसके साथ सहयोग किया। उदाहरण के लिए, साइमन कमीशन के खिलाफ आंदोलन के समय सांप्रदायिक दलों के कुछ नेताओं ने साइमन कमीशन का स्वागत किया। गोलमेज सम्मेलनों में ये निरर्थक बातों पर एक दूसरे से झगड़ते रहे और ब्रिटिश सरकार से सौदेबाजी में उलझे रहे। भारत की आजादी के सवाल पर कोई समझौता न हो इसके लिए ब्रिटिश सरकार ने इन दलों का इस्तेमाल किया। कांग्रेस की मान्यता थी कि भारत का संविधान इंग्लैंड में नहीं, बल्कि स्वयं भारतीय जनता द्वारा भारत में बनाया जाना चाहिए।
राष्ट्रीय आंदोलन में सभी भारतीयों की समानता के आधार पर भारतीय समाज के पुनर्निर्माण पर जोर दिया मगर सांप्रदायिक दल सामाजिक सुधारों के भी खिलाफ थे। उनके मतानुसार सभी भारतीयों के हित समान नहीं थे। इसलिए आजादी के लिए लड़ने की बजाय उन्होंने अपने-अपने समुदायों के लिए ब्रिटिश सरकार से सुविधाएं प्राप्त करने में अपनी ताकत लगाई। वे अपने समुदाय के उच्च वर्गों के हितों का प्रतिनिधित्व करते थे, न कि आम जनता का। आम जनता की महत्वपूर्ण समस्याओं में जैसे, गरीबी को दूर करने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी।
सांप्रदायिक दलों की गतिविधियों ने उस समय एक खतरनाक मोड़ लिया जब वे कहने लगे कि भारतीय जनता एक राष्ट्र नहीं है। उन्होंने यह मत प्रतिपादित किया कि भारत में दो राष्ट्र है - एक हिंदुओं का और दूसरा मुसलमानों का। जबकि राष्ट्रीय आंदोलन ने देश की प्रगति के रास्ते पर आगे ले जाने के लिए जनता की समान आकांक्षाओं के आधार पर उसे एकजुट करने के प्रयास किए, सांप्रदायिक दलों ने भारतीय राष्ट्रीयता के सवाल पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया। तुमने अपनी प्राचीन भारत और मध्यकालीन भारत की पुस्तकों में पढ़ा है कि भारतीय जनता ने सदियों के अपने इतिहास के दौर में एक समुन्नत मिली-जुली संस्कृति को जन्म दिया था। अपनी विविधता के कारण ही यह संस्कृति संपन्न थी। भारतीय राष्ट्र ऐसे लोगों से बना था जिनके अपने अलग-अलग धर्म, अलग-अलग भाषाएं और अलग-अलग रीति-रिवाज थे। सांस्कृतिक विविधता कि यह संपन्नता भारतीय जनता के लिए गौरव का स्त्रोत रही है और इसे टिकाए रखना जरूरी था। राष्ट्रीय आंदोलन ने जनता को आपस में जोड़ने वाले बंधनों को मजबूत किया। मगर सांप्रदायिक दलों ने जनता में फूट डालने के प्रयास किए।
भारतीय जनता दो राष्ट्रों की होने का सिद्धांत पेश करने का मतलब था भारतीय जनता के समूचे इतिहास को नकारना। भारतीय जनता के लिए इसके घातक नतीजे निकले। मुस्लिम लीग धीरे-धीरे दो राष्ट्रों के सिद्धांत से जुड़ती गई। वह कहने लगी कि भारतीय आबादी में मुसलमान अल्पमत में है, इसलिए उनके हित सुरक्षित नहीं रहेंगे। मुहम्मद अली जिन्ना जो बीसवीं सदी के आरंभिक सालों में एक राष्ट्रवादी नेता थे, बाद में मुस्लिम लीग के सबसे प्रमुख नेता बन गए। मुस्लिम लीग ने दावा किया कि वह मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि दल है। ब्रिटिश सरकार ने इस दावे को मान लिया और इस प्रकार मुस्लिम लीग को बढ़ावा दिया। जिन्ना की नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के एक अलग राज्य के बारे में सोचना शुरू कर दिय मार्च 1940 ई० में लाहौर में आयोजित अपने अधिवेशन में मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान के निर्माण की मांग उठाई। हिंदू महासभा ने घोषणा की कि भारत केवल एक हिंदू राष्ट्र है।
ज्यादातर मुसलमानों ने पृथक राज्य की मांग का विरोध किया। आजादी के संघर्ष में, दूसरे समुदायों के लोगों की तरह, मुसलमानों ने भी भाग लिया था और ब्रिटिश सरकार के दमन को उन्होंने भी झेला था। वे कांग्रेस में बड़ी संख्या में थे। किसानों और मजदूरों के संगठनों ने समान सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक लक्ष्यों के लिए सभी समुदायों के लोगों को एकजुट किया था। राष्ट्रीय आंदोलन के अनेक महान नेता मुसलमान थे। मुसलमानों के अधिकांश धार्मिक नेता भी मुस्लिम लीग और पृथक राज्य की मांग के विरोधी थे। उन्होंने पहचाना कि मुसलमानों का भविष्य अन्य भारतीयों के साथ जुड़ा है और तत्कालिक समस्या है विदेशी शासन को उखाड़ फेंकना। मुसलमानों, हिंदुओं, सिक्खों, इसाइयों तथा दूसरों के सामने एक सी समस्याएं थी - गरीबी, पिछड़ेपन तथा समानता की समस्याएं। और, ये समस्याएं आजादी हासिल करके और राष्ट्र को एकजुट रखकर ही सुलझाई जा सकती थी। 1930 ई० के दशक के अंत तक मुस्लिम लीग और हिंदुओं के सांप्रदायिक संगठनों का कोई खास प्रभाव नहीं था। उदाहरण के लिए, पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में, जहां मुसलमान काफी अधिक बहुमत में थे, मुस्लिम लीग अपना प्रभाव स्थापित करने में असफल रही।
मगर, बावजूद इसके कि बहुसंख्यक लोगों पर सांप्रदायिक दलों के प्रचार का प्रभाव नहीं पड़ा, संप्रदायिक दलों को अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफलताएं मिलती गई, विशेषकर 1930 ई० के दशक के अंत के बाद। सांप्रदायिक दलों द्वारा आयोजित सांप्रदायिक दंगों ने स्थिति को और अधिक बिगाड़ दिया। दो राष्ट्रों के सिद्धांत के और पृथक राज्य की मांग के बड़े घातक परिणाम निकले।
दलित वर्गों के आंदोलन
उन्नीसवीं सदी में उदित हुए सुधार आंदोलनों के बारे में तुम पढ़ चुके हो। इन सुधार आंदोलनों का एक प्रमुख उद्देश्य था हिंदुओं के बीच की तथाकथित निम्न जातियों का उद्धार करना। इन आंदोलनों ने तथाकथित निम्न जातियों के उत्पीड़न के प्रति लोगों को जागरूक करने में, विशेषकर अस्पृश्यता की शर्मनाक प्रथा के खिलाफ एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। तथाकथित जातियों के लोगों के मंदिर प्रवेश के लिए महाराष्ट्र, केरल और तमिलनाडु में कई अभियान आयोजित किए गए। इन अभियानों के कुछ नेता थे - ई. वी. रामास्वामी नायक्कर, के. केलप्पन और टी. के. माधवन। पोरियार के नाम से लोकप्रिय ई. वी. रामास्वामी नायक्कर के बाद में "आत्मसम्मान आंदोलन" (सेल्फ रिस्पेक्ट मूवमेंट) शुरू किया। दलित वर्गों की जनता के भी कई संगठन स्थापित हुए। अपने अधिकारों के लिए लड़ने वाले दलित वर्गों के लोगों को संगठित करने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। दलित वर्गों के आंदोलनों के प्रमुख नेता डॉ. भीमराव अंबेडकर थे। दलित वर्गों के उद्धार और उत्थान के लिए उन्होंने कई ग्रंथ लिखे। पत्र-पत्रिकाएं निकाली और संस्थाएं स्थापित की। उन्होंने गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया और दलित वर्गों के हितों की मांग उठाई।
तुमने पहले पढ़ा है कि गांधीजी ने अस्पृश्यता की कुप्रथा को खत्म करने के काम को बड़ा महत्व दिया था। इसके लिए उन्होंने अस्पृश्यता विरोधी कई संगठन स्थापित किए थे। तथाकथित अस्पृश्यों को उन्होंने "हरिजन" नाम दिया था और इसी नाम पर एक पत्रिका निकाली थी। 1932 ई० में ब्रिटिश सरकार में तथाकथित अस्पृश्यों के लिए भी पृथक निर्वाचन की घोषणा कर दी। सरकार ने मुसलमानों और सिक्खों के लिए यह व्यवस्था पहले ही कर दी थी। राष्ट्रीय नेताओं ने सरकार की इस घोषणा का विरोध किया, क्योंकि उन्हें संदेह हुआ कि वह अंग्रेजों की 'फूट डालो और राज करो' वाली नीति का ही एक भाग है। गांधीजी उस समय जेल में थे। उन्होंने जेल में ही उस निर्णय के विरुद्ध अनशन आरंभ कर दिया। उन्होंने कहा - "मैं चाहता हूं कि अस्पृश्यता का जड़ मूल से उच्छेदन हो। इसी के लिए मेरा जीवन समर्पित है और इसके लिए जीवन त्यागने में मुझे प्रसन्नता होगी।" उनका मत था कि हरिजनों के लिए पृथक निर्वाचन की व्यवस्था करने से सुधारों के कार्य को हानि पहुंचेगी। अंत में एक समझौता हुआ जिसके तहत पृथक निर्वाचन के निर्णय को वापस ले लिया गया। उसी के साथ ही यह भी तय हुआ कि तथाकथित अस्पृश्य जातियों के लोगों के लिए पर्याप्त प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की जाएगी।
राष्ट्रीय आंदोलन और दलित वर्गों का संगठन भारतीय समाज के दलित समुदाय के उद्धार के लिए कार्य करते रहें। यह भी अधिकाधिक स्पष्ट होता गया कि दलित वर्गों का सामाजिक दमन उनकी आर्थिक गरीबी से जुड़ा हुआ है। अतः उन्हें सामाजिक दमन से मुक्ति दिलाने के लिए उनका आर्थिक उत्थान करना आवश्यक था। उनके कल्याण के लिए विशेष कदम उठाना भी आवश्यक समझा गया।
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन और बाहरी दुनिया
तुमने पहले पढ़ा है कि राष्ट्रीय आंदोलन ने बाहर की दुनिया की घटनाओं और विचारों से प्रेरणा ग्रहण की थी। दूसरे कई देशों के, ब्रिटेन के भी, लोगों ने भारत की आजादी के लिए सहयोग दिया था। दूसरे देशों में भारतीयों ने स्थानीय लोगों की मदद में संगठन स्थापित किए। दादा भाई नौरोजी ने भारतीय जनता की मांगों के लिए प्रबुद्ध अंग्रेजों का समर्थन जुटाने के हेतु उन्नसवीं सदी के अंतिम दौर में इंग्लैंड में एक संगठन स्थापित किया था। बाद में ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका और अन्य देशों में 'इंडिया लीगो' की स्थापना हुई। ब्रिटेन के इंडिया लीग के साथ में मजदूर तथा समाजवादी नेता और विचारक संबंधित रहे। भारत की आजादी के लिए ब्रिटिश जनता का सहयोग प्राप्त करने में वी.के. कृष्ण मेनन ने प्रमुख भूमिका अदा की। उसी प्रकार कई ट्रेड यूनियन और समाजवादी नेताओं ने भारत आकर मजदूर संगठन और समाजवादी आंदोलन में मदद की।
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की एक प्रमुख विशेषता यह थी कि इसने किसी भी अन्य देश के ब्रिटेन की जनता के भी, खिलाफ नफरत पैदा नहीं की। इसका महान श्रेय गांधी जी को है जिन्होंने प्रेम तथा विश्व बंधुत्व का प्रचार किया और धृणा पर आधारित कार्यों की निंदा की। भारतीय जनता यह भी जानती थी कि ब्रिटिश सरकार भारत में जो नीतियां चला रही है वे इंग्लैंड के आम जनता के भी हित में नहीं है। शासकों और जनता में फर्क करना उन्होंने सीख लिया था। वे शासकों के खिलाफ तो लड़ रहे थे, मगर ब्रिटेन की आम जनता के प्रति उनका कोई द्वेषभाव नहीं था। उलटे वे ब्रिटेन की जनता का भारत की आजादी के लिए सहयोग प्राप्त करने की कोशिश में लगे हुए थे। भारतीय जनता ने अपने संघर्ष को अन्य लोगों द्वारा स्वाधीनता, जनतंत्र और सामाजिक समानता के लिए किए जा रहे संघर्ष का एक हिस्सा समझा। इसलिए उन्होंने बाहरी दुनिया में घटित होने वाली घटनाओं में गहरी दिलचस्पी ली, विशेषकर अन्य देशों में स्वाधीनता के लिए किए जा रहे संघर्षों में और उत्पीड़न के खिलाफ तथा जनतंत्र के लिए किए जा रहे संघर्षों में। उन्होंने एक अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण विकसित किया।
भारतीय जनता में अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण विकसित करने में जवाहरलाल नेहरू ने प्रमुख भूमिका अदा की। दूसरे देशों में आजादी तथा जनतंत्र का मामला उन्हें उतना ही प्रिय था जितना कि भारत की आजादी का मामला। उन्होंने भारतीय जनता को दुनिया में हो रहे विकास से अवगत कराया और आजादी तथा जनतंत्र के लिए लड़ रही दूसरे देशों की जनता के साथ संबंध स्थापित किए। उन्होंने कहा था कि आजादी अविभाज्य है, अर्थात किसी भी देश की आजादी तब तक सुरक्षित नहीं रह सकती, जब तक हर एक राष्ट्र आजाद न हो। उसी प्रकार, जनतंत्र और खुशहाली भी अविभाज्य है। राष्ट्रीय आंदोलन ने दूसरे लोगों के संघर्ष के साथ संबंध जोड़े। 1927 ई० में उत्पीड़ित कौमो की कांग्रेस ब्रुसेल्स (बेल्जियम) में हुई। जवाहरलाल नेहरू ने उस कांग्रेस में भाग लिया। लीग अगेंस्ट इंपीरियालिज्म (साम्राज्यवाद विरोधी संघ) नामक एक अंतरराष्ट्रीय संगठन की स्थापना हुई। जिसमें साम्राज्यवाद को सर्वत्र समाप्त करने के लिए प्रयास किए। अनेक विश्व विख्यात हस्तियां और कई देशों की आजादी के आंदोलनों के नेता लीग से जुड़ गए थे। इनमें अल्बर्ट आइंस्टाइन तथा ज्यूलियोक्यूरी जैसे वैज्ञानिक और मैक्सिम गोकी तथा रोम्यां रोलां जैसे लेखक भी थे। भारतीय कांग्रेस भी इस लीग से जुड़ गई थी।
जापान अब एक साम्राज्यवादी शक्ति बन गया था उसने 1931 ई० में चीन पर हमला किया। भारतीय राष्ट्रवादियों ने जापान के खिलाफ चीनी जनता का समर्थन किया। उन्होंने जापानी वस्तुओं का बहिष्कार करने को कहा। बाद में भारतीय चिकित्सकों का एक दल चीन गया और उसने वहां जनता के कष्ट निवारण के लिए काम किया। दल के एक सदस्य थे डॉ. डी. वी. कोटनिस जिनकी चीन में ही मृत्यु हुई।
प्रथम महायुद्ध के बाद यूरोप के कुछ देशों में एक ऐसे हिंसात्मक आंदोलन का उदय हुआ जो खुले तौर पर जनतंत्र तथा मानव-समानता का विरोधी और युद्ध का पोषक था। इसे फ़ासिस्ट आंदोलन कहते हैं। इटली और जर्मनी में फ़ासिस्ट सरकारे बनी। इन सरकारों ने अपनी ही जनता के खिलाफ आतंकवादी कार्रवाइयां की और जनता के मूलभूत अधिकार तक छीन लिए। उन्होंने दूसरी कौमों के खिलाफ घृणा फैलाई और कहा कि उन्हें उन पर शासन करने का अधिकार है। हिटलर जर्मनी में सत्तारूढ़ हुआ था। उसने यहूदियों का समूल विनाश शुरु कर दिया। अन्य देशों के खिलाफ युद्ध की योजना बनाने में जापान भी इटली और जर्मनी के साथ मिल गया। स्पेन के फ़ासिस्टों ने वहां की जनतांत्रिक सरकार के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। इटली और जर्मनी ने स्पेन के फ़ासिस्टों को सक्रिय मदद दी। इससे सारी दुनिया की जनता में रोष फैल गया। भारत के राष्ट्रवादी नेता अन्य देशों की आजादी और शांति के लिए फ़ासिज़्म के खतरे को समझते थे। उन्होंने फ़ासिज़्म के विरुद्ध लड़ रही स्पेनवासी जनता का समर्थन किया। भारत सहित कई देशों के लोग स्पेनवासियों के साथ मिलकर उनकी आजादी के लिए लड़ने हेतु स्पेन गए। जवाहरलाल नेहरू, वी. के. कृष्ण मेनन के साथ स्पेन गए और उन्होंने वहां की जनता की भारतीय जनता के सहयोग का आश्वासन दिया।
पश्चिम के साम्राज्यवादी देशों ने फ़ासिस्ट देशों को आक्रामक नीतियां अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्हें आशा थी कि फ़ासिस्ट देश रूस और साम्यवाद को खत्म कर देंगे। इटली ने अबीसीनिया (इथियोपिया) पर हमला शुरू कर दिया। पश्चिमी देशों के साथ सांठगांठ करके हिटलर ने चेकोस्लोवाकिया पर कब्जा कर लिया। जवाहरलाल नेहरू और राष्ट्रीय आंदोलन ने पश्चिम देशों के इस रवैए की निंदा की। इटली के तानाशाह मुसोलिनी ने नेहरू से मिलने की इच्छा व्यक्त की, तो नेहरू ने उससे मिलने से इंकार कर दिया। भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं ने फिलिस्तीन की जनता के आजादी के संघर्ष को भी समर्थन दिया। आजादी तथा जनतंत्र के लिए संघर्ष कर रही हर देश की जनता के प्रति भारतीय जनता की सहानुभूति थी। दूसरा महायुद्ध शुरू होने के काफी पहले ही कांग्रेस ने युद्ध के बढ़ते खतरे के बारे में जनता को सचेत कर दिया था। स्वतंत्र होने पर भारत ने दूसरे देशों के आजादी के आंदोलनों को भरपूर समर्थन दिया और यह चीज स्वाधीन भारत की विदेशी नीति की बुनियादी विशेषता बन गई।
१९३५ ई० का कानून और राष्ट्रीय आंदोलन
तुम पहले पढ़ चुके हो कि सरकार के ढांचे में किए जाने वाले परिवर्तनों के बारे में विचार करने के लिए तीन गोलमेज सम्मेलन हुए थे। कांग्रेस ने केवल दूसरे सम्मेलन में भाग लिया। जैसा कि तुम जानते हो कांग्रेस ने घोषणा की थी कि देश की सरकार का संविधान किस तरह का हो, इसका निर्णय केवल भारत की जनता ही कर सकती है। इसके लिए कांग्रेस ने मांग की थी कि वयस्क मताधिकार से निर्वाचित सदस्यों की विधान सभा बुलाई जाए।
मगर सरकार में कांग्रेस की मांग की उपेक्षा की और अगस्त 1935 ई० में 'गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट' की घोषणा की। इस एक्ट के अनुसार भारत एक संघराज्य बनेगा, बशर्ते कि ५०% रियासतें इसमें शामिल हो जाएं। तब उन्हें दोनों केंद्रीय विधान मंडलों में पर्याप्त संख्या में प्रतिनिधित्व मिलेगा। मगर संघ संबंधी धारा को लागू नहीं किया गया। एक्ट ने भारत को स्वतंत्र उपनिवेश के स्वरूप की सरकार देने का भी उल्लेख नहीं किया, स्वाधीनता देने की बात तो दूर रही।
जहां तक प्रांतीय शासन का प्रश्न है, 1935 ई० का कानून तत्कालीन स्थिति से बेहतर था। उसने "प्रांतीय स्वायत्तता" लागू की। प्रांतीय सरकारों के मंत्री विधानसभा के प्रति उत्तरदाय़ी हो गए। विधानसभा के अधिकारों को भी बढ़ा दिया गया। मगर पुलिस जैसे कुछ मामले गवर्नर के अधिकार में रहे। मताधिकार भी सीमित था। सिर्फ 14% आबादी को ही मत देने का अधिकार था। गवर्नर-जनरल और गवर्नरों की नियुक्ति का अधिकार ब्रिटिश सरकार के हाथों में रहा। वे विधानसभाओं के प्रति उत्तरदाय़ी नहीं थे। यह एक राष्ट्रीय आंदोलन की आशा के अनुरूप नहीं था।
जवाहरलाल नेहरु की अध्यक्षता में लखनऊ में 1936 ई० में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में 1935 ई० के एक्ट को अस्वीकार कर दिया गया। उसने संविधान सभा गठित करने की मांग की। मगर उसने 1937 ई० में होने वाले प्रांतीय चुनावों में भाग लेने का निर्णय किया। उसने निर्णय लिया कि वह एक्ट को वापस लेने की मांग करेगी। कांग्रेस ने अपने चुनाव घोषणापत्र में कहा कि गरीबी और बेरोजगारी भारत की दो प्रमुख समस्याएं हैं। लोगों को महत्व के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक मसलों का परिचय कराने के लिए चुनाव ने अच्छा मौका प्रदान किया।
जैसा कि पहले बताया जा चुका है मुस्लिम लीग ने मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि संगठन होने का दावा किया था। कांग्रेस बिना किसी धार्मिक भेदभाव के सारे भारतीयों का प्रतिनिधि संगठन था। इसके कई प्रमुख नेता मुसलमान थे। तुमने पहले पढ़ा है कि मुसलमानों के लिए और बाद में सिक्खों के लिए भी पृथक निर्वाचन की व्यवस्था की गई थी। भारतीय जनता में फूट डालने की यह ब्रिटिश सरकार की एक सोची समझी चाल थी। राष्ट्रीय नेताओं ने इसकी निंदा की मगर अंग्रेजों की इस नीति को जनता में फूट डालने में कुछ हद तक सफलता मिली। परंतु ब्रिटिश शासकों द्वारा प्रोत्साहन दिए जाने के बावजूद सांप्रदायिक दल ज्यादा ऊपर नहीं उठ सके। 1937 ई० में हुए चुनाव में यह स्पष्ट हो गया।
चुनावों में कांग्रेस की भारी विजय हुई। छः प्रांतों में उसे पूर्ण बहुमत मिला। तीन अन्य प्रांतों में वह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आई। मुस्लिम लीग ने, जो अपने को सभी मुसलमानों का प्रतिनिधि संगठन मानती थी, उसके लिए सुरक्षित स्थानों में से एक चौथाई से भी कम स्थान प्राप्त किए। पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में जहां खान अब्दुल गफ्फार खां के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन काफी मजबूत हो गया था, मुस्लिम लीग ने एक भी स्थान प्राप्त नहीं किया। हिंदू सांप्रदायिक दलों का भी सफाया हो गया। चुनावों के परिणामों से स्पष्ट हो गया था कि धर्म पर आधारित दलों का कोई खास प्रभाव नहीं है।
कांग्रेस ने दिल्ली में एक विशेष सम्मेलन आयोजित किया। चुनाव में विजयी प्रत्येक कांग्रेस ने शपथ ली "मैं शपथ लेता हूं कि मैं भारत की सेवा करूंगा और विधानसभा में तथा उसके बाहर भारत की स्वाधीनता के लिए और जनता के दरिद्रय तथा शोषण को खत्म करने के लिए काम करूंगा।"
कांग्रेस ने 11 प्रांतों में से सात प्रांतों में मंत्रिमंडल बनाएं। उसने दो अन्य प्रांतों में अन्य दलों की सहायता से सरकार बनाई। केवल दो प्रांतों में ही गैर-कांग्रेसी मंत्री मंडल बने। कांग्रेसी मंत्रीमंडलों ने कुछ अच्छे काम किए। शिक्षा का प्रसार हुआ और किसानों की हालत में सुधार किया गया। उन्होंने राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया। समाचारपत्रों पर से प्रतिबंध हटा लिया गया। इन मंत्री मंडलों ने भारतीय रियासतों की जनता को भी प्रभावित किया। राजाओं, नवाबों के निरंकुश शासन में कष्ट भोग रही जनता ने देखा कि भारत में कई प्रांतों की सरकार जनता के प्रतिनिधियों द्वारा चलाई जा रही है।
जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस जैसे कई नेता कांग्रेस के मंत्रिमंडल बनाने के विरोधी थे देश में किसानों और मजदूरों के संगठनों का प्रभाव बढ़ गया था। आचार्य नरेंद्र देव जैसे नेताओं के मार्ग-दर्शन में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी काफी मजबूत बन गई थी। कम्युनिस्ट पार्टी का प्रभाव भी बढ़ गया था। इस प्रकार उन लोगों का प्रभाव बढ़ गया था जो ब्रिटिश सरकार के साथ समझौता करने के पक्ष में नहीं थे। वे पूर्ण स्वाधीनता के पक्ष में थे और इसके लिए आंदोलन करना चाहते थे। मगर कांग्रेस के भीतर के कुछ नरमवादी नेता तत्काल आंदोलन शुरू कर देने के पक्ष में नहीं थे। सुभाषचंद्र बोस ने जो 1938 ई० में कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे, 1939 ई० में कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए एक नरमवादी नेता के खिलाफ पुनः चुनाव लड़ा और विजयी हुए। मगर उन्होंने जल्दी ही कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और बाद में फॉरवर्ड ब्लॉक में शामिल हो गए।
इन घटनाओं के बाद, चंद महीनों के भीतर ही विश्व में बड़े महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इन परिवर्तनों का भारत पर तत्काल प्रभाव पड़ा और आजादी का संघर्ष अपने अंतिम दौर में पहुंच गया।