अध्याय 4 - ब्रिटिश शासन का प्रशासनिक ढांचा, नीतियां और उनका प्रभाव (१७६५-१८५७)
प्रशासनिक ढांचा
तुम देख चुके हो कि सारे भारत पर अधिकार करने में अंग्रेजों को सौ साल से भी कम समय लगा। जिन इलाकों पर अंग्रेजों का सीधा शासन स्थापित हुआ उन्हें तीन प्रेसिडेंसियों (प्रांतों) में बांटा गया - बंगाल, मद्रास और मुंबई। अंग्रेजों ने जिन नए इलाकों पर कब्जा किया उन्हें इन प्रेसिडेंसियों में शामिल किया गया। १८५३ ई० में बिहार के पश्चिम के क्षेत्र को बंगाल प्रेसीडेंसी से अलग करके उसे प्रशासन की एक पृथक इकाई बनाकर पश्चिमोत्तर प्रांत का नाम दिया गया। बाद में पंजाब को एक नई इकाई बनाया गया।
शुरू में ब्रिटिश इलाकों का प्रशासन पूर्णतः कंपनी के हाथों में था। मगर कालांतर में इस पर ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण स्थापित हो गया।
कंपनी के कर्मचारियों द्वारा कुशासन
शुरू में कंपनी के अधिकारी ही प्रशासन के अधिकारी थे। उनका काम राजस्व वसूल करना था। इसके अलावा वे कुछ अन्य असैनिक कार्य भी करते थे। मगर कंपनी के अफसर अयोग्य प्रबंधक थे। उन्हें भारतीय प्रशासन के तरीकों और कठिनाइयों की जानकारी नहीं थी। इससे भी खतरनाक बात थी, पैसों के लिए उनका लालच। कंपनी को धनी बनाने और अपने लिए धन बटोरने के लिए उन्होंने बंगाल को खूब लूटा-खसोटा। बंगाल लगभग बर्बाद हो गया। किसानों और जिम्मेदारों से उन्हें उन्होंने स्थानीय छोटे व्यापारियों और दस्तकारों को अपना माल कम कीमतों पर बेचने के लिए बाध्य किया। इन सब कारणों से लोग राजस्व वसूल करने वाले अधिकारियों को परदेसी यमदूत मानने लगे।
स्थिति का फायदा उठाकर कंपनी के अफसरों ने खूब निजी धन जमा किया। नौकरी से अवकाश लेकर इंग्लैंड लौटने पर वे ऐशो आराम का जीवन गुजारने लगे। इंग्लैंड के लोग उन्हें "नवाब" कह कर पुकारते थे। मगर इधर भारत में आम जनता का जीवन अधिकाधिक दुखमय होता गया। विपत्ति के दिनों के लिए वे कुछ भी बचा रखने के लिए असमर्थ हो गए थे और इसके परिणाम उन्हें १७७०-७१ ई० के अकाल में भुगतने पड़े। अकाल में बंगाल के लगभग एक तिहाई लोग मर गए। मगर भारतीयों के जिस एक समुदाय ने कंपनी के एजेंटों के रूप में काम किया वे मालामाल हो गए।
रेगुलेटिंग एक्ट : १७७३ ई०
कुशासन के कारण बंगाल में बड़ी अव्यवस्था पैदा हो गई थी। अतः ब्रिटिश संसद को मजबूरन ईस्ट इंडिया कंपनी के मामलों की जांच करनी पड़ी। पता चला कि कंपनी के अधिकारियों ने बड़े पैमाने पर गड़बड़ियां की है उस समय कंपनी वित्तीय संकट में थी और उसने ब्रिटिश सरकार से १० लाख पौंड कर्ज़ मांगा था। ब्रिटिश सरकार ने महसूस किया कि भारत में कंपनी की गतिविधियों पर नियंत्रण रखना जरूरी है। इसलिए १७७३ ई० में रेगुलेटिंग एक्ट (नियंत्रण कानून) बना। भारत के मामलों में ब्रिटिश सरकार का यह पहला सीधा हस्तक्षेप था। कंपनी के हाथों में राजनीतिक सत्ता छीन लेने के उद्देश्य से ब्रिटिश सरकार ने यह पहला कदम उठाया था। कंपनी के निदेशकों (डायरेक्टरों) से कहा गया कि वे सैनिक, असैनिक तथा राजस्व संबंधी सारे कागज-पत्र ब्रिटिश सरकार के सामने रखा करें।
एक्ट के अंतर्गत एक नया प्रशासनिक ढांचा खड़ा करने की भी विशेष व्यवस्था की गई। कंपनी की कोलकाता की फैक्ट्रियों का अध्यक्ष बंगाल का गवर्नर होता था। अब उसे कंपनी के सारे भारतीय क्षेत्रों का गवर्नर-जनरल बनाया गया। बंबई और मद्रास के गवर्नर उसके अधीन काम करने लगे। गवर्नर-जनरल की मदद के लिए चार सदस्यों की एक परिषद (काउंसिल) बनी। न्याय-व्यवस्था के लिए एक्ट के अंतर्गत कोलकाता में सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) स्थापित करने की व्यवस्था हुई। कंपनी के अफसरों की धोखाधड़ियों को रोकने के लिए एक्ट के अनुसार प्रत्येक अफसर के लिए आवश्यक हो गया कि वह इंग्लैंड वापस लौटते समय अपनी संपत्ति का ब्यौरा दें और बताएं कि उसने संपत्ति कैसे प्राप्त की। मगर रेगुलेटिंग एक्ट की खामियां जल्दी ही स्पष्ट हो गई। प्रथम गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग और उसकी परिषद के सदस्यों के बीच लगातार झगड़े होते रहे। सर्वोच्च न्यायालय भी ठीक से काम नहीं कर सका, क्योंकि उसके अधिकार और परिषद के साथ उसके संबंध स्पष्ट नहीं थे। ये भी स्पष्ट नहीं था कि उसे कौन से कानून-भारतीय या अंग्रेजी-का अनुसरण करना चाहिए। इस न्यायालय में मुर्शिदाबाद के भूतपूर्व दीवान महाराजा नंद कुमार को जालसाजी के अभियोग में मौत की सजा सुनाई थी। उस समय ब्रिटिश कानून के अनुसार जालसाजी के लिए मृत्युदंड दिया जाता दिया जा सकता था। मगर नंद कुमार ब्राह्मण था, और ऐसे अपराध के लिए भारत में ब्राह्मण को मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता था। इस मामले से बंगाल में बड़ी सनसनी फैली। इस तरह, रेगुलेटिंग एक्ट को लागू करने पर भी ब्रिटिश सरकार का कंपनी के ऊपर नियंत्रण अस्पष्ट बना रहा।
पिट का इंडिया एक्ट : १७८४ ई०
ऊपर उल्लिखित खामियों को खत्म करने के लिए और कंपनी के भारतीय क्षेत्रों में प्रशासन को कुशल तथा जिम्मेदार बनाने के लिए दशक के दौरान काफी जांच-पड़ताल की गई और ब्रिटिश संसद द्वारा कई उपाय किए गए। इन उपायों में सबसे महत्वपूर्ण था पिट का इंडिया एक्ट। यह कानून १७८४ ई० में बना। उस समय विलियम पिट (कनिष्ट) ब्रिटेन का प्रधानमंत्री था। इस कानून के अंतर्गत भी ब्रिट्रेन में एक नियंत्रण परिषद (बोर्ड आफ कंट्रोल) की स्थापना हुई। इस नियंत्रण परिषद के जरिए ब्रिटिश सरकार भारत में कंपनी के सैनिक, असैनिक तथा राजस्व संबंधी मामलों पर पूर्ण नियंत्रण रख सकती थी। परंतु व्यापार पर कंपनी का एकाधिकार ज्यों-का-त्यों कायम रहा। कंपनी अपने अधिकारियों की नियुक्ति और बर्खास्तगी अपनी इच्छा अनुसार कर सकती थी। इस प्रकार ब्रिटिश भारत पर दोहरी शासन-व्यवस्था स्थापित हो गई। ब्रिटिश सरकार और कंपनी, दोनों की। इस कानून और आगे के कानूनों ने भारत पर शासन करने के लिए गवर्नर-जनरल के हाथ काफी मजबूत कर दिए। उसे महत्वपूर्ण मामलों में अपनी परिषद के सदस्यों की सलाह न मानने का अधिकार दिया गया। मद्रास और बम्बई की प्रेसिडेंसियों को उसके अधीन कर दिया गया। उसे भारत स्थित सभी ब्रिटिश फौजों का कंपनी तथा ब्रिटिश सरकार, दोनों की ही फौजों का मुख्य सेनापति बनाया गया।
१७८४ ई० के एक्ट में प्रस्तुत किए गए सिद्धांत भारत में ब्रिटिश प्रशासन के आधार बने। उस समय से गवर्नर-जनरल भारत का वास्तविक शासक बन गया। उसके ऊपर ब्रिटिश संसद का ही नियंत्रण था। गवर्नर-जनरल सेना, पुलिस, सरकारी नौकरी तथा न्यायपालिका के जरिए शासन चलाता था। इन एजेंसियों के काम थे - भारत में अंग्रेजी राज की रक्षा व विस्तार करना, आंतरिक कानून व व्यवस्था बनाए रखना, राजस्व वसूल करना, आम प्रशासन संभालना और न्याय की व्यवस्था करना।
कंपनी की फौज में भारतीय सिपाहियों की संख्या बहुत अधिक थी। ब्रिटिश राज्य के विस्तार के साथ-साथ फौज का भी विस्तार होता गया। जिस समय भारत की विजय पूर्ण हो गई, उस समय सिपाहियों की संख्या लगभग २,००,००० पर पहुंच गई थी। कंपनी ने जो फौज खड़ी की थी वह अनुशासित और वफादार थी। सिपाहियों को नियमित वेतन दिया जाता था। उन्हें आधुनिक हथियारों का इस्तेमाल करने की शिक्षा दी गई थी। भारतीय शासकों द्वारा रखे गए सैनिकों को आमतौर पर यह सुविधाएं उपलब्ध नहीं थी। इसके अलावा, कंपनी की फौज को लगातार सफलताएं मिलते जाने के कारण काफी सम्मान प्राप्त हो गया था। इस कारण भी रंगरूट कंपनी की फौज की ओर आकर्षित होते थे। कंपनी की फौज के अलावा भारत में अंग्रेजों के भी सैन्यदल थे।
कंपनी के भारतीय सैन्यदलों ने अपनी कार्यक्षमता के बारे में भले ही ख्याती अर्जित की हो, मगर वे एक उपनिवेशवादी शक्ति के केवल भाड़े के सिपाहियों के अलावा और कुछ नहीं थे। उनमें एक राष्ट्रीय सेना के सिपाहियों की तरह स्वाभिमान की भावना नहीं थी। तरक्की करने के ज्यादा रास्ते भी उनके लिए खुले नहीं थे। यह बातें कभी-कभी उन्हें विद्रोह करने के लिए उकसाती थी। ऐसा एक सबसे बड़ा विद्रोह १८५७ ई० में हुआ, जिसके बारे में तुम अध्याय ५ में पढ़ोगे।
पिट के इंडिया एक्ट की एक धारा में कहा गया था कि अंग्रेज अब नए इलाके नहीं जीतेंगे। मगर इस धारा का किंचित ही पालन हुआ। ब्रिटेन के आर्थिक हितों के लिए नए इलाकों को जीतना आवश्यक हो गया। इंग्लैंड के कारखानों में बनने वाले पक्के माल के लिए नए बाजार की जरूरत थी। कारखानों के लिए कच्चे माल के नए स्रोत खोजने भी आवश्यक थे। इन आवश्यकताओं के लिए जीते गए इलाकों में कानून व व्यवस्था भी जल्दी-से-जल्दी स्थापित करना जरूरी था। कानून और व्यवस्था स्थापित करने के लिए एक नियमित पुलिस दल का संगठन शुरू हुआ। कार्नवालिस के कार्यकाल में इसे संगठित रूप दिया गया। १७९१ ई० में कलकत्ता के लिए पुलिस सुपरिटेंडेंट नियुक्त हुआ। जल्दी ही अन्य नगरों के लिए कोतवाल नियुक्त किए गए। जिलों को थानों में विभाजित किया गया। थाने की जिम्मेदारी दरोगा को सौंपी गई। परंपरागत ग्राम-रक्षक को चौकीदार कहा गया। बाद में जिला पुलिस सुपरीटेंडेंट का पद बना। पुलिस ने हालांकि कानून और व्यवस्था स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया, मगर पुलिस कभी लोकप्रिय नहीं हो सकी। भ्रष्टाचार और जनता को तंग करने के लिए पुलिस बदनाम हो गई। हालांकि पुलिस देशभर में सरकारी सत्ता का प्रतीक बन गई, फिर भी निचले स्तर के पुलिस कर्मचारियों को बहुत कम वेतन मिलता था। सेना की तरह पुलिस दल में भी ऊंचे पद यूरोपवासियों के लिए सुरक्षित थे।
सिविल सर्विस का संगठन
ब्रिटिश प्रशासन के लिए "मजबूत चौखटे" की भूमिका सिविल सर्विस ने अदा की। कंपनी के वाणिज्य अधिकारी भ्रष्ट थे। वे प्रशासन की जिम्मेदारी संभालने में असफल रहे। ऐसी हालत में क्लाइव और वारेन हेस्टिंग्स को कुछ नए कदम उठाने पड़े। मगर भारत में सिविल सर्विस की स्थापना का वास्तविक श्रेय कार्नवालिस को है। उसने प्रशासन के वाणिज्य तथा राजस्व शाखाओं को अलग किया, शासन के कर्मचारियों को उपहार स्वीकार करना बंद करवा दिया और उनके लिए अच्छे वेतनों की व्यवस्था की। बाद में सिविल सर्विस के सदस्य संसार में सबसे ऊंची तनख्वाह पाने वाले पदाधिकारी हो गए।
सिविल सर्विस प्रभावशाली पद और ऊंचा वेतन प्रदान करती थी, इसलिए इंग्लैंड के खानदानी परिवारों के तरुण उसके लिए लालायित रहते थे। लंबे समय तक कंपनी के डायरेक्टर ही सिविल सर्विस के सदस्यों को नियुक्त करते थे। इसलिए कंपनी की सिविल सर्विस में इंग्लैंड के कुछ प्रभावशाली परिवारों का वर्चस्व हो गया। नियुक्ति की यह व्यवस्था १८५३ ई० तक चली। इसके बाद प्रतियोगिता परीक्षा की व्यवस्था शुरू हुई।
भारतीयों को सिविल सर्विस के सदस्य बनने की अनुमति नहीं थी। दरअसल, १७९३ ई० में यह नियम ही बना दिया गया था कि ५०० पौंड या इससे अधिक वेतन पाने वाले पदों पर भारतीयों की नियुक्ति नहीं की जाएगी। न्याय-व्यवस्था, इंजीनियरिंग तथा अन्य सेवाओं के लिए भारतीयों पर इसी तरह का प्रतिबंध लगाया गया था। न केवल ईस्ट इंडिया कंपनी, बल्कि ब्रिटिश समाज का समूचा उच्च वर्ग अपने भारतीय उपनिवेश से लाभान्वित होना चाहता था। वे नहीं चाहते थे कि भारतीय उनके प्रतिद्वंद्वी बने।
प्रशासन की जिम्मेदारियां बढ़ती गईं, तो यह महसूस किया गया कि सिविल सर्विस के सदस्यों को भारत की शासन-व्यवस्था, समाज-व्यवस्था, भाषाओं तथा परंपराओं से भलीभांति परिचित होना चाहिए। सिविल सर्विस में प्रदेश पाए तरुणो को इन विषयों की शिक्षा देने के लिए १८०१ ई० में कोलकाता में फोर्ट विलियम कॉलेज शुरू हुआ। बाद में इसी प्रयोजन से इंग्लैंड में ईस्ट इंडिया कॉलेज की स्थापना हेलीबरी में हुई।
ब्रिटिश भारत को कमो-वेश पहले की सरकारों की तरह ही जिलों में बांटा गया। हर जिले में राजस्व वसूली के लिए एक कलेक्टर, कानून व व्यवस्था बनाए रखने के लिए एक मजिस्ट्रेट और न्याय-व्यवस्था के लिए एक जज था। सामान्यतः कलेक्टर जिले का प्रमुख होता था। इन सब पदों पर सिविल सर्विस के सदस्यों को ही नियुक्त किया जाता था। उन्हें व्यापक अधिकार मिले हुए थे और उन्होंने धीरे-धीरे कड़े परिश्रम की परम्परा कायम की। मगर वे आम भारतीय समाज के नजदीक कभी नहीं आए। उनका सरोकार उनके अधीन काम करने वाले कर्मचारियों से ही था। सिविल सर्विस के सदस्यों का मुख्य उद्देश्य था ब्रिटिश हितों की रक्षा करना। इसलिए भारतीयों के नजदीक जाने में उन्हें कठिनाई हुई।
न्याय-व्यवस्था
हर देश में सरकार और प्रशासन के लिए निश्चित नियम व कानून होते हैं। शासक और शासित, दोनों के लिए इनका पालन करना आवश्यक होता है। सरकार देखती है कि नियमों और कानूनों का कोई उल्लंघन ना करें। वह न्यायालय की स्थापना करती है। न्यायालय नियम तोड़ने वालों को उचित दंड देते हैं। अंग्रेजों ने कुछ समय तक भारत में प्रचलित कानूनों को ही चलाया। भारतीय परंपरा के अनुसार विवाह, उत्तराधिकार आदि से संबंधित कानून रीति-रिवाजों तथा धर्मशास्त्रों पर आधारित थे। राजस्व और अपराधों से संबंधित मुकदमों का फैसला शासक या उनके द्वारा नियुक्त न्यायाधीश करते थे। अंग्रेजों ने इस व्यवस्था में दखल देना ठीक नहीं समझा। १७७४ ई० में स्थापित सुप्रीम कोर्ट के अंग्रेज जजों ने कुछ समय तक अंग्रेजी कानून लागू किए। मगर इसे न तो कंपनी की सरकार ने पसंद किया, न ही भारतीय जनता ने। १७८१ ई० के एक एक्ट के जरिए अंग्रेजी कानून के प्रयोग को सिर्फ अंग्रेजों तक सीमित कर दिया गया। मगर बदली हुई परिस्थितियों में भारतीय प्रजा के लिए सुनिश्चित कानूनों की आवश्यकता महसूस की गई।
इस आवश्यकता के लिए १७९३ ई० में बंगाल रेगुलेशन एक्ट बना। इसके अनुसार ही न्यायालय में भारतीयों के निजी और मालिकी अधिकारों के बारे में फैसले होने लगे। इस रेगुलेशन ने काफी हद तक हिंदुओं और मुसलमानों के वैयक्तिक कानूनों को शामिल किया गया था और उन्हें स्पष्ट शब्दों में रखा गया था।
आशा की जाती थी कि हर व्यक्ति अपने अधिकारों को जाने। इसलिए रेगुलेशन को अंग्रेजी तथा भारतीय भाषाओं में प्रकाशित किया गया। इस प्रकार अस्पष्ट प्रभाव और शासक की मर्जी पर आधारित न्याय-व्यवस्था के स्थान पर लिखित कानूनों और नियमों की न्याय-व्यवस्था अस्तित्व में आ गई। ब्रिटिश भारत के अन्य प्रदेशों में भी इसी तरह के कानून बनाए गए। भारतीय कानून-व्यवस्था और न्यायालय-कार्य-प्रणाली को सुनिश्चित बनाने के लिए १८३३ ई० में भारतीय विधि आयोग का गठन किया गया। प्रत्येक जिले में अदालतें स्थापित की गई।
कानून बनाकर और न्यायालय स्थापित करके जो "विधि शासन" अंग्रेजों ने शुरू किया था वह भारतीयों के लिए एक नया अनुभव था। यह नया प्रभुत्व, जिसे भारतीय लोग "कंपनी बहादुर" कहते थे, हाड़-मांस का शासक नहीं था।
"विधि शासन" का अर्थ था कि कानून की दृष्टि से सभी आदमी समान है। मगर ब्रिटिश भारत में ऐसा कभी नहीं हुआ। ब्रिटिश भारत में अंग्रेजों और भारतीयों पर न ही एक से कानून लागू हुए, न ही उनके लिए एक से न्यायालय थे। भारत में रहने वाले अंग्रेजों के लिए अलग अदालतें थी और उन पर सिर्फ अंग्रेजी कानून लागू होते थे।
ब्रिटिश सरकार का बढ़ता नियंत्रण
हम पहले बता चुके हैं कि पिट के इंडिया एक्ट ने भारत के लिए दो स्वामी बना दिए थे - कंपनी और ब्रिटिश सरकार। उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में कंपनी का प्रभाव धीरे-धीरे कम हो गया। १८१३ ई० में भारत के साथ अकेले ही व्यापार करने का कंपनी का विशेषाधिकार खत्म हो गया। भारतीय व्यापार सब अंग्रेजों के लिए खोल दिया गया। १८१३ ई० के बाद भी चीन के व्यापार पर कंपनी का एकाधिकार कायम रहा। मगर १८३३ ई० के चार्टर एक्ट ने उस एकाधिकार को भी खत्म कर दिया। कंपनी को भारत में अपनी व्यावसायिक गतिविधियां बंद कर देने को कहा गया। इस प्रकार ब्रिटिश भारत के प्रशासन के व्यावसायिक कार्यों का अंत हो गया।
ब्रिटिश सरकार भारत पर अपने नियंत्रण को बढ़ाना चाहती थी। इसके लिए ब्रिटिश भारत के प्रशासनिक ढांचे का केंद्रीकरण किया गया। १८३३ ई० के चार्टर एक्ट ने भारत के ब्रिटिश प्रदेशों के सैनिक और असैनिक प्रशासन के सारे अधिकार गवर्नर-जनरल और उसकी परिषद (काउंसिल) को सौंप दिए। इस केंद्रीय प्रशासन-प्रणाली के कारण ब्रिटिश भारत के समूचे प्रशासन पर गवर्नर-जनरल और उसकी परिषद का पूर्ण अधिकार स्थापित हो गया। १९४७ ई० में भारत के स्वतंत्र होने तक ब्रिटिश भारत के प्रशासन की यही प्रमुख विशेषता रही।
इस नई प्रशासनिक व्यवस्था में भारत के लोगों के लिए कोई खास स्थान नहीं था। कुछ ब्रिटिश प्रशासकों ने स्वयं स्वीकार किया है कि "ब्रिटिश भारत के शासन में भारतीय लोगों को जिस तरह सर्वथा अलग रखा गया है वैसा अन्य किसी विजित देश में शायद ही देखने को मिले"। हम बता चुके हैं कि ऊंचे पदों पर भारतीयों को नियुक्त नहीं किया जाता था। १८३३ ई० के चार्टर एक्ट में कहां गया कि भारतीयों को कंपनी के मातहत कोई भी पद दिया जा सकता है। मगर ऐसा बहुत कम हुआ।
ख. अंग्रेजों की आर्थिक नीतियां और उनके प्रभाव
अंग्रेजों ने जिन आर्थिक नीतियों को अपनाया उनके कारण भू-राजस्व प्रणाली, कृषि, व्यापार और उद्योग के क्षेत्र में अनेक परिवर्तन हुए। ये नीतियां भारत में अंग्रेजों के आर्थिक हितों को बढ़ाने के लिए बनाई गई थी। इनके कारण भारतीय जनता के जीवन में मूल परिवर्तन हुए।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
जैसा कि हम पहले बता चुके हैं, भारत के गांव लगभग आत्मनिर्भर थे। वे खाने-पीने की अपनी चीजे स्वयं पैदा करते थे और अपने औजार-बर्तन भी खुद ही बनाते थे। गांवों में उठने वाले झगड़ों का निपटारा पंचायतें और जाति-पंचायतें करती थी। बाहर की थोड़ी ही चीजों की गांव के लोगों को आवश्यकता पड़ती थी, जैसे, नमक, बढ़िया कपड़ा, धातुओं के औजार और श्रीमंतो के लिए सोना तथा चांदी।
किसान-परिवार खेती करते थे और अपनी उपज का एक हिस्सा राजस्व के रूप में शासक को देते थे। जमीन के मामले में उनके कुछ खास अधिकार थे और उन्हें जमीन से बेदखल नहीं किया जा सकता था। राज्य आमतौर पर गांव के प्रधान के मार्फ़त राज्य की वसूली करता था।
अंग्रेजों ने अपना शासन स्थापित किया, जो उन्होंने अपने अफसरों और भारतीय एजेंटों के नियंत्रण में पुरानी व्यवस्था को जारी रखा। मगर अफसर किसानों को कष्ट देने लगे। इससे कंपनी की बड़ी बदनामी हुई। फलतः उसे अपनी नीति बदलनी पड़ी। उसके बाद गांवों के मामलों में कंपनी द्वारा सीधे नियुक्त किए गए। राजस्व-अधिकारियों, पुलिस तथा न्यायिक अधिकारियों - जैसे बाहरी लोगों के बढ़ने हस्तक्षेप का दौर शुरू हुआ। ग्राम-पंचायतों की सत्ता खत्म हो गई। राजस्व निश्चित रकम के रूप में वसूल किया जाने लगा, फिर उत्पादन चाहे जो भी हो। चूंकि राजस्व की वसूली मुद्रा के रूप में होने लगी, इसलिए किसान ऐसी फसलें उगाने के लिए मजबूर हुए जिन्हें बाजार में बेचा जा सके। गांवों में कपड़े और अन्य उत्पादित चीजें पहुंचने लगी तो स्थानीय दस्तकारों के धंधे भी चौपट हो गए। इन सब कारणों से गांव की आत्मनिर्भरता समाप्त हो गई।
नई भूमि व्यवस्था
तुम पढ़ चुके हो कि बक्सर की लड़ाई के बाद कंपनी को पहली बार राजस्व वसूली का अधिकार मिला था। ब्रिटिश क्षेत्रों के विस्तार के साथ-साथ वसूली की राशि भी बढ़ती गई। भू-राजस्व कंपनी की आय का सबसे बड़ा स्त्रोत हो गया। इस आय का एक बड़ा हिस्सा कंपनी ब्रिटिश सरकार को भेंट करती थी। १७६७ ई० से कंपनी को हर साल ४,००,००० पौंड ब्रिटिश सरकार के खजाने में जमा करने पड़ते थे। कंपनी राजस्व का एक भाग भारत में व्यापारिक वस्तुओं खरीदने में खर्च करती थी। ये वस्तुएं इंग्लैंड तथा अन्य देशों को निर्यात की जाती थी। इस तरह, नए शासकों ने ऐसी नीतियां अपनाई की अधिकतम राजस्व की नियमित वसूली होती रहे।
वारेन हेस्टिंग के समय में कंपनी ने बंगाल और बिहार में राजस्व वसूली के अधिकार की नीलामी शुरू कर दी थी। जो व्यक्ति सबसे ऊंची बोली लगाता उसे एक निश्चित क्षेत्र में राजस्व वसूल करने के अधिकार दे दिए जाते। यह नई व्यवस्था किसी के लिए भी लाभप्रद साबित नहीं हुई। कंपनी को जितनी वसूली की उम्मीद रहती थी उतनी नहीं मिलती थी। दूसरी तरफ जमींदार किसानों को लूटते जा रहे थे।
स्थाई बंदोबस्त
नीलामी की व्यवस्था से कंपनी की आय में सुस्थिरता नहीं आई, इसलिए कंपनी ने बंगाल और बिहार में भू-राजस्व स्थायी तौर पर निश्चित करने का निर्णय किया। १७९३ ई० में कार्नवालिस ने यह नई व्यवस्था जिसे स्थाई बंदोबस्त का नाम दिया गया लागू कर दी। इस व्यवस्था के अंतर्गत जमीदार जागीर का मालिक भी बन गया। उसे हर साल एक निश्चित कालावधी में राजस्व की एक निश्चित राशि सरकार को देनी पड़ती थी। इस व्यवस्था में जमीदार की स्थिति मुगल काल के जागीरदारों से बहुत बेहतर थी। जागीरदार जागीर के मालिक नहीं होते थे, न ही वे उसे बेंच सकते थे। वे किसानों को जमीन से बेदखल नहीं कर सकते थे। जागीरदारों से उनकी जागीरें छीनी भी जा सकते थी।
स्थाई बंदोबस्त से कंपनी को नियमित आय होने लगी। इस व्यवस्था ने जमींदारों एक नए वर्ग को जन्म दिया, जो अंग्रेजों के प्रति वफादार था।
जागीर के मालिक बन जाने के बाद अनेक जमींदार अधिकतर शहरों में ही रहने लगे। वे किसानों से लागत के रूप में अधिक-से-अधिक पैसा ऐंठने लगे। १७९९ ई० में उन्हें अधिकार दिया गया कि वे लगान न देने वाले किसानों को जमीन से बेदखल कर सकते हैं और उनकी संपत्ति जब्त कर सकते हैं। फसल न होने पर किसान लगान नहीं दे पाते थे। उस समय काफी बड़ी संख्या में किसानों को बेदखल कर दिया जाता था। इस प्रकार भूमिहीन खेतिहर मजदूरों की संख्या बढ़ती गई। गांवों में आज भी इनकी आबादी काफी अधिक है। आगे चलकर स्थायी बंदोबस्त से सरकार की अपेक्षा जमीदारों को ही ज्यादा फायदा हुआ। खेती के लिए नई भूमि प्राप्त की गई, तो जमींदारों ने लगान भी बढ़ा दिया। मगर सरकार को उन्हें जो रकम देनी पड़ती थी वह पूर्ववत कायम रही।
रैयतवारी और महालवारी व्यवस्थाएं
उड़ीसा, आंध्र प्रदेश के तटीय जिलों और बनारस (वाराणसी) में भी स्थाई बंदोबस्त लागू किया गया। मगर मद्रास प्रेसीडेंसी में एक नई व्यवस्था लागू की गई। इसे रैयतवारी व्यवस्था कहते हैं। सीधे बंदोबस्त की इस व्यवस्था में सरकार ने जमीन रैयत यानी किसानों को दे दी। जमीन की उपजाऊपन और फसल की किस्म के आधार पर राजस्व तीस साल तक की अवधि के लिए निश्चित कर दिया जाता था। पैदावार की कुल कीमत का लगभग आधा हिस्सा सरकार को मिलता था। इस व्यवस्था के अंतर्गत किसान की स्थिति अधिक सुरक्षित हो गई, मगर राजस्व वसूली बड़ी शक्ति से होने के कारण वह अक्सर महाजन के चंगुल में फंस जाता था। इस व्यवस्था ने सरकार को ही सबसे बड़ा जमीदार बना दिया और किसानों को सरकारी अफसरों की दया पर छोड़ दिया गया।
उत्तर भारत में भूमि-बंदोबस्त स्थानीय प्रथाओं के अनुसार हुआ। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गांव-बिरादरियों या महालों के साथ भूमि-बंदोबस्त किया गया। जमीन पर गांव-बिरादरियों के सामूहिक स्वामित्व को "भाईचारा" कहा जाता था। गांवों के समूह 'महाल' कहलाते थे। इसलिए इसे महालवारी व्यवस्था कहा गया। पंजाब और दिल्ली में भी यही भूमि व्यवस्था लागू की गई।
पश्चिम भारत में कुछ समय तक मराठा द्वारा स्थापित भूमि-व्यवस्था को ही चलने दिया गया, मगर धीरे-धीरे इसमें रैयतवारी व्यवस्था के अनुसार परिवर्तन किए गए। गांवों के प्रधान ब्रिटिश जिलाधिकारी के मातहत हो गए। आगे चलकर उन अधिकारियों ने प्रधानों के कार्यों को अपने हाथों में ले लिया।
अंग्रेजों द्वारा लागू किए गए भूमि कानूनों ने भारतीय समाज में कई नई स्थितियां पैदा की। जमीन खरीद-बिक्री की चीज हो गई। निश्चित समय के अंदर सरकार को राजस्व अदा करने के कानून के कारण कई छोटे भू-स्वामी अपनी संपत्ति को गिरवी रखने या उससे हाथ धोने पर मजबूर हुए। प्रमुख रूप से इन्ही नई भूमि-व्यवस्थाओं के कारण गांवों में जमीन का वितरण असमान हुआ और गरीबी बढ़ी।
परंतु इन नई भूमि-व्यवस्थाओं ने भारतीय कृषि-उत्पादन को बाजार के साथ जोड़कर इसे अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ावा भी दिया है। खाद्यान्न और नगदी फसलें तथा बाग़ान की वस्तुएं देशी तथा विदेशी बाजारों के लिए बिक्री की महत्वपूर्ण चीजें बन गई। उदाहरण के लिए, ब्रिटिश व्यापारी अफीम को बड़े पैमाने पर चोरी छुपे चीन में ले जाने लगे। इसलिए भारत में अफीम की पैदावार बढ़ाने के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया गया। दक्कन की काली मिट्टी में कपास की खेती को बहुत ज्यादा बढ़ावा मिला, क्योंकि बाहर के देशों में कपास की मांग बढ़ गई थी। भारतीय जूट, चाय और कहवा के निर्यात से अधिकाधिक मुनाफा मिलने लगा। मगर इस व्यापार से ज्यादातर लाभ अंग्रेजों के व्यापारिक संस्थानों और उनके गुमास्तों ने ही उठाया। भारतीय किसानों को कोई फायदा नहीं हुआ।
उद्योग और व्यापार
उत्पादन के आधुनिक तरीके अपनाए जाने से पहले भारत की औद्योगिक आबादी दो प्रकार की थी - गांव की दस्तकार और विशिष्ट प्रकार की चीजें तैयार करने वाले शिल्पकार। गांवों के साधारण दस्तकार थे - मोटा कपड़ा बुनने में वाले जुलाहे और औजार बनाने वाले बढ़ई और घरेलू बर्तन बनाने वाले कुम्हार।
इनके पेशे मुख्यतः पैतृक थे। वे साल के कुछ समय तक खेती भी करते थे।
शहरों में बसे हुए शिल्पकार उपयोगी चीजों के अलावा विकास की भी चीजें बनाते थे। वे चीजें देशी तथा विदेशी बाजारों में बिकती थी।
इन विशिष्ट वस्तुओं में सूती कपड़ों का विशेष महत्व था। सूती कपड़ों का उत्पादन देश के अनेक भागों में होता था। इसके उत्पादन के महत्वपूर्ण केंद्रित थे : ढाका, कृष्णनगर, वाराणसी, लखनऊ आगरा, मुलतान, लाहौर, बुरहानपुर, सूरत, भड़ौच, अहमदाबाद और मदुरई। विलास की दृष्टि से सादे सूती कपड़े और मलमल का महत्व था। ऊनी और रेशमी कपड़ों की ख्याति भी कम नहीं थी। लोहा व इस्पात, तांबा व पीतल और सोना व चांदी की वस्तुएं भी बड़ी प्रसिद्ध थी।
सत्रहवीं और अठारहवीं सदियों में जहाज-निर्माण के क्षेत्र में भारत का बड़ा नाम था। जहाज-निर्माण के मुख्य केंद्र थे : गोवा, सूरत, मछलीपट्टनम, सतगांव, ढाका और चटगांव। उस काल के एक विद्वान में लिखा है : "जहाज निर्माण के बारे में उन्होंने (भारतीयों ने) अंग्रेजों से जितना सीखा उससे कहीं अधिक शायद उन्हें सिखाया।"
शहरों में उद्योग से सुसंगठित थे। शिल्पकारी पैतृक पेशा थी। शिल्पकार एक विशेष उपजाति के होते थे। गुजरात के शिल्पकार श्रेणियों में संगठित थे। वे श्रेणियां उत्पादित वस्तुओं के स्तर पर नजर रखती थी और अपने सदस्यों के कल्याण का ध्यान रखती थी। आमतौर पर स्वतंत्र शिल्पकार वस्तुओं के उत्पादन का आयोजन करते थे। ग्राहकों की फरमाइश और उनके द्वारा दी गई सामग्री के अनुसार शिल्पकार वस्तुओं का निर्माण करते थे। व्यापारियों से शिल्पकारों को पेशगी धन मिलता था। उन्हें राजाओं और सामंतों का निरंतर संरक्षण मिलता था। वे आमतौर पर विकास की वस्तुएं पसंद करते थे।
भारतीय उद्योगों का पतन
उन्नीसवीं सदी के आरंभ तक इन शिल्पों और उद्योगों का भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान था। लेकिन उसके बाद इनका तेजी से पतन हुआ। इस पतन के क्या कारण थे?
ब्रिटिश प्रदेशों में राजे-रजवाड़ों के धीरे-धीरे खत्म हो जाने के कारण भारतीय उद्योग की बढ़िया वस्तुओं की मांग घटती गई। कई राजा और सामंत कुशल कारीगरों को नियमित वेतन देकर अपने आश्रय में रखते थे। मगर ब्रिटिश अफसरों ने भारतीय शिल्पकारों को उसी तरह का आश्रय प्रदान नहीं किया। दरअसल, जिन क्षेत्रों में भारतीय राजाओं का शासन कायम रहा, उन्हीं में कुछ परंपरागत शिल्प-व्यवसाय जीवित रहे। मगर भारतीय उद्योगों के पतन के मुख्य कारण कुछ और थे।
भारत का भाग्य अब इंग्लैंड के व्यापारियों और उद्योगपतियों के हाथों में था। तुम्हें याद होगा कि यूरोपीय व्यापारियों का भारत आने का मुख्य उद्देश्य था; इस देश के साथ व्यापार करके मुनाफा कमाना। यद्यपि भारत की अधिकांश कृषि और औद्योगिक उपज की देश में ही खपत होती थी, मगर दूसरे देशों में भी भारतीय चीजों की मांग थी। भारत से निर्यात होने वाली चीजों - बढ़िया सूती व रेशमी कपड़े, मसाले, नील, चीनी, औषधि, कीमती पत्थर और विभिन्न प्रकार की शिल्प-वस्तुओं का अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में महत्वपूर्ण स्थान था। बदलें में भारत को सोना और चांदी मिलते थे।
सत्रहवीं सदी के अंत तक भारत के सूती कपड़ों की इंग्लैंड में इतनी अधिक मांग बढ़ गई कि वहां का कपड़ा उद्योग बर्बाद हो गया। परिणामतः इंग्लैंड में पहले १७०० ई० में और १७२० ई० में कानून बनाकर भारतीय कपड़ों की कई किस्मों के आयात पर पाबंदी लगा दी गई। ऐसी कानूनी पाबंदियां यूरोप के अन्य देशों में भी लगाई गई। जैसा कि स्वाभाविक था, इन पाबंदियों का भारत के कपड़ा उद्योग पर बड़ा बुरा प्रभाव पड़ा। फिर भी सूती और रेशमी कपड़ों और कुछ अन्य वस्तुओं का निर्यात-व्यापार चलता रहा। इस दौरान इंग्लैंड में कपड़ा-उद्योग का विकास हो रहा था। इस उद्योग में भारतीय कपड़ों की किस्मों का मुकाबला करने की जी - तोड़ कोशिश की। उदाहरण के लिए, लखनऊ में बनने वाली छींट को इंग्लैंड की महिलाएं बहुत पसंद करती थी। मगर १७५४ ई० तक अंग्रेज और रंगरेज दावा करने लगे कि वे भारतीय दस्तकारों से बेहतर छपाई कर सकते हैं। उसी समय औद्योगिक क्रांति और नई मशीनों ने इंग्लैंड के कपड़ा उद्योग की मदद की। इससे भारतीय कपड़ों के निर्यात की स्थिति बिगड़ गई। उस समय तक भारत में कंपनी का शासन शुरू हो गया था। ब्रिटिश व्यापारियों और उत्पादकों के हितों की रक्षा के लिए यहां भारत में और वहां इंग्लैंड में कुछ कदम उठाए गए। इससे भारतीय उद्योगों को क्षति पहुंची।
कंपनी का मुनाफा बढ़ाने के लिए उसके एजेंटों ने कपड़ा तथा अन्य वस्तुओं के भारतीय उत्पादकों को मजबूर किया कि वे उनसे बाजार से २० से ४० प्रतिशत तक कम कीमत लें। उस समय ढाका मलमल के उत्पादन का सबसे बड़ा केंद्र था। ढाका के उत्पादकों ने कीमतें घटाने का विरोध किया और ऊंची कीमतों की मांग की, तो उनके खिलाफ बल-प्रयोग किया गया। अनेक बुनकरों के नाम कंपनी की बहीं में लिख लिए गए और उनके किसी अन्य का काम करने पर पाबंदी लगा दी गई। कंपनी के अफसर कपास की कीमतों को नियंत्रित करने लगे, तो कपड़ा उत्पादकों की कठिनाइयों और भी अधिक बढ़ गई। बंगाल में बढ़िया किस्म का कपास दक्कन से आता था। कंपनी के अफसर दक्कन से थोक में कपास खरीदते थे और उसे ऊंची कीमतों पर बंगाल के बुनकरों को बेचते थे। इन सब कारणों से बुनकर समुदाय दरिद्र हो गया और सूती कपड़ा-उद्योग चौपट हो गया। इस प्रकार, अठारहवीं सदी के अंत तक औद्योगिक समृद्धि वाला बंगाल प्रांत लगभग बर्बाद हो गया।
मशीन से बने सस्ते सूती कपड़ों के आने से भारतीय कपड़ा-उद्योग को सबसे बड़ा धक्का लगा। यही नहीं, इंग्लैंड से भारत आने वाली वस्तुओं पर चुंगी नहीं लगती थी। दूसरी ओर, भारत से इंग्लैंड पहुंचने वाली वस्तुओं पर वहां ऊंची चुंगी लगती थी। इस नीति के कारण भारत में ब्रिटिश माल की बाढ़ आ गई। विचित्र बात यह थी कि आयातित वस्तुओं में सूती कपड़े की मात्रा सबसे ज्यादा थी।
परिवहन और संचार के साधनों में हुए सुधारों से भारत को ब्रिटिश वस्तुओं का बाजार और ब्रिटिश उद्योगों के लिए कच्चे माल का स्त्रोत बनाने में आसानी हुई। भारत के विभिन्न भागों को बंदरगाहों से जोड़ने वाली सड़कों को सुधारा गया। नदी नौपरिवहन का भी विकास हुआ। मगर परिवहन के क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण सुधार था - भारत में रेलवे की शुरुआत। भारत में पहली रेलवे १८५३ ई० में मुंबई और ठाणे के बीच शुरू हुई। साथ ही डाक व्यवस्था में सुधार हुआ। १८५३ ई० में भारत में टेलीग्राफ की भी शुरुआत हुई।
सामाजिक कानून
भारतीय समाज में सदियों से कई निकृष्ट रीति रिवाज और अमानवीय प्रथाएं चली आ रही थी। ऐसी कुछ सबसे अधिक निकृष्ट प्रथाओं के शिकार थे - तथाकथित निम्न जातियों के लोग, उनकी स्त्रियां और उनके बच्चे, विशेषकर कन्याएं। लंबे समय तक ब्रिटिश शासकों ने इन बुरी प्रथाओं पर कोई ध्यान नहीं दिया। उनका मुख्य उद्देश्य था भारत का आर्थिक शोषण करना, न कि सामाजिक बुराइयों को दूर करना। इस काल में भारत आए कुछ ब्रिटिश प्रशासक मानवतावादी तथा सुधारवादी विचारों से प्रभावित थे। उन्हीं के प्रयासों से उन्नीसवीं सदी के पहले भाग में भारत में कुछ मानवतावादी कदम उठाए गए। इसमें कुछ भारतीयों ने भी महत्व की भूमिका अदा की। इन भारतीयों के बारे में विस्तार से तुम आगे पढो़गे।
उस समय देश के कुछ भागों की कुछ बिरादरियों में कन्या वध की प्रथा प्रचलित थी। कन्या के जन्म लेते ही उसे मार डाला जाता था। उस समय की सामाजिक प्रथाओं के अनुसार कन्याओं का विवाह अपनी बिरादरी में ही करना पड़ता था। कन्या के विवाह में पिता को बहुत ज्यादा धन खर्च करना पड़ता था। कन्या का अविवाहित रहना परिवार के लिए कलंक की बात समझी जाती थी। ऐसा न हो इसलिए कई कन्याओं का बचपन में ही वध कर दिया जाता था। कभी-कभी धार्मिक मनौतियों को पूरा करने के लिए नवजात पुत्र और पुत्री दोनों को ही पवित्र नदियों में प्रवाहित कर दिया जाता था। इस प्रथा को बंद करने के लिए सरकार ने कानून बनाए। मगर इस प्रथा के बंद होने में लंबा समय लगा।
भारतीय समाज में स्त्रियों की दशा बड़ी दयनीय थी। उनमें से अनेक का जीवन 'जन्म से लेकर मृत्यु तक दुख और अपमान की एक लंबी कहानी' था। काफी छोटी उम्र में ही उनका ब्याह कर दिया जाता था। समाज के कुछ वर्गों में विधवाओं का पुनर्विवाह नहीं होता था और उन्हें कष्ट भरा जीवन बिताना पड़ता था। हिंदुओं की कुछ तथाकथित उच्च जातियों में प्रचलित सबसे बर्बर प्रथा थी विधवाओं का अपने पति की चिता में जल मरना। इस प्रथा को सतीदाह या सती कहते थे। केवल बंगाल प्रेसिडेंसी में ही १८१५ से १८२८ ई० तक सतीदाह की ८१३४ घटनाएं हुई थी। १८२९ ई० में बनी एक कानून के जरिए इस क्रूर प्रथा पर रोक लगा दी गई। भारत के ब्रिटिश शासन द्वारा लागू किया यह सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक कानून था। यह कानून गवर्नर जनरल विलियम बेंटिक के समय में लागू हुआ। राजा राममोहन राय द्वारा शुरू किए गए जबरदस्त आंदोलन से इस प्रथा को बंद करने में मदद मिली। राजा राममोहन राय के बारे में अधिक जानकारी तुम्हें आगे मिलेगी। एक अन्य समाज - सुधारक थे ईश्वरचंद्र विद्यासागर। उनके प्रयासों से सरकार ने १८५६ ई० में विधवा पुनर्विवाह कानून बनाया। इस कानून ने हिंदू विधवा को पुनः विवाह करने की छूट दे दी।
भारत में गुलामों का व्यापार भी सतत होता रहा, हालांकि यह बड़े पैमाने पर नहीं होता था। गरीबी के कारण लोग अपने बच्चों को बेचने के लिए मजबूर होते थे। गुलामों या दासों के ज्यादातर घरेलू काम कराए जाते थे। कभी-कभी उन्हें अन्य ब्रिटिश उपनिवेशों में भेजा जाता था। १८४३ ई० में एक कानून बनाकर दास प्रथा पर पाबंदी लगा दी गई।
सामाजिक सुधार के यह प्रयास महत्वपूर्ण थे, मगर भारतीय जनता का एक बहुत छोटा समुदाय भी इनसे प्रभावित हुआ। सरकार का मुख्य प्रयास था ब्रिटिश हितों की रक्षा तथा वृद्धि करना। दूरगामी सामाजिक सुधारों में उसकी ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी। इस दिशा में स्वयं भारतीयों ने ही प्रयास किए। भारतीयों ने धार्मिक और सामाजिक सुधारों के लिए आंदोलन शुरू किए, और बाद में देश की आजादी का भी आंदोलन शुरू हुआ।
आधुनिक शिक्षा का आरंभ
कंपनी का शासन शुरू होने के समय सारे देश में प्रारंभिक शिक्षा के लिए पाठशालाएं तथा मकतब और उच्च शिक्षा के लिए टोल तथा मदरसा थे। प्रारंभिक स्तर पर विद्यार्थियों को स्थानीय भाषाओं में लिखे गए धार्मिक ग्रंथों के कुछ अंश, पत्र-लेखन और पहाड़े पढ़ाए जाते थे। उच्च शिक्षा मुख्यतः ब्राह्मण और उच्च वर्गीय मुसलमान ही प्राप्त करते थे। वे व्याकरण, शास्त्रीय भाषाओं (संस्कृत, अरबी, फारसी) साहित्य, धर्मशास्त्र, कानून, तर्कशास्त्र, चिकित्साशास्त्र तथा ज्योतिष का विशेष अध्ययन करते थे। उनका पाठ्यक्रम पुराने ग्रंथों और उनकी टीकाओं पर आधारित था। उनमें नई जानकारी नहीं के बराबर थी। दुनिया के कुछ अन्य भागों में ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में जो उन्नति हुई थी और जो नए विचार उभरे थे उनकी उन्हें कोई जानकारी नहीं थी। मगर इस व्यवस्था से देश की आबादी के एक काफी बड़े हिस्से में साक्षरता का प्रसार हुआ।
कंपनी के अधिकांश इलाकों में कुछ समय तक यही शिक्षा-व्यवस्था चालू रही। कंपनी का शासन शिक्षा के प्रति उदासीन था। यहां तक कि कंपनी के शासन में पुरानी शिक्षा-प्रणाली को भी क्षति पहुंची। शिक्षा के लिए भारतीय शासकों ने जो जमीन दान में दी थी वह कंपनी की सरकार ने छीन ली। फलस्वरुप पुरानी शिक्षा-प्रणाली की अवनति हुई।
अंग्रेजी भाषा और पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान के कुछ विषयों की शिक्षा देने के लिए पहले मद्रास की इलाकों में और बाद में बंगाल तथा बंबई में नई पद्धति के कई स्कूल खुले। इनका संचालन अधिकतर ईसाई धर्म-प्रचारकों के हाथों में था। कंपनी की सरकार की सहायता से खुलने वाली पहली शिक्षण संस्थाएं थी - कोलकाता मद्रास और बनारस संस्कृत कॉलेज, जिनकी स्थापना क्रमशः १७८१ ई० और १७९१ ई० में हुई थी। इनकी स्थापना का उद्देश्य ऐसे भारतीयों को प्रशिक्षित करना था जो कंपनी के ब्रिटिश अफसरों को प्रशासन के कार्यों में मदद कर सके। इनमें पाठ्यक्रम काफी हद तक पुरानी भारतीय पद्धति का ही था। कोलकाता में फोर्ट विलियम कॉलेज की शुरुआत १८०१ ई० में हुई। वहां अंग्रेज प्रिंसिपल के साथ कुछ भारतीय पंडित काम करने लगे। उनका काम था अंग्रेजों को भारतीय भाषाओं, इतिहास, कानून तथा रीति-रिवाजों का परिचय कराना। उन्होंने बंगाल की पहली प्रवेशिका, उर्दू का एक शब्दकोश और हिंदी का एक व्याकरण बनाया।
ब्रिटिश शासकों ने भारत में शिक्षा के विकास के लिए पहला कदम १८१३ ई० के चार्टर एक्ट के बाद उठाया। इस एक्ट में भारत में शिक्षा के प्रसार के लिए एक लाख रुपए मंजूर किए थे। मगर भारत के लिए एक शिक्षा नीति तय करने में कंपनी को बीस साल और लगें। भारत में किस प्रकार की शिक्षा प्रणाली लागू की जाए, इस बात को लेकर ब्रिटिश प्रशासकों और कुछ भारतीयों में लंबे समय तक वाद-विवाद चलता रहा। उनके दो समुदाय थे। एक समुदाय परंपरागत शिक्षा पद्धति का समर्थक था, और दूसरा पाश्चात्य शिक्षा पद्धति का। राममोहन राय जैसे कुछ भारतीय पाश्चात्य शिक्षा पद्धति के समर्थक थे। उनका विचार था कि केवल पाश्चात्य शिक्षा के जरिए ही भारत प्रगति कर सकता है। १८३५ ई० में सरकार ने भारतीयों को यूरोपीय साहित्य और ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा देने का निर्णय लिया। इस निर्णय के बाद सरकार द्वारा खोले गए चंद स्कूलों और कालेजों में अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाया गया।
कुछ साल बाद कलकत्ता, बंबई और मद्रास में विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई। अंग्रेजों ने भारत में जो शिक्षा-पद्धति चलाई, वह 'अंग्रेजी शिक्षा' की कहलाई।
उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में अंग्रेजी शिक्षा की मांग तेजी से बढ़ती गई। १८४४ ई० में सरकार ने घोषणा की कि अंग्रेजी जानने वाले भारतीयों को सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता दी जाएगी। इससे अंग्रेजी शिक्षा अधिक लोकप्रिय हुई।
सरकार ने शिक्षा के लिए बहुत कम धन उपलब्ध कराया था। इससे स्पष्ट था कि भारतीयों की शिक्षा में ब्रिटिश शासकों की दिलचस्पी नहीं थी। नई शिक्षा-प्रणाली की इस बात के लिए आलोचना होती थी कि यह ब्रिटिश प्रशासन के लिए केवल क्लर्क तैयार करने के लिए बनी है। आम जनता की शिक्षा की उपेक्षा हुई। पुरानी शिक्षा-पद्धति की अवनति हुई और अंग्रेजों द्वारा प्राथमिक शिक्षा की उपेक्षा के कारण करीब ९० प्रतिशत भारतीय अनपढ़ रह गए। अंग्रेजी शिक्षा पर जोर दिए जाने के कारण अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीयों में और शेष भारतीय जनता में एक खाई पैदा होने लगी। ब्रिटिश शासकों ने यह भी सोचा कि अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीय ब्रिटिश शासन के समर्थक बनेंगे।
इन सब गंभीर त्रुटियों के बावजूद अंग्रेजी शिक्षा की कुछ अच्छाइयां भी थी। इसके जरिए भारतीय, हालांकि बहुत कम संख्या में, आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और स्वतंत्रता, समानता, जनतंत्र तथा राष्ट्रीयता के आधुनिक विचारों के संपर्क में आए। उन्हें दुनिया के अन्य भागों में हो रहे विकासों की जानकारी मिली। वे भारत के आधुनिकीकरण के तरीकों और उपायों के बारे में सोचने लगे। उनमें से कुछ समाज-सुधार आंदोलनों के और बाद में भारत के राष्ट्रीय आंदोलनों के अग्रदूत बने। इस तरह ब्रिटिश शासकों की यह आशा की अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीय ब्रिटिश शासन में समर्थक होंगे, मिथ्या साबित हुई।