अध्याय - ७ - आर्थिक जीवन में परिवर्तन (१८५८-१९४७ ई०)
महारानी विक्टोरिया की १८५८ ई० की घोषणा में कहा गया था कि ब्रिटिश सरकार भारत के आर्थिक विकास और भारतीय जनता के कल्याण पर ध्यान देगी। मगर ब्रिटिश शासकों ने जो कदम उठाए उनसे केवल ब्रिटेन के औद्योगिक और व्यापारी हितों को ही लाभ पहुंचा। भारतीय अर्थव्यवस्था का पिछड़ापन बरकरार रहा और जनता की गरीबी बढ़ती गई। तुम पढ़ चुके हो कि अंग्रेजों ने भारत में अपने आरंभिक शासन के दौरान किस प्रकार की आर्थिक नीतियां अपनाई थी। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में और उसके बाद भारतीय जनता के आर्थिक जीवन में अनेक परिवर्तन हुए। इन परिवर्तनों का महत्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि भारत के विभिन्न क्षेत्र धीरे-धीरे एक-दूसरे पर आश्रित हो गए। भारत में समरूप आर्थिक जीवन का उदय होने लगा जिसने देश का एकीकरण करने में योग दिया।
किसानों पर भारी बोझ
तुम्हें याद होगा कि कंपनी के शासनकाल में जमींदारी और रैयतवारी भूमि-व्यवस्थाएं लागू की गई थी। जिन क्षेत्रों में जमींदारी व्यवस्था लागू की गई थी वहां जमीदार, सरकार और किसानों के बीच मध्यस्थ बनकर, राजस्व वसूल करके सरकार को देते थे। रैयतवारी व्यवस्था में सरकार का किसानों से सीधा संबंध था। राजस्व की नियमित वसूली हो सके इसलिए ये व्यवस्थाएं लागू की गई थी। मगर जल्दी ही यह स्पष्ट हो गया कि जमींदारी व्यवस्था ने किसानों पर भारी बोझ डाल दिया है। जमीदारों द्वारा किसानों से की जाने वाली मांगों पर रोक लगाने के लिए कई कानून पास किए गए। ये कानून जमीदारों द्वारा किसानों की बेदखली पर भी रोक लगाते थे। मगर यह कानून काफी हद तक निष्फल रहे। रैयतवारी क्षेत्रों में तो, जहां सरकार के राजस्व-अधिकारी ही असली मालिक थे, ये कानून भी नहीं थे। इन क्षेत्रों में सरकारी अधिकारी, किसानों की वास्तविक आर्थिक दशा पर ध्यान दिए बिना ही राजस्व पुनर्निधारण करते रहे। उत्पीड़न वसूली का नतीजा यह हुआ कि किसानों को विवश होकर महाजनों की शरण में जाना पड़ा। इस शोषण के खिलाफ बंगाल और दक्कन में उन्नीसवीं सदी के आठवें दशक में किसान-विद्रोह हुए। किसानों ने दंगे किए, दुकानों तथा घरों को आग लगा दी और अनाजों के गोदाम लूट लिए। फिर भी राजस्व की वृद्धि को रोकने के लिए कदम नहीं उठाया जाए
जमींदारी और रैयतवारी दोनों ही क्षेत्रों में बड़े किसानों ने अपनी जमीन छोटे किसानों को लगान या बटाई पर देनी शुरू कर दी। इससे किसानों का जीवन और भी कष्टकर हो गया। तुम पढ़ चुके हो कि अंग्रेजों ने जिन जमीदारों को पैदा किया था वे स्वयं कृषि-उत्पादन नहीं करते थे। किसानों के श्रम पर उनका जीवन-निर्वाह चलता था। वे किसानों से राजस्व वसूल करने की जिम्मेदारी भी अक्सर दूसरे लोगों को सौंप देते थे। जमीदारों से यह अधिकार प्राप्त करने वाले कुछ लोग इसे आगे दूसरे लोगों को बेच देते थे। परिणामस्वरूप, राज्य और किसानों के बीच मध्यस्थों की संख्या बढ़ गई। ये सभी बिचौलिए, बिना कोई उपयोगी काम किए, किसान के उत्पादन पर आश्रित हो गए। इन्होंने किसान के बोझ को और अधिक बढ़ा दिया। रैयतवारी क्षेत्रों में भी बड़े किसानों ने अपनी जमीन छोटे किसानों को बटाई पर देनी शुरू कर दी। इससे वास्तविक किसानों के कष्ट बढ़ते गए। इन सभी बिचौलियों की खेती में कोई दिलचस्पी नहीं थी, इसलिए कृषि-कर्म पिछड़ा रह गया। बिचौलियों को हटाने के लिए कुछ कानून बनाए गए, मगर भारत के स्वतंत्र होने के बाद तक इस दिशा में कोई कारगर कदम नहीं उठाया गया।
छोटी जोतें
कृषि के पिछड़ेपन का एक और महत्वपूर्ण कारण था - छोटी-छोटी जोतें। आबादी बढ़ी तो शनैः - शनैः जमीन पर भी भार बढ़ता गया। उद्योगों का विस्तार नहीं हुआ, इसलिए अतिरिक्त काम भी नहीं थे। उस समय के उत्तराधिकार के कानूनों के कारण जोतें लगातार बंटती गई। जैसे-जैसे अधिकाधिक लोग अपनी जीविका के लिए खेती पर निर्भर हो गए, वैसे-वैसे जोतों का अधिकाधिक बंटवारा होता गया। उदाहरण के लिए दक्कन में १७७१ ई० और १९१५ ई० के बीच जोतों का औसत क्षेत्रफल ४० एकड़ से घटकर ७ एकड़ हो गया। इस कारण अधिकतर किसान अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए पर्याप्त अनाज पैदा नहीं कर पाते थे।
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से कृषि-भूमि का विस्तार हुआ। मगर इससे भी जमीन पर आबादी का दबाव कम नहीं हुआ। बढ़ती आबादी के लिए रोजगार के अतिरिक्त अवसर उपलब्ध नहीं थे। १८६१ ई० में जब पहली बार जनगणना की गई, तो उस समय भारत की आबादी २० करोड़ ६० लाख थी। १९०१ ई० में आबादी बढ़कर २६ करोड़ ३० लाख हो गई। चालीस साल बाद १९४१ ई० में आबादी ३६ करोड़ ९० लाख पर पहुंच गई। मगर जनसंख्या में हुई वृद्धि के बराबर कुल कृषि-उत्पादन में वृद्धि नहीं हुई। खाद्यान्नों का उत्पादन घट गया।
नगदी फसलें
खाद्यान्नों के उत्पादन में कमी आने का कारण यह था कि कपास, जूट और तिलहन जैसी लगदी या व्यावसायिक फसलों के उत्पादन को ज्यादा महत्व दिया गया। सरकार ने व्यवसायिक फसलों के उत्पादन को तो प्रोत्साहन दिया, मगर खाद्यान्नों की कमी की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। १८६१ ई० से १८६५ ई० तक अमरीका में गृह-युद्ध चला। इसलिए वहां से इंग्लैंड की कपड़ा मिलो को कपास पहुंचने बंद हो गई। इंग्लैंड के कपड़ा मिलों की आवश्यकता के लिए अंग्रेजों ने भारत में कपास के उत्पादन को प्रोत्साहन देने के लिए विशेष कदम उठाए। इससे भारतीय किसानों का एक समुदाय जो कुछ समय के लिए समृद्ध हो गया, परंतु खाद्यान्नों का उत्पादन घट गया। देश के कुछ भागों के किसानों को अंग्रेज बागान-मालिकों ने नील की खेती करने के लिए और उन्हीं के द्वारा तय की गई कीमत पर उन्हें ही इसे बेचने के लिए मजबूर किया।
किसानों की कंगाली
देश के स्वतंत्र होने तक भारत की ग्रामीण जनता दो प्रकार की विपदाओं से लगातार त्रस्त रही। ये दो त्रासदियां थी - कर्ज का बोझ और अकाल। स्पष्ट था कि भारत की कृषि का स्तर घटिया था। भारत के अधिकतर किसानों को दोनों समय भरपेट खाना भी नहीं मिलता था।
ग्रामीण कर्ज़भार
किसान, कहीं के भी हो, आसानी से कर्जदार बन जाते हैं। भारत के किसानों को केवल महाजनों से ही कर्ज मिलता था। मगर जहां अन्य देशों के किसान कर्ज का इस्तेमाल बीज, खाद औजार आदि खरीदने तथा जमीन को सुधारने के लिए करते थे, वहां भारत के किसान कर्ज का उपयोग मुख्यतः गैर-उत्पादक कामों में करते थे। भारतीय किसान कर्ज लेकर उसका उपयोग भू-राजस्व देने या जमींदार को लगान देने या फसल अच्छी न होने पर परिवार का भरण-पोषण करने या जन्म, मरण तथा शादी के अवसरों पर खर्च करता था। भारतीय किसान की औसत आय इतनी कम थी कि एक बार कर्ज लेने पर वह उसे अगले साल की फसल से मुश्किल से ही चुकता कर पाता था। जानकारी मिलती है कि १८६० ई० में सभी प्रांतों के दो-तिहाई किसान कर्ज में डूबे हुए थे। भारत में ब्रिटिश शासन के पूरे दौर में यही स्थिति बनी रही।
कर्ज वापस न करने का परिणाम यह होता था कि किसानों की जमीन महाजनों के कब्जे में चली जाती थी। अंग्रेजों के शासन के पहले जमीन के हस्तांतरण पर अनेक पाबंदियां थी। कर्ज की वसूली में महाजन को राज्य से अधिक मदद नहीं मिलती थी। मगर नई न्यायिक व्यवस्था में कर्ज की वसूली के लिए महाजनों को ज्यादा अधिकार दे दिए गए।
इस सदी के आरंभ से ही भूमि के हस्तांतरण पर रोक लगाने के लिए प्रांतों में कानून बनने लगे थे। ब्याज की अधिकतम दर और राशि निश्चित कर दी गई थी। इस सदी के आरंभिक सालों में किसानों को सस्ते दरों पर कर्ज़ मुहैया करने के लिए सरकारी समितियां स्थापित की गई थी। मगर इनका असर काफी सीमित रहा।
भारत में अकाल
भारत में कई बार अकाल पड़े हैं। भारतीय किसानों को पूर्णतः मानसून पर आश्रित होना इसका मुख्य कारण था। फसल अच्छी होने पर भी वह इतना नहीं बचा पाते थे कि सूखे के दिनों के लिए कुछ सुरक्षित रख सकें। जिस साल मानसून दगा दे जाता उस साल अकाल पड़ता। यद्यपि अकाल बार-बार पड़े हैं (१८६० ई० और १९०८ ई० के बीच अकाल के कुल २० साल रहे), मगर ऐसा बहुत कम हुआ कि एक ही साल में सारे देश में मानसून ने दगा दिया हो। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में सड़कों और रेलवे मार्गों के निर्माण के कारण अभावग्रस्त क्षेत्रों में अनाज पहुंचाने में आसानी हुई। फिर भी देश के किसी न किसी क्षेत्र में अकाल पड़ते ही रहे। असली समस्या यह थी कि छोटे किसान और मजदूर दिन में दो बार का भोजन भी मुश्किल से जुटा पाते थे। वर्षा न होने पर थोड़ी अवधि के लिए भी फसल नहीं होती तो उन्हें भुखमरी का सामना करना पड़ता था।।
अकाल के कई तरह के परिणाम होते थे। इन अकालों में लाखों लोग मर गए। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में पड़े अकालों में तीस लाख लोगों की मौत हुई। मवेशी भी बड़ी संख्या में मरे। अकाल के हर साल बाद कुपोषण और महामारियों का फैलाव होता गया। लोग अकालग्रस्त क्षेत्रों को छोड़कर दूसरे स्थानों पर चले गए।
बार-बार अकाल पड़ने के कारण सरकार ने अकाल आयोगों की स्थापना की। उनकी सिफारिशों को मान कर सरकार ने १८८३ ई० में एक करोड़ १५ लाख रुपए राहत कार्य और बीमा के लिए प्रतिवर्ष देने का निर्णय किया। प्रशासकों के मार्गदर्शन के लिए अकाल संहिता भी बनी। लगान-माफी, सिंचाई-प्रबंधो का विस्तार और प्रभावित लोगों को आर्थिक सहायता देना, आदि इस संहिता की कुछ प्रमुख बातें थी। मगर सरकार समस्या की तह तक नहीं गई। उसने १८८० ई० के अकाल आयोग का यह सुझाव नहीं माना कि खेती में लगे हुए अतिरिक्त लोगों के लिए अन्य अवसर खोजे जाएं।
बीसवीं सदी में कम अकाल पड़े। वह ज्यादा भयंकर भी नहीं थे। इसका मुख्य कारण सिंचाई, परिवहन तथा राहत कार्यों में सुधार था। उस समय तक लोग भी बार-बार की इस विपदा के प्रति सचेत हो गए थे। फिर भी, १९४३ ई० में बंगाल में एक भयंकर अकाल पड़ा। उसमें करीब तीस लाख लोगों की जानें गई। मगर दूसरे महायुद्ध के दौरान यह अकाल प्रशासन के गैर-इंतजाम के कारण पड़ा।
सिंचाई की सुविधाओं का विकास
प्राचीन काल से ही शासन द्वारा या सामूहिक प्रयासों से तालाब, कुएं, नहरें और बांध बनाए जाते रहे हैं। अकाल के समय सिंचाई की समस्या पर हमेशा ही विशेष ध्यान दिया गया। सारे अकाल-आयोगों ने सिंचाई की सुविधाएं बढ़ाने की सिफारिश की।
इन आयोगों ने नहरों के विकास पर विशेष बल दिया। यद्यपि सिंचित भूमि के क्षेत्रफल में ज्यादा वृद्धि नहीं हुई (१९४० ई० तक १३ प्रतिशत भूमि में ही सिंचाई होती थी), फिर भी इससे वर्षा के दगा देने पर पड़ने वाली विपदाओं में कमी आई। सिंचाई वाले क्षेत्रों में फसलें पैदा करने में ज्यादा खर्च आता था, क्योंकि किसानों को नहरों के पानी का पैसा देना पड़ता था। इसलिए किसान ऐसी फसलें उगाने लगे जिनकी बाजार में ज्यादा कीमत मिलती थी। इस प्रकार नगदी फसलों के उत्पादन को बढ़ावा मिला।
वर्तमान सदी के आरंभ से कृषि के विकास के लिए सरकार ने कुछ रचनात्मक नीतियां अपनाई। कृषि के बारे में जानकारी एकत्र करने के लिए कृषि-विभाग स्थापित किए गए। विकास की योजनाएं पूरी करने की जिम्मेदारी भी कृषि-विभागों को सौंपी गई। कृषि के बारे में उच्च शिक्षा देने के लिए अनुसंधान कार्य तथा प्रायोगिक कृषि के लिए बिहार में 'इंपीरियल इंस्टिट्यूट ऑफ़ एग्रीकल्चर' की स्थापना की गई। बाद में यह संस्थान दिल्ली चला आया। देश के विभिन्न भागों में कुछ कृषि-स्कूल और कॉलेज भी स्थापित किए गए। इस तरह कृषि के विकास के लिए कुछ कदम उठाए गए। मगर जमींदार भूमि में कोई सुधार किए बगैर ही किसानों से ज्यादा लगान वसूल करते रहे, इसलिए आधुनिक और उन्नत कृषिकर्म की दिशा में अधिक प्रगति नहीं हुई।
कृषि-पैदावार में वृद्धि तो हुई, मगर उससे ज्यादा वृद्धि जनसंख्या में हुई। भूमि के वितरण में असमानता होने के कारण कठिनाइयां और भी अधिक बढ़ गई। ऐसे किसानों की तादाद बहुत ज्यादा थी जो खेती तो करते थे मगर भूमि के मालिक नहीं थे। ऐसे खेतिहर मजदूरों की संख्या भी बढ़ती गई जिन्हें साल के केवल कुछ महीने ही खेती का काम मिलता था। कृषि के क्षेत्र में उन्नति करने के लिए यह आवश्यक था कि भूमि-स्वामित्व से संबंधित असमानता को समाप्त किया जाए, असली किसानों को स्वामित्व के अधिकार दिए जाएं और खेतिहर मजदूरों के हितों की रक्षा की जाए। मगर इन सुधारों को स्वाधीनता मिलने तक इंतजार करना पड़ा।
परिवहन का विकास
देश के आर्थिक विकास के लिए परिवहन और संचार के अच्छे साधन आवश्यक हैं। उन्नसवीं सदी के मध्य काल तक इन मामलों में भारत की स्थिति बड़ी खराब थी। उस समय तक देश में केवल दो ध्वनि मुख्य सड़कें थे एक कलकत्ता और दिल्ली के बीच और दूसरी बंबई और आगरा के बीच। उन्नीसवीं सदी के लगभग मध्यकाल से परिवहन और संचार के साधनों को उन्नत बनाने पर विशेष ध्यान दिया गया। सड़के बनाने के अलावा परिवहन और संचार के नए साधनों को विशेषकर रेलवे और टेलीग्राफ को, चालू किया गया। १८५७ ई० के विद्रोह से अंग्रेजों ने सबक सीखा कि भारत पर अपना शासन कायम रखने के लिए उन्हें संचार के साधनों का विस्तार और विकास करना होगा। ब्रिटेन के हित में भारत में आर्थिक शोषण को तीव्र बनाने के लिए भी परिवहन और संचार के साधनों में सुधार करना आवश्यक था। तुम पहले पढ़ चुके हो कि ब्रिटिश शासक इंग्लैंड के उद्योगों के लिए भारत को कच्चे माल का स्रोत और इंग्लैंड में उत्पादित वस्तुओं का बाजार बनाना चाहते थे। बंदरगाहों से देश के विभिन्न भागों में माल के तेजी से और आसानी से आवागमन के साधन विकसित करके ही ऐसा किया जा सकता था। इसलिए यह स्मरण रखना चाहिए कि परिवहन के क्षेत्र में जो विकास हुआ वह वस्तुतः भारत के आर्थिक विकास के लिए नहीं था।
रेलवे
रेलवे ने भारत की परिवहन-व्यवस्था में एक प्रकार की क्रांति पैदा कर दी। पहली रेल लाइन १८५३ ई० में बंबई और थाना के बीच बनी। अगले साल कलकत्ता को रेल मार्ग से बंगाल के पश्चिमी क्षेत्र की कोयला-खानों के साथ जोड़ा गया। १८५६ ई० में मद्रास को आर्कोंनाम के साथ जोड़ा गया। उसके बाद सरकार और निजी कंपनियों के प्रयासों से रेलवे का तेजी से विकास हुआ। भारत में रेलवे निर्माण-कार्य में ब्रिटिश व्यापारियों और ठेकेदारों ने भारी मुनाफा कमाया।
शुरू के वर्षों में रेलवे-विभाग ने बड़ी लाइनों के निर्माण पर ही अधिक जोर दिया। बंबई, मद्रास और कलकत्ता जैसे बड़े बंदरगाहों को देश के भीतरी मार्गों के महत्वपूर्ण शहरों और कृषि-क्षेत्रों के साथ जोड़ा गया। इस प्रकार देश के महत्वपूर्ण शहर रेलवे के जरिए एक-दूसरे के साथ जुड़ गए थे और उन्नसवीं सदी के अंत तक २५,००० किलोमीटर लंबी रेलवे लाइन देश में तैयार हो गई थी। रेलवे लाइनों के निर्माण का मुख्य उद्देश्य था बंदरगाहों को देश के से भीतरी क्षेत्रों से जोड़ना जो अंग्रेजों के आर्थिक हितों की दृष्टि से महत्य के थे। देश के उन विभिन्न भागों को आपस में जोड़ने पर बहुत कम ध्यान दिया गया जिनसे देश के एक भाग में निर्मित वस्तुओं को दूसरे भागों में पहुंचाने में सुविधा होती। रेलवे ने मालभाड़े के बारे में जो नीति अपनाई उससे भी अंग्रेजों की नियत स्पष्ट होती है। देश के भीतर एक स्थान से दूसरे स्थान तक रेलवे से माल पहुंचाने में ज्यादा भाड़ा लगता था, मगर बंदरगाहों से माल को देश के अन्य भागों में पहुंचाने में कम भाड़ा लगता था। भारत में रेलवे लाइनें बिछाने के पीछे अंग्रेजों का एक और मुख्य प्रमुख उद्देश्य था - भारत पर अंग्रेजों के शासन को मजबूत बनाना। जो क्षेत्र प्रतिरक्षा की दृष्टि से महत्व के थे उन्हें, फौज को स्थानांतरित करने के लिए आपस में जोड़ दिया गया। बाद में, विशेषकर प्रथम महायुद्ध के दौरान और बाद में, जब भारतीय उद्योगों का कुछ विकास हुआ, तब रेलवे की नीति में परिवर्तन करने की मांग की गई। भारतीयों ने मांग की रेलवे को विदेशी हितों के बजाय भारत की आर्थिक आवश्यकताओं का ज्यादा ध्यान रखना चाहिए। रेलवे भारी मुनाफा कमा रही थी और उस मुनाफे का एक बड़ा हिस्सा देश के बाहर जा रहा था। रेलवे पर प्रमुखतः सरकार का स्वामित्व था, परंतु उनका प्रबंध ब्रिटिश कंपनियों के हाथों में था। इस स्थिति में १९४७ ई० तक कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ, हालांकि उस समय तक देश में करीब ७०,००० किलोमीटर लंबी रेलवे लाइनें बन चुकी थी और दुनिया का सबसे बड़ा रेलवे जाल भारत में ही था।
रेलवे का भारतीय अर्थव्यवस्था और आम जीवन पर बड़ा गहरा और व्यापक प्रभाव पड़ा। लोगों और वस्तुओं का आवागमन तीव्रगामी, सस्ता और अधिक सुरक्षित हो गया। देश के भीतरी भागों में उत्पादित चीजें बाहरी बाजारों में पहुंचने लगी।
रेल-मार्गों के कारण अकाल के खतरे को दूर करना संभव हुआ। क्योंकि जहां सूखा पड़ा हो वहां रेल-मार्ग के जरिए अनाज पहुंचाना आसान हो गया। रेलवे ने उद्योगों के विकास में भी महत्वपूर्ण योग दिया, क्योंकि जहां कारखाने स्थापित किए गए थे वहां बड़ी मात्रा में कोयला और कच्चा माल पहुंचाना संभव हुआ। रेलवे ने देश के विभिन्न भागों की वस्तुओं की कीमतों को लगभग एक समान करने में भी योग दिया। पहले जहां वस्तुओं का उत्पादन होता था वहां उनकी भरमार होती थी और कीमतें भी कम होती थी, परंतु अन्य स्थानों पर जहां उनकी कमी होती थी वहां उनकी कीमतें ज्यादा होती थी। लेकिन अब वस्तुओं को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाना आसान हो गया, इसलिए कीमतों में पहले से कम अंतर रहने लगा। रेल-मार्गों के निर्माण से समाज में एक नए वर्ग का उदय हुआ। ये वे कुशल श्रमिक थे जिनको रेल-मार्गों के निर्माण और उनके रखरखाव का काम दिया गया। इस प्रकार समाज में एक ऐसे समुदाय का उदय हुआ जो अपनी जीविका के लिए भूमि या दस्तकारी पर आश्रित नहीं था। इस नए समुदाय के लोग मूलतः गरीब किसान या भूमिहीन खेतिहर मजदूर थे।
तुम पहले पढ़ चुके हो की औद्योगिक क्रांति ने, जिसकी शुरुआत सर्वप्रथम इंग्लैंड में हुई थी और बाद में यूरोप के कुछ अन्य देशों में फैली, किस प्रकार उन देशों की समाज-व्यवस्था और अर्थ-व्यवस्था को बड़े पैमाने पर बदला। इंग्लैंड में रेलवे की शुरुआत के कुछ ही साल बाद भारत में भी रेलवे की शुरुआत हो गई थी। रेलों के लिए बड़े पैमाने पर लोहे तथा कोयले का इस्तेमाल होता था और उनमें एक आधुनिक मशीन भाप के इंजन का प्रयोग होता था। रेलवे की स्थापना के साथ भारत में आधुनिक, उद्योगों, लोहे तथा इस्पात के कारखानों और रेल-इंजन बनाने वाले कारखानों की शुरुआत हो जानी चाहिए थी। परंतु ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि रेलवे की स्थापना का उद्देश्य भारत का औद्योगिक विकास करना नहीं बल्कि भारत का और आर्थिक आर्थिक शोषण करना था। रेल-इंजन इंग्लैंड से आयात किए जाते रहे। भारत के लौह और इस्पात उद्योग को भी प्रोत्साहन नहीं दिया गया। कोयला खनन को विकसित किया गया, परंतु इसका मुनाफा भारत की कोयला खानों के अंग्रेज मालिकों को मिलता था। रेलों की मरम्मत के लिए भारत में कुछ कारखाने भी स्थापित किए गए।
रेल मार्ग के विस्तार के साथ-साथ नई सड़कों का भी निर्माण हुआ। सड़कों ने गांव के अलगाव को खत्म कर दिया। इनके कारण गांवों में पैदा की जाने वाली फसलों को बदलना संभव हो गया, क्योंकि अब गांवों में पैदा होने वाली फसलों को बाहर के बाजारों में बेचना आसान हो गया। इसी प्रकार, बाहर तैयार हुई वस्तुओं को अब गांवों में बेचना संभव हो गया।
परिवहन के साधनों में किए गए ये तमाम सुधार अंग्रेजों के हितों को बढ़ाने के लिए थे। मगर इनसे देश के विभिन्न भागों को एक-दूसरे के नजदीक लाने में भी मदद मिली।
भारत में आधुनिक उद्योग
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में भारत में कुछ आधुनिक उद्योग अस्तित्व में आए। ये दो प्रकार के थे - बागान उद्योग और मशीन उद्योग। इन उद्योगों पर प्रमुखतः ब्रिटिश कंपनियों का स्वामित्व और नियंत्रण था। भारतीय भी कुछ उद्योगों के मालिक थे, मगर सरकार से सहयोग न मिलने के कारण भारतीयों के इन उद्योगों का तेजी से विकास न हो सका।
औद्योगिक विकास के प्रारंभिक दौर में हर देश को विदेशी प्रतियोगिता से अपने को बचाने के लिए 'संरक्षण' की नीति अपनानी पड़ती थी। परंतु भारत की ब्रिटिश सरकार ने लंबे समय तक इस तरह की कार्रवाई नहीं की, क्योंकि उससे इंग्लैंड के हितों को हानि पहुंचती।तुम जानते हो कि इंग्लैंड में बने माल के लिए भारत सबसे बड़ा बाजार था।
स्वदेशी आंदोलन, जिसकी शुरुआत १९०५ ई० में हुई, स्वतंत्रता के आंदोलन का एक महत्वपूर्ण अंग था। इसने भारतीयों को हर क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित किया। इस आंदोलन ने और दो महायुद्ध की आवश्यकताओं ने भारत में आधुनिक उद्योगों के विकास के लिए बेहतर अवसर प्रदान किए। वर्तमान सदी के तीसरे दशक में कुछ उद्योगों को संरक्षण प्राप्त हुआ। दूसरे महायुद्ध के दौरान औद्योगिक वस्तुओं की मांग बढ़ी - सैनिक इस्तेमाल तथा लोकोपयोग, दोनों के लिए। जितनी वस्तुएं आयात होती थी उससे मांग कहीं अधिक थी। वैसी स्थिति में भारतीय उद्योगों को बढ़ावा मिलना स्वाभाविक था और सरकार ने भी उन्हें संरक्षण का आश्वासन दिया। मगर बड़े स्तर पर औद्योगीकरण का आरंभ भारत के स्वतंत्र होने पर ही हुआ।
बागान
यूरोपियों ने जिन क्षेत्रों में भारतीय स्रोतों का सबसे ज्यादा लाभ उठाया उनमें से एक था बागान उद्योग। इसकी शुरुआत अठारहवीं सदी के अंतिम वर्षों में नील से रंग तैयार करने के साथ हुई। बिहार और बंगाल के कुछ खास जिलों में नील की खेती की जाती थी। भारत से निर्यात की जाने वाली वस्तुओं में १८०५ ई० तक नील एक प्रमुख चीज हो गई। मगर उन्नसवीं सदी के अंतिम वर्षों में नील की मांग घटती गई, क्योंकि तब सस्ते और अधिक टिकाऊ कृत्रिम रंगों का उत्पादन शुरू हो गया था।
चाय बागान उद्योग, जिसकी स्थापना उन्नसवीं सदी के मध्यकाल में हुई। जल्दी ही भारत का सबसे बड़ा बागान उद्योग बन गया। अधिकांश चाय बागान, असम, बंगाल और दक्षिण भारत में थे। धीरे-धीरे चाय का उत्पादन बढ़ता गया और बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में संसार के चाय बाजार में भारत का स्थान प्रथम हो गया। १९४० ई० तक भारत में उत्पादित चाय का अस्सी प्रतिशत निर्यात होने लगा और इंग्लैंड इसके लिए सबसे बड़ा बाजार बन गया। बागान उद्योग की अन्य महत्वपूर्ण चीजें थी काफी, रबर और सिंकोना। भारत में अंग्रेजी राज की समाप्ति तक इन बागान उद्योगों पर ब्रिटिश पूंजी का एकाधिकार बना रहा।
भारत में उद्योगों का आरंभ उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हुआ। इनमें सूती कपड़े और जूट के उद्योग प्रमुख थे। सूती कपड़े की पहली मिल १८५३ ई० में बंबई में खुली। उसके बाद भारतीय सूती कपड़ा उद्योग लगातार प्रगति करता रहा। इस प्रगति में थोड़ी बाधा तभी पड़ी जब इंग्लैंड में कपास की मांग बढ़ जाने से इसकी कीमत में वृद्धि हो गई थी। प्रथम महायुद्ध आरंभ होने के पहले सूती कपड़े का उत्पादन करने वाले देशों में भारत का चौथा स्थान था। अधिकांश जूट मिलें तो अंग्रेजों के अधिकार में थी, मगर भारतीयों ने कई सूती कपड़ा मिलें स्थापित की। भारतीय सूती कपड़ा उद्योग ने पहले अंग्रेजी कपड़ा उद्योग का और बाद में जापानी कपड़ा उद्योग का सफलतापूर्वक सामना किया। भारतीय सूती मिलों द्वारा तैयार किए गए धागों का करघा उद्योग ने भी बड़े स्तर पर उपयोग किया। ज्यादातर सूती कपड़े कपड़ा मिलें बंबई, अहमदाबाद और मद्रास में थी। आरंभ में जूट उद्योग बंगाल का एक कुटीर उद्योग था। फिर १८५५ ई० में वहां पहला जूट कताई कारखाना खुला। कुछ समय तक भारतीय जूट उद्योग को डंडी (स्कॉटलैंड) की जूट मिलों की कड़ी प्रतियोगिता का सामना करना पड़ा। परंतु उन्नसवीं सदी के अंतिम चरण में भारतीय जूट उद्योग का विश्व बाजार में लगभग एकाधिकार स्थापित हो गया।
आधुनिक उद्योगों के लिए लोहा, इस्पात, सीमेंट, विविध रसायन तथा ऊर्जा की आवश्यकता होती है। खनिज तेल का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल शुरू होने के पहले कोयला ही ऊर्जा का प्रमुख स्रोत था। भारत की कोयला खानों में १८५४ ई० में काम शुरू हुआ था। रेलवे के विस्तार और उद्योगों के विकास के साथ कोयले की मांग बढ़ती गई। लंबे समय तक कोयले की सबसे अधिक खपत रेलवे के लिए होती रही। अनुमान है कि बंगाल, बिहार और उड़ीसा में औसत किस्म के कोयले के विशाल भंडार मौजूद हैं। लोहे को गलाने के लिए कोयला परमावश्यक है। भारत में आधुनिक तरीके से लौहगलन की शुरुआत १८७४ ई० में हुई। किंतु भारत में लोहा और इस्पात उद्योग की वास्तविक शुरुआत तब हुई जब १९०५ ई० में जमशेदपुर में प्रसिद्ध 'टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी' का कारखाना स्थापित हुआ। बाद में बंगाल और मैसूर में भी लोहे के छोटे कारखाने स्थापित हुए। लोहे से बनने वाली अनेक प्रकार की चीजों के कारण इंजीनियरी उद्योगों का विकास संभव हुआ। भारत में लोहा और इस्पात उद्योगों की स्थापना प्रमुख रूप से भारतीय पूंजी, कौशल तथा उद्यम के द्वारा हुई थी। मगर भारत में लोहे तथा इस्पात का उत्पादन काफी कम होता था। रसायन उद्योगों में नगण्य प्रगति हुई। सीमेंट उद्योग का विकास १९३० ई० से होने लगा। भारतीय स्वामित्व वाला एक प्रमुख प्रयास था चीनी उद्योग, जिसका १९३० ई० के बाद तेजी से विकास हुआ। मशीन-निर्माण के उद्योगों में बहुत कम प्रगति हुई। इस उद्योग का विकास न होने के कारण विभिन्न उद्योगों के लिए आवश्यक मशीनें बाहर से आयात करनी पड़ती थी।
यद्यपि उद्योगों में कुछ सुधार हुआ था, मगर स्वाधीनता मिलने तक भारत में उद्योगों का बहुत सीमित विकास हुआ था। भारत के कुछ ही भागों में उद्योग स्थापित किए गए थे। इनमें से अधिकतर उद्योग अंग्रेजो के कब्जे में थे, इसलिए उनके द्वारा कमाया गया मुनाफा इंग्लैंड भेज दिया जाता था। यह तब होता था जब कि देश में मानव-श्रम और कच्चे माल के स्रोत विपुल मात्रा में उपलब्ध थे और उत्पादित वस्तुओं के लिए देश तथा विदेश में बाजार भी सहज उपलब्ध थे। यह स्थिति मुख्यतः अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों का परिणाम थी। ब्रिटेन ने अपने हितों के लिए भारत को औद्योगिक रूप से पिछड़ा बनाए रखा। भारतीय अर्थव्यवस्था ब्रिटिश अर्थव्यवस्था की पिछलग्गू बनी रही।
भारतीय धन का बहिर्गमन
रेलमार्गों के निर्माण और आधुनिक किस्म के जहाज बनने से भारत के विदेश-व्यापार में वृद्धि हुई। स्वेज नहर खुल जाने से भारत और यूरोप के बीच की दूरी कम हो गई और इससे इंग्लैंड तथा भारत के बीच वस्तुओं के आयात-निर्यात में वृद्धि हुई। उन्नीसवीं सदी के अंत तक भारत प्रमुख रूप से कपास, जूट, चाय, चावल, गेहूं, बीज तथा चमड़े जैसी चीजें बाहर भेजता था। बाहर जाने वाली वस्तुओं में जूट से बनी चीजें सबसे महत्वपूर्ण थी। बाहर से प्रमुख रूप से मशीनें, धातु की चीजें, कपड़े तथा अन्य उत्पाद चीजें आयात की जाती थी।
बीसवीं सदी में भारत का विदेश व्यापार तेजी से बढ़ा। आयात-निर्यात की दशा और वस्तुओं की किस्मों में परिवर्तन हुआ। समूची उन्नसवीं सदी में भारत का विदेश व्यापार मुख्य रूप से इंग्लैंड के साथ ही था। बीसवीं सदी में अमेरिका, जापान, जर्मनी और कुछ अन्य देशों के साथ भी व्यापार-संबंध स्थापित हुए। इन देशों के साथ व्यापार में वृद्धि होती गई। इस बीच आयात तथा निर्यात की जाने वाली वस्तुओं में भी कुछ परिवर्तन हुआ। जैसे-जैसे भारतीय उद्योगों का विकास होता गया, वैसे-वैसे उत्पादित वस्तुओं के आयात में कमी आई और भारत अपनी उत्पादित वस्तुओं का निर्यात करने लगा।
लेकिन इसका यह अर्थ नहीं था कि भारत आर्थिक विकास के उच्च स्तर पर पहुंच गया था।
ब्रिटिश शासन के पूरे दौर में भारत का धन लगातार इंग्लैंड पहुंचता रहा। ब्रिटिश स्वामित्व के उद्योगों तथा व्यापार से होने वाला मुनाफा तो इंग्लैंड भेजा ही जाता था, भारत सरकार द्वारा वसूल किए गए राजस्व का एक बड़ा हिस्सा भी 'स्वदेश शुल्क' के नाम पर इंग्लैंड पहुंचता था। भारत पर शासन करने के लिए इंग्लैंड में जो कुछ भी खर्च होता था, जैसे कि भारत सचिव के कार्यालय का खर्च, वह सब भारत के राजस्व से अदा किया जाता था। भारत के ब्रिटिश अधिकारी अपने वेतन का एक हिस्सा इंग्लैंड भेजते थे और सेवा से अवकाश ग्रहण करने पर उन्हें उनकी पेंशन भारत से भेजी जाती थी। अनुमान लगाया गया है कि उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में भारत में वसूल किए गए राजस्व का एक-तिहाई भाग इंग्लैंड पहुंचा था।
लोगों की आर्थिक दशा
भारतीय समाज में जिन दो नए वर्गों का उदय हुआ था वे थे - पूंजीपति और औद्योगिक मजदूर। इनके अलावा एक मध्यवर्ग था। प्रशासन-व्यवस्था और व्यापार तथा उद्योग के विस्तार के साथ-साथ मध्यवर्ग की संख्या और इसका महत्व तेजी से बढ़ता गया। अनेक व्यक्तियों ने कानून, अध्यापन, इंजीनियरी तथा व्यापार के पेशे अपनाएं। इन नए वर्गों ने भारत के इतिहास में बड़े महत्व की भूमिका अदा की। तुम्हें स्मरण रखना चाहिए कि इन वर्गों ने भारत की पुरानी व्यवस्थाओं के स्थान पर आधुनिक ढंग से व्यवस्था स्थापित करनी चाही। ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय जनता की आर्थिक दशा की प्रमुख विशेषताएं थी उनकी घोर गरीबी।
प्रति व्यक्ति औसत वार्षिक आय कि यदि ठीक से गणना की जाए, तो इससे देश की आर्थिक दशा की सही सूचना मिल जाती है। भारत में ऐसी आय का अनुमान मोटे तौर पर ही लगाया गया है। ऐसे ही अनुमान के अनुसार १९४७ ई० में प्रति व्यक्ति वार्षिक आय २२८ रुपए थी, यानी प्रतिदिन एक रुपए से भी कम आय। हमें यह तथ्य भी ध्यान में रखना होगा कि समाज के अलग-अलग वर्गों की आय अलग-अलग थी। जमीदारों, कारखाना-मालिकों, व्यापारियों तथा मध्य वर्ग के लोगों की आय ज्यादा थी। उनकी तुलना में छोटे किसानों, खेत-मजदूरों की आय काफी कम थी। कम आय वाले लोगों की संख्या बहुत ज्यादा थी और उनका जीवन-स्तर भी बहुत भिन्न था। बीसवीं सदी के आरंभ में खेत मजदूर की औसत मासिक कमाई ५ रुपए से कम थी और कलकत्ता तथा दिल्ली जैसे नगरों के अकुशल मजदूर की करीब ८ रुपए थी। इन आंकड़ों से भारतीय जनता की गरीबी के बारे में स्पष्ट जानकारी मिल जाती है। रमेशचंद्र दत्त इंडियन सिविल सर्विस के सदस्य थे उन्होंने १९०३ ई० में लिखा : "यदि उत्पादकों को अपंग बनाया जाए, किसानों पर करों का बोझ लाद दिया जाए और एक-तिहाई राजस्व देश से बाहर भेज दिया जाए, तो दुनिया का कोई भी देश स्थाई तौर पर दरिद्र हो जाएगा और उसे बार-बार अकाल का सामना करना पड़ेगा।"
उन्नीसवीं और बीसवीं सदियों में संसार के अन्य विकसित देशों में वहां की सरकारों ने आर्थिक विकास को प्रोत्साहन दिया। मगर भारत में, जैसा कि हमने देखा है विदेशी शासन होने के कारण स्थिति भिन्न रही। ब्रिटिश व्यापारियों के दबाव के कारण यहां सरकार ने लंबे समय तक उद्योगों के विकास को प्रोत्साहन नहीं दिया। सरकार ने ग्रामीण जीवन को उन्नत बनाने और खेती को आधुनिक बनाने के लिए कुछ नहीं किया। उलटे उसने भू-राजस्व बढ़ा दिया और कई प्रकार के कर लगा दिए। परिणामतः छोटे किसान अपनी जमीन से हाथ धो बैठे और भूमिहीन मजदूर बन गए। इस तरह के शोषण के खिलाफ उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में भारत के कई भागों में किसानों ने विद्रोह किए। सेना और प्रशासन पर होने वाले भारी खर्च के कारण भारत दरिद्र बना रहा।
जमींदार, धनी किसान और महाजन भी गांव के गरीब लोगों काश्तकारों, भूमिहीन मजदूरों, निम्न जाति के लोगों तथा आदिवासियों का शोषण करते रहे। बाद में इन लोगों के हितों की रक्षा के लिए किसान सभा तथा हरिजन लीग जैसे संगठन बने।
बागानों और कारखानों के मजदूरों की दशा भी अच्छी नहीं थी यद्यपि १८८१ ई० में काम के घंटे नौकरी करने वाले की न्यूनतम आयु तथा न्यूनतम वेतन के बारे में कानून बनते रहे। परंतु उन्हें सख्ती से लागू नहीं किया गया। १९२० ई० में 'अखिल भारतीय मजदूर कांग्रेस' की स्थापना हुई। इसने मजदूर आंदोलन को संगठित करने और मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए कदम उठाने का मार्ग प्रशस्त कर दिया।
भारतीय पूंजीपति-वर्ग और मध्य-वर्ग भी प्रभावित हुआ। ब्रिटिश उद्योगपतियों को सरकारी संरक्षण प्राप्त होने के कारण उन उद्योगों के विकास में बाधा पहुंची जिन पर भारतीय पूंजीपतियों का नियंत्रण था। भारतीय पूंजीपतियों ने राजनीतिक अधिकारों तथा भारत के आर्थिक हितों की रक्षा एवं वृद्धि के लिए आवाज उठानी शुरू कर दी।
अंग्रेजों के कारण भारत के आर्थिक जीवन में जो परिवर्तन हुए उन्होंने भारतीय राष्ट्रीयता के उत्थान में बड़े महत्व की भूमिका अदा की है। भारतीय राष्ट्रवादी आरंभ से ही देश की गरीबी और आर्थिक दुर्गति के बारे में चिंतित रहे हैं। वे सरकार की उत्पीड़न भू-राजस्व नीति, भारतीय धन का ब्रिटेन की ओर प्रवाह और भारतीय साधनों को विकसित करने में सरकार की असफलता के खिलाफ लगातार विरोध प्रकट करते रहे। १९३८ ई० में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत के आर्थिक विकास के संबंध में एक रूपरेखा तैयार करने के लिए एक राष्ट्रीय योजना समिति का गठन किया। भारत के स्वतंत्र होने पर यह काम योजना आयोग ने अपने हाथों में ले लिया।