Vaidikalaya

अध्याय 5 - ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह

तुम पहले पढ़ चुके हो कि अंग्रेजों ने १८५६ ई० तक भारत पर लगभग पूर्ण विजय प्राप्त कर ली थी। मगर वह सब आसानी से नहीं हुआ। शायद ही ऐसा कोई साल गुजरा होगा जब देश में किसी-न-किसी भाग में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह न हुआ हो। सबसे बड़ा विद्रोह विद्रोह १८५७ ई० में हुआ। उस विद्रोह ने भारत में ब्रिटिश शासन की जड़े ही हिला दी।

आरंभिक विद्रोह

देश के जिस प्रदेश में ब्रिटिश शासन का विस्तार हुआ, वहां लोगों ने उसका विरोध किया। ब्रिटिश शासन के आरंभिक दिनों में भारत को खुले-आम लूटा गया। उसके बाद शोषण की कुछ बाकायदा एक व्यवस्था ही अस्तित्व में आ गई। किसानों का सबसे ज्यादा शोषण हुआ। सरकार ने जमीदारों तथा सरदारों से ज्यादा राजस्व की मांग की, तो किसानों को अपनी जमीन-जायदाद से हाथ धोना पड़ा। देश के आदिवासी इलाकों पर ब्रिटिश नियंत्रण और प्रशासन स्थापित हुआ, तो आदिवासियों का भी शोषण होने लगा। अंग्रेजों ने जिन राज्यों पर कब्जा किया उनके शासकों तथा सरदारों को तो उन्होंने अपना विरोधी बनाया ही, दूसरे बहुत से लोगों को भी विरोधी बनाया। बहुत से लोगों के जीविका के साधन उनसे छीन लिए गए। ऐसे लोग थे - उन शासकों की फौज के बर्खास्त किए गए सिपाही जिनके राज्यों पर अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया था या जिन्होंने अंग्रेजों के साथ 'सहायक-संधि' कर ली थी, वे कारीगर जो मुख्यतः शासक तथा उसके परिवार के लिए चीजें तैयार करते थे, उन राज्यों के अधिकारी जिन पर अंग्रेजों ने कब्जा किया और अन्य अनेक लोग। भारतीय शासकों ने पंडितों को जो जमीन दान में दी थी वह अंग्रेजों ने उनसे छीन ली। उनके पास जीविका के कोई साधन नहीं रह गए। १७६५ से १८६५ ई० के बीच देश के विभिन्न भागों में दर्जनों विद्रोह हुए। इनमें से कई विद्रोह किसानों और आदिवासियों ने किए थे। पदच्युत शासकों, जमीदारों तथा सरदारों के नेतृत्व में भी कई विद्रोह हुए। कंपनी की फौज के सिपाहियों ने भी बगावतें की। इनमें से कई विद्रोहों में भूतपूर्व शासकों की फौजों से बर्खास्त हुए सिपाही भी शामिल हुए।

पहला प्रमुख विद्रोह अंग्रेजों की बंगाल विजय के तुरंत बाद हुआ। सन्यासियों और फकीरों के नेतृत्व में शुरू हुआ यह विद्रोह पूरे भारत के अनेक इलाकों में फैला। इनमें अधिकांश विद्रोही किसान थे। इनकी सेनाएं, जिनमें आदमियों की संख्या ५०,००० तक पहुंच गई थी। तीर्थयात्रियों के जत्थे के रूप में जहां-तहां घूमती रहती थी। कंपनी ने उन्हें कुचलने के लिए जो फौजें भेजी उनकी हार हुई। इस विद्रोह को कुचलने में अंग्रेजों को करीब तीस साल लगे।

देश के विभिन्न भागों में और भी कई किसान विद्रोह हुए। इनमें से कुछ विद्रोहों का नेतृत्व धार्मिक सुधार-आंदोलनों के नेताओं ने किया। उदाहरण के लिए, जमीदारों और अंग्रेजों द्वारा किसान के शोषण के खिलाफ फरायजियों ने, जो मुसलमानों के एक संप्रदाय के अनुयाई थे, विद्रोह किया था।

इस काल में आदिवासियों के भी कई विद्रोह हुए। इनमें से कुछ शक्तिशाली विद्रोह थे - मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में भीलों का विद्रोह, बंगाल, बिहार और उड़ीसा में कोलों का विद्रोह, उड़ीसा में गोंडों तथा खोंडों का विद्रोह, महाराष्ट्र में कोलियों का विद्रोह, राजस्थान में मेंड़ों का विद्रोह और बंगाल तथा बिहार में संथालो का विद्रोह। उत्तर-पूर्वी भारत के आदिवासियों ने भी कई विद्रोह किए मेघालय के खासियों के विद्रोह का नेतृत्व उतीरोत सिंह ने किया था। इनमें से कुछ विद्रोह कई साल तक चलते रहे। उदाहरण के लिए भीलों का एक विद्रोह १८१७ ई० में शुरू हुआ और १८३१ ई० तक चलता रहा।

सन् १७९५ से १८०५ ई० तक दक्षिण-भारत में अंग्रेजों के खिलाफ जबरदस्त विद्रोह हुआ। कुछ इतिहासकारों ने इसे भारत के स्वाधीनता का पहला युद्ध कहा है। इस विद्रोह का नेतृत्व जमीदारों ने किया था। दक्षिण भारत के कुछ भागों में इन जमीदारों को पोलीगर कहते हैं। इस प्रदेश के अधिकांश राजाओं ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली थी, मगर पोलीगरो ने जनता की मदद से विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह के कुछ प्रमुख नेता थे - मुरुद - पाड्यन, कोट्टबोम्मन और पायचे राजा। यह दक्षिण भारत के विभिन्न इलाकों के थे, मगर उस प्रदेश के सभी भागों में विद्रोहियों की फौज खड़ी करने में उन्हें सफलता मिली। देश के अन्य भागों में भी ज़मीदारों और सरदारों के विद्रोह हुए, मगर उनमें से अधिकांश विद्रोही स्थानीय थे, इसलिए उन्हें आसानी से कुचल दिया गया।

कंपनी की फौज के सिपाहियों ने भी विद्रोह किए। इनमें सबसे प्रमुख थे - १८०६ ई० में वेल्लूर विद्रोह और १८२४ ई० का बैरकपुर विद्रोह। टीपू सुल्तान की पराजय और मृत्यु के बाद उसके बेटों को अंग्रेजों ने वेल्लूर में बसाया था। वेल्लूर में उनकी मौजूदगी कंपनी के और वहां के सिपाहियों को प्रेरणा प्रदान करती थी। उनके विद्रोह को आर्काट से भेजी गई फौज ने कुचल दिया। इस विद्रोह में ३५० सिपाही मारें ग‌ए और ५०० बंदी बनाए गए। इस विद्रोह में ११७ अंग्रेज सैनिक भी मारें ग‌ए। बैरकपुर में ४७वीं नेटिय इन्फैंट्री के सिपाहियों ने जो विद्रोह किया उससे अंग्रेजों के छक्के छूट ग‌ए थे। इस विद्रोह को बड़ी क्रुरता से कुचल दिया गया और सैकड़ों सिपाहियों को मौत की सजा दी गई।

इस काल में वहाबियों ने भी जबरदस्त विद्रोह किया। ये वहाबी सैयद अहमद द्वारा स्थापित मुसलमानों के एक संप्रदाय के अनुयाई थे। बंगाल तथा बिहार के कारीगरों और किसानों में इन वहाबियों की तादाद काफी अधिक थी। वहाबियों ने अंग्रेजों के शासन को उखाड़ फेंकने के लिए धर्मयुद्ध में शामिल होने के लिए जनता का आह्वान किया। वहाबियों की ब्रिटिश-विरोधी गतिविधियां १८३० से लेकर १८५७ ई० के विद्रोह के बाद तक जारी रही।

अंग्रेजो के खिलाफ इस प्रकार के अनेक विद्रोह प्लासी के युद्ध के बाद देश के विभिन्न भागों में सौ साल के दौरान हुए। मगर इनमें से अधिकांश विद्रोह स्थानीय घटनाएं थी। इनमें से कई विद्रोहों को कुचलने में अंग्रेजों को लंबा समय लगा, मगर ये भारत में अंग्रेजों के शासन के लिए कोई बड़ा खतरा साबित नहीं हुए। परंतु अंग्रेजो के खिलाफ असंतोष लगातार बढ़ता गया, जो १८५७ ई० के महान विद्रोह में प्रकट हुआ।

सन् १८५७ ई० का विद्रोह

भारतीय इतिहास में १८५७ ई० अत्यंत महत्व का वर्ष है।‌ इसी वर्ष ब्रिटिश राज के विरुद्ध सबसे बड़ा सशस्त्र विद्रोह हुआ। विद्रोह का आरंभ १० म‌ई, १८५७ के दिन मेरठ के सिपाहियों की बगावत से हुआ। दूसरे दिन वे सिपाही दिल्ली पहुंचे। दिल्ली के सिपाही भी उनसे मिल गए। दिल्ली पर उनका कब्जा हो गया। अस्सी साल के बूढ़े मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को भारत का बादशाह घोषित किया गया। ब्रिटिश शासन के खिलाफ लंबे समय से जो असंतोष पनप रहा था वह अब एक विद्रोह में भड़क उठा। सिपाहियों की बगावत से शुरू हुआ विद्रोह दावानल की तरह जल्दी ही देश के एक बड़े भाग में फैल गया।

सन् १८५७ ई० का विद्रोह ब्रिटिश शासन के खिलाफ सबसे बड़ी टक्कर थी। अनेक दृष्टियों से, भारतीय इतिहास में यह एक अभूतपूर्व विद्रोह था। इसमें ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के उद्देश्य से देश के विभिन्न राज्यों के शासक व सरदार लड़ाई के लिए एकजुट हुए। समाज के कई अन्य समुदाय, जमीदार, किसान दस्तकार, विद्वान भी इस विद्रोह में शामिल हुए। सबका एक ही समान उद्देश्य था, ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकना। क्योंकि यह विद्रोह काफी व्यापक पैमाने पर हुआ इसलिए कुछ लोग इसे प्रथम भारतीय स्वतंत्रता युद्ध मानते हैं।

ब्रिटिश शासन के प्रति असंतोष

विद्रोह का कारण भारत में ब्रिटिश नीतियों से उत्पन्न व्यापक असंतोष था। तुम इन नीतियों के बारे में पढ़ चुके हो। तुम असंतोष के कुछ कारणों को भी जान चुके हो। अब इनके बारे में तुम विस्तार से पढ़ोगे।

जैसा कि पहले बताया जा चुका है, अंग्रेजों की राज्य-विस्तार की नीति के कारण भारत के अनेक शासकों और सरदारों में उनके प्रति असंतोष व्याप्त हो गया था। अंग्रेजों ने उनके साथ सहायक-संधि कर ली थी। मगर अंग्रेज इन संधियों को मनमर्जी से तोड़ देते थे। सिंध, पंजाब और अवध को अंग्रेजों ने हथिया लिया था। इससे काफी असंतोष फैला था। डलहौजी ने 'विलय-नीति' को कड़ाई से लागू किया, तो असंतोष और भी अधिक बढ़ गया। झांसी के मृत राजा के दत्तक पुत्र को डलहौजी ने उत्तराधिकारी नहीं माना और १८५४ ई० में झांसी के राज्य पर कब्जा कर लिया। उसके पहले १८५१ ई० में पेशवा बाजीराव द्वितीय की मृत्यु हुई, तो उसके दत्तक पुत्र नाना साहब को पेशवा के रूप में मिलने वाली पेंशन देने से अंग्रेजों ने इंकार कर दिया। खुद मुगल बादशाह को कह दिया गया था कि उसके बाद उसके उत्तराधिकारियों को बादशाह नहीं माना जाएगा। इन कार्रवाइयों से कमजोर हो चुके शासक-परिवारों में घबराहट फैल गई और अन्य शासकों में भय फैल गया कि उनकी भी अंततः वहीं गत होगी।

अंग्रेजों ने उन सरदारों और जमींदारों की भी शक्ति को नष्ट करने की नीति अपनाई जिनके इलाकों पर उन्होंने कब्जा कर लिया था। उनमें से कईयों की जमीन छीन ली गई। अंग्रेजों ने भू-राजस्व की नई व्यवस्था लागू की, तो वह भूस्वामियों के पुराने परिवारों के अधिकार खत्म हो गए। किसी भी राज्य पर कब्जा करने के बाद उसकी पुरानी प्रशासन-व्यवस्था खत्म कर दी जाती थी। तब पुरानी प्रशासन-व्यवस्था से जुड़े हुए व्यक्ति बेरोजगार हो जाते थे। तुम पढ़ चुके हो कि जिन राज्यों पर कब्जा किया गया था उनमें न केवल शासक, बल्कि सैनिकों, कारीगरों तथा पंडितों जैसे हजारों अन्य लोग भी प्रभावित हुए थे।

किसानों और दस्तकारों की बर्बादी

अंग्रेजों द्वारा लागू की गई भूमि-व्यवस्था से किसानों की हालत बदतर हो गई थी। पुराने जमीदारों को हटा देने पर भी किसानों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। कई मामलों में राजस्व की मांग में वृद्धि हुई, तो किसानों के कष्ट और भी अधिक बढ़ गए। वह पुराने शासकों और जमीदारों का सम्मान करते रहे। जब इंग्लैंड में तैयार हुआ माल भारत में पहुंचने लगा, तो यहां के पुराने हस्तशिल्प बर्बाद हो गए। पीड़ित किसान और कारीगर ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने की लड़ाई में कूद पड़े।

धर्म और जाति के नष्ट होने का डर

अंग्रेजों की नीति और आचरण ने जनता में यह भय पैदा कर दिया था कि ब्रिटिश शासन उनके धर्म तथा रीति-रिवाजों को नष्ट कर देने पर तुला हुआ है। जनता को लगा कि ब्रिटिश सरकार उन्हें ईसाई बनाना चाहती हैं। कुछ ईसाई धर्म-प्रचारकों ने हिंदू धर्म और इस्लाम की तथा जनता के पुराने रीति-रिवाजों की खुलेआम निंदा की। ब्रिटिश सरकार ने सामाजिक सुधार के कुछ कदम उठाए थे। उनसे लोगों का भय और भी अधिक बढ़ गया था। सती प्रथा खत्म कर दी गई थी। अंग्रेजों ने अनेक मामलों में जाति-नियमों की उपेक्षा की थी। उदाहरण के लिए, फौजों, जेलो और रेलयात्रों के मामलों में। नई शिक्षण संस्थाओं को, जिनमें से कईयों की स्थापना ईसाई धर्म-प्रचारकों ने की थी, संदेह की नजर से देखा जाता था। चूंकि ये सब नई बातें विदेशी शासकों ने शुरू की थी, इसलिए भी ये लोगों को अमान्य थी। अतः अनेक लोग अपने धर्म के नाम पर ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह में शामिल हुए। कई मौलवियों ने पहले ही अंग्रेजो के खिलाफ जिहाद (धर्मयुद्ध) का नारा दिया था। ब्रिटिश सरकार ने लोगों की धार्मिक भावनाओं की उपेक्षा की। इससे लोगों के दिलों पर बड़ी चोट पहुंची। अंततः धर्म छिन‌जाने का भय विद्रोह भड़काने का तत्कालीन कारण बना।

भारतीय सैनिकों की शिकायतें

ब्रिटिश सरकार की भारतीय फौजों में आठ में से सात भारतीय सैनिक थे। देश में फैलते असंतोष का इन सैनिकों पर असर होना स्वाभाविक था। भारत के पुराने शासक-परिवारों के साथ हुए अन्याय को उन्होंने भी अनुभव किया। आम जनता द्वारा भोगे जा रहे बढ़ते कष्टों से सैनिक भी सीधे प्रभावित हुए, क्योंकि वे भी भारतीय समाज के अभिन्न अंग थे। इसके अलावा भारतीय सिपाहियों की अपनी भी कुछ खास शिकायतें थी, जिनके कारण वे विद्रोह के अगुआ बने।

अंग्रेजों की फ़ौज में भारतीय सिपाहियों के लिए पदोन्नत के रास्ते बंद थे। फ़ौज में ऊंचे ओहदे यूरोपीय अफसरों के लिए सुरक्षित थे। भारतीय और यूरोपीय सैनिकों के वेतनों में भी बड़ा अंतर था। यूरोपीय अफसर भारतीय सिपाहियों को नफरत की निगाह से देखते थे। लड़ाई में जाने पर भारतीय सैनिकों को अतिरिक्त भत्ता मिलता था। लड़ाई खत्म होने पर और उनके सहयोग में जीते गए इलाकों पर अंग्रेजो का कब्जा हो जाने के बाद भारतीय सैनिकों का भत्ता बंद कर दिया जाता था। उनकी धार्मिक भावनाओं को आघात पहुंचा, तो उनका असंतोष और भी बढ़ गया। फलतः एक विस्फोटक स्थिति पैदा हो गई। भारतीय सैनिकों को लड़ने के लिए समुद्र पार भी भेजा जाता था, मगर उस समय के हिंदुओं का धार्मिक विश्वास था कि समुद्र पार जाने से धर्म नष्ट हो जाता है। इस प्रकार, अन्य भारतीयों की तरह भारतीय सैनिकों में भी विश्वास बैठ गया कि उनका धर्म खतरे में है।

इस तरह जनता के विभिन्न समुदायों में विदेशी शासन के प्रति असंतोष बढ़ता जा रहा था। उसी दौरान सैनिकों को एक नए किस्म की राइफल की गई। इसकी कारतूसों में गाय और सुअर की चर्बी लगाई जाती थी। राइफल में कारतूस भरने के पहले उस पर लगे कागज को दातों से काटना पड़ता था। चर्बी वाले इन कारतूसों के इस्तेमाल से हिंदू और मुसलमान सैनिकों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंची। यही बात विद्रोह का तत्कालीन कारण बनी। सैनिकों ने कारतूस भरने से इनकार कर दिया, तो मेरठ में ८५ भारतीय सैनिकों को जेल की लंबी सजा सुनाई गई। तब ९ म‌ई, १८५७ को मेरठ के सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। दो महीने पहले बैरकपुर में मंगल पांडे ने नए कारतूसों का इस्तेमाल करने से इंकार कर दिया और विद्रोह किया, तो उसे मार दिया गया।

विद्रोह के मुख्य केंद्र

विद्रोही सेना ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया। उसने बहादुर शाह जफर को भारत का बादशाह घोषित कर दिया। उसके बाद विद्रोह देश के अन्य भागों में भी फैला। जिस मुगल बादशाह की कोई साख नहीं रह गई थी वह एकाएक उन सब के लिए एकता का प्रतीक बन गया जो विदेशी शासन को उखाड़ फेंकना चाहते थे। जिन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर विद्रोह नहीं हुए वहां भी अशांति फैलने के कारण अंग्रेज घबरा गए। असम, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, सिंध, राजस्थान, महाराष्ट्र, हैदराबाद, पंजाब और बंगाल में विद्रोह हुए। इनमें से कुछ जगहों में विद्रोह स्थानीय या फौजी बैरकों तक ही सीमित रहा और उसे आसानी से दबा दिया गया। कई जगहों में अंग्रेजों ने खतरे को टालने के लिए पहले ही भारतीय सिपाहियों से उनके हथियार छीन लिए थे।

दिल्ली, अवध, रुहेलखंड, बुंदेलखंड, इलाहाबाद के आसपास के इलाकों, आगरा, मेरठ और पश्चिमी बिहार में विद्रोह काफी व्यापक और भयंकर था। इन इलाकों में लोगों ने भारी संख्या में विद्रोह में भाग लिया और भयंकर लड़ाइयां लड़ी। बिहार में विद्रोह सेना का नेतृत्व कुंवर सिंह ने किया। वहां विद्रोही सेना ने बिहार के कई हिस्सों को स्वतंत्र किया और वह लखनऊ तथा कानपुर में विद्रोहियों की सहायता के लिए आई। दिल्ली में विद्रोह सेना का मुख्य सेनापति बख़्त खां था। कानपुर में विद्रोहियों ने नाना साहब को पेशवा घोषित कर दिया और अजीमुल्ला उसका मुख्य सलाहकार बना। नाना साहब के सैनिकों का नेतृत्व तात्या टोपे कर रहा था। वह एक बहादुर और योग्य नेता था। झांसी में दिवंगत राजा की विधवा रानी लक्ष्मीबाई को शासक घोषित कर दिया गया। उसने लड़ाई में बड़ी बहादुरी से अंग्रेजों का मुकाबला किया। लुधियाना के सिक्ख रेजीमेंट के सैनिक पूर्वी उत्तर प्रदेश के विद्रोहियों से जा मिले। ब्रिटिश फौज ने गोरखपुर और आजमगढ़ से पलायन किया। जुलाई के शुरू में वाजिद अली शाह के नौजवान बेटे बिरजिस कादर को अवध की गद्दी पर बिठाया गया। उसकी मां हजरत महल उसकी ओर से शासन करने लगी। मौलवी अहमदुल्लाह के नेतृत्व में विद्रोहियों ने लखनऊ की रेजीडेंसी को घेर लिया। यह घेरा कई महीनों तक रहा। बरेली में अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व खान बहादुर खां ने किया।

विद्रोह का दमन

पूरे विद्रोह के दौरान हिंदू और मुसलमान कंधे से कंधा मिलाकर लड़े। अंग्रेजों ने हिंदुओं और मुसलमानों को एक दूसरे से भिडा़ने की कोशिश की। उदाहरण के लिए, उन्होंने बरेली में खान बहादुर खां के नेतृत्व में विद्रोह कर रहे लड़ाकों के खिलाफ हिंदुओं को भिडा़ने के लिए ५०,००० रुपए मंजूर किए। मगर ऐसी तमाम कोशिशें बेकार रहीं। विद्रोह के नेताओं ने बहादुरशाह को हिंदुस्तान का बादशाह माना। यह विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए संघर्ष कर रहे सभी विद्रोहियों के लिए एकता का प्रतीक बन गया। किंतु विद्रोह इतने व्यापक स्वरूप का होने पर भी एक साल से कुछ अधिक समय बाद ही कुचल दिया गया। सितंबर १८५७ में अंग्रेजों ने दिल्ली पर पुनः कब्जा कर लिया। बहादुर शाह को बंदी बनाया गया। उस पर अभियोग चलाकर रंगून (बर्मा) में निर्वासित कर दिया। वहीं पर १८६२ ई० में उसकी मृत्यु हुई। उसके तीन बेटों को पकड़कर दिल्ली के खूनी दरवाजे के पास उन्हें गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया गया। सितंबर १८५८ ई० में लखनऊ पर ब्रिटिश सैनिकों का कब्जा हो गया मगर बेगम हजरत महल में समर्पण करने से इंकार कर दिया। वह नेपाल भाग गई। रानी लक्ष्मीबाई, जो झांसी की रानी के नाम से मशहूर हुई, झांसी से भाग निकली। तात्या टोपे की मदद से उसने ग्वालियर पर कब्जा कर लिया। अंत में जून १८५६ में लड़ते हुए उनकी मृत्यु हुई। अप्रैल १८५८ में गंभीर रूप से घायल होने के बाद कुंवर सिंह की मृत्यु हो गई। उसके भाई के नेतृत्व में दिसंबर १८५९ तक बिहार में लड़ाई चलती रही। नाना साहब ने नेपाल में भाग लिया। तात्या टोपे मध्य प्रदेश और राजस्थान में अंग्रेजों से दो साल तक लड़ता रहा। एक मित्र के विश्वासघात के कारण वह अंग्रेजो के कब्जे में आ गया। उसे फांसी दे दी गई। १८५८ ई० के अंत तक विद्रोह को कुचल दिया गया था, मगर पुनः शांति स्थापित करने में अंग्रेजों को कई साल लगे।

विद्रोह के दमन के दौरान और उसके बाद ब्रिटिश सैनिकों में विद्रोही नेताओं, सैनिकों और आम जनता के साथ अमानवीय सुलूक किया। विद्रोह के दौरान भारतीय सैनिकों ने भी अंग्रेजों और युद्ध बंदियों के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया। विजयी ब्रिटिश सैनिकों ने बड़े पैमाने पर अत्याचार किए और बड़ी संख्या में लोगों को मौत के घाट उतार दिया। बहुत से गांवों को मिट्टी में मिला दिया गया ।शहरों को विद्रोहियों के कब्जे से मुक्त करने के बाद ब्रिटिश सैनिकों ने उन्हें खूब लूटा। अनुमान लगाया गया है कि अकेले अवध में ही करीब १,५०,००० लोगों की हत्याएं हुई। बहुत बड़ी संख्या में विद्रोहियों को फांसी पर चढ़ाया गया और दूसरों को अमानवीय यातनाएं दी गई।

विद्रोह का स्वरूप

सन् १८५७ का विद्रोह भारतीय इतिहास का गौरवशाली अध्याय है। पहली बार देश के विभिन्न भागों के बीच एक ऐसे शासन के खिलाफ एकता स्थापित हुई थी जो सबका शत्रु था। विद्रोह के दौरान अनेक नेता और युद्ध उभरे जिनकी वीरता तथा बहादुरी ने उन्हें अमर बना दिया। रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे और बख़्त खां जैसे नेताओं की वीरता आगे की पूरी पीढ़ीयों के आजादी के आंदोलन के लिए प्रेरणा तथा देश प्रेम का स्त्रोत बनी।

लेकिन विद्रोह में कुछ बुनियादी कमजोरियां थी, जिनके कारण उसके सफल होने की कम ही उम्मीद थी। विद्रोह का नेतृत्व राजाओं और जमीदारों के हाथों में था। उनमें से अनेक विद्रोह में इसलिए शामिल हुए थे क्योंकि ब्रिटिश शासन उनके अस्तित्व के लिए खतरा बन गया था। वह भारत की परंपरागत राज्य-व्यवस्था के हिमायती थे और पुराने विचारों से चिपके हुए थे। तुम पढ़ चुके हो कि दुनिया के अन्य भागों में अठारहवीं सदी से बड़े पैमाने पर सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन हो रहे थे। विद्रोह के नेता यद्यपि विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए लड़ रहे थे, मगर वे पुरानी व्यवस्था को ही पुनः स्थापित करना चाहते थे।

विद्रोह का व्यापक स्वरूप आम जनता, सैनिकों, किसानों दस्तकारो आदि के सक्रिय सहयोग से प्राप्त हुआ था। मगर उनका नेतृत्व वे परंपरा प्रेमी शासक कर रहे थे जिनकी शक्ति को विदेशी ‌शासन ने तोड़ डाला था। जनता एक स्वतंत्र नेतृत्व कायम नहीं कर पाई। जनता के अपने स्वतंत्र सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक लक्ष्य भी नहीं थे। जैसा कि तुम जानते हो यूरोप में जनतंत्र, राष्ट्रीयता और सामाजिक समानता के नए आंदोलन जोर पकड़ रहे थे। इंग्लैंड में भी आम जनता संगठित हो रही थी। वहां औद्योगिक श्रमिकों के एक नए सामाजिक वर्ग का उदय हुआ था। अपने को संगठित करके वे समान राजनीतिक अधिकारों की मांग कर रहे थे। वे सामाजिक असमानता को खत्म करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। तुम्हें मालूम होना चाहिए कि उनके कई नेताओं ने भारतीय विद्रोह का समर्थन किया था और भारतीय जनता पर ब्रिटिश सैनिकों के अत्याचारों की निंदा की थी। उनका विचार था कि भारत के ब्रिटिश शासन से ब्रिटिश समाज का केवल एक छोटा उच्च वर्ग ही लाभान्वित हुआ है‌। उस उच्च वर्ग के खिलाफ ब्रिटेन की आम जनता खुद संघर्ष कर रही थी। अंग्रेजो के खिलाफ वीरता से लड़ रहे भारतीय जनता को दुनिया में हो रहे परिवर्तनों की जानकारी नहीं थी। विद्रोह के नेता अपनी कोई सत्ता को प्राप्त करने और पुरानी घिसी-पिटी व्यवस्था को स्थापित करने के लिए लड़ रहे थे। स्वयं जनता भी कुछ पिछड़े विचारों और अमानवीय प्रथाओं से ग्रसित थी। यह इस तथ्य से स्पष्ट हो जाता है कि जनता के कुछ असंतोष का कारण सती-प्रथा बंद करने और विधवाओं के पुनर्विवाह को कानूनी मंजूरी देने जैसे सुधार थे। इस स्थिति के लिए बुनियादी कारण यह था कि समाज के अभी ऐसे समुदायों का उदय नहीं हुआ था जो सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में आमूल परिवर्तन करने के लिए लड़ते और जनता में एकता स्थापित करते। मगर ऐसे समुदायों का देश के कुछ भागों में उदय होना अब शुरू हो गया था। उनकी स्थिति अभी कमजोर थी, परंतु उन्होंने सामाजिक सुधारों का काम शुरू कर दिया था। जब विद्रोह भड़क उठा तो इन समुदायों ने विद्रोहियों के प्रति कोई खास हमदर्दी नहीं दिखाई, क्योंकि उनका विश्वास था कि केवल ब्रिटिश शासन के जरिए ही भारतीय समाज में सुधार आ सकता है और यह आधुनिक बन सकता है। मगर यह विश्वास काफी हद तक मिथ्या साबित हुआ‌। विद्रोह के बाद के सालों में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने साकार रूप धारण किया। इस आंदोलन का उद्देश्य था भारत को विदेशी शासन से मुक्त करना और भारतीय समाज को पुनर्निर्माण करना।

विद्रोह की कई अन्य कमजोरियां भी थी। मुगल बादशाह को विद्रोहियों ने भारत का सम्राट मान लिया था और ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के उद्देश्य से सभी विद्रोही एकजुट नहीं हो पाए थे। विद्रोही अधिकतर अपने खास इलाकों में ही लड़ते रहे। विभिन्न क्षेत्रों में लड़ रही शक्तियों के बीच ठीक से कोई तालमेल नहीं था। इसके अलावा, जिन राजाओं और सरदारों को अंग्रेजों ने पदच्युत नहीं किया था उनमें से बहुतों ने विद्रोह के दौरान अंग्रेजों का साथ दिया। विद्रोह में भाग लेने वाले अधिकांश राजा और सरदार वे ही थे जिनके इलाकों पर अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया था। उनमें से कुछ ने तो विद्रोह के दौरान ही इस मकसद से अंग्रेजों से समझौते की बात शुरू कर दी थी कि उन्हें उनके अधिकार वापस मिल जाएंगे। इस तरह उन्होंने विद्रोहियों के साथ विश्वासघात किया। जिन इलाकों को ब्रिटिश शासन से मुक्त कर लिया गया था वहां अच्छा और कुशल प्रशासन स्थापित करने की दिशा में नगण्य प्रयास हुए। ब्रिटिश शासन के प्रति सब जगह तीव्र असंतोष भी नहीं था। उदाहरण के लिए, कई साल की लड़ाई के बाद पंजाब में अंग्रेजों ने व्यवस्थित प्रशासन कायम किया था‌। वहां लोग उत्तर भारत के अन्य भागों की तरह असंतुष्ट नहीं थे। इसलिए विद्रोहियों के प्रति सहानुभूति होते हुए भी पंजाब में बड़े पैमाने पर कोई बगावत नहीं हुई।

सन् १८५७ के विद्रोह के साथ भारतीय इतिहास का एक युग समाप्त हो गया। अठारहवीं सदी की भारतीय राजनीतिक व्यवस्था को अंततः पूरी तरह खत्म कर दिया गया। जिन भारतीय राज्यों पर अंग्रेजो का कब्जा नहीं हुआ था उन्हें कायम रहने दिया गया, मगर उनकी स्वतंत्रता खत्म हो गई। व्यवहारिक रूप में वे ब्रिटिश राज्य के अंग बन गए। विद्रोह के बाद कंपनी का शासन खत्म हो गया और ब्रिटिश सरकार ने भारत में अपने साम्राज्य पर सीधे शासन करना शुरू कर दिया। भारत के प्रति ब्रिटिश शासकों की नीतियों तथा भावनाओं में अनेक परिवर्तन हुए। इन परिवर्तनों के बारे में तुम अगले अध्याय में पढ़ोगे