Vaidikalaya

अध्याय 3 - ब्रिटिश शासन का उदय और विस्तार

भारत में यूरोप की व्यापारी कंपनियां तुम पहले पढ़ चुके हो कि वास्को डी गामा ने भारत पहुंचने के समुद्री मार्ग का १४९८ ई० में पता लगाया था। तुम यह भी जानते हो कि भारत तथा एशिया के अन्य भागों से व्यापार करने के लिए यूरोप के कई देशों में व्यापारिक कंपनियां स्थापित हुई‌ थी।

यूरोप के विभिन्न देशों की कंपनियों ने भारत के विभिन्न हिस्सों में अपने व्यापारिक केंद्र स्थापित किए थे। इनमें पुर्तगाल, हॉलैंड, इंग्लैंड, फ्रांस तथा डेनमार्क की कंपनियां प्रमुख थी। इनके व्यापारिक केंद्र मुख्यतः समुद्र तटवर्ती क्षेत्र थे। इन व्यापारिक केंद्रों को "फैक्टरी" कहा जाता था। "फैक्टरी" का मतलब था वह स्थान जहां "फैक्टर्स" यानी कंपनी के अफसर काम करते थे। कुछ "फैक्टरियो" की किलाबंदी भी की गई थी। किलाबंदी का उद्देश्य था प्रतिनिधियों के हमले से "फैक्टरियों" की रक्षा करना। ये कंपनियां भारत में मसाले, हाथ-करघे पर बने सूती कपड़े, नील, शोरा आदि खरीदती थी। नील का इस्तेमाल कपड़ा रंगने के लिए होता था। शोरा बारूद बनाने में काम आता था। यूरोप में इन चीजों का अभाव था। यूरोपवासी इनमें से कुछ चीजों का शान-शौकत के लिए भी इस्तेमाल करते थे। व्यापारी कंपनियां भारत में इन चीजों को सस्ती दर पर खरीदकर यूरोप तथा अमरीका में ऊंची कीमतों पर बेंचती थी और इस प्रकार भारी मुनाफा कमाती थी।  कंपनियां मुख्यतः सोना और चांदी देकर भारत में इन चीजों को खरीदती थी। अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के लिए कंपनियों में होड़ लगी रहती थी। होड़ के कारण कंपनियों के बीच हिंसात्मक झगड़े भी होते थे। यूरोप की सरकारें इन झगड़ों और लड़ाईयों में अपने-अपने देश की कंपनियों की मदद करती थी।

अठारहवीं सदी के आरंभ तक अंग्रेजों और फ्रांसीसियों ने पुर्तगालियों, स्पेनवासियों तथा डचों को उन महत्वपूर्ण स्थलों से हटा दिया जो उन्होंने एशिया और यूरोप के बीच के व्यापार के लिए स्थापित किए थे। इंग्लैंड और फ्रांस की कंपनियों का यूरोप व भारत के बीच के व्यापार पर प्रभुत्व स्थापित हो गया। एक दूसरे के विरोधी होने के कारण उनके बीच झगड़े होते रहते थे। ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए हर कंपनी कम से कम कीमत पर भारतीय माल खरीदने का प्रयास करती थी। इसलिए हर कंपनी बाजार पर अपना अधिकार जमाने और दूसरे का प्रभाव खत्म करने के लिए प्रयास करने लगी। इस प्रतिद्वंद्विता के कारण कंपनियों के बीच लड़ाइयां हुई। साथ ही कंपनियों ने भारत के राजनीतिक मामलों में भी हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया। व्यापार पर नियंत्रण करने और प्रतिद्वंद्वियों को उखाड़ फेंकने के उद्देश्य से कंपनियां अपनी राजनीतिक सत्ता स्थापित करने की भी योजनाएं बनाने लगी।

फ्रांसीसियों का प्रधान कार्यालय भारत के दक्षिण-पूर्व समुद्र-तट पर पांडिचेरी में था। उस प्रदेश में अंग्रेजों का प्रमुख केंद्र, फोर्ट सेंट जॉर्ज (मद्रास) में था, जो पांडिचेरी से अधिक दूर न था। फोर्ट विलियम नामक उनकी एक किलाबंद चौकी कोलकाता में थी। उन्होंने बंगाल के निर्यात व्यापार पर अपना नियंत्रण स्थापित करना शुरू कर दिया था। उन्होंने जगत सेठों के परिवारों से भी व्यावसायिक संबंध स्थापित कर लिए थे। जगत सेठ परिवार बंगाल के नवाबों के भी महाजन थे।

ब्रिटिश शक्ति का उदय

कर्नाटक युद्ध

अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच सबसे पहले कर्नाटक में संघर्ष शुरू हुआ। कर्नाटक मुगल साम्राज्य का एक सूबा था मगर लगभग स्वतंत्र हो चुका था। कर्नाटक की राजधानी मद्रास और पांडिचेरी के बीच स्थित आर्काट शहर में थी।

सन् 1740-48 ई० के दौरान यूरोप में एक युद्ध चला जिसे 'ऑस्ट्रेलियाई उत्तराधिकार का युद्ध' कहते हैं। उस युद्ध में फ्रांसीसी और अंग्रेज परस्पर विरोधी खेमों में थे। उस समय डूप्ले पांडिचेरी में फ्रांसीसी कंपनी का मुख्य अधिकारी था। इंग्लैंड और फ्रांस के बीच यूरोप में युद्ध हुआ, तो फ्रांसीसियों ने फोर्ट सेंट जॉर्ज को लूटा। जब कर्नाटक के नवाब ने देखा कि उसके प्रांत में फ्रांसीसियों की शक्ति बढ़ती जा रही है, तो उसने उनके खिलाफ एक सेना भेजी। मगर कर्नाटक की सेना हार गई। इस लड़ाई के परिणाम ने सिद्ध कर दिया कि एक छोटी सेना भी, यदि सैनिकों में अनुशासन हो, उन्हें नियमित रूप से वेतन दिया जाए और उन्हें यूरोप में विकसित न‌ई बंदूकें दी जाए, तो भारतीय शासकों की काफी बड़ी सेना को हरा सकती हैं। भारतीय सैनिक अनुशासनहीन थे, उन्हें नियमित रूप से वेतन नहीं मिलता था और उनके लिए लड़ाई के अच्छे साधन भी उपलब्ध नहीं थे। रॉबर्ट क्लाइव उस समय अंग्रेज कंपनी में क्लर्क था‌। उसने इस लड़ाई के महत्व को समझा और आगे चलकर अंग्रेज कंपनी के हितों के लिए अपने अनुभवों का उपयोग किया।

सन् 1748 में यूरोप में शक्ति-समझौता हुआ। तब फ्रांसीसियों ने अंग्रेजों को मद्रास वापस कर दिया। मगर यह शांति ज्यादा दिनों तक नहीं टिकी।  फ्रांसीसियों के विरुद्ध हुई लड़ाई में कर्नाटक का नवाब मारा गया। उसी दौरान निज़ाम की भी मृत्यु हुई। उत्तराधिकार के सवाल को लेकर विवाद पैदा हुए। फ्रांसीसियों ने मुजफ्फर जंग को नवाब बना दिया। कर्नाटक के नवाब के पद के लिए दोनों कंपनियों ने अलग-अलग उम्मीदवारों को समर्थन दिया। फ्रांसीसियों ने चांद साहब को कर्नाटक का नवाब बना दिया। अंग्रेज मुहम्मद अली को कर्नाटक का नवाब बनाना चाहते थे। इस काम के लिए उन्होंने क्लाइव को 1751 ई० में एक छोटी सेना सौंप कर आर्काट भेजा।

जो युद्ध हुआ उसमें फ्रांसीसियों की हार हुई। चांद‌ साहब का सिर काट लिया गया। डूप्ले को फ्रांस वापस बुला लिया गया और दोनों कंपनियों के बीच शांति-समझौता हुआ। निज़ाम ने मुहम्मद अली को कर्नाटक का नवाब मान लिया।

लड़ाई का नतीजा अंग्रेज कंपनी के हित में रहा। कर्नाटक में फ्रांसीसी कंपनी के स्थान पर अंग्रेज कंपनी का अधिपत्य स्थापित हो गया।

हारने पर भी हैदराबाद में फ्रांसीसियों का प्रभाव बरकरार रहा। उनकी फौज के खर्च के लिए निज़ाम ने उन्हें राजस्व-वसूली का अधिकार दे दिया। निज़ाम की रक्षा के नाम पर उन्होंने अपनी सेना की सहायता से उस पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। मजे की बात तो यह है कि फ्रांसीसी फौज पर वही राजस्व खर्च होता था जिसे वसूल करने का अधिकार निज़ाम ने उन्हें दिया था। इस प्रकार, भारतीय राज्यों से फौज का खर्च लेकर उसी फौज से उन राज्यों के शासकों को नियंत्रण में रखने का एक नया तरीका सामने आया। इस तरीके को जल्दी ही अंग्रेजों ने बंगाल में अपनाया। इस बीच बंगाल संघर्ष का क्षेत्र बन गया।

अंग्रेज-फ्रांसीसी संघर्ष का अंतिम दौर 1756 ई० में तब चला जब यूरोप में 'सात वर्षीय युद्ध' शुरू हुआ। कर्नाटक में फ्रांसीसियों की हार हुई। हैदराबाद में फ्रांसीसियों का स्थान अंग्रेजों ने ले लिया और निज़ाम ने उन्हें उत्तर की सरकारें सौंप दी। फ्रांसीसियों के हाथों से उनके सारे भारतीय उपनिवेश निकल गए। 1763 ई० में यूरोप में युद्ध समाप्त हुआ तो फ्रांसीसियों को उनके उपनिवेश वापस मिल गए। मगर भारत में फ्रांसिसियों की राजनीतिक सत्ता समाप्त हो गई; उनकी गतिविधियां केवल व्यापार तक सीमित रहीं। इस बीच अंग्रेजों ने बंगाल पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था।

बंगाल पर अंग्रेजो का कब्जा

अलीवर्दी खां 1740 ई० में बंगाल का नवाब बना। उसमें जमीदारों और हिंदू तथा मुसलमान अधिकारियों की निष्ठा प्राप्त कर ली। उसने बंगाल में कुशल प्रशासन कायम किया। अलीवर्दी खां ने यूरोप के सौदागरों को हमेशा नियंत्रण में रखा। उसके बाद उसका तरुण नाती सिराजुद्दौला नवाब बना। मगर सिराजुद्दौला के नवाब बनने पर उसके परिवार के सदस्यों के बीच षड्यंत्र और झगड़े शुरू हो गए। इन साजिशों ने अंग्रेज कंपनी को बंगाल की राजनीति में हस्तक्षेप करने का मौका दिया। उन्होंने कलकत्ता की किलाबंदी का विस्तार शुरू कर दिया।

नवाब के ढाका के खजाने से रकम का गबन हुआ। गबन की यह रकम, नवाब के अनुसार, अंग्रेजों के पास थी। नवाब ने अंग्रेजों से गबन कि यह रकम लौटाने को कहा। अंग्रेजों ने नवाब की मांग ठुकरा दी। नवाब शायद का कर्नाटक की घटनाओं से अवगत था उसने अनुभव किया कि अंग्रेज कंपनी उसकी सत्ता के लिए खतरा है। उसने इस खतरे को खत्म करने का फैसला किया।

सन् 1756 ई० में सिराजुद्दौला के सैनिकों ने कलकत्ता पर कब्जा कर लिया। नवाब के कुछ सैनिकों ने अंग्रेज कैदियों पर अत्याचार किए और कई अंग्रेज मारे गए। सूचना मिलते ही नवाब ने अत्याचार रुकवा दिए।

जब कलकत्ता की हार की खबर मद्रास पहुंची तो क्लाइव को एक नौ सैनिक बेड़े के साथ कोलकाता पर दोबारा कब्जा करने के लिए भेजा गया। कलकत्ता पर अंग्रेजों का फिर से कब्जा हो गया, मगर उतने से वे संतुष्ट नहीं हुए। वह नवाब के विरुद्ध रचे जा रहे षड्यंत्र में शामिल हो गए। उन्होंने नवाब के मुख्य सेनापति मीर जाफर को समर्थन देना शुरू किया।

अंग्रेजों और सिराजुद्दोला के बीच प्लासी में 23 जून, 1757 को युद्ध हुआ। अंग्रेजों के साथ षड्यंत्र में शामिल हुए मीर जाफ़र तथा उसके अन्य सहयोगियों ने लड़ाई में सक्रिय भाग नहीं लिया। जगत सेठ के अंग्रेज कंपनी के साथ व्यवसायिक संबंध थे और बंगाल की वित्त-व्यवस्था पर भी उनका काफी नियंत्रण था। जगत सेठ ने भी मीर जाफ़र का समर्थन करने का निर्णय किया। प्लासी के युद्ध में नवाब की सेना हार गई। नवाब को पकड़ लिया गया और बड़ी निर्दयता से मार दिया गया। मीर जाफ़र को नवाब बना दिया गया। क्लाइव और कंपनी के अन्य अफसरों ने उनका समर्थन किया था, इसलिए उसने उन्हें इनाम के तौर पर भारी धनराशि दी। इस लड़ाई के साथ भारत में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना की शुरुआत हुई।

प्लासी के युद्ध के बाद बंगाल पर अंग्रेज कंपनी की वास्तविक सत्ता कायम हुई और नवाब उसकी कठपुतली बन गया। कंपनी के अफसर और उनके भारतीय दलाल किसानों तथा दस्तकारों को अपना माल बाजार भाव से काफी सस्ता बेचने के लिए मजबूर करते थे। इस तरह वे भारी मुनाफा कमाते थे। कंपनी के अफसर नवाब और अन्य लोगों से घुस भी लेते थे। कंपनी भी नवाब से भारी धन की मांग करती थी, जिसे वह पूरा करने में असमर्थ था। उसका खजाना खाली हो गया था। यहां तक कि अपने सैनिकों को वेतन देने के लिए भी उसके पास पर्याप्त धन नहीं बचा था। अंततः नवाब भी कंपनी के खिलाफ होने लगा। लेकिन कंपनी के अफसरों ने उसे गद्दी से हटाकर उसके दामाद मीर कासिम को बंगाल का नवाब बना दिया।

मीर कासिम ने अंग्रेज कंपनी पर अपनी पूर्ण निर्भरता की स्थिति को समझा। वह कंपनी के शिकंजे से छुटकारा पाना चाहता था। इसलिए वह अपनी स्थिति मजबूत बनाने में जुट गया। स्वतंत्र होने की कोशिश करने वाला वह बंगाल का आखिरी नवाब था। उसने मीर जाफ़र के उन सभी अफसरों को बर्खास्त करना शुरू कर दिया जो कंपनी के हिमायती थे। वह एक ताकतवर सेना बनाने में भी जुट गया। अपने सैनिकों को युद्ध के नए तरीके सिखाने के लिए उसने यूरोपीय सैनिकों को नियुक्त किया। उसने चुंगी की वसूली खत्म कर दी, ताकि भारतीय सौदागर भी कंपनी के अफसरों की बराबरी में ही व्यापार कर सके। उसके द्वारा उठाए गए इन कदमों से, विशेषकर उसकी अंतिम कार्रवाई से, अंग्रेज कंपनी के अफसर खफा हो गए और उन्होंने नवाब को हटा देने का फैसला किया। 

सन् 1763 ई० में जो लड़ाई हुई उसमें नवाब की सेना हार गई। नवाब को बंगाल और बिहार से खदेड़ दिया गया। मीर जाफ़र ने अवध के नवाब शुलाउद्दौला के यहां शरण ली। शुलाउद्दौला सफदरजंग के बाद अवध का नवाब बना था। उस समय मुगल बादशाह शाह आलम ने भी अवध के नवाब की शरण ली थी। शाह आलम के पिता आलमगीर द्वितीय की हत्या हो जाने के बाद वजीर ने उसे दिल्ली में घुसने नहीं दिया था।

दो शरणार्थियों के सहयोग से अवध के नवाब ने अंग्रेजो के खिलाफ लड़ाई की तैयारी की। पश्चिम बिहार के बक्सर नामक स्थान पर 22 अक्टूबर, 1764 ई० को लड़ाई हुई, जिसमें भारतीय सेनाओं की हार हुई। बक्सर की लड़ाई निर्णायक सिद्ध हुई। भारत के इतिहास में एक भारी मोड़ आ गया।

सन् 1765 ई० में शुलाउद्दौला और शाह आलम ने इलाहाबाद में क्लाइव के साथ समझौते पर हस्ताक्षर किए। लाइव उस समय तक कंपनी का गवर्नर बन गया था। समझौतों के अनुसार ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी मिल गई। इससे कंपनी को इन प्रदेशों से राजस्व-वसूली के अधिकार मिल गए। अवध के नवाब ने इलाहाबाद और कोरा या कडा मुगल बादशाह को दे डालें। मुगल बादशाह ब्रिटिश सैनिकों के संरक्षण में इलाहाबाद में रहने लगा। कंपनी ने मुगल बादशाह को हर साल 26 लाख रुपए देना मंजूर किया, मगर जल्दी ही वह अपने वादे से मुकर गई और भुगतान रोक दिया। बाहरी हमलों से अवध के नवाब की रक्षा के लिए कंपनी ने अपनी सेना भेजने का वचन दिया, मगर सेना का खर्च उठाने की जिम्मेदारी नवाब की थी। इस प्रकार अवध का नवाब कंपनी का आश्रित हो गया।

 इस बीच मीर जाफ़र को पुनः बंगाल का नवाब बना दिया गया था। उसकी मृत्यु के बाद उसके बेटे को नवाब बनाया गया। कंपनी के अफसरों ने नए नवाब से मोटी रकमें ऐठ कर खूब संपत्ति जोड़ी।

ब्रिटिश प्रभाव का विस्तार (१७६५-१७८५ ई०) 

कर्नाटक में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच हुए युद्ध होने तथा प्लासी और बक्सर की लड़ाईयों ने भारत में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना का मार्ग खोल दिया। आरंभ में अंग्रेजों का प्रभाव तीन स्थलों - कलकत्ता, बंबई और मद्रास के आस-पास के समुद्र तटवर्ती क्षेत्रों तक सीमित रहा। मगर १७६५ ई० तक वे बंगाल, बिहार और उड़ीसा के वास्तविक शासक बन गए थे। अवध का नवाब उन पर आश्रित हो चुका था। कर्नाटक का नवाब उन्हीं का बनाया हुआ था। इस बीच मराठों ने अपनी कोई शक्ति पुनः प्राप्त कर ली थी। उस समय मराठे ही भारत की प्रमुख शक्ति थे। आगे के करीब चार दशकों तक अंग्रेजों को मराठा शक्ति का मुकाबला करना पड़ा। दक्षिण भारत में मराठों के अलावा हैदराबाद और मैसूर के राज्य भी काफी शक्तिशाली थे।

सन् १७६५ से १७७२ तक बंगाल में दोहरी सरकार रही, क्योंकि वहां एक साथ दो सत्ताए शासन कर रही थी। सेना और राजस्व-वसूली अंग्रेजों के हाथों में थी और प्रशासन संभालने का काम नवाब के जिम्मे था। ऐसी स्थिति में अपने अधिकारों को अमल में लाने के लिए नवाब के पास कोई साधन नहीं रह गए थे। दूसरी तरफ सारी शक्ति अंग्रेजों के हाथों में थी, मगर जिम्मेदारी कोई नहीं। कंपनी के अफसर बेहद भ्रष्टाचारी बन गए थे और जनता का शोषण कर रहे थे। १७७० ई० में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा। कंपनी और उसके अफसरों के दुर्व्यवहार ने अकाल को और भी अधिक भयावह बना दिया। मैसूर के शासक हैदर अली ने १७६९ ई० के पहले अंग्रेज-मैसूर युद्ध में अंग्रेजो को हराया और उन्हें उसके साथ एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया।

सन् १७७२ ई० में वारेन हेस्टिंग्स बंगाल का गवर्नर बना। १७७३ ई० में उसे भारत में ब्रिटिश प्रदेशों का गवर्नर-जनरल बनाया गया। उस समय अंग्रेजों ने बंगाल में अपने शासन को मजबूत बनाना शुरू कर दिया। उस समय के बंगाल में बिहार और उड़ीसा भी शामिल थे। १७७२ ई० में दोहरी सरकार को खत्म कर दिया गया और बंगाल पर कंपनी का सीधा शासन लागू हो गया। उसी साल से कलकत्,ता जो कि कंपनी का प्रमुख केंद्र था, बंगाल की वास्तविक राजधानी बनी। कालांतर में ब्रिटिश भारत की राजधानी भी कलकत्ता में ही रही। इसी काल में अंग्रेजों ने भारतीय शासकों के झगड़ों में भी उलझना शुरू कर दिया।

अंग्रेजों ने अवध के नवाब को रुहेलों के विरुद्ध सहायता दी। रुहेलों के अधिकांश इलाके अवध के साथ मिला दिए गए। मगर एक रुहेला सरदार को रामपुर का नवाब बना दिया गया। रामपुर का राज्य रुहेलों के कुछ इलाकों को मिलाकर बनाया गया था। अंग्रेजों की सहायता के लिए अवध के नवाब ने उन्हें चालीस लाख रुपए दिए। अवध के साथ अंग्रेजों के संबंध अधिक मजबूत हुए। इससे बंगाल पर अंग्रेजों का शासन सुरक्षित और सुदृढ़ हुआ।

सन् १७७५ से १७८२ ई० तक अंग्रेज मराठों से लड़ते रहे।

मराठों के साथ लड़ाई, जिसे प्रथम अंग्रेज-मराठा युद्ध कहते हैं, तब शुरू हुई जब अंग्रेजों ने पेशवा-पद के लिए माधवराव द्वितीय के विरुद्ध राघोबा के दावे का समर्थन किया। मगर उस समय अधिकतर मराठा सरदार किशोर पेशवा और मराठा नेता नाना फडणवीस के समर्थक थे। यह युद्ध अनिर्णित रहा और १७८२ ई० में खत्म हुआ। इसके बाद बीस साल तक अंग्रेजों और मराठों के बीच शांति स्थापित रही।

प्रथम अंग्रेज-मैसूर युद्ध के बाद अंग्रेजों और हैदर अली के बीच जो संधि हुई थी उसमें दोनों पक्षों ने यह तय किया था कि कोई तीसरी शक्ति यदि उनमें से किसी पर हमला करती है तो वे एक-दूसरे की मदद करेंगे। मगर जब मराठों ने मैसूर पर हमला किया तो अंग्रेजों ने हैदर अली को कोई मदद नहीं दी। फलतः मैसूर का शासक अंग्रेजो के खिलाफ हो गया। आगे के तीस सालों तक हैदर अली और उसके बेटे टीपू सुल्तान की अंग्रेजों से शत्रुता चली। अंग्रेजों के साथ उनकी कई बार लड़ाइयां हुई। अमरीका के स्वतंत्रता युद्ध के दौरान फ्रांस ने ब्रिटेन के विरुद्ध अमरीकी उपनिवेशों की मदद की थी। फ्रांस ने मराठों को भी सहायता देने की पेशकश की थी। बदले की भावना से अंग्रेजों ने फ्रांसीसी बंदरगाह माहे पर अधिकार कर लिया। यूरोप के साथ व्यापार के लिए माहे मैसूर राज्य का एकमात्र बंदरगाह था। हैदर अली ने १७८० ई० में अंग्रेजों पर हमला किया। फ्रांसीसियों ने उसकी मदद की। मगर जब ब्रिटेन और फ्रांस के बीच शांति-समझौता हुआ तो फ्रांसीसियों ने मैसूर को मदद देना बंद कर दिया। १७८२ ई० में हैदर अली की मृत्यु हुई, परंतु उसके बेटे टीपू सुल्तान ने लड़ाई जारी रखी। दूसरा अंग्रेज-मैसूर युद्ध १७८४ ई० में खत्म हुआ। लड़ाई के पहले की स्थिति फिर से कायम हो गई।

इस प्रकार, १७६५ से १७८५ ई० तक अंग्रेज भारत में अपने क्षेत्रों का विस्तार नहीं कर पाए। मगर वे अपने राजनीतिक प्रभाव को बढ़ाने में सफल रहे। मराठों के विरुद्ध हुई लड़ाई के दौरान वे नागपुर के भोंसले को तटस्थ रखने में सफल हुए थे। मराठों और मैसूर के खिलाफ उनकी लड़ाई में वे निज़ाम को भी तटस्थ रखने में सफल हुए थे। मैसूर, निज़ाम और मराठे मिलकर अंग्रेजों को हरा सकते थे, मगर अंग्रेजों ने भारतीय शासकों के आपसी मतभेद को मिटने नहीं दिया। वे अपना प्रभाव पश्चिम में यमुना तक, हैदराबाद में और दक्षिण में दूर तक बढ़ाने में सफल हो गए।

हस्तक्षेप न करने की नीति (१७८५-१७९७ ई०)

मरीका की स्वतंत्रता की लड़ाई में ब्रिटेन की हार होने के बाद इंग्लैंड में ईस्ट इंडिया कंपनी की नीतियों की आलोचना हुई। ब्रिटिश सरकार ने तय किया कि कंपनी को भारतीय शासकों के झगड़े में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। ब्रिटिश संसद (पार्लियामेंट) ने एक कानून बनाकर भारत के ब्रिटिश इलाकों के शासन की एक व्यवस्था प्रस्तुत कर दी। वारेन हेस्टिंग्स ने भारत में बड़ी भारी निजी संपत्ति जमा कर ली थी। वह जब इंग्लैंड लौटा तो वहां की पार्लियामेंट ने उस पर एक मुकदमा चलाया। उस पर आरोप लगाए गए थे कि उसने भारतीयों पर नृशंस अत्याचार किए हैं, और भारतीय शासकों से घूस ली है। अंत में उसे आरोपों से मुक्त कर दिया गया। उसके उत्तराधिकारी कार्नवालिस और जॉन शोरे ने भारतीय शासकों के मामलों से अपने को अलग रखने की कोशिश की। इसे हस्तक्षेप न करने की नीति कहते हैं‌।

रुहेलों ने मुगल बादशाह शाह आलम पर हमला करके उसे अंधा बना दिया था। बाद में वह मराठा सरदार महादजी सिंधिया की सुरक्षा में चला गया। मराठों ने निजा़म के खिलाफ पुनः अपने हमले शुरू कर दिए। उधर नेपाल में गुरखा काफी शक्तिशाली हो गए थे और बर्मी राज्य ने भी अपना प्रभाव भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों तक बढ़ा लिया था। पंजाब पर अफ़गान आक्रमण का भी खतरा था। फिर भी कार्नवालिस ने इन हमलों में हस्तक्षेप न करने से इनकार कर दिया।

परंतु मैसूर के मामले में हस्तक्षेप न करने की नीति नहीं अपनाई गई। टीपू सुल्तान में कुर्म और त्रावणकोर के राज्यों पर हमले किए। इन राज्यों के शासकों के अंग्रेजों से मित्रता के संबंध थे। अंग्रेज टीपू सुल्तान को दक्षिण भारत में अपनी शक्ति के विस्तार के मार्ग में सबसे बड़ा खतरा समझते थे। फलस्वरुप तीसरा अंग्रेज-मैसूर युद्ध हुआ। टीपू की हार हुई और उसे अपने राज्य के कई इलाके अंग्रेजों को देने पड़े।

इस प्रकार, अंग्रेज हस्तक्षेप न करने की नीति पर तभी कायम रहे जब उससे उनका हित-साधन होता था। कार्नवालिस का उत्तराधिकारी जॉन शोर भी इसी नीति पर चला। अंग्रेज ने निजा़म को मदद करने का वादा किया था, किंतु जब मराठों ने निजा़म को हराया और उसके इलाकों से चौथ वसूल करने लगे तो अंग्रेज निजा़म की मदद को नहीं आए। लेकिन उनके द्वारा चुने गए अवध के नवाब के उत्तराधिकारी का १७९७ ई० मैं विरोध हुआ तो उन्होंने विरोधियों को कुचल डाला। इस काल में अंग्रेजों ने मुख्य रूप से अपनी शक्ति बढ़ाने पर ध्यान दिया और विस्तार के आगे के दौर के लिए तैयारी की।

१७९८ से १८०९ ई० तक ब्रिटिश राज्य विस्तार

सन् १७९८ ई० में वेल्जली गवर्नर-जनरल बना। उसने पुनः राज्य-विस्तार की शुरुआत कर दी। तुम जानते हो कि १७९८ ई० में फ्रांस में क्रांति हुई थी और उसके घोषित उद्देश्य थे - स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व। इस क्रांति के फलस्वरूप यूरोप के अन्य देश फ्रांस के खिलाफ हो गए। १७९८ ई० से ब्रिट्रेन और क्रांतिकारी फ्रांस के बीच लड़ाई शुरू हो गई। जब नेपोलियन बोनापार्ट के नेतृत्व में फ्रांस की सेना मिस्त्र की विजय के लिए रवाना हुई, तो अंग्रेजों ने भारत में अपनी स्थिति के लिए खतरा महसूस किया। फ्रांसीसी उस समय निज़ाम को भी प्रभावित करने का प्रयास कर रहे थे। टीपू सुल्तान ने फ्रांसीसी क्रांति के लिए अपनी खुली सहानुभूति जाहिर की। वह अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए फ्रांसीसी सहायता प्राप्त करने की भी कोशिश कर रहा था। मगर उस समय के भारत की दो प्रमुख शक्तियां कमजोर हो चुकी थी। तीसरे अंग्रेज-मैसूर युद्ध के बाद मैसूर की शक्ति घट गई थी और आपसी झगड़ों तथा षड्यंत्रों के कारण मराठे भी कमजोर हो गए थे।

नए इलाकों पर कब्जा करने के अलावा वेल्जुली ने एक भारतीय शासक को दूसरे के विरुद्ध सैनिक सहायता देकर अपना प्रभाव बढ़ाने की वारेन हेस्टिंग्स की पुरानी नीति अपनाई। ब्रिटिश प्रभाव को अधिक स्थाई बनाने के लिए वेल्जुली ने इस नीति को आगे बढ़ाया।कई भारतीय शासकों ने "सहायता-संधि" स्वीकार की। इसके अंतर्गत भारतीय शासक को अपने क्षेत्र में ब्रिटिश फौज रखनी पड़ी थी और उसका खर्च देना पड़ता था। इस खर्च के भुगतान के लिए कभी-कभी राज्य का एक भाग ही अंग्रेजों को देना पड़ता था। आमतौर पर, भारतीय शासक को अपने दरबार में एक अंग्रेज अफसर भी रखना पड़ता था। उस अफसर को 'रेजिडेंट' कहा जाता था। सतही तौर पर यह व्यवस्था भारतीय शासकों को सुरक्षा प्रदान करती थी, मगर असल में यह उसकी आजादी को खत्म कर देती थी।

सहायक संधि को स्वीकार करने वाला पहला शासक निज़ाम था। दूसरा शासक अवध का नवाब था। इन दोनों शासकों ने अपने राज्यों के हिस्से अंग्रेजों को दे दिए।

सन् १७९९ ई० में अंग्रेजों की टीपू सुल्तान से लड़ाई हुई। अंग्रेजों को डर था कि फ्रांसीसी सैनिक शायद टीपू की मदद को पहुंच जाएं। परंतु ऐसा नहीं हुआ। टीपू लड़ता हुआ मारा गया। इस प्रकार जीवनभर ब्रिटिश शक्ति का विरोध करने वाले टीपू का अंत हो गया। हैदर अली ने जिस राजवंश को गद्दी से हटाया था उसी वंश के एक बालक को मैसूर की गद्दी पर बैठाया गया। मैसूर राज्य के कुछ इलाके अंग्रेजों ने हथिया लिए और कुछ निज़ाम ने। मैसूर का नया राजा अंग्रेजों का का पूर्णतः आश्रित बन गया। अंग्रेजों ने कर्नाटक, तंजावुर तथा सूरत पर भी कब्जा कर लिया।

वेल्जुली ने आगे मराठों की ओर ध्यान दिया। मराठों के आपसी झगड़े जारी थे। महादजी सिंधिया और नाना फडणवीस योग्य नेता थे। आपसी झगड़ों के बावजूद उन्होंने मराठा शक्ति को टिकाए रखा था. मगर उनकी मृत्यु के बाद स्थिति तेजी से बिगड़ती गई। पेशवा पर अधिपत्य स्थापित करने के लिए १८०१-१८०२ ई० में होलकर और सिंधिया के बीच लड़ाई हुई। तरुण पेशवा बाजीराव द्वितीय ने अंग्रेजों से संरक्षण मांगा। वस‌ई में १८०३ ई० में अंग्रेजों के साथ उसने संधि की। उसने सहायक संधि को भी स्वीकार कर लिया। पेशवाओं की राजधानी पुणे पर अंग्रेजों की फौज ने कब्जा कर लिया और होलकर को वहां से भगा दिया। अब सिंधिया और भोंसले एकजुट हुए, मगर तब तक काफी विलंब हो चुका था। मराठों की सेनाएं उत्तर और दक्षिण दोनों जगहों में हार गई। अंग्रेजों ने सिंधिया के नियंत्रण से दिल्ली छीन ली और अंधा बादशाह शाह आलम उनके संरक्षण में आ गया। भोसले और सिंधिया ने अंग्रेजों के साथ संधि कर ली और अपने राज्यों के इलाके अंग्रेजों को दे दिए। उन्होंने सहायक संधि की शर्तों को भी स्वीकार कर लिया। इस तरह मराठा राज्यों में ब्रिटिश फौजें पहुंच गई और रेजीडेंट नियुक्त हुए। फिर भी मराठों के विभिन्न गुटों में झगड़े चलते रहे और ब्रिटिश रेजिडेंट इन झगड़ों को उभारने में योग देते रहे। इस तरह अंग्रेजों ने हर मराठा राज्य पर अपना प्रभाव जमाना शुरू कर दिया।

होलकर अभी डंटा हुआ था।‌ लंदन में कंपनी के मालिक लड़ाई ऊपर हो रहे भारी खर्च से खुश नहीं थे। इसलिए वेल्जुली को वापस बुला लिया गया। उसके उत्तराधिकारी ने होलकर के साथ शांति-समझौता कर लिया। वेल्जुली के जाने के बाद अंग्रेजों ने अपना विस्तार लगभग रोक दिया। वे अपनी सत्ता को दृढ़ बनाने में जुट गए। मगर जल्दी ही विस्तार का नया दौर शुरू हो गया।

१८०९ से १८४८ ई० तक ब्रिटिश राज्य विस्तार

फ्रांस की क्रांति के समय इंग्लैंड और फ्रांस के बीच जो लड़ाई शुरू हुई थी वह अब भी जारी थी। उस समय मिंटो को गवर्नर-जनरल बनाकर भारत भेजा गया। उसे उत्तर-पश्चिम और दक्षिण-पूर्व भारत में ब्रिटिश प्रदेशों की सुरक्षा के उपाय करने के आदेश दिए गए। फलतः भारत में और पड़ोसी देशों में ब्रिटिश सत्ता का और अधिक विस्तार हुआ। जाया और सुमात्रा डचों के अधिकार में थे। अंग्रेजों ने उन द्वीपों पर कब्जा कर लिया। बाद में यह द्वीप डचों को लौटा दिए गए। मगर अंग्रेजों ने सिंगापुर पर कब्जा कर लिया और वे सारवाक‌ (माले प्रायद्वीप का एक भाग) में घुस गए। इन विजयों से अंग्रेजों को दक्षिण-पूर्व एशिया के व्यापार पर नियंत्रण करने में सहायता मिली और उस क्षेत्र में ब्रिटेन की नौसैनिक सत्ता की नींव पड़ी।

अंग्रेजों ने अफगानिस्तान, ईरान और भारत के पश्चिमोत्तर इलाकों में भी अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश की। वे सतलुज नदी पर अपनी सत्ता बढ़ाने में सफल हो गए। उन्होंने सतलुज के पूर्व में रणजीत सिंह के विस्तार को रोक दिया।

मिंटो‌ के बाद मार्क्विस हेस्टिंग्स (वारेन हेस्टिंग्स से भिन्न व्यक्ति) गवर्नर-जनरल बना। उसे नेपाल से लड़ाई की। नेपालियों की हार हुई और उन्हें अपने राज्य के इलाके अंग्रेजों को देने पड़े। काठमांडू में एक ब्रिटिश रेजीडेंट भी रहने लगा।

19 वी सदी के आरंभिक वर्षों में पिंडारी लुटेरों का उदय हुआ। वे देश के कई प्रदेशों में लूट-मार करते थे। भारतीय शासकों ने अंग्रेजों के साथ सहायता संधि करके अपने जिन अनेक सैनिकों को बर्खास्त कर दिया था वे भी पिंडारियों गिरोह में शामिल हो गए। अंग्रेजों ने पिंडारियों के खिलाफ मराठा सेनाओं का इस्तेमाल करने का फैसला किया, मगर कई मराठा नेता पिंडारियों को मदद देते रहे। अतः पिंडारियों के खिलाफ शुरू हुई लड़ाई जल्दी ही तीसरे अंग्रेज-मराठा युद्ध (१८१७ ई०) में बदल गई। पिंडारी हार ग‌ए। एक पिंडारी को पूर्वी राजस्थान के एक छोटे राज्य टोंक का नवाब बना दिया गया। तीसरे अंग्रेज-मराठा युद्ध ने मराठों को पूर्णतः बर्बाद कर दिया। पेशवा को पेंशन देकर उत्तर भारत में निर्वासित कर दिया गया। उसके देहांत के बाद उसका बेटा नाना साहब पेशवा के विशेषाधिकार हासिल करने के लिए प्रयास करता रहा। कुछ ही वर्षों में पेशवा के इलाके अंग्रेजों के पश्चिम भारत के क्षेत्रों का हिस्सा बन गए। अन्य मराठा सरदारों ने भी अपने अधिकांश इलाके खो दिए। उनकी सेनाएं भी खत्म कर दी गई। वे सब सरदार ब्रिटिश रेजिडेंटों की अधीनता में आ गए। जल्दी ही राजपूत राज्यों पर भी सहायक संधि थोप दी गई।

सन् १८२४ से १८२६ ई० तक अंग्रेजों ने बर्मी राज्य के खिलाफ लड़ाई की। बर्मी लोग असम में अपने प्रभाव को बढ़ाते जा रहे थे। उनकी हार के बाद असम अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया। अंग्रेजों के व्यापार के लिए बर्मा को अपने द्वार खोल देने पड़े। बर्मा में एक ब्रिटिश रेजिडेंट भी रहने लगा।

अंग्रेजों ने अफगानिस्तान पर भी चढ़ाई की, किंतु उसे वह जीत न सके। अंग्रेजों को डर लगने लगा था कि ईरान और अफगानिस्तान से होकर रूस उनके भारतीय प्रदेशों पर आक्रमण कर सकता है। उन्होंने अफगानिस्तान के शासक दोस्त मुहम्मद को हटाने के लिए सेना भेजी। मगर इसमें वे बुरी तरह असफल रहे। अफगान अपनी स्वतंत्रता कायम रखने में सफल रहे। दोस्त मुहम्मद के वंशज १९२९ ई० तक सत्ता में बने रहे।

अंग्रेजों ने सिंध में अपना प्रभाव जमा लिया था। सिंध के अमीरों ने उनके साथ सहायक संधि कर ली थी। मगर १८४३ ई० में सिंध को ब्रिटिश शासन में मिला लिया गया।

रणजीत सिंह के अधीन पंजाब

उस समय तक केवल एक ही प्रमुख भारतीय सत्ता स्वतंत्र रह गई थी। वह थी रणजीत सिंह के अधीन पंजाब। तुम पहले पढ़ चुके हो कि सिक्ख मिसलों में संगठित हुए थे। रणजीत सिंह ने एक छोटी मिसल में १७९२ ई० में अपनी सत्ता स्थापित की थी।‌ उसने १७९८ ई० में सतलुज के पश्चिम के इलाकों की मिसलों को संगठित किया और अफगान शासक जुमान शाह के आक्रमण को विफल कर दिया। इस सफलता ने उसे एक शक्तिशाली शासक बना दिया और १८०१ ई० में इन‌ मिसलों ने उसे पंजाब का महाराजा मान लिया। उसने जल्दी ही अपने राज्य का विस्तार पेशावर, मुलतान, कश्मीर, कांगड़ा आदि पहाड़ी इलाकों समेत एक विशाल क्षेत्र में कर लिया। उसने एक बहुत शक्तिशाली सेना बनाई। अपनी सेना को आधुनिक ढंग से संगठित और सुसज्जित करने के लिए उसने यूरोपीयों की सेवा प्राप्त की। उसने पंजाब में कुशल प्रशासन स्थापित करने का प्रयास किया। इसमें उसके हिंदू, मुसलमान और सिक्ख अफसरों ने उसे पूरा सहयोग दिया। अफसरों की नियुक्ति में उसने कोई धार्मिक भेदभाव नहीं किया था। रणजीत सिंह के शक्तिशाली होने के कारण अंग्रेजी भी उसका सम्मान करते थे। अंग्रेजों ने १८०९ ई० में रणजीत सिंह के साथ मैत्री-संधि की। परंतु १८३९ ई० में महाराजा की मृत्यु के बाद स्थिति बदल गई।

ब्रिटिश प्रभुसत्ता की स्थापना (१८४८-१८५६ ई०)

रणजीत सिंह के जीवन काल में उसके राज्य के विस्तार को अंग्रेजों ने रोक दिया था। सतलुज के पूर्व सिक्ख राज्य के प्रभाव में आ गए थे। अंग्रेजों ने 1843 ई० में सिंध पर कब्जा कर लिया था। अफगानिस्तान में भी अंग्रेजों की दिलचस्पी बढ़ गई थी। इसलिए पंजाब के शक्तिशाली राज्य के साथ अंग्रेजों का मुकाबला होना स्वाभाविक था।

रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद पंजाब में राजनीतिक अस्थिरता आ गई। सेना में सिक्खों के खालसा नामक समूह का प्राधान्य हो गया और उसने राज्य के मामलों में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया। विभिन्न गुटों में शत्रुता भी बढ़ने लगी। ऐसी स्थिति में खालसा राजगद्दी के बारे में भी फैसला करने लगे। अंग्रेजों ने पंजाब की सीमाओं पर अपनी सेना का जमाव शुरू कर दिया। रणजीत सिंह के बाद उसका बेटा दिलीप सिंह गद्दी पर बैठा था, मगर उसकी मां रानी जिंदन अपने कृपापात्र अफसरों की सहायता से राजकाज करती थी। उन कृपापात्र अफसरों ने एक तरफ अंग्रेजों के साथ सांठ-गांठ की, तो दूसरी तरफ खालसा को अंग्रेजों पर आक्रमण करने के लिए उकसाया। 1845 ई० में पहला अंग्रेज-सिक्ख युद्ध हुआ। खालसा की हार के साथ युद्ध समाप्त हुआ। पंजाब ब्रिटिश संरक्षण में आ गया, मगर दिलीप सिंह गद्दी पर बना रहा। अंग्रेजों ने गुलाब सिंह को जम्मू और कश्मीर का महाराजा बना दिया। उन्होंने पंजाब के प्रशासन के लिए सिक्ख और अंग्रेज अफसर भी नियुक्त किए।

सन् 1848 ई० में पंजाब में अंग्रेजो के खिलाफ कई विद्रोह हुए और उसके बाद दूसरा अंग्रेज-सिक्ख युद्ध हुआ। पंजाब की सेनाएं बहादुरी से लड़ी, मगर हार गई। पंजाब को अंग्रेजों ने अपने राज्य में मिला लिया। इस तरह रणजीत सिंह द्वारा स्थापित शक्तिशाली राज्य का अंत हो गया।पंजाब पर जिस समय अंग्रेजों का कब्जा हुआ उस समय डलहौजी गवर्नर-जनरल था। उसके कार्यकाल (1848 से 1856 ई० तक) में भारत में अंग्रेजों की प्रभुसत्ता स्थापित हो गई।

ब्रिटिश प्रभुसत्ता दो प्रमुख तरीकों से स्थापित हुई। वे दो तरीके थे - सीधे कब्जा कर लेना और भारतीय राज्यों पर सहायता संधि थोपना, जिसका अंत भी अक्सर कब्जा करने में ही होता था। पंजाब और सिंध को सीधे ब्रिटिश राज्य में मिला लिया गया था। 1865 ई० मैं अवध के नवाब को गद्दी से हटा कर कोलकाता में निर्वासित कर दिया और अवध को अंग्रेजों ने अपने राज्य में मिला लिया। मगर अंग्रेजों ने सहायता व्यवस्था का ही ज्यादा इस्तेमाल किया। इस तरीके के अनेक फायदे थे। भारतीय शासक ब्रिटिश फौजों का खर्च उठाते थे और अंग्रेजों पर उन राज्यों के प्रशासन या कानून तथा व्यवस्था की कोई जिम्मेदारी नहीं थी। इस व्यवस्था के अंतर्गत आश्रित राज्यों की जनता को बड़े कष्ट झेलने पड़े। खर्च देकर ब्रिटिश सैनिक सहायता प्राप्त करने के बाद भारतीय शासक निश्चिंत हो जाते थे और अपने राज्यों के प्रशासन पर कोई ध्यान नहीं देते थे। ब्रिटिश सेना का खर्च देने के लिए किसानों पर भारी कर लादे गए। स्थानीय अधिकारियों और जमींदारों ने लूटखसोट कर काफी संपत्ति जोड़ ली। फलतः इन राज्यों में वित्तीय संकट पैदा हो गया और कानून तथा व्यवस्था खत्म हो गई। जिस राज्य में ऐसी स्थिति पैदा हुई उसे अंग्रेजों ने अपने राज्य में मिला लिया। इस तरह सहायता तथा व्यवस्था ने भारतीय राज्यों को आगे चलकर ब्रिटिश राज में मिलाए जाने की स्थिति पैदा कर दी।

भारतीय राज्यों को हड़पने के अन्य बहाने भी ढूंढ निकाले गए।‌ 'विलय नीति' ऐसा ही एक बहाना या तरीका था। डलहौजी के कार्यकाल में यह तरीका बार-बार अपनाया गया। भारत में प्राचीन काल से यह प्रथा रही है कि यदि किसी व्यक्ति का अपना कोई पुत्र नहीं होता था तो वह अपने या अपनी पत्नी के निकट के किसी रिश्तेदार को गोद ले लेता था और वही उसका उत्तराधिकारी होता था। जब भारतीय शासक अंग्रेजों पर आश्रित हो गए, तब गोद लिए हुए पुत्र को उत्तराधिकारी स्वीकार या अस्वीकार करने का अधिकार अंग्रेजों ने अपने हाथों में ले लिया। अंग्रेज जब ऐसे उत्तराधिकारी को अस्वीकार करते, तब वह स्वंपुत्रहीन उस शासक के राज्य को ब्रिटिश राज्य में मिला लेते।

डलहौजी के कार्यकाल में आश्रित भारतीय राज्यों के अनेक शासक बिना पुत्र के मर गए, तो 'विलय नीति' को कड़ाई से लागू किया गया और उनके राज्यों को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया गया। ऐसे राज्यों में झांसी, नागपुर और सतारा शामिल थे। निर्वासित पेशवा को मिलने वाली पेंशन उनके गोद लिए पुत्र नाना साहब को नहीं की गई। इस तरह कर्नाटक के नवाब की मृत्यु के बाद उसको मिलने वाली पेंशन उसके रिश्तेदारों को नहीं दी गई।

लगभग 1865 ई० तक अंग्रेजों की भारत विजय पूर्ण हो गई और भारत में ब्रिटिश साम्राज्य दृढ़ता से स्थापित हो गया। देश के बड़े भूभाग पर अंग्रेजों का सीधा शासन लागू हो गया था। कई ऐसे क्षेत्र थे जिन पर कहने के लिए तो भारतीय शासकों का अधिकार था, मगर वे अंग्रेजों पर पूर्ण आश्रित थे। पुरानी राजनीतिक व्यवस्था नष्ट हो गई और उसके साथ ही उस तरह के झगड़ों तथा संघर्षों का भी अंत हो गया जिस तरह के अठारहवीं सदी के भारत में होते थे। भारत में ब्रिटिश प्रभुसत्ता स्थापित हो गई।

जैसे-जैसे अंग्रेजों की सत्ता बढ़ती गई, वैसे-वैसे उनके खिलाफ असंतोष भी बढ़ता गया। यह असंतोष जल्दी ही 1857 ई० के व्यापक विद्रोह में प्रकट हुआ। इस बीच अंग्रेजों ने एक नई प्रशासन- व्यवस्था स्थापित की और कई परिवर्तन हुए। इन परिवर्तनों का अध्ययन तुम आगे चलकर करोगे। यहां यह जानना उपयोगी होगा कि भारत में पुरानी राजनीतिक व्यवस्था का पतन क्यों हुआ।

अंग्रेजों की सफलता के कारण

अध्याय 2 में तुम पढ़ चुके हो कि जिन भारतीय राज्यों को अंग्रेजों ने अपने राज में मिला लिया था उनका उदय मुगल साम्राज्य के टूटने से हुआ था। स्वतंत्र हो जाने पर भी यह राज्य महज दिखावे के लिए मुगल साम्राज्य की प्रभुसत्ता को मानते रहे। दिल्ली पर अंग्रेजों का अधिकार हो जाने पर यह संबंध भी समाप्त हो गया। मगर जिन न‌ए राज्यों का उदय हुआ था उनमें कोई समानता नहीं थी। हर राज्य दूसरों के इलाके हड़प कर अपना विस्तार करना चाहता था। एकता के ऐसे अभाव के कारण भारतीय राज्य आसानी से ईस्ट इंडिया कंपनी के शिकार हो गए। कंपनी के अफसरों का अपना एक लक्ष्य था, इसलिए उनमें एकता थी। यहां तक कि अंग्रेजों की अति दूर की चौकियां भी एक केंद्रीय नेतृत्व के अधीन थी। इस तरह के केंद्रीय नियंत्रण ने अंग्रेजों को 1757 ई० से भारत के राजनीतिक मामलों में एक केंद्रीय शक्ति बना दिया।

परंतु इस केंद्रीय शक्ति को तभी सफलता मिली जब किसी भारतीय राज्य की आंतरिक कमजोरियां उभर कर सामने आई। इस तरह, जिस राज्य में भी एकता के अभाव की परिस्थितियां पैदा हुई उसने अपनी स्वतंत्रता खो दी। ऐसी परिस्थितियां पैदा करने में अक्सर अंग्रेजों ने भी योग दिया। तुम पहले पढ़ चुके हो कि ऐसी परिस्थितियों के बंगाल में क्या परिणाम हुए। यह अंग्रेजों की 'फूट डालो और शासन करो' की नीति थी। ब्रिटिश अफसरों ने इस नीति का बड़े कुशलता और सफलता से पालन किया।

'फूट डालो और शासन करो' की नीति भारतीय राज्यों के पतन का एक महत्वपूर्ण और तत्कालिक कारण थी, मगर यह बुनियादी कारण नहीं थी। वास्तविक कारण था - स्थिर और कुशल राजनीतिक व्यवस्था स्थापित करने में भारतीय शासकों का असमर्थ होना। ऐसी व्यवस्था स्थापित करके ही वे प्रजा की सहानुभूति प्राप्त कर सकते थे। मराठों के उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है। पानीपत की लड़ाई में मराठा सेना की करारी हार होने पर भी उन्होंने अपनी शक्ति फिर से स्थापित कर ली थी। मगर मराठा सेनाओं के नेता एक-दूसरे के साथ लगातार झगड़ों में उलझ रहे। इससे अंग्रेज उन्हें एक-एक कर हराने में सफल रहे। पंजाब में रणजीत सिंह ने एक शक्तिशाली राज्य स्थापित किया। उसने हिंदुओं, मुसलमानों और सिक्खों को एकसूत्र में बांधा। मगर वह एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था स्थापित नहीं कर पाया जो उसके बाद भी उसके राज्य को टिकाए रखती। उसकी मृत्यु के बाद उसका राज्य छिन्न-भिन्न हो गया और तब 'फूट डालो और शासन करो' की ब्रिटिश नीति सहज सफल हो गई। आंतरिक कमजोरियों और पड़ोसी राज्यों के आक्रमण के भय के कारण अनेक राज्यों के शासक अंग्रेजों के संरक्षण में चले गए। उन्हें सहायता व्यवस्था के अंतर्गत मिला। उदाहरण के लिए हैदराबाद के मामले में ऐसा ही हुआ।

भारतीय राज्यों की कमजोरियों को उनकी अर्थव्यवस्था और टेक्नोलॉजी के पिछड़ेपन ने और भी अधिक उभारा। इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति होने के बाद यह पिछड़ापन अधिकाधिक महत्वपूर्ण कारण बनता गया। वारेन हेस्टिंग्स के समय में मैसूर या मराठों की सेनाएं कंपनी की सेनाओं के समान ही शक्तिशाली थी। मगर अठारहवीं सदी के अंत तक ब्रिटिश सेनाओं को बेहतर तोपखाना भी मिल गया। औद्योगिक क्रांति के कारण ब्रिटेन की समूची सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था बदल गई थी और संसार में उसकी ताकत बहुत अधिक बढ़ गई थी। ब्रिटेन में बढ़ती हुई शक्ति के कारण भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार को रोकना आसान नहीं था। भारतीय राज्यों के आपसी झगड़ों और आंतरिक कमजोरियों ने अंग्रेजों का काम आसान कर दिया। 1856 ई० तक भारत पूरी तरह गुलाम बन गया।