Vaidikalaya

श्री हरि स्तोत्रम्



श्री हरि स्तोत्रम् एक प्रसिद्ध वैष्णव स्तोत्र (भजन/प्रार्थना) है, जो भगवान श्री हरि विष्णु को समर्पित है। यह प्राचीन संस्कृत रचना भगवान विष्णु की महिमा, स्वरूप, और उनके दिव्य गुणों का वर्णन करती है। इस स्तोत्र में आठ श्लोक (अष्टक) हैं। प्रत्येक श्लोक के अंत में “भजेऽहं भजेऽहं” (मैं उनका भजन करता हूँ, मैं उनका भजन करता हूँ) आता है। हर श्लोक भगवान विष्णु के अलग-अलग दिव्य रूप, गुण और कार्यों (जगत-पालन, दुष्ट-संहार, भक्त-रक्षा आदि) की स्तुति करता है।


श्री हरि स्तोत्रम्

जगज्जालपालं चलत्कण्ठमालं,

शरच्चन्द्रभालं महादैत्यकालम्।

नभोनीलकायं दुरावारमायं,

सुपद्मासहायं भजेऽहं भजेऽहं॥1॥

अर्थ

मैं उन भगवान विष्णु को बार-बार प्रणाम करता हूँ और उनका भजन करता हूँ, जो सम्पूर्ण जगत की रक्षा करते हैं, जिनके कंठ में (गले में) हिलती-डुलती पुष्पमालाएँ शोभा देती हैं, जिनका मस्तक शरद-ऋतु के निर्मल चन्द्रमा की तरह उज्ज्वल है, जो महान असुरों (दैत्य) के लिए मृत्यु के समान काल हैं, जिनका शरीर आकाश की तरह गहरा नीलवर्ण है, जिनकी माया को कोई पार नहीं पा सकता अर्थात् जिनकी लीला अगम्य और अचिन्त्य है, जो लक्ष्मी (कमलवासिनी महालक्ष्मी) के परम सहचर (सहधर्मी) हैं।

सदांभोधिवासं गलत्पुष्पहासं,

जगत्सन्निवासं शतादित्यभासम्।

गदाचक्रशस्त्रं लसत्पीतवस्त्रं,

हसच्चारुवक्त्रं भजेऽहं भजेऽहं॥2॥

मैं उन भगवान विष्णु को बार-बार प्रणाम करता हूँ और उनका भजन करता हूँ, जो सदा क्षीरसागर (दूध के समुद्र) में निवास करते हैं, जिनकी मुस्कान झरते हुए पुष्पों (फूलों) की तरह कोमल और मधुर है, जो सम्पूर्ण जगत में व्याप्त हैं और सभी प्राणियों के आधार हैं, जिनका तेज सैकड़ों सूर्य के समान दीप्तिमान है, जिनके हाथों में गदा और चक्र आदि दिव्य शस्त्र सुशोभित रहते हैं, जो शोभायमान पीले वस्त्र (पीताम्बर) धारण किए रहते हैं, जिनका मुखमंडल हँसमुख और अत्यन्त मनोहर है।

रमाकण्ठहारं श्रुतिव्रातसारं,

जलान्तर्विहारं धराभारहारं।

चिदानन्दरूपं मनोज्ञस्वरूपं,

ध्रुतानेकरूपं भजेऽहं भजेऽहं॥3॥

अर्थ

मैं उन भगवान विष्णु को बार-बार प्रणाम करता हूँ और उनका भजन करता हूँ, जो लक्ष्मीजी (रमा) के गले का हार हैं, अर्थात् जिनका लक्ष्मीजी से अटूट संबंध है, जो सभी वेदों का सार हैं और जिनकी महिमा को वेद भी गाते हैं, जो क्षीरसागर (समुद्र) के भीतर विहार करते हैं, जो पृथ्वी के भार (अत्याचार करने वाले दुष्टों का भार) को हर लेते हैं, जिनका स्वरूप शुद्ध चेतना और आनन्दमय है, जिनका रूप अत्यन्त मनोहर और आकर्षक है, जो विभिन्न अवतारों (रूपों) को धारण करते हैं।

जराजन्महीनं परानन्दपीनं,

समाधानलीनं सदैवानवीनं।

जगज्जन्महेतुं सुरानीककेतुं,

त्रिलोकैकसेतुं भजेऽहं भजेऽहं॥4॥

अर्थ

मैं उन भगवान विष्णु को बार-बार प्रणाम करता हूँ और उनका भजन करता हूँ, जो न तो वृद्ध होते हैं और न ही जन्म लेते हैं, जिन पर न वृद्धावस्था का प्रभाव है न जन्म का, जो परम आनन्द में सदा तृप्त और पूर्ण हैं,जो सदैव समाधि (अचल एकाग्रता) में लीन रहते हैं, जो सदा नवीन (नित्य ताजगी और नूतनता से भरे) हैं, जो सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति के कारण हैं, जो देवताओं की सेना के ध्वज और रक्षक हैं, जो तीनों लोकों (स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल) को जोड़ने वाले सेतु हैं।

कृताम्नायगानं खगाधीशयानं

विमुक्तेर्निदानं हरारातिमानं।

स्वभक्तानुकूलं जगद्व्रुक्षमूलं,

निरस्तार्तशूलं भजेऽहं भजेऽहं॥5॥

अर्थ

मैं उन भगवान विष्णु को बार-बार प्रणाम करता हूँ और उनका भजन करता हूँ, जिनकी महिमा वेदों और उपनिषदों (आम्नाय) द्वारा गायी जाती है, जो गरुड़ (खगों के राजा) पर विराजमान रहते हैं, जो मोक्ष (मुक्ति) के मूल कारण और दाता हैं, जो असुरों (भगवान शिव के शत्रु अर्थात् दुष्टों) का नाश करने में प्रसन्न रहते हैं, जो अपने भक्तों के प्रति सदैव अनुकूल और कृपालु रहते हैं, जो समस्त सृष्टि रूपी वृक्ष के मूल (आधार) हैं, जो अपने भक्तों के सभी दुखों और कष्टों (शूल) को दूर करते हैं।

समस्तामरेशं द्विरेफाभकेशं,

जगद्विम्बलेशं ह्रुदाकाशदेशं

सदा दिव्यदेहं विमुक्ताखिलेहं

सुवैकुण्ठगेहं भजेऽहं भजेऽहं॥6॥

अर्थ

मैं उन भगवान विष्णु को बार-बार प्रणाम करता हूँ और उनका भजन करता हूँ, जो सभी देवताओं (अमरगणों) के ईश्वर हैं।, जिनके केश काले भौंरे (भँवरे) जैसे घुँघराले और सुंदर हैं, जिनके भीतर सम्पूर्ण जगत का प्रतिबिंब मात्र अंश रूप में विद्यमान है, जो प्रत्येक प्राणी के हृदय रूपी आकाश में विराजमान हैं, जिनका शरीर सदैव दिव्य और अलौकिक है, जो समस्त पाप और दोषों से सर्वथा मुक्त हैं, जिनका परम धाम दिव्य वैकुण्ठ लोक है।

सुरालिबलिष्ठं त्रिलोकीवरिष्ठं,

गुरूणां गरिष्ठं स्वरूपैकनिष्ठं

सदा युद्धधीरं महावीरवीरं

महाम्भोधितीरं भजेऽहं भजेऽहं॥7॥

अर्थ

मैं उन भगवान विष्णु को बार-बार प्रणाम करता हूँ और उनका भजन करता हूँ, जो असुरों (राक्षसों) पर प्रबल और उन्हें पराजित करने वाले हैं, जो तीनों लोकों में श्रेष्ठतम हैं, जो सभी गुरुओं में भी सबसे बड़े गुरु (सर्वश्रेष्ठ शिक्षक) हैं, जो अपने परम दिव्य स्वरूप में सदा स्थित और अडिग हैं, जो युद्ध में सदा धैर्यवान और निर्भय रहते हैं, जो परम महावीर और पराक्रमी हैं, जो इस संसार रूपी महासागर से पार कराने वाले हैं।

रमावामभागं तलानग्रनागं

कृताधीनयागं गतारागरागं

मुनीन्द्रैः सुगीतं सुरैः संपरीतं

गुणौधैरतीतं भजेऽहं भजेऽहं॥8॥

अर्थ

मैं उन भगवान विष्णु को बार-बार प्रणाम करता हूँ और उनका भजन करता हूँ, जिनके वाम (बाएँ) भाग में सदा लक्ष्मीजी (रमा) विराजती हैं, जो अनन्त शेषनाग (शेषनागराज) पर शयन करते हैं, जो यज्ञों के फल को अपने अधीन कर देने वाले, अर्थात् सभी यज्ञों के अधिकारी हैं, जो राग-द्वेष, आसक्ति आदि से रहित हैं, जिनकी स्तुति मुनियों के श्रेष्ठजन बड़े प्रेम से गाते हैं, जो देवताओं से घिरे रहते हैं, जो सत्त्व, रज, तम – इन तीनों गुणों से परे हैं।