अध्याय १ - भारत और आधुनिक दुनिया
कल्पना करो कि इस सत्रहवीं सदी का कोई व्यक्ति किसी करिश्मे से पुनः जीवित होकर आज की दुनिया में पहुंचता है। उसे आज की दुनिया उसकी अपनी सत्रहवीं सदी की दुनिया से काफी बदली हुई नजर आएगी। उसे अपने समय की कुछ इमारतें आज भी खड़ी दिखाई दे सकती हैं। उनमें कुछ इमारतें खंडहर बन चुकी होंगी, तो कुछ साबुत भी होंगी। मगर शेष अधिकांश चीजें उसे एकदम बदली हुई दिखाई देंगी। वह कई सारे नए नगरों और शहरों को देखेगा। वह यह भी देखेगा कि उसके जमाने के शहरों से आज के शहरों का स्वरूप भिन्न है। भूदृश्य भी उसे बदला हुआ दिखाई देगा, क्योंकि उसके जमाने में न तो आज जैसे कारखाने थे और न ही पक्की सड़कें। उसके समय के मकान भी आज जैसे नहीं थे। सड़कों पर उसे तरह-तरह की ऐसी गाड़ियां दिखाई देंगी जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी। आसमान में उड़ते हवाई जहाज को और पटरियों पर दौड़ती रेलगाड़ी को देखकर वह चकित रह जाएगा। दुकानों में उसे ऐसी चीजें दिखाई देंगी जिनको उसने पहले कभी नहीं देखा था। उनका इस्तेमाल करना भी उसे सीखना होगा। गांवों में उसे खेती करने के कुछ नए तरीके देखने को मिलेंगे। कुछ ऐसी फसलें भी हो सकती हैं जिन्हें उसने पहले कभी नहीं देखा था। उसी प्रकार समाज, राजनीति और संस्कृति में भी उसे आश्चर्यजनक परिवर्तन नजर आएगा। कहा जा सकता है कि लगभग सब कुछ बदला हुआ दिखाई देगा। यहां तक कि लोगों को जो भाषा वह बोलते सुनेगा वह भी उसको अपनी भाषा से कुछ भिन्न होगी। इस तरह वह अपने को एक ऐसी काफी बदली हुई दुनिया में पाएगा जिसकी उसने सपने में भी कल्पना नहीं की होगी।
इस पुस्तक में उन प्रमुख घटनाओं की जानकारी दी गई है जो पिछले दो तीन सौं सालों से दुनिया में और खासकर हमारे अपने देश में घटित हुई हैं। इन घटनाओं ने दुनिया को, और साथ ही भारत को भी, इतना अधिक बदला की सत्रहवीं शताब्दी के हमारे काल्पनिक दोस्त को आज की अधिकतर चीजें अपरिचित नजर आती हैं। तुम प्राचीन और मध्य युग के लोगों के जीवन के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त कर चुके हो। तुम जानते हो कि यह दुनिया अपने आरंभ काल से लेकर आज तक कभी भी स्थिर नहीं रही। यह मानव के सामूहिक क्रिया-कलापों के कारण निरंतर बदलती रही है। समाज, अर्थव्यवस्था, राजनीतिक संस्थाएं, कला, संस्कृति आदि प्रायः सभी क्षेत्रों में परिवर्तन होते रहे हैं। पिछले कुछ सौं वर्षों में यह परिवर्तन बड़ी तेजी से हुए हैं।
वे कौन से परिवर्तन हैं, जिन्होंने हमारी आज की दुनिया को पुरानी दुनिया से काफी भिन्न बना दिया है ? ये परिवर्तन कब और कैसे शुरू हुए और इन्होंने दुनिया को किस तरह प्रभावित किया ? इन परिवर्तनों को समझने के लिए हमें पिछले दो-तीन सौ सालों का इतिहास जानना होगा।
इस साल का इतिहास हम कैसे जान सकते हैं ? तुम पहले पढ़ चुके हो कि पुराने जमाने के अवशेषों पुरातत्वविदों द्वारा खोज निकाले गए मकान और हथियारों-औजार या धातुपत्र अथवा पत्थर पर उकेरें गए अभिलेख या पुस्तकें और दस्तावेज प्राचीन तथा मध्य काल का इतिहास रचने में किस प्रकार सहायक सिद्ध हुए हैं। आधुनिक काल का इतिहास लिखने के लिए हमें पर्याप्त स्रोत-सामग्री मिलती है। इस स्रोत-सामग्री को बहुत कम क्षति पहुंची है। लोगों ने भी इनमें से कई स्रोतों को सावधानी से सुरक्षित रखा है। सरकारी कामकाज से संबंधित दस्तावेज, अभिलेख और किताबें अभिलेखागारों में सुरक्षित रखी गई हैं। इन्हें तुम देख सकते हो, पढ़ सकते हो। इस काल में लिखी और छापी गई अन्य पुस्तके अभी पुस्तकालयों में मौजूद हैं और कुछ घरों में भी मिल सकती हैं। इनमें से अनेक पुस्तकें और रिपोर्ट हर साल पुनः मुद्रित होती हैं और इस प्रकार उनके लिए यह आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं जो इन्हें पढ़ना चाहते हैं। इसके अलावा और भी कई चीजें हैं जिन्हें तुम देख सकते हो, समझ सकते हो। उदाहरण के लिए, पुरानी महत्वपूर्ण इमारतें और उन्नीसवीं सदी के लगभग मध्यकाल में उपयुक्त उपयोग में लाई जा रही वे मशीनें जो या तो औद्योगिक संग्रहालय में सुरक्षित रखी गई हैं या आज भी इस्तेमाल हो रही है। फिर आज भी ऐसे अनेक लोग जीवित हैं जिन्होंने आधुनिक काल में हमारे देश में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाने में मदद की है। ऐसे अनेक व्यक्ति आज भी जीवित हैं जिन्होंने भारत को आजाद करने के लिए साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष किया। हम उनसे आजादी के आंदोलन के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं इस प्रकार ऐसी अनेक चीजें हैं जिनसे हमें अपने देश के आधुनिक इतिहास के विभिन्न पहलुओं के बारे में पर्याप्त जानकारी मिल सकती है।
हम आधुनिक भारत के इतिहास की शुरुआत अठारहवीं शताब्दी से क्यों मानते हैं ? अन्य देशों के इतिहास की तरह भारत के इतिहास को भी आमतौर पर प्राचीन, मध्य तथा आधुनिक काल में विभाजित किया जाता है। यह विभाजन यह स्पष्ट करने के लिए किया जाता है कि प्रत्येक काल में समाज, अर्थव्यवस्था, राजनीति तथा संस्कृत की स्थिति पहले के कामों से काफी भिन्न रही है। किसी भी काल के लिए पहले से चली आ रही चीजों के बनिस्वत उसी काल में जन्म लेने वाली चीजों से ज्यादा महत्व की होती है।
प्राचीन भारत के इतिहास और मध्यकालीन भारत के इतिहास में अंतर दर्शाने वाले कुछ कारणों को तुम जानते हो। हमारे इतिहास के मध्य काल तथा आधुनिक काल में और भी अधिक बुनियादी अंतर है। इसका कारण यह है कि आधुनिक काल में परिवर्तन की रफ्तार पहले की अपेक्षा बहुत ज्यादा रही है। इस पुस्तक में आधुनिक भारत का इतिहास हम अठारहवीं शताब्दी से आरंभ करते हैं क्योंकि आधुनिक काल के परिचायक अनेक परिवर्तनों की शुरुआत इसी सदी में हुई। यह परिवर्तन पहले दुनिया के अन्य भागों में शुरू हुए और फिर हमारे देश में इनका आगमन ऐसी परिस्थितियों में हुआ जिन पर हमारा कोई बस नहीं था, क्योंकि हमारा देश विदेशियों के कब्जे में चला गया था। फिर भी इन परिवर्तनों ने हमारे देश के लोगों के जीवन को काफी गहराई तक प्रभावित किया। इसलिए जानना जरूरी है कि कौन-कौन से परिवर्तन हुए और वह किन रूपों में हुए।
तुम्हें याद होगा कि अठारहवीं सदी के शुरू में हमारा देश किस प्रकार टुकड़ों में बंट गया था। प्रशासन कमजोर था और जनजीवन तथा संपत्ति असुरक्षित थी। यूरोप के सौदागरों ने, जो उस भारत के विभिन्न भागों में व्यापार में जुटे हुए थे, देश की इस दयनीय स्थिति से फायदा उठाया। उनमें से जो सौदागर इंग्लैंड से आए थे वह हमारे देश के मालिक बन गए। आगे के दो सौं सालों तक भारत गुलाम बना रहा। फलस्वरूप आधुनिक बनने में वह पीछे रह गया। मगर भारत की गुलामी का यही काल भारतीय जनता की जागृत का भी काल था। इसी काल में अपनी आजादी की लड़ाई लड़ने के लिए भारतीय जनता एकजुट हुई। भारत १९४७ में स्वतंत्र हुआ और भारतीय जनता ने इस स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अपने देश के पुनः निर्माण का कार्य शुरू कर दिया। इस काल में भारत के पतन और पुनः उत्थान की कहानी शुरू करने के पहले हम दुनिया में घटित हुए मुख्य परिवर्तनों की संक्षिप्त चर्चा करेंगे। आधुनिक युग को जन्म देने वाले अनेक परिवर्तनों की शुरुआत सबसे पहले यूरोप में हुई।
नवजागरण, पूंजीवाद का उदय और औद्योगिक क्रांति
आदमी की जिज्ञासु और साहसी मनोवृत्ति उसे अज्ञात को खोजने तथा जानने के लिए हमेशा ही प्रेरित करती रही है। मानव के ज्ञान भंडार में वृद्धि करने और अज्ञात देशों को खोजने की नई प्रेरणाएं प्रमुखता एक ऐसे आंदोलन से मिली जिसका जन्म मध्य युग के अंतिम दौर में इटली के कुछ नगरों में हुआ था। "नवजागरण" नामक इस आंदोलन के बारे में तुम पढ़ चुके हो। नवजागरण ने यूरोप के अनेक व्यक्तियों को स्वतंत्र चिंतन के लिए और चिरस्थापित व सिद्धांतों तथा प्रथाओं के बारे में निसंकोच प्रश्न उठाने के लिए प्रेरित किया। फलतः वैज्ञानिक पद्धति का प्रसार हुआ। वैज्ञानिक पद्धति का अर्थ है, प्रश्न उपस्थित करके पर्यवेक्षण तथा प्रयोग के द्वारा ज्ञान प्राप्त करना। आधुनिक विज्ञान और टेक्नोलॉजी के अविष्कार पूर्णतः इसी पद्धति पर आधारित है। प्रश्नचिन्ह लगाने की इस प्रवृत्ति में कई यूरोपवासियों को निरंकुश शासकों और रोमन कैथोलिक चर्च के अंधविश्वास पर आधारित आपत्तिजनक प्रथाओं के खिलाफ विद्रोह करने के लिए उकसाया। व्यापार-संबंधों और अन्य संपर्कों के जरिए इस दृष्टिकोण का धीरे-धीरे दुनिया के अन्य भागों में भी फैलाव हुआ।
मध्य काल के उत्तरार्ध में, व्यापार में वृद्धि के कारण, यूरोप के अनेक नगरों की समृद्धि बढ़ी। ये नगर या तो व्यापारी मार्गों के चौराहों पर बसे हुए थे या समुद्र तथा नदी के उन तटवर्ती स्थानों पर जो व्यापार की दृष्टि से सुविधाजनक थे। जैसा कि स्वाभाविक था, नगरों में रहने वाला यह व्यापारी समुदाय वहां का सबसे प्रमुख वर्ग बन गया। देहाती क्षेत्र की अपेक्षा शहरों में ज्यादा खुला वातावरण था। इसलिए शहरों में तरह-तरह के नए विचारों का और कला तथा साहित्य से संबंधित कलापों का खूब विकास हुआ। जैसे-जैसे व्यापार में वृद्धि हुई, वैसे-वैसे व्यापारी वर्ग का महत्व बढ़ता गया। समाज और सरकार में व्यापारियों को उच्च पद प्राप्त हुए। इस प्रकार सरदारों और आम लोगों के बीच एक नए वर्ग-मध्यवर्ग-का उदय हुआ। व्यापारियों के साथ कुशल कारीगर भी जुड़ गए। बाद में निर्माता भी उनके समुदाय में सम्मिलित हुए। इस प्रकार मध्यवर्ग का दायरा और महत्व बढ़ता गया। नवजागरण का युग महान खोज यात्राओं का भी युग था। यूरोप के नाविकों और नौचालकों ने एशिया के देशों में पहुंचने के लिए समुद्री-मार्ग की खोज की। उन्होंने ऐसे अनेक देशों की खोज की जिनकी यूरोपवासियों को जानकारी नहीं थी। तुम पहले पढ़ चुके हो कि किस प्रकार वास्कोडिगामा ने भारत के समुद्री-मार्ग की और कोलंबस ने अमरिका महाखंड की खोज की। नए मार्गो और भूभागों की खोज के कारण यूरोप के सौदागरों के व्यापार में खूब वृद्धि हुई । यूरोप वासियों ने अपने व्यापारी बंदरगाह और उपनिवेश भी स्थापित किए। यूरोप के कुछ देशों के लोग अमेरिका पहुंचकर वहां अनेक क्षेत्रों में आबाद हुए।
इस सारे विकास के परिणाम स्वरूप यूरोप में सामंतवाद का पतन आरंभ हुआ। इसके स्थान पर एक नई समाज-व्यवस्था, जिसे पूंजीवाद कहते हैं, अस्तित्व में आने लगी। इस नई समाज-व्यवस्था की मुख्य विशेषता थी; पूंजीपतियों और श्रमिकों के दो नए वर्गों का उदय। पूंजीपति दलालों तथा मशीनों के और कारखानों में उन मशीनों द्वारा तैयार होने वाली वस्तुओं के मालिक थे। उनका मुख्य उद्देश्य था मुनाफा कमाना। वस्तुओं के विक्रय पर भी उन्हीं का नियंत्रण था। श्रमिक लोग वस्तुओं का उत्पादन करते थे और पूंजी पतियों से वेतन प्राप्त करते थे।
यह नई समाज व्यवस्था किस तरह अस्तित्व में आई ? देश में और विदेशों में व्यापार का विस्तार हुआ तो यूरोप का व्यापारी समुदाय उत्पादन के प्रणाली में सुधार करने के लिए विवश हुआ, ताकि कम समय में ज्यादा वस्तुएं तैयार की जा सकें। वस्तुओं की मांग ज्यादा बढ़ जाने के कारण उत्पादन के तरीकों में बड़ी तेजी से परिवर्तन हुए। उसके पहले कारीगर अपने सामान्य औजारों से अपने घरों में काम करते थे और उनके परिवारों के सदस्य उनकी मदद करते थे। वे आवश्यक कच्चा माल व्यापारियों प्राप्त करते थे और फिर तैयार की गई वस्तुएं उन्हें मुहैया कराते थे। यह 'घरेलू व्यवस्था' बाजार की लगातार बढ़ती मांग की पूर्ति करने में समर्थ नहीं थी। अठारहवीं सदी में इसका स्थान 'कारखाना व्यवस्था' ने ले लिया। कारखाने का मालिक पूंजी लगाकर बड़ी मात्रा में कच्चा माल खरीदा था, नई अविष्कार की गई मशीनों की मदद से उत्पादन करने वाले कारीगरों को काम पर लगाता था और तैयार की गई वस्तुओं को बाजार में बेचता था। श्रमिक अब अपने घरों में नहीं, बल्कि कारखानों में काम करते थे।
पहले की समाज व्यवस्था में राजा या सामंत सबसे शक्तिशाली व्यक्ति होते थे, मगर नई व्यवस्था में उनका स्थान कारखाने के मालिक या पूंजीपति ने ले लिया। सबसे पहले इंग्लैंड में इस नई समाज-व्यवस्था का उदय हुआ। मशीनों का उपयोग भी सबसे पहले इंग्लैंड में हुआ। सूत कताई की मशीन, नए किस्म के करघों और भाप की शक्ति से चलने वाले इंजन के आविष्कार के कारण इंग्लैंड में सूती कपड़ों के उत्पादन में खूब वृद्धि हुई।
विकास के इस नए दौर को कारखानों में मशीनों की मदद से वस्तुओं के उत्पादन को औद्योगिक क्रांति का नाम दिया गया है। इस क्रांति की शुरुआत इंग्लैंड में अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में हुई। बाद में इस क्रांति ने अन्य जगहों की उत्पादन प्रणाली को भी प्रभावित किया। आगे जाकर बिजली तथा धमन भट्टी जैसे अविष्कारों ने और लोहे की ढलाई तथा बेलनी के नए साधनों ने औद्योगिक क्रांति को पहले से भी अधिक प्रभावशाली बना दिया। नई पूंजीवादी समाज व्यवस्था और औद्योगिक क्रांति ने समूचे संसार के इतिहास को एक नई दिशा दी।
अमरीकी और फ्रांसीसी क्रांतियां
अठारहवीं सदी के अंतिम दशकों में दो और क्रांतियां हुई। उन क्रांतियों ने आधुनिक दुनिया के निर्माण में बड़े महत्व की भूमिका अदा की। ये क्रांतियां थी; अमरीकी स्वतंत्र्य युद्ध और फ्रांसीसी क्रांति।
पहली क्रांति का सरोकार अंग्रेजी सरकार द्वारा उत्तरी अमेरिका में बसाए गए तेरह उपनिवेश से था। उन उपनिवेशों के अधिकांश लोग इंग्लैंड से आए थे। परंतु उन्हें वे अधिकार नहीं दिए गए थे जो कि इंग्लैंड में बसे हुए अंग्रेजों को प्राप्त थे। उत्तरी अमरीका के उपनिवेशों में बसे हुए लोग अंग्रेजी सरकार के अधीन थे। अंग्रेजी सरकार उनसे कर वसूल करती थी। करों में वृद्धि होती गई और वाणिज्य-व्यवस्था तथा प्रशासन पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगाए गए तो उपनिवेशों ने विरोध शुरू कर दिया।
अठारहवीं सदी के सातवें और आठवें दशक में अनेक जगहों पर विद्रोह हुए। वे अपने को अमरीकी मानने लगे और मांग करने लगे कि उनका राष्ट्र इंग्लैंड से स्वतंत्र होना चाहिए।
अनेक उपनिवेशी लोगों को उस समय के क्रांतिकारी विचारों से प्रेरणा मिली थी। उस समय के कुछ अंग्रेज और फ्रांसीसी दार्शनिकों ने विचार व्यक्त किए थे कि मनुष्य को कुछ मौलिक अधिकार प्राप्त हैं जिन्हें कोई भी सरकार छीन नहीं सकती। अन्याय के खिलाफ विद्रोह करना ऐसा ही एक अधिकार था। इस अधिकार का उपयोग करने के लिए अमरीकी नेता थामस जेफरसन ने अपने उपनिवेशी साथियों को प्रोत्साहित किया। ४ जुलाई, १७७६ को तेरह उपनिवेशों के प्रतिनिधि आपस में मिले और उन्होंने "स्वतंत्रता की घोषणा" की। इस घोषणा में कहा गया कि सभी मनुष्य जन्मतः समान है और मनुष्य को जो कतिपय जन्मसिद्ध अधिकार प्राप्त हैं उन्हें कोई नहीं छीन सकता। इन अधिकारों में जीवन, स्वतंत्रता तथा सुख-प्राप्ति के अधिकार शामिल हैं। चूंकि अंग्रेजी सरकार इन अधिकारों को मानने के लिए तैयार नहीं थी इसलिए अमेरिकियों ने स्वतंत्रता की लड़ाई शुरू कर दी। अन्ततोगत्वा उपनिवेशों को स्वतंत्रता मिली। उन्होंने गणतंत्र प्रणाली की सरकार स्थापित की और वे अपने को संयुक्त राज्य अमरीका कहने लगे। गणतंत्र में सरकार को उसकी शक्ति जनता से मिलती है। जनता के जिन प्रतिनिधियों ने अमरीका में एक नई सरकार का गठन किया उन्होंने एक अधिकार-विधेयक (बिल आफ राइट्स) स्वीकार किया। इस विधेयक ने अमरीकी नागरिकों को कुछ अधिकार प्रदान किए।
उसके तुरंत बाद आज से दो सौ साल पहले फ्रांस में क्रांति हुई। उस समय फ्रांस की आम जनता की दशा बड़ी दयनीय थी। जबकि सामंती सरदार और चर्च के उच्च पदाधिकारी सभी प्रकार के विशेषाधिकार भोग रहे थे। यहां तक कि जो लोग धनी थे मगर सामंत परिवार के नहीं थे, जैसे कि व्यापारी उन्हें भी अधिकार प्राप्त नहीं थे। चर्च और सामंती सरदार जिनके पास बड़ी-बड़ी जागीरें थी, कोई कर नहीं देते थे। केवल आम जनता ही कर देती थी। ऊपर से फ्रांस का राजा सोलहवां लुई अधिक कर लगाना चाहता था और नए ऋण के नाम पर जनता से धन उगाहना चाहता था। मगर तब तक फ्रांसीसी दार्शनिकों के क्रांतिकारी विचार आम जनता को स्वशासन के अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए प्रेरित कर चुके थे। अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए जनता उठ खड़ी हुई और इस प्रकार क्रांति की शुरुआत हुई। जनता के प्रतिनिधियों ने अपने को "फ्रांस की राष्ट्रीय असेंबली" के रूप में गठित कर लिया। १४ जुलाई १७८९ को जनता ने पेरिस में बैस्टील के कैदखाने को तोड़ दिया। हर साल वह दिन फ्रांस के राष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाया जाता है।
राष्ट्रीय असेंबली ने 'मनुष्य और नागरिक के अधिकारों का घोषणापत्र' पारित किया। इस घोषणापत्र में कहा गया कि "सभी मनुष्यों को जन्म से ही स्वतंत्रता और समानता के अधिकार जीवनभर के लिए मिले हुए हैं।" क्रांति के बाद फ्रांसीसी गणराज्य की स्थापना हुई। स्वतंत्रता, बंधुत्व और समानता उसके मार्गदर्शक सिद्धांत बन गए।
साम्राज्यवाद
जब यूरोप और अमरीका महाखंड के देशों में जनतांत्रिक और राष्ट्रीय सरकार स्थापित हो रही थी और उद्योगों के विकास के लिए मशीनों का प्रयोग हो रहा था तब भारत और एशिया तथा अफ्रीका के अन्य देशों में क्या हो रहा था ?
तुम यूरोप के उन नाविकों और व्यापारियों के बारे में पढ़ चुके हो जो पंद्रहवीं सदी से लगातार एशिया के बंदरगाहों में पहुंचने लगे थे। वे मसाले, सूती कपड़ा, मलमल, चाय, चीनी, शीशा आदि चीजें खरीदने आते थे। यूरोप में इन चीजों की बड़ी मांग थी। यूरोप से आने वाले यह नाविक और व्यापारी मुख्यतः पुर्तगाल, हालैंड, डेनमार्क, इंग्लैंड तथा फ्रांस के निवासी थे। ये सब समुद्र-तटवर्ती देश थे। यूरोप के व्यापारी अपना माल श्रीलंका, भारत, मलेशिया, इंडोनेशिया आदि देशों से खरीदते थे। इस व्यापार से उन्हें भारी मुनाफा होता था, इसलिए वे आपस में अक्सर लड़ते रहते थे। इस लड़ाई में उन्हे अपनी-अपनी सरकारों से मदद मिलती थी। अठारहवीं सदी में के मध्यकाल तक इंग्लैंड की ईस्ट इंडिया कंपनी एशिया के साथ व्यापार करने वाले यूरोप के व्यापारी समुदाय में प्रमुख स्थान प्राप्त कर चुकी थी। इस कंपनी का मुख्य केंद्र भारत था यूरोप के अन्य देशों के व्यापारियों ने अपने केंद्र एशिया के अन्य देशों में स्थापित किए।
उस समय एशिया और अफ्रीका के देशों की स्थिति यूरोप से काफी भिन्न थी। इनकी सरकारें कमजोर थी। इनमें से किसी के पास अच्छी नौसेना भी नहीं थी। जिन आर्थिक परिवर्तनों ने यूरोप के देशों को शक्तिशाली बना दिया था उनकी एशिया और अफ्रीका के देशों में अभी शुरुआत भी नहीं हुई थी। व्यापार के लिए एशिया के देशों में पहुंचे हुए यूरोपवासियों ने छल-कपट और लड़ाईयों से इन पर कब्जा कर लिया।
एशिया और अफ्रीका के देश कमजोर तो थे ही, मगर एक और महत्वपूर्ण कारण था जिसने यूरोपवासियों को इन देशों पर अपना कब्जा बनाने और इनमें अपने उपनिवेश स्थापित करने के लिए प्रेरित किया। हम देख चुके हैं कि औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप वस्तुओं के उत्पादन में बहुत अधिक वृद्धि हुई थी। कारखानों में उत्पादन लगातार होता रहे और उनके मालिकों को अधिक मुनाफा मिलता रहे इसके लिए कच्चे माल के नए स्त्रोत और तैयार किए माल के लिए उपयुक्त बाजार खोजना आवश्यक था। यूरोप के व्यापारी एशिया के बाजारों से अच्छी तरह परिचित थे। इन बाजारों पर कब्जा करने के लिए इन पर राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित किया गया।
इस प्रकार एशिया पर साम्राज्यवाद का औपनिवेशिक कब्जा शुरू हुआ। उन्नीसवीं सदी के मध्यकाल से अफ्रीका भी इसकी चपेट में आ गया। यूरोप के जिन देशों ने अपने उद्योग का विकास कर लिया था और जो सैनिक दृष्टि से अधिक बलशाली थे उन्होंने एशिया और अफ्रीका की जनता पर विजय प्राप्त की।
उन्नीसवीं सदी के अंत तक एशिया और अफ्रीका के अधिकांश प्रदेश यूरोपिय साम्राज्यवाद के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नियंत्रण में चले गए। यूरोपवासियों के ये उपनिवेश उनके लिए आर्थिक लाभ के स्त्रोत तो थे ही, इसके अलावा वे उनके राष्ट्रीय स्वाभिमान के भी प्रतीक बन गए। दूसरे महायुद्ध (१९३९-१९४५) ने साम्राज्यवादी शक्तियों को कमजोर बना दिया। उपनिवेशों पर उनका कब्जा ढीला पड़ गया। साम्राज्यवाद के विरुद्ध विश्व-जनमत भी तैयार हो गया। मगर उपनिवेशों में साम्राज्यवादी शक्तियों के विरुद्ध संघर्ष काफी पहले शुरू हो गए थे। स्वतंत्रता सेनानियों को कड़ा मुकाबला करना पड़ा था और अनेक कुर्बानियां देनी पड़ी थी। सन् १९४५ ई० में दूसरा महायुद्ध समाप्त होने पर एशिया और अफ्रीका के लगभग सभी देश स्वतंत्र हो गए।
नए आंदोलन
बीसवीं सदी में कुछ नई क्रांतियां हुई। उन्होंने कुछ देशों में एक नई समाज व्यवस्था स्थापित करने में सहयोग दिया। फ्रांसीसी क्रांति ने एक ऐसे जनतंत्र का प्रचार किया था जो हर व्यक्ति को समान अधिकार देने का समर्थक है। मगर पूंजीवाद के विकास में जनता को दो प्रमुख वर्गों में बांट दिया- पूंजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग। मजदूरों को नए उद्योगों के अधिकांश फायदे नहीं मिले और वे गरीब और प्रायः बेरोजगार बने रहे। ऐसी स्थिति में आर्थिक तथा सामाजिक समानता से रहित राजनीतिक समानता को अधूरा समझा जाने लगा।
उन्नीसवीं सदी के दौरान मजदूरों ने अपने आम हितों की रक्षा और प्राप्ति के लिए अपने संगठन बनाने शुरू कर दिए। यह संगठन मजदूर संघ (ट्रेड यूनियन) कहलाए। नए और बेहतर जिंदगी के लिए उन्होंने राजनीतिक आंदोलन भी शुरू किए। कुछ विचारकों और दार्शनिकों ने यह मांग उठाई कि जमीन, कारखाने और उत्पादन के अन्य साधन पर व्यक्तियों के कब्जे नहीं रहने चाहिए। इन पर समूची जनता का स्वामित्व होना चाहिए। इनमें दो ऐसे विचारक हुए जिनके सिद्धांतों का सारी दुनिया पर असर पड़ा। यह दो विचारक थे; कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स। दोनों घनिष्ठ मित्र थे और दोनों ने करीब चालीस साल तक साथ-साथ काम करके अपने विचारों को विकसित किया। उन्होंने कहा कि पूंजीवाद के स्थान पर एक नई समाज-व्यवस्था समाजवाद की स्थापना होनी चाहिए।
समाजवादी व्यवस्था में उत्पादन के सारे साधन जमीन कारखाने आदि पूरे समाज के सामूहिक संपत्ति होंगे; इन पर चंद लोगों का अधिकार नहीं रहेगा। इन विचारकों के सिद्धांतों के आधार पर समाजवाद की स्थापना के लिए दुनिया के लगभग सभी देशों में राजनीतिक आंदोलन शुरू हुए। उनके विचारों से प्रेरित पहली सफल क्रांति १९१७ ई० में रूस में हुई, जिसने वहां की निरंकुश जा़रशाही को उखाड़ फेंका। क्रांति के बाद वहां समाजवादी व्यवस्था का निर्माण शुरू हुआ। पहले घटित अमरीकी और फ्रांसीसी क्रांतियों की तरह ही रूसी क्रांति का भी सारी दुनिया पर बड़ा असर पड़ा। हमारा राष्ट्रीय आंदोलन भी रूसी क्रांति के असर से अछूता नहीं रहा। मार्क्स तथा एंगेल्स के विचारों ने और रूसी क्रांति ने दुनिया के सभी देशों को प्रभावित किया।
इस प्रकार हम देखते हैं कि पिछले दो-तीन सौ सालों में दुनिया अनेक आंदोलनों और प्रांतों से गुजरी है। दुनिया में बहुत अधिक परिवर्तन हुआ है। इस काल में दुनिया के सभी देश एक-दूसरे के निकट संपर्क में आए हैं। दुनिया के एक हिस्से में यदि कोई घटना होती है तो उसकी सूचना दुनिया के दूसरे हिस्से में फौरन पहुंच जाती है। एक देश में घटित होने वाली घटनाएं अक्सर अन्य देशों को प्रभावित करती है। बीसवीं सदी में दो महायुद्ध हुए, जिन्होंने दुनिया के प्रायः सभी देशों को प्रभावित किया। इन महायुद्धों में लाखों लोग मारे गए। परंतु युद्धों का अंत करने और एक ऐसी शांतिमय दुनिया के निर्माण के भी प्रयास हुए हैं जिसमें सभी मनुष्य समान अधिकार प्राप्त करेंगे और अभाव व दरिद्रता से मुक्ति पाएंगे। आज समूची दुनिया के सामने और दुनिया के प्रत्येक देश के सामने अनेक समस्याएं हैं। जिस दुनिया में हम रहते हैं उससे और साथ ही अपने देश को भी समझना हमारे लिए जरूरी है। वर्तमान को समझने के लिए अतीत की जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है।
आगे के अध्याय तुम्हें उन महत्वपूर्ण घटनाओं को समझने में मदद कर देंगे जो हमारे देश में १९४७ तक घटित हुई जब हम एक स्वाधीन राष्ट्र बने।