अध्याय 8 - धार्मिक तथा सामाजिक सुधार आंदोलन और सांस्कृतिक जागृति
तुम भारतीय समाज की कुछ विशेषताओं के बारे में पहले पढ़ चुके हो। जैसे, जातिप्रथा ने ऊंच-नीच और असमानताओं को जन्म दिया था, स्त्रियों का उत्पीड़न होता था, और कुछ अमानवीय प्रथाएं तथा रीति रिवाज प्रचलित थे। उन्नीसवीं सदी के आरंभिक दशकों से देश के हर भाग में यह आधिकारिक महसूस किया जाने लगा कि भारतीय समाज पिछड़ा हुआ है और इसे सुधारना आवश्यक है। कुछ सामाजिक कुरीतियों और अंधविश्वासों ने धार्मिक विश्वासों का रूप धारण कर लिया था। अतः देश के हर भाग में और हर धार्मिक समुदाय में सामाजिक सुधार के जो आंदोलन शुरू हुए वे धार्मिक सुधार के भी आंदोलन थे। ये सुधारक बुद्धिवाद, मानवतावाद और मानव एकता के विचारों से बड़े प्रभावित हुए थे।
तुमने पहले पढ़ा है कि भारत में अंग्रेजी शिक्षा की शुरुआत किस प्रकार हुई थी। यद्यपि बहुत कम लोगों को इस शिक्षा का लाभ मिला, मगर पश्चात्य जगत के कुछ उच्च विचारों का और आधुनिक विज्ञान का ज्ञान भारत में लाने में इस शिक्षा ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। शिक्षित भारतीय भी दुनिया के अन्य भागों के राष्ट्रीयता तथा जनतंत्र के आंदोलनों से और बाद में समाजवाद के आंदोलनों से परिचित हुए। भारतीय जनता की सर्वतोमुखी जागृति के लिए शुरू हुए इन आंदोलनों ने आधुनिक भारत के निर्माण की आधारशिला रखी। धार्मिक और सामाजिक जीवन के कुछ पहलुओं में सुधार के साथ शुरू हुई यह जागृति कालांतर में देश के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक जीवन में भी फैली।
अठारहवीं सदी के अंतिम चरण से कतिपय यूरोपीय तथा भारतीय विद्वानों ने भारत की प्राचीन विद्या का अन्वेषण शुरू कर दिया। प्राचीन भारत के दर्शन, विज्ञान, धर्म तथा साहित्य की अधिकाधिक जानकारी मिलने लगी, तो भारतीयों में अपनी सभ्यता के प्रति अभिमान की भावना जागने लगी। इस भावना से धार्मिक तथा सामाजिक आंदोलनों को बढ़ावा मिला। सुधारकों ने अंधविश्वासों तथा अमानवीय प्रथाओं के खिलाफ शुरू किए अपने संघर्ष में प्राचीन ग्रंथों के प्रमाण प्रस्तुत किए। ऐसा करते समय उनमें से अधिकांश में धार्मिक विश्वासों के बजाय तर्क बुद्धि को महत्व दिया। इस प्रकार भारत के धार्मिक तथा सामाजिक सुधारकों ने पाश्चात्य विचारों की अपनी जानकारी के साथ-साथ प्राचीन ज्ञान का भी उपयोग किया।
राजा राममोहन राय और ब्रह्म समाज
सुधार आंदोलन में अग्रगामी और अनेक दृष्टियों से सर्वाधिक महत्व की भूमिका राजा राममोहन राय ने अदा की। उनका जन्म १७७२ ई० के आसपास बंगाल के एक संपन्न परिवार में हुआ था। उन्होंने संस्कृत की परंपरागत शिक्षा वाराणसी में और अरबी तथा फारसी की शिक्षा पटना से प्राप्त की। बाद में उन्होंने अंग्रेजी, ग्रीक तथा हिंदू भाषाएं भी सीखीं। राममोहन राय ने न केवल हिंदू धर्म का गहन अध्ययन किया, बल्कि इस्लाम, ईसाई धर्म और जैन धर्म का भी अध्ययन किया। उन्होंने बंगाल, हिंदी, संस्कृत, फारसी तथा अंग्रेजी में कई ग्रंथों की रचना की। उन्होंने दो समाचार पत्र भी शुरू किए - एक बंगला में और दूसरा फारसी में। उन्हें 'राजा' की पदवी दी गई और मुगल बादशाह ने उन्हें अपना दूत बनाकर इंग्लैंड भेजा। वे १८३१ ई० में इंग्लैंड पहुंचे और वहीं १८३३ ई० में उनका देहांत हुआ।
राममोहन राय का दृढ़ मत था कि हिंदू धर्म में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए यह आवश्यक है कि जनता को उनके मूल धर्म ग्रंथों की सही जानकारी दी जाए। इसके लिए उन्होंने अथक प्रयास करके वेदों तथा उपनिषदों के बंगला अनुवाद प्रकाशित किए। उन्होंने एक सर्वशक्तिमान ईश्वर पर आधारित विश्वधर्म में अपनी आस्था व्यक्त की। उन्होंने मूर्तिपूजा तथा धार्मिक अनुष्ठानों की निंदा की। धार्मिक सुधार के क्षेत्र में उनका महान कार्य था - १८२८ ई० में ब्रह्म सभा की और १८३० ई० में ब्रह्म समाज की स्थापना। ब्रह्म समाज धार्मिक सुधार का पहला महत्वपूर्ण संगठन था। इसमें मूर्ति पूजा और निरर्थक प्रथाओं तथा रीति-रिवाजों का बहिष्कार किया। समाज में अपने समुदायों के लिए नियम बनाया कि वे किसी भी धर्म पर प्रहार न करें।
राममोहन राय की गतिविधियां धार्मिक सुधार तक ही सीमित नहीं थी। तुम पहले पढ़ चुके हो कि उन्होंने भारत में अंग्रेजी शिक्षा शुरू करने का समर्थन किया था वे समझते थे कि भारत में ज्ञान-विज्ञान को बढ़ावा देने के लिए अंग्रेजी शिक्षा आवश्यक है। हम पहले बता चुके हैं कि उन्होंने दो समाचार पत्र शुरू किए थे। वे प्रेस की आजादी के समर्थक थे और प्रेस पर लगे प्रतिबंधों को हटाने के लिए उन्होंने आंदोलन किया था।
सामाजिक सुधार के क्षेत्र में राममोहन राय की सबसे बड़ी उपलब्धि थी - १८२९ ई० में सती प्रथा का अंत। इसके बारे में तुम पहले पढ़ चुके हो। उन्होंने देखा था कि उनके बड़े भाई की पत्नी को सती होने के लिए मजबूर किया गया था। सती प्रथा के खिलाफ उनके आंदोलन का कट्टरपंथियों ने कड़ा विरोध किया। राममोहन राय ने महसूस किया कि सती प्रथा हिंदू स्त्रियों की अत्यंत दयनीय दशा का ही एक अंग है। उन्होंने बहुपत्नी प्रथा का विरोध किया। वे चाहते थे कि स्त्रियों के लिए शिक्षा की व्यवस्था हो और उन्हें संपत्ति का उत्तराधिकार मिले।
राममोहन राय और उनके सहयोगियों को कट्टरपंथी हिंदुओं की शत्रुता तथा उनके उपहास का सामना करना पड़ा। मगर ब्रह्म समाज का प्रभाव बढ़ता गया और देश के विभिन्न भागों में समाज की शाखाएं स्थापित हुई। ब्रह्म समाज के दो प्रमुख नेता थे - देवेंद्रनाथ ठाकुर और केशवचंद्र सेन। ब्रह्म समाज के प्रचार के लिए केशवचंद्र सेन ने मद्रास तथा बंबई प्रांतों की यात्रा की और बाद में उत्तर भारत का भी दौरा किया। १८६६ ई० में ब्रह्म समाज में विभाजन हुआ। केशव चंद्र सेन ने भारतीय ब्रह्म समाज की स्थापना की। धार्मिक तथा सामाजिक मामलों में केशव चंद्र सेन और उनके सहयोगियों के विचार अन्य ब्रह्म-समाजियों के विचारों से अधिक पुरोगामी थे। उन्होंने जाति-प्रथा, धार्मिक रीति-रिवाज और धर्म ग्रंथों के प्रमाणों को मानने से इंकार कर दिया। उन्होंने अंतर्जातीय विवाह तथा पुनर्विवाह का समर्थन किया और ऐसे विवाह आयोजित भी किए। पर्दा-प्रथा तथा जाति-भेद का भी विरोध किया। केशव चंद्र सेन द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज फलता-फूलता गया, परंतु दूसरे समुदाय के ब्रह्म समाजियों का प्रभाव, सामाजिक सुधार में कोई दिलचस्पी न लेने के कारण घटता गया।
यद्यपि ब्रह्म समाजियों की संख्या कभी भी बहुत ज्यादा नहीं रही, मगर वे बुद्धिवाद तथा सुधार की नई भावना के प्रतिनिधि थे। उन्होंने जातिप्रथा की कठोर व्यवस्था पर प्रहार किया, तथाकथित निम्न जातियों के तथा अन्य धर्मों के लोगों के साथ खानपान शुरू कर दिया, खान-पान से संबंधित वस्तुओं पर लगाए गए प्रतिबंधों का विरोध किया, समाज में स्त्रियों की स्थिति सुधारने के लिए प्रयास किए, शिक्षा के प्रसार के लिए काम किया और धर्म के नाम पर समुद्र-यात्रा पर लगी पाबंदी का विरोध किया।
राममोहन राय द्वारा शुरू किए गए और दूसरों द्वारा आगे बढ़ाए गए इस आंदोलन ने देश के अन्य भागों में इसी तरह से सुधार आंदोलनों को प्रभावित किया।
डेरोज़ियों और तरुण बंगाल
बंगाल में आधुनिकीकरण के आंदोलन को आगे बढ़ाने में कलकत्ता के हिंदू कॉलेज में बड़े महत्व की भूमिका अदा की। इस कालेज की स्थापना १८१७ ई० में हुई थी। राममोहन राय के सहयोगी डेविड हरे ने इस कालेज की स्थापना में बड़ा योग दिया था। डेविड हरे स्कॉटलैंड के निवासी थे और घड़ियां बेचने कलकत्ता आए थे, मगर बाद में बंगाल में आधुनिक शिक्षा का प्रसार करना उनके जीवन का उद्देश्य बन गया। १८२६ ई० में १७ साल के तरुण हेनरी लुई विवियन डेरोज़ियों हिंदू कॉलेज में अध्यापक बने। उनके पिता पुर्तगाल के थे और मां अंग्रेज थी। थोड़े ही समय मैं कॉलेज के अनेक प्रतिभाशाली विद्यार्थी डेरोज़ियों के इर्द-गिर्द एकत्र हुए जिन्हें उन्होंने स्वतंत्रता से सोचने और परंपरागत मान्यताओं पर प्रश्नचिन्ह लगाने के लिए प्रोत्साहित किया। डेरोज़ियों ने अपने विद्यार्थियों के सामने पुरोगामी विचार रखे और साहित्य, इतिहास, दर्शन तथा विज्ञान के बारे में विचार-विमर्श करने के लिए एक संगठन बनाया। डेरोज़ियों की इन गतिविधियों ने कलकत्ता के तरुण विद्यार्थियों को बड़ा आकर्षित किया और उन्होंने एक प्रकार की बौद्धिक क्रांति को जन्म दिया। डेरोज़ियों के विद्यार्थियों ने जिन्हें सामूहिक रूप से 'यंग बंगाल' या 'तरुण बंगाल' कहा जाने लगा, सभी प्रकार की परंपराओं का मजाक उड़ाया, ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाया, सामाजिक व धार्मिक रूढियों को तोड़ा, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और स्त्रियों के लिए शिक्षा की मांग की। उन्होंने फ्रांस की क्रांति और इंग्लैंड के उदार चिंतन के आदर्श प्रस्तुत किए। इस समूह के पुरोगामी विचारों ने और मूर्तिपूजा के बहिष्कार - जैसे - परंपरा-विरोधी आचरणों ने कलकत्ता के कट्टरपंथी हिंदुओं में हलचल मचा दी। उन्होंने आरोप लगाया कि डेरोज़ियों के विचारों से ही तरुण लड़के बिगड़ रहे हैं। डेरोज़ियों को कॉलेज से निकाल देने के लिए उन्होंने अधिकारियों पर दबाव डाला।
डेरोज़ियों को कॉलेज से बर्खास्त कर दिया गया। १८३१ ई० में उनकी एकाएक मृत्यु हो गई। मगर उनकी मृत्यु के बाद भी 'यंग बंगाल' आंदोलन जारी रहा। इस संगठन के सदस्य, नेतृत्वहीन, होने पर भी शिक्षा और लेखन के जरिए पुरोगामी विचारों का प्रचार करते रहे।
ईश्वरचंद्र विद्यासागर
एक अन्य महान सुधारक थे - ईश्वरचंद्र विद्यासागर। एक गरीब ब्राह्मण परिवार में १८२० ई० में उनका जन्म हुआ था और उन्होंने संस्कृत का गहन अध्ययन किया था। वे कलकत्ता के संस्कृत कालेज के प्रिंसिपल बने। उनके अगाध पंडित्य के लिए संस्कृत कालेज ने उन्हें "विद्यासागर" की उपाधि प्रदान की। उनके जीवन की सादगी, उनकी निस्वार्थ सेवा, उनकी निर्भयता और दलितों के उत्थान तथा शिक्षा के प्रसार के लिए किए गए उनके अथक प्रयासों ने उन्हें एक आख्यान-पुरुष बना दिया। उन्होंने संस्कृत कालेज में आधुनिक पाश्चात्य विचारों पर आधारित शिक्षा शुरू की और संस्कृत के अध्ययन के लिए तथाकथित निम्न जातियों के विद्यार्थियों के लिए भी कालेज के द्वार खोल दिए। उसके पहले संस्कृत कालेज में परंपरागत विषय ही पढ़ाए जाते थे।
संस्कृत के अध्ययन पर ब्राह्मण-वर्ग का एकाधिकार था और तथाकथित निम्न जातियों के लिए संस्कृत के अध्ययन की मनाही थी। उन्होंने बंगाल भाषा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्हें आधुनिक बंगाल का प्रणेता माना जाता है। वे कई पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े हुए थे। उन्होंने सामाजिक सुधारों के बारे में अनेक करारे लेख लिखें।
विद्यासागर में स्त्री जाति के उत्थान के लिए महान कार्य किया। विधवा पुनर्विवाह का कानून बनाने के लिए उन्होंने जो कार्य किया उसकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं। कलकत्ता में १८५६ ई० में पहली बार जिस विधवा पुनर्विवाह का आयोजन हुआ उसमें विद्यासागर ने व्यक्तिगत भूमिका अदा की। अपने अगाध पंडित्य के बल पर उन्होंने विधवा पुनर्विवाह को समर्थन प्रदान किया और कन्याओं की शिक्षा के लिए उन्होंने जो प्रयास किए उनके कारण कट्टरपंथी हिंदू उनके दुश्मन बन गए। जब १८५५ ई० में विद्यासागर स्कूलों के विशेष निरीक्षक नियुक्त हुए, तब उन्होंने अपने इलाकों में कई विद्यालय, कन्या विद्यालय भी खोलें। अधिकारियों ने इसे पसंद नहीं किया, इसलिए उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। ड्रिंकवाटर बेथ्यून से उनके मित्रता के संबंध थे। बेथ्यून ने ही कलकत्ता में १८४९ ई० में कन्याओं की शिक्षा के लिए पहला स्कूल खोला था। स्वयं विद्यासागर ने भी कन्याओं के लिए कई स्कूल खोलें। आज यह कल्पना करना कठिन है कि कन्या शिक्षा के समर्थकों को उन दिनों के कट्टरपंथियों के कड़े विरोध का कितना अधिक सामना करना पड़ा था। उदाहरण के लिए, कुछ कट्टरपंथी तो यहां तक कहते थे कि जो व्यक्ति शिक्षित कन्या से विवाह करता है वह ज्यादा दिनों तक जीवित नहीं रहता। विद्यासागर धार्मिक मसलों से ज्यादा नहीं उलझे। मगर उन्होंने धर्म के बारे में अर्जित अपने अगाध ज्ञान से उन लोगों का मुकाबला किया जो धर्म के नाम पर सुधारों का विरोध कर रहे थे।
पश्चिम भारत के सुधार आंदोलन
बंगाल में शुरू हुए धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलन देश के अन्य भागों में भी फैले। १८६७ ई० में बंबई में 'प्रार्थना समाज' की स्थापना हुई । इसके दो प्रमुख नेता थे - महादेव गोविंद रानडे और रामकृष्ण गोपाल भंडारकर। प्रार्थना समाज के नेता ब्रह्म समाज से प्रभावित हुए थे। उन्होंने जाति प्रथा और अल्पृश्यता की निंदा की। उन्होंने स्त्रियों के उद्धार के लिए काम किया और विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया। रानडे ने, जिन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में भी योगदान दिया था, सारे देश में सामाजिक सुधार के कार्य को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से १८८७ ई० में "भारतीय राष्ट्रीय सामाजिक सम्मेलन" की स्थापना की। हर साल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन के अवसर पर सामाजिक समस्याओं पर विचार करने के लिए इस सम्मेलन का भी आयोजन होता था। रानडे की मान्यता थी कि सामाजिक सुधारों के बिना आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में उन्नति कर पाना संभव नहीं है। वे हिंदू-मुसलमान एकता के जबरदस्त समर्थक थे। उन्होंने कहा था कि, "जब तक हिंदू और मुसलमान एक-दूसरे से हाथ नहीं मिलाते, तब तक इस विशाल देश में कोई प्रगति नहीं हो सकती।"
पश्चिम भारत के दो और महान सुधारक थे - गोपाल हरि देशमुख ,जो 'लोकहितवादी' के नाम से प्रसिद्ध हुए, और ज्योतिराव गोविंदराव फुले, जो ज्योतिबा के नाम से प्रसिद्ध हुए। लोकहितवादी सामाजिक सुधार के कई संगठनों से संबंधित रहे। उन्होंने जाति प्रथा का विरोध किया और स्त्रियों के उत्थान के लिए काम किया। महात्मा फुले ने दलितों और स्त्रियों के उद्धार के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया। १८४८ ई० में उन्होंने तथाकथित निम्न जातियों की कन्याओं के लिए स्कूल खोला। उन्होंने अपनी पत्नी को पढ़ाया ताकि वह उस कन्या को स्कूल में पढ़ा सके। बाद में उन्होंने कन्याओं के लिए और भी स्कूल खोलें। १८७३ ई० में उन्होंने "सत्यशोधक समाज" की स्थापना की और सभी जातियों तथा धर्मों के लोगों के लिए इसके द्वार खोल दिए। सत्यशोधक समाज का लक्ष्य था दलित जातियों के लोगों के लिए समान अधिकार प्राप्त करना। महात्मा फुले ब्राह्मणों की प्रभुता के विरोधी थे। उन्होंने ब्राम्हण-पुरोहितों के बिना विवाह समारोह संपन्न कराने की प्रथा चलाई। ज्योतिबा ने दलितों के उद्धार का जो महान कार्य किया उसके लिए उन्हें 'महात्मा' की पदवी दी गई।
दक्षिण भारत में सुधार आंदोलन
ब्रह्म समाज से प्रेरणा पाकर १८६४ ई० में मद्रास में 'वेद समाज' की स्थापना हुई। वेद समाज ने जाति भेद का विरोध और विधवा पुनर्विवाह तथा कन्याओं की शिक्षा व्यवस्था का समर्थन किया। ब्रह्म समाज की तरह वेद समाज ने भी कट्टरपंथी हिंदुओं के अनुष्ठानों और अंधविश्वासों की निंदा की और एक सर्वशक्तिमान ईश्वर में आस्था व्यक्त की। चेंबेटी श्रीधारलु नायडू वेद समाज के प्रमुख नेता थे। उन्होंने ब्रह्म समाज की पुस्तकों का तमिल और तेलुगू में अनुवाद किया। बाद में दक्षिण भारतीय ब्रह्म समाज की शाखाएं तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र में स्थापित हुई। कुछ समय बाद ही प्रार्थना समाज की भी शाखाएं खुली और दोनों समाजों ने मिलकर धार्मिक और सामाजिक सुधार का कार्य किया।
दक्षिण भारत में सुधार आंदोलनों एक और प्रमुख नेता थे - कंडुकुरी वीरेसलिंगम। उनका जन्म आंध्र के एक कट्टरपंथी ब्राम्हण परिवार में १८४८ ई० में हुआ था। वे ब्रह्म समाज के, विशेषकर केशवचंद्र सेन के विचारों से प्रभावित हुए थे। उन्होंने सामाजिक सुधार के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। १८७६ ई० में उन्होंने एक तेलुगु पत्रिका शुरू की जो लगभग पूर्णतः सामाजिक सुधार-कार्य के लिए समर्पित थी। उन्होंने जनता-जागृति तथा सामाजिक सुधार के अनेक क्षेत्रों में काम किया, परंतु उनका सबसे महत्वपूर्ण कार्य स्त्रियों की विमुक्ति से संबंधित था। इसमें कन्याओं की शिक्षा और विधवा पुनर्विवाह के लिए किया गया उनका कार्य भी शामिल है। आंध्र के समाज सुधारकों और राष्ट्रीय नेताओं की एक पूरी पीढ़ी ने वीरेसलिंगम के लेखन तथा सुधार-कार्यों से प्रेरणा प्राप्त की।
केरल में नारायण गुरु ने दलितोंद्धार का एक महत्वपूर्ण आंदोलन शुरू किया था। नारायण गुरु का जन्म एक एझबा परिवार में १८५४ ई० में हुआ था। केरल के उच्च जाति के हिंदू अन्य अन्य समुदायों के साथ एझबाओं को भी अछूत मानते थे। नारायण गुरु ने संस्कृत का ज्ञान प्राप्त किया और एझबा तथा अन्य दलित-वर्गों के उत्थान के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया। उन्होंने ऐसे मंदिर स्थापित किए जिनमें ईश्वर या उसकी मूर्ति का कोई विशेष महत्व नहीं था। उन्होंने अपना पहला मंदिर समीप की एक नदी से पत्थर लाकर स्थापित किया था। उस पत्थर पर उन्होंने शब्द खुदवाएं थे : "इस स्थान पर सभी लोग बिना किसी जातिभेद तथा धर्मभेद के बंधुभाव से रहते हैं।" नारायण गुरु ने १९०३ ई० में 'श्री नारायण धर्म परिपालन योगम्' एस. एन. डी. पी. संस्था की स्थापना की, जो सामाजिक सुधार का एक महत्वपूर्ण साधन बनी। नारायण गुरु ने जाति तथा धर्म पर आधारित भेदों को निरर्थक माना और, उन्हीं के शब्दों में कहे तो, सभी के लिए "एक जाति, एक धर्म और एक ईश्वर" की आवश्यकता पर जोर दिया।
दक्षिण भारत के अनेक सुधारकों का कार्य हिंदू मंदिरों से संबंधित कुछ प्रथाओं में सुधार करने से संबंधित था। उन्होंने मंदिरों में देवदासी प्रथा जारी रखने का विरोध किया। वे यह भी चाहते थे कि मंदिरों की संपत्ति, कुछ मंदिरों के पास बेशुमार संपत्ति थी, पुरोहितों के कब्जे में नहीं जानी चाहिए, बल्कि उस पर जनता का नियंत्रण होना चाहिए। कुछ मंदिरों में तथाकथित निम्न जाति के लोगों के लिए प्रवेश मना था और कुछ अवसरों पर तो मंदिर के पास के रास्ते भी उनके लिए बंद कर दिए जाते थे। सुधारकों ने मंदिर प्रवेश के लिए और मंदिरों के साथ जुड़ी हुई कुप्रथाओं को बंद करने के लिए जबरदस्त आंदोलन शुरू किए। दुर्भाग्य से, उन्नसवीं सदी से सुधारकों द्वारा किए गए प्रयासों के बावजूद, देश के कुछ भागों में आज भी ऐसे मामले उठते हैं जब जाति के नाम पर कुछ लोगों को मंदिर के प्रांगण में प्रवेश नहीं मिलता।
दयानंद सरस्वती और आर्य समाज
उत्तर भारत में धार्मिक और सामाजिक सुधार का सबसे प्रभावशाली आंदोलन दयानंद सरस्वती ने शुरू किया। दयानंद, जिनका बचपन का नाम मूलशंकर था, १८२४ ई० में काठियावाड़ में पैदा हुए थे। १४ साल की आयु में मूर्ति पूजा का बहिष्कार करके वे विद्रोही बन गए। कुछ ही समय बाद उन्होंने घर छोड़ दिया और घुम्मकड़ पंडित बन कर ज्ञान की खोज करते रहे। उस दौर में उन्होंने संस्कृत भाषा और साहित्य पर अधिकार प्राप्त कर लिया।
१८६३ ई० से दयानंद ने अपने मत का प्रतिपादन शुरू कर दिया - ईश्वर केवल एक है, जिसकी पूजा मूर्ति के रूप में नहीं, बल्कि जीवात्मा के रूप में की जानी चाहिए। उनकी मान्यता थी कि मनुष्य को ईश्वर द्वारा प्रदत्त सारा ज्ञान वेदों में विद्यमान है और उसमें आधुनिक विज्ञान की प्रमुख उपलब्धियां भी निहित है। इस संदेश को लेकर दयानंद ने सारे देश की यात्रा की और १८७५ ई० में बंबई में आर्य समाज की स्थापना की। दयानंद ने अपने उपदेश हिंदी भाषा में दिए। उनका सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ 'सत्यार्थ-प्रकाश' है। हिंदी भाषा का उपयोग करने के कारण दयानंद के विचार उत्तर भारत की आम जनता तक पहुंचे। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और पंजाब में आर्य समाज का तेजी से प्रसार हुआ। पंजाब में तो यह एक अत्यंत महत्व की सामाजिक और राजनीतिक शक्ति बन गया।
आर्य समाज के सदस्य "दस सिद्धांतों" का अनुसरण करते हैं। इनमें प्रथम है - वेदों का अध्ययन। शेष सिद्धांत सद्गुण और नैतिकता से संबंधित हैं। दयानंद ने आर्य समाज के सदस्यों के लिए सामाजिक व्यवहार के जो नियम बनाए उसमें जातिभेद और सामाजिक असमानता के लिए कोई स्थान नहीं है। आर्य समाजी बाल-विवाह का विरोध और विधवा पुनर्विवाह का समर्थन करते हैं।
शिक्षा के प्रसार के लिए समूचे उत्तर भारत में लड़के तथा लड़कियों के लिए कई सारे स्कूल और कॉलेज खोले गए। लाहौर के दयानंद एंग्लो-वैदिक स्कूल ने, जो जल्द ही पंजाब का एक प्रमुख कॉलेज बन गया, इन सब संस्थाओं के लिए एक आदर्श प्रस्तुत किया। लाहौर के इस कालेज में अंग्रेजी तथा हिंदी माध्यम से आधुनिक शिक्षा दी गई। जो आर्य समाजी दयानंद की मूल शिक्षाओं का अनुसरण करना चाहते थे उन्होंने हरिद्वार में गुरुकुल की स्थापना की। गुरुकुल की स्थापना प्राचीन आश्रमों की पद्धति पर की गई थी।
दयानंद वेदों को प्रमाण-ग्रंथ मानते थे। वे हिंदू धर्म को एक निश्चित दिशा और लड़ाकू चरित्र प्रदान करना चाहते थे। वे चाहते थे कि जो हिंदू, मुसलमान या ईसाई बन गया है उसे पुनः हिंदू बना लेना चाहिए। इसके लिए उन्होंने शुद्धिकरण की भी व्यवस्था की।
जिन अनेक सुधारकों के बारे में तुमने पहले पढ़ा है उन्होंने अपने धार्मिक और सामाजिक सुधारों के समर्थन में वेदों के तथा अन्य प्राचीन ग्रंथों के हवाले प्रस्तुत किए थे। मगर उनके विचार तर्कबुद्धि पर ही आधारित थे और उनमें से कुछ ने प्राचीन धर्म ग्रंथों की मान्यताओं को भी खुली चुनौती दी थी। किंतु दयानंद वेदों को परम सत्य मानते थे। परंतु शिक्षा के प्रचार-प्रसार, स्त्रियों के उत्थान तथा जातिप्रथा के बंधनों को कमजोर करने में दयानंद और आर्य समाज के विचारों ने दूसरे अनेक सुधार आंदोलनों की अपेक्षा ज्यादा प्रभावकारी कार्य किया।
रामकृष्ण मिशन और विवेकानंद
उन्नीसवीं सदी के एक और महत्वपूर्ण सुधारक थे रामकृष्ण परमहंस (१८३६-१८८६ ई०)। वे कलकत्ता के समीप के दक्षिणेश्वर मंदिर के पुजारी थे। दूसरे धर्म के नेताओं के संपर्क में आने पर उन्होंने सभी पंथों की पवित्रता को स्वीकार किया। उस समय के प्रायः सभी धर्म सुधारकों ने, केशवचंद्र सेन और दयानंद ने भी रामकृष्ण परमहंस से धार्मिक चर्चा की और उनसे प्रेरणा प्राप्त की। पश्चिम के प्रभाव के कारण जिन समकालीन शिक्षितों का अपनी ही संस्कृत के प्रति विश्वास डगमगा गया था उन्हें रामकृष्ण की शिक्षाओं से सांत्वना मिली।
रामकृष्ण के उपदेशों के प्रचार तथा उन्हें व्यवहार में उतारने के उद्देश्य से उनके प्रिय शिष्य विवेकानंद ने १८९७ ई० में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। मिशन का उद्देश्य है - समाज की सेवा करना। इसका आदर्श वाक्य है : "ईश्वर की आराधना का सर्वोत्तम मार्ग है मानव जाति की सेवा करना।" रामकृष्ण मिशन अपने सार्वजनिक कार्यों के लिए सुप्रसिद्ध हो गया है मिशन ने बाढ़, अकाल तथा महामारियों के समय राहत-कार्य किया। मिशन ने अस्पताल और शिक्षण संस्थाएं भी खोलीं।
विवेकानंद (१८६३-१९०२ ई०) का जीवन-चरित्र रामकृष्ण से बिल्कुल भिन्न था। उन्होंने भारतीय और पाश्चात्य दर्शन का गहन अध्ययन किया था, मगर रामकृष्ण से मुलाकात होने तक उन्हें मानसिक शांति नहीं मिली थी। परंतु वे केवल आध्यात्मिक शांति पाकर ही संतुष्ट नहीं थे। मातृभूमि की दुर्दशा देखकर वे अत्यंत दुखी थे। सारे देश का दौरा करने पर उन्हें चारों ओर गरीबी, गंदगी, बौद्धिक अड़ता और भविष्य के प्रति निराशा ही देखने को मिली। उन्होंने स्पष्ट कहा था : "अपनी इस दरिद्रता और अवनति के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं।" उन्होंने देश की हालत सुधारने के लिए देशवासियों का आहवान किया।
उन्होंने देशवासियों को उनकी कमजोरियों के प्रति संकेत करने और उन्हें जागृत करने का बीड़ा उठाया। उन्होंने नई समाज-व्यवस्था लाने के लिए, गरीबी दूर करने और जनता को जागृत करने के लिए भारतवासियों से आजीवन प्रवास करने को कहा। इसके लिए रामकृष्ण मिशन ने निष्ठावान कार्यकर्ताओं का एक समूह तैयार किया।
विवेकानंद ने देश के बाहर जो कार्य किया उससे भारतीय संस्कृति के प्रति विदेशियों का आकर्षण बढ़ा। विवेकानंद ने १८९३ ई० में अमरीका के शिकागो नगर में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लिया। उस सम्मेलन में दिए गए उनके भाषण ने दूसरे देशों के लोगों को बड़ा प्रभावित किया और इस प्रकार दुनिया में भारतीय संस्कृति का आदर बढ़ा।
मुस्लिम सुधार आंदोलन
मुसलमानों में जागरण की शुरुआत उन्नसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में बरेली के सैयद अहमद और बंगाल के शरीयतुल्लाह जैसे नेताओं के प्रयासों से हुई। उनका विचार था कि इस्लाम के हृास के कारण ही भारत अंग्रेजों का गुलाम बना। वे इस्लाम को सुधारने तथा मजबूत बनाने और इस्लामी शिक्षा की वृद्धि में जुट गए। उनके द्वारा शुरू किए गए आंदोलनों की चर्चा हम अंग्रेजों के विरुद्ध हुए विद्रोह से संबंधित अध्याय में कर चुके हैं। शरीयतुल्लाह किसानों के उत्थान के लिए बंगाल में शुरू किए गए फ़रायजी आंदोलन के नेता थे। उन्होंने मुसलमानों में मौजूद जातिभेद के कुप्रभावों की भी निंदा की।
भारतीय मुसलमानों पर पाश्चात्य विचारों और आधुनिक शिक्षा का प्रभाव देर से पड़ा। उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में कलकत्ता और दिल्ली के थोड़े से मुसलमानों ने ही अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त की थी। उलमा (इस्लामी शिक्षा के पंडित) के विरोध के कारण अधिकांश मुसलमान भी ब्रिटिश शासन को फूटी आंखों नहीं देखते थे। अंग्रेजों ने उलमा और उच्चवर्गीय मुसलमानों को धीरे-धीरे प्रभावहीन और शक्तिहीन बना दिया था। अंग्रेजी शिक्षा और उसके सामाजिक तथा आर्थिक लाभों से वंचित रहने के कारण भारतीय मुसलमानों में लंबे समय तक मध्यवर्ग का उदय नहीं हो सका।
तुम जानते हो कि १८५७ ई० के विद्रोह में मुसलमानों ने जोर शोर से भाग लिया था, इसलिए विद्रोह के बाद अंग्रेजों और मुसलमानों के संबंध ज्यादा बिगड़ गए। उसी समय कुछ प्रबुद्ध मुसलमानों ने अनुभव किया की शासकों के साथ सहयोग की नीति अपनानी चाहिए। वे अंग्रेज शासकों की मदद से अपनी सामाजिक स्थिति सुधारना चाहते थे। आधुनिक शिक्षा के प्रसार के लिए और पर्दा-प्रथा तथा बहुपत्नी-प्रथा जैसी सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए कुछ आंदोलन भी शुरू हुए। नवाब अब्दुल लतीफ़ (१५२८-९३ ई०) द्वारा १८६३ ई० में स्थापित कलकत्ता की मुस्लिम साहित्य सभा (मौहम्मडन लिटरेरी सोसायटी) ऐसा पहला संगठन था। शिक्षा के प्रसार में इसने महत्वपूर्ण योग दिया, विशेषकर बंगाल के मुसलमानों में। अब्दुल लतीफ़ ने हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए बड़े प्रयास किए।
सैयद अहमद खां और अलीगढ़ आंदोलन
मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा के प्रसार और सामाजिक सुधार के लिए सबसे महत्वपूर्ण आंदोलन सर सैयद अहमद खां ने शुरू किया। सैयद अहमद खां (१८१७-९६ ई०) का जन्म मुगल दरबार के एक सरदार परिवार में हुआ था उन्होंने एक न्यायिक अफसर के रूप में ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी की और १८५७ के विद्रोह के दौरान वे कंपनी के प्रति वफादार बने रहे। ब्रिटिश शासक मुसलमानों को अपना "असली दुश्मन और सबसे खतरनाक प्रतिद्वंदी" समझते थे। इसलिए उन्होंने मुसलमानों के दमन की नीति अपनाई थी। सैयद अहमद खां मुसलमानों की दयनीय दशा से चिंतित थे। उन्होंने मुसलमानों की दशा सुधारने का बीड़ा उठा लिया। उन्होंने मुसलमानों के प्रति अंग्रेजों की दुश्मनी को दूर करने के लिए अथक प्रयास किए। उन्होंने मुसलमानों को भी समझाया कि वह धार्मिक तथा शैक्षणिक सुधारों को अपनाएं।
धार्मिक और शैक्षणिक सुधारों की समस्या बड़ी कठिन थी। उन्होंने मुसलमानों से इस्लाम की मूल मान्यताओं पर आधारित शुद्धता तथा सरलता के जीवन को अपनाने की अपील की। भारतीय मुसलमानों के पुनरुत्थान के लिए उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा अपनाने पर जोर दिया। रूढ़िवादी मुसलमानों ने उनका विरोध किया। तुम्हें याद होगा कि आधी सदी पहले रूढ़िवादी तत्वों ने राममोहन राय का भी ऐसा ही विरोध किया था। मगर सैयद अहमद खां ने साहस और बुद्धिमानी से इन बाधाओं को पार किया। १८६४ ई० में उन्होंने अनुवाद समिति की स्थापना की जिसे बाद में वैज्ञानिक समिति का नाम दिया गया। इस समिति का कार्यालय अलीगढ़ में था। इसने विज्ञान तथा अन्य विषयों की अंग्रेजी पुस्तकों के उर्दू अनुवाद प्रकाशित किए और समाज सुधार से संबंधित उदार विचारों के प्रयास के लिए एक अंग्रेजी-उर्दू पत्रिका भी निकाली। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि १८७५ ई० में अलीगढ़ में "मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज" की स्थापना थी। आगे चलकर यह कॉलेज एक महत्वपूर्ण शिक्षा-संस्थान बन गया। वहां अंग्रेजी माध्यम से कला तथा विज्ञान के विषयों की पढ़ाई का प्रबंध हुआ। यहां के कई शिक्षक इंग्लैंड से आए थे। सारे देश के प्रमुख मुसलमानों ने इस कॉलेज को अपना सहयोग दिया। अंग्रेजों ने इस कॉलेज में दिलचस्पी ली और इसके विकास में हर प्रकार से सहयोग दिया।
यह कालेज आगे जाकर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बन गया। इसने यहां पढ़ने वाले विद्यार्थियों में आधुनिक दृष्टिकोण पैदा करने में योग दिया। विश्वविद्यालय बन जाने पर इसकी ओर सभी समुदायों के विद्यार्थी आकर्षित हुए। मगर भारतीय मुसलमानों को जागृत करने में इसने महत्व की भूमिका अदा की। सैयद अहमद खां और मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज से संबंधित मुस्लिम जागृति का यह आंदोलन अलीगढ़ आंदोलन के नाम से जाना जाता है।
सैयद अहमद खां ने भारतीय राष्ट्रीय का विरोध किया। उस समय के अन्य कई नेताओं की तरह उनकी भी मान्यता थी कि भारतीय फिलहाल स्वशासन संभालने में समर्थ नहीं है और उनका हित इसी में है कि वे ब्रिटिश शासन के प्रति वफादार बनी रहे। कांग्रेस का विरोध करने के लिए उन्होंने कुछ हिंदू तथा मुसलमान नेताओं के सहयोग से "इंडियन पैट्रियोटिक एसोसिएशन" की स्थापना की और मुसलमानों को कांग्रेस में शामिल होने से रोका। भारतीय मुसलमानों को संगठित करने और उनकी स्थिति को मजबूत बनाने के लिए वे ज्यादा समय चाहते थे। वे समझते थे कि ब्रिटिश शासकों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखकर ही ऐसा किया जा सकता है।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विरोधी होने के बावजूद सैयद अहमद खान हिंदू-मुस्लिम एकता के पुरजोर समर्थन थे। उनका मत था कि "हम (हिंदू और मुसलमान) एक ही देश के निवासी हैं, इसलिए एक राष्ट्र है, और देश की तथा हम दोनों समुदायों की प्रगति हमारी एकता, पारस्परिक सद्भावना तथा प्रेम पर आश्रित है।"
मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा के प्रसार के अलावा शायद अहमद खां ने मुस्लिम समाज के कई सामाजिक कुरीतियों को खत्म करने के लिए भी प्रयास किए। उन्होंने विज्ञान की शिक्षा को महत्व दिया था, इसलिए रूढ़िवादी मुस्लिम उनसे खफ़ा थे।
पारसियों और सिक्खों के सुधार आंदोलन
देश के दूसरे समुदायों में भी सामाजिक कुरीतियों (जिनमें से कुछ कुरीतियां धार्मिक अनुष्ठानों की अंग बन गई थी) की उन्मूलन, स्त्रियों के उद्धार और आधुनिक शिक्षा के प्रसार के लिए आंदोलन शुरू हुए। पारसी समाज के दो अग्रणी धर्म और समाज सुधारक थे - दादाभाई नौरोजी (१८२५-१९१७) और नौरोजी फरदूनजी (१८१७-१८८५) दोनो ने मिलकर 'रास्त गोफ्तार' नामक पत्रिका शुरू की। दोनों ने ही शिक्षा के प्रसार के लिए, विशेषकर कन्याओं की शिक्षा के लिए, अथक प्रयास किए। सोरबजी बंगाली एक माने हुए पारसी समाज सुधारक थे।
१८७० के दशक में अमृतसर और लाहौर में सिंह सभाएं स्थापित हुई और उन्होंने सिक्खों के सुधार आंदोलन को आरंभ किया। बाद में यह दोनों सभाएं मिलकर एक हो गई। सिंह सभाओं ने शिक्षा के विस्तार की विशेष भूमिका निभाई। सिंह सभाओं के प्रयत्नों तथा अंग्रेजों की सहायता से १८९२ में अमृतसर में खालसा कालेज की स्थापना हुई। इस कालेज ने और इस प्रकार के अन्य प्रयत्नों से स्थापित विद्यालयों ने गुरमुखी, सिक्ख धर्मज्ञान और पंजाबी भाषा के साहित्य को प्रोत्साहन दिया।
बाद में, बीसवीं सदी के आरंभिक दशकों में, गुरुद्वारों के सुधार के लिए एक शक्तिशाली आंदोलन शुरू हुआ। उस समय गुरुद्वारे पुरोहित और महंत के कब्जे में थे। वे गुरुद्वारे को अपनी निजी संपत्ति समझते थे। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी और अकाली दल ने मिलकर आंदोलन चलाया कि गुरुद्वारों का नियंत्रण सिक्ख समाज के प्रतिनिधियों को सौंपा जाए। यह आंदोलन शांतिपूर्ण तरीके से चलाया गया था, फिर भी इसमें भाग लेने वालों को भ्रष्टाचारी महंतों के गुंडों तथा ब्रिटिश पुलिस के प्रहार झेलने पड़े। उस समय तक सारे देश की जनता जागृत हो चुकी थी और गांधी जी के नेतृत्व में आजादी का आंदोलन एक जन-आंदोलन बन गया था। आजादी के आंदोलन के नेताओं ने सिक्ख जनता के आंदोलन को समर्थन दिया। अंत में १९२५ ई० में एक कानून बनाकर गुरुद्वारा के संचालन की जिम्मेदारी शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी को सौंप दी गई।
समाज सुधार की प्रगति
जब प्रबद्ध भारतीय बुद्धिवादी तथा उदार सिद्धांतों के आधार पर अपने समाज का सुधार करने का प्रयास कर रहे थे, तब ब्रिटिश शासकों को इस समस्या के प्रति क्या रवैया था? हम देखते हैं कि १८५७ ई० के बाद के काल में ब्रिटिश सरकार सुधारों के मामलों, में अत्यंत उदासीन रही। वह समाज के उच्चवर्गीय रूढिवादियों को खुश रखना चाहती थी। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में केवल दो महत्वपूर्ण कानून बने। पहला कानून १८७२ ई० में बना। उस कानून ने अंतर्जातीय और अंतर्सामाजी विवाह को वैध बना दिया। १८९१ ई० में बने दूसरे कानून का लक्ष्य था बाल-विवाह की प्रथा को समाप्त करना। ये कानून दो भारतीय सुधारक केशवचंद्र सेन और बहरामजी मालाबारी के प्रयासों से बने थे। बाल-विवाह को रोकने के लिए ज्यादा कारगर कदम काफी बाद में तब उठाया गया जब १९२९ ई० में शारदा एक्ट बना। इस कानून के अनुसार १५ साल से कम आयु की लड़की और १८ साल से कम आयु का लड़का शादी नहीं कर सकते।
आगे चलकर भारत के आजादी के आंदोलन में लोगों की दिलचस्पी ज्यादा बढ़ी। यह प्रमुखतः राजनीतिक आंदोलन था। मगर 'भारतीय राष्ट्रीय सामाजिक सम्मेलन' जैसे संगठन, जिनकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं, सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ लड़ते रहे। पहले की तरह वे स्त्रियों तथा तथाकथित निम्न जातियों के उद्धार के लिए काम करते रहे। मगर वह बहुपत्नी विवाह को खत्म करने या स्त्रियों को संपत्ति के अधिकार दिलाने या अछूत समझे जाने वाले लोगों को मंदिरों में प्रवेश दिलाने के उनके प्रयासों को ज्यादा सफलता नहीं मिली। हालांकि बीसवीं सदी के चौथे दशक में स्त्रियों को संपत्ति पर अधिकार दिलाने के लिए और मंदिर प्रवेश के लिए कानून भी बने थे।
आजादी के आंदोलन में स्त्रियों ने बड़ी संख्या में भाग लिया। यह उनकी विमुक्त की दिशा में एक बहुत बड़ा कदम था। गांधीजी ने अस्पृश्यता के खिलाफ अपनी लड़ाई को आजादी के आंदोलन का अंग बना दिया। आजादी के लिए विदेशी शासन के खिलाफ किया गया संघर्ष भारतीय समाज के पुर्निर्माण का भी संघर्ष था।
शिक्षा
तुम्हें याद होगा कि कंपनी की सरकार ने शिक्षा के प्रसार के बारे में क्या कदम उठाए थे। इसके लिए १८१३ ई० के चार्टर एक्ट तहत प्रतिवर्ष एक लाख रुपए का खर्च मंजूर हुआ था और १८३५ ई० में गवर्नर जनरल बेंटिक ने भारतीयों में पाश्चात्य शिक्षा के प्रचार का निर्णय लिया था। १८५४ ई० में सरकार ने "प्राथमिक स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक शिक्षा की समुचित व्यवस्था" करने की घोषणा की। आधुनिक भारत में शिक्षा के विकास की एक महत्वपूर्ण घटना थी।
यह घोषणा जो 'वूड्स डिस्पैच' के नाम से जानी जाती है, १८५७ ई० के विद्रोह के बाद विस्तारपूर्वक तैयार की गई थी। इस घोषणा के तहत प्रांतों में लोकशिक्षा विभागों की स्थापना हुई। कलकत्ता, बंबई और मद्रास में विश्वविद्यालय स्थापित हुए। गैर-सरकारी स्कूलों तथा कालेजों के लिए सरकारी अनुदान की व्यवस्था हुई। इंडियन एजुकेशनल सर्विस नामक एक नई सेवा भी अस्तित्व में आई। यह सेवा देशभर के सरकारी संस्थानों के लिए अध्यापक चुनती थी।
इन प्रयासों से सरकार द्वारा संचालित स्कूल और कॉलेजों की, साथ ही मिशनरी तथा निजी संगठनों के स्कूल-कॉलेजों की भी, संख्या बढ़ गई। इसके साथ ही शिक्षा पर सरकार का नियंत्रण भी बढ़ गया।
परंतु शिक्षा का यह विकास सभी स्तरों में एकरूप नहीं था। हाईस्कूलों और कालेजों के विस्तार पर ज्यादा बल दिया गया। धनाभाव के कारण प्राथमिक शिक्षा को विशेष क्षति पहुंची। परिणामतः भारतीय जनता बड़ी तादाद में निरीक्षण बनी रही।
इस सब का नतीजा यह रहा कि बीसवीं सदी के आरंभ में भारत के ६० प्रतिशत गांवों में प्राथमिक स्कूल नहीं थे और ७५ प्रतिशत बच्चे शिक्षा से वंचित थे। उच्च शिक्षा परिषद का अंधानुकरण मात्र थी। देश की आवश्यकताओं से उसका कोई सरोकार नहीं था। उच्च शिक्षा के स्वरूप में कुछ सुधार हुआ, विशेषकर तब जब भारतीयों ने भी शिक्षा-व्यवस्था की जिम्मेदारी संभाली और भारतीय शिक्षकों की संख्या में वृद्धि हुई। मगर ब्रिटिश शासकों ने शिक्षा पर अपना नियंत्रण बनाए रखने और विद्यार्थियों तथा अध्यापकों से देशभक्ति के प्रसार को रोकने का हर संभव प्रयास किया।
शिक्षा के प्रसार में स्वयं भारतीय नेताओं ने महत्व की भूमिका अदा की। इस अध्याय के आरंभ में तुमने पढ़ा है कि शिक्षा प्रसार को प्रत्येक सुधारक ने कितना महत्व दिया था और इसके लिए क्या क्या प्रयास किए थे, यदा-कदा सरकार की मदद से, मगर अधिकतर अपने बल पर ही। शिक्षा पर ब्रिटिश नियंत्रण के विरोध में स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं ने 'राष्ट्रीय शिक्षा परिषद' की स्थापना की। उन्होंने राष्ट्रीय स्कूल और राष्ट्रीय कॉलेज खोले। बाद में उन्होंने वाराणसी तथा अहमदाबाद में विद्यापीठ की और अलीगढ में जामिया मिलिया इस्लामिया (बाद में दिल्ली ले जाया गया) की स्थापना की। उन्होंने शिक्षा को नया स्वरूप देने के भी प्रयास किए।
रविंद्रनाथ ठाकुर ने शांतिनिकेतन में विश्व-भारती की स्थापना की। विद्यार्थियों को आत्मनिर्भर बनाने के उद्देश्य से गांधीजी ने नई तालीम की जो योजना तैयार की थी उसके अनुसार स्कूल खोले गए। डॉ. जाकिर हुसैन ने, जो बाद में भारत के तीसरे राष्ट्रपति बने, इस शिक्षा-प्रणाली के विकास में महत्व की भूमिका अदा की। ब्रिटिश शासन के दौरान निरक्षरता भारत की ही एक सर्वाधिक ज्वलंत समस्या बनी रही। भारत के एक अग्रणी राष्ट्रीय नेता गोपाल कृष्ण गोखले ने १९०३ ई० में कहा था : "यह स्पष्ट है कि अशिक्षित और अज्ञानी देश कोई ठोस प्रगति नहीं कर सकता और जीवन की दौड़ में निश्चय ही पिछड़ जाता है।" भारत में निरक्षरता को खत्म करने के लिए उन्होंने और दूसरों ने बार-बार यह मांग की कि ६ साल से १० साल तक के बच्चों के लिए मुफ्त तथा अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। मगर इस मामले में सरकार ने कोई खास कदम नहीं उठाया। १९४७ ई० में जब देश स्वतंत्र हुआ तब भारत में केवल २४ प्रतिशत पुरुष और ७ प्रतिशत महिलाएं ही साक्षर थी।
सांस्कृतिक जागरण
धार्मिक और सामाजिक सुधार के आंदोलन उन्नसवीं सदी में शुरू हुई भारतीय जनता की जागृत के ही अंग थे। इस जागृति ने संस्कृति के प्रत्येक पहलू को प्रभावित किया और इसने संस्कृति के विभिन्न पक्षों के विकास में भी योग दिया।
भारत के अतीत का स्वाभिमान
भारत में विदेशी शासन की स्थापना होने से आत्मसम्मान को देने की भावना पैदा हुई। भारत में आए अधिकांश अंग्रेज अधिकारियों तथा दूसरों ने भारतीय सभ्यता और संस्कृति को निकृष्ट समझा। वे अपने को उच्चतर सभ्यता तथा उच्चतर जाति का समझते थे। उसी समय भारतीयों ने भारत के पूर्व कालों के इतिहास तथा संस्कृति का अध्ययन शुरू कर दिया। भारत के अतीत की खोज में कुछ अंग्रेज और यूरोपीय विद्वानों ने भी महत्व की भूमिका अदा की। इनमें अग्रणी थे विलियम जोन्स। उन्होंने १७८४ ई० में कलकत्ता में 'एशियाटिक सोसाइटी' की स्थापना की। एशियाटिक सोसाइटी ने भारत के प्राचीन तथा मध्यकालीन अतीत, उसके इतिहास, भाषाएं, साहित्य, दर्शन, कला, विज्ञान तथा कानून के अध्ययन को प्रोत्साहन दिया। सोसाइटी ने प्राचीन ग्रंथों तथा उनके अनुवादों को प्रकाशित किया। स्वयं विलियम जोन्स ने कालिदास के नाटक अभिज्ञान शाकुंतलम् का संस्कृत से अंग्रेजी में अनुवाद किया। तुम्हें याद होगा कि प्राचीन भारत के महान शासक सम्राट अशोक ने अपने अभिलेख देश के विभिन्न भागों में स्तंभों और चट्टानों पर खुदवाएं थे। जिस लिपि में यह लेख खुदवाए गए थे उसे भारतीय भूल गए थे। उन्नीसवीं सदी के विद्वानों ने अथक परिश्रम करके इस लिपि को पढ़ने में सफलता प्राप्त की और इस प्रकार भारत के अतीत को समझने के लिए ज्ञान के विपुल स्त्रोत खोलें। जिन सुधारकों के बारे में तुमने पढ़ा है वे भारतीय और पाश्चात्य ज्ञान के पंडित थे। कई अन्य विद्वानों में भी भारत के अतीत के लिए अपना जीवन समर्पित किया। इन सब विद्वानों के प्रयास से भारत की महान विरासत के बारे में, उनकी सांस्कृतिक उपलब्धियों के बारे में अधिकाधिक जानकारी मिलने लगी।
इस जानकारी ने कि प्राचीन तथा मध्ययुगीन भारत की सभ्यता किसी भी अन्य सभ्यता के तुल्य थी, जनता के आत्मसम्मान को जगाया। इससे भारतीयों को आत्मविश्वास हुआ कि वे स्वयं अपने भविष्य का निर्माण कर सकते हैं। भारत के गौरवशाली अतीत की इस खोज का एक अस्वास्थ्यकर पहलू भी था। कुछ विद्वान अतीत की हर चीज को गौरवान्वित करने लगे। वे अतीत को पुनर्जीवित करने के बारे में सोचने लगे। पीछे की ओर देखने की इस प्रकार की सोच से अतीत को ठीक से समझ पाने में कठिनाई हुई। इससे उन समस्याओं की उपेक्षा हुई या उनके बारे में गलत समझ बनी जो उस समय भारत के सामने मौजूद थी और जिनके लिए समुचित साधन खोजने थे।
मगर बाद में कुछ विद्वानों ने, जिनकी संख्या बढ़ती गई, इस प्रकार की समझ का त्याग कर दिया, यद्यपि कुछ विद्वान उस समझ से चिपके ही रहे। इन विद्वानों का उद्देश्य भारत का केवल गौरवशाली अतीत खोजना नहीं था। इन्होंने जानने का प्रयत्न किया कि प्राचीन युगों में भारत के लोग किस प्रकार रहते थे, वे अपनी खाद्य-सामग्री तथा जरूरत की अन्य चीजें किस तरह पैदा करते थे, समय के साथ उन लोगों का जीवन किस तरह बदलता गया, उनकी भाषाएं कौन-सी थी और उन भाषाओं में उन्होंने किस तरह की चीजें लिखीं, उन्होंने कौन-सा ज्ञान अर्जित किया और ज्ञान के क्षेत्र में उनकी विशिष्ट उपलब्धियां कौन-सी थी, समाज किन-किन वर्गों तथा समुदायों में बटा हुआ था और किस प्रकार कुछ लोग दूसरे से अपने को श्रेष्ठ समझते थे और दूसरों की मेहनत पर अपना जीवन-निर्वाह करते थे, किस प्रकार देश विभिन्न भागों के लोगों का और दुनिया के अन्य भागों से आए लोगों को सम्मिश्रण हुआ। उन्होंने जनता द्वारा निर्मित कला-स्मारकों, वास्तुशिल्पों, मंदिरों, मस्जिदों, गिरजाघरों स्थलों व किलो तथा चित्रों को जानने के प्रयत्न किए। उन्होंने यह जानने की भी कोशिश की कि राजाओं तथा अन्य शासकों ने जनता पर किस तरह शासन किया, भारत की संस्कृति किन मानों में अन्य संस्कृतियों के समान थी और किन मानों में विभिन्न तथा विशिष्ट थी, किन क्षेत्रों में और किस प्रकार भारत की प्रगति रुक गई और देश विदेशी शासन का शिकार हुआ। विद्वानों ने अपने अध्ययन के जरिए इन तथा अन्य अनेक सवालों के उत्तर जानने के प्रयास किए। उन्होंने कहा कि प्राचीन भारत की उपलब्धियों के प्रति स्वाभिमान की भावना रखने के साथ-साथ हमें अतीत की अनेक कमजोरियों तथा असफलताओं की भी जानकारी होनी चाहिए। सबसे महत्व की बात है कि हमें गहराई में उतरकर यह समझने का प्रयत्न करना चाहिए कि अतीत में ठीक क्या हुआ है और कैसे हुआ है। यह तमाम जानकारी हमें अपनी मौजूदा समस्याओं को समझने और उन्हें हल करने में सहायक हो सकती है।
अतीत के अध्ययन का यह दृष्टिकोण काफी धीमी रफ्तार से बना। अतीत के अध्ययन की शुरुआत होने पर प्राचीन भारत की कुछ उपलब्धियों के बारे में हमारे ज्ञान में वृद्धि हुई। यद्यपि कुछ दृष्टियों से यह ज्ञान परिपूर्ण नहीं था और कुछ बातों में तो एकदम कपोल कल्पित था, फिर भी इसने लोगों में देशाभिमान की भावना जगाई और उनके जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
साहित्य और कला
उन्नीसवीं सदी से भारत की प्रत्येक आधुनिक भाषा के इतिहास का विकास होने लगा। यह साहित्य पहले के साहित्य से विषय-वस्तु तथा शैली, दोनों ही रूपों में काफी भिन्न था। पहले की अधिकांश साहित्यिक कृतियों के स्त्रोत धर्मों और आख्यानों में निहित थे। उनमें से अधिकांश की रचना पद्य में हुई थी। अब गद्य को महत्व दिया जाने लगा और उपन्यास, लघुकथा, नाटक तथा निबंध जैसी नई शैलियों का विकास होने लगा। साहित्य की इन नई शैलियों के, और काव्य के भी, विषय बुनियादी तौर पर मानवतावादी थे, अर्थात उनका संबंध लोगों के जीवन, उनकी समस्याओं तथा आकांक्षाओं और उनके संघर्षों से था। समाज में घटित हुए परिवर्तन उनमें प्रकट होने लगे। साहित्य जीवन के निकट पहुंच गया। अब साहित्य की भाषा कृत्रिम नहीं थी, यह अधिकाधिक जीवंत भाषा होती गई। साहित्य सामाजिक सुधार के प्रचार का, सामाजिक समस्याओं को उजागर करने को और बाद में देशप्रेम तथा राष्ट्रीयता को सुधारने का साधन बन गया।
जिन सुधारकों के बारे में तुमने पहले पढ़ा है उनमें से अधिकांश, जैसे कि राममोहन राय, ईश्वरचंद विद्यासागर, वीरेसलिंगम, गोपाल हरी देशमुख "लोकहितवादी" तथा अन्य अनेक अपनी-अपनी भाषा के समर्थ साहित्यकार थे। उन्होंने अपनी-अपनी भाषा के साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योग दिया। भारतेन्दु हरिश्चंद्र (१८५०-१८८५ ई०) आधुनिक हिंदी साहित्य के अगुआ थे। उन्होंने अपने विविध उपन्यासों, कहानियों, नाटकों, निबंध तथा कविताओं के जरिए सुधारवादी विचारों का प्रचार किया और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई। कुछ अन्य भारतीय भाषाओं के कुछ अन्य अग्रगामी और महान लेखक थे - बंगाल के बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय तथा रविंद्रनाथ ठाकुर, तेलुगु के गुरजादा अप्पा राव, मराठी के हरि नारायण आपटे, मलयालम के कुमारम आसन तथा बल्लतोल के नारायण मेनन, उड़िया के फकीर मोहन सेनापति, तमिल के सुब्रमण्यम भारती, असमिया के हेमचंद्र बरुआ, कन्नड़ के के. वेकंटप्पा गौंडा पुटटप्पा और उर्दू के मुहम्मद इकबाल। तुम शायद जानते ही हो कि ८० से भी अधिक साल पहले लिखा गया रविंद्र नाथ ठाकुर का एक गीत स्वतंत्र भारत का राष्ट्रगान बना। दो अन्य राष्ट्रीय गीत "वंदे मातरम" और "सारे जहां से अच्छा" जिन्हें तुमने अवश्य ही सुना और गया होगा, बंकिमचंद्र और इकबाल ने लिखे थे। १८९३ ई० में रविंद्रनाथ ठाकुर को अंतरराष्ट्रीय ख्याति का सर्वोच्च नोबेल पुरस्कार मिला। बीसवीं सदी के समूचे भारतीय साहित्य पर आजादी के आंदोलन का गहरा प्रभाव पड़ा। साहित्य ने जनता में देशप्रेम जगाने की महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इसने भारतीय समाज में व्याप्त उत्पीड़नों और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने के लिए जनता को जागृत किया। गरीबों की दयनीय दशा और भारत के गांवों की उत्पीड़ित जनता के बारे में लिखने वाले एक महान लेखक थे प्रेमचंद, जिन्होंने पहले उर्दू और बाद में हिंदी में लिखा।
कला के क्षेत्र में भी खूब उन्नति हुई। रविंद्रनाथ ठाकुर और दूसरे कलाकारों ने भारत की शास्त्रीय परंपरा की चित्रकला को पुनर्जीवित करने के प्रयास किए। इन प्रयासों से चित्रकला की जिस शैली का उदय हुआ उसे बंगाल शैली कहते हैं। राजा रवि वर्मा ने भारतीय महाकाव्यों तथा आख्यानों के आधार पर चित्र बनाएं। भारतीय कलाकारों पर पाश्चात्य चित्र - परंपराओं का भी गहरा प्रभाव पड़ा। ब्रिटिश शासन के बाद के काल की एक प्रमुख चित्रकार थी अमृता शेरगिल। उसने और अन्य कलाकारों ने जनता के रोजमर्रा के जीवन को अपने चित्रों में उतारा यद्यपि उनकी अपनी-अपनी विशिष्ट शैलीयां थी। उदाहरण के लिए, नंदलाल बसु ने प्राचीन कथाओं के दृश्यों के साथ-साथ कारीगरों और शिल्पियों के रोजमर्रा के जीवन को भी रंगो में उतारा। इन चित्रकारों ने स्वतंत्रता के संघर्ष में भी भाग लिया।
प्रेस का विकास
भारत के कुछ आरंभिक समाचार पत्रों की शुरुआत अंग्रेजों ने की थी, अंग्रेजों के लिए। मगर उन्नसवीं सदी में और बाद में अंग्रेजों तथा देशी भाषाओं के भी एक शक्तिशाली प्रेस का उदय हुआ। अधिकांश सुधारकों ने या तो खुद अपनी पत्र पत्रिकाएं शुरू की थी या वे किसी न किसी पत्र-पत्रिका से संबंधित रहे। उन्नसवीं सदी के उत्तरार्ध में भारतीयों में राजनीतिक चेतना का विकास हुआ और राजनीतिक गतिविधियां शुरू हुई, तो भारतीय पत्र-पत्रिकाओं की महत्वपूर्ण वृद्धि हुई। कुछ अंग्रेजी समाचार पत्र, जिनके मालिक अंग्रेज थे, ब्रिटिश शासन के समर्थक थे, मगर अंग्रेजी तथा भारतीय भाषाओं के अधिकांश समाचार पत्रों ने भारतीय जनता की आकांक्षाओं को प्रचारित किया। उन्होंने भारतीय जनता की शिकायतों को और उनकी सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक मांगों को प्रकाशित किया। उन्होंने देश के तथा दुनिया के विभिन्न भागों में घटित होने वाली घटनाओं की जनता को जानकारी दी। आजादी की लड़ाई के दौरान उन्होंने जनता को एकजुट करने की महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। राष्ट्रीय आंदोलन का ब्रिटिश शासकों ने दमन किया। अंग्रेजों ने कई बार इन समाचार पत्रों को बंद करवा दिया और इनके संपादकों को जेल में डाल दिया। आरंभिक दौर के ऐसे कुछ समाचार पत्र थे - द हिंदू, द इंडियन मिरर, अमृत बाजार पत्रिका, केसरी, मराठा, स्वदेशमित्रन, प्रभाकर और इंदु-प्रकाश।
विज्ञान का विकास
राममोहन राय जैसे अनेक भारतीय सुधारकों ने अंग्रेजी शिक्षा का समर्थन किया था तो उसका प्रमुख कारण यह था, कि वह विज्ञान की शिक्षा को विशेष महत्व देते थे। सुधारकों का विश्वास था भारत के पिछड़ेपन का प्रमुख कारण भारत में विज्ञान की उपेक्षा होना है। उन्होंने विज्ञान के शिक्षा पर जोर देने की मांग उठाई। कई सुधारकों ने विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए वैज्ञानिक संस्थाएं स्थापित की।
भारत में आधुनिक विज्ञान का प्रवेश उन्नसवीं सदी के आरंभ में हुआ। बाद में, विश्वविद्यालयों की स्थापना के बाद, विज्ञान-विभाग खुलें। भारतीयों ने अधिकाधिक संख्या में विज्ञान के अध्ययन को चुना और उनमें से कईयों ने विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में महत्व का खोजकार्य किया। इसके लिए उन्हें अंधविश्वासों से अपने को मुक्त करना पड़ा। उदाहरण के लिए चिकित्सा-विज्ञान पर अधिकार प्राप्त करने के लिए और शल्य चिकित्सा करने के लिए चिकित्सा के विद्यार्थियों को शवच्छेदन करके मानव शारीरिक क्रिया के बारे में जानकारी प्राप्त करनी पड़ी। मगर शवच्छेदन को पाप कर्म माना जाता था। शवच्छेदन करने वाले चिकित्सा-विज्ञान के पहले भारतीय विद्यार्थी महेंद्र लाल सरकार थे। उन्होंने १८७६ ई० में 'इंडियन एसोसिएशन फॉर द कल्टिवेशन आफ साइंस' नामक संस्था की स्थापना की। यह विज्ञान का प्रचार-प्रसार करने वाली प्रमुख संस्था थी। बीसवीं सदी के तीसरे दशक में 'इंडियन साइंस कांग्रेस एसोसिएशन' की स्थापना हुई। साइंस कांग्रेस के अधिवेशनों में देश के विभिन्न भागों के वैज्ञानिक भाग लेते और एक-दूसरे से अपने विचारों और अनुभवों का आदान-प्रदान करते। देश ने विज्ञान की प्रत्येक शाखा में बड़ी संख्या में वैज्ञानिक पैदा किए। इनमें से प्रफुल्लचंद्र राय, जगदीशचंद्र बसु, मेघानाद साहा, डी. एन. वाडिया और बीरबल साहनी जैसे कई वैज्ञानिकों ने अंतरराष्ट्रीय ख्याति अर्जित की। चंद्रशेखर वेंकटरामन को भौतिक के क्षेत्र में किए गए उनके खोज कार्य के लिए १९३० ई० में नोबेल पुरस्कार मिला। प्रफुल्लचंद्र महलनोबिस एक श्रेष्ठ वैज्ञानिक थे, उन्होंने भारत में सांख्यिकी के अध्ययन की ठोस नींव रखी। श्रीनिवास रामानुजन बीसवीं सदी के एक महान गणितज्ञ थे। ब्रिटिश शासन के दौरान इंजीनियरी और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में एक महान भारतीय वैज्ञानिक थे मोसगुडंम विश्वेश्वरैया (१८६१-१९६२ ई०)। अपने दीर्घ जीवन काल में उन्होंने देश के विभिन्न भागों में कार्य किया और इंजीनियरी तथा टेक्नोलॉजी की विभिन्न शाखाओं में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। बांध निर्माण, जलविद्युत के विकास, रेशम उद्योग तथा तकनीक शिक्षा के विकास के क्षेत्र में किया गया उनका कार्य बड़ा महत्वपूर्ण है।
विज्ञान की उन्नति भारतीय जनता की व्यापक जागृति का ही एक अंग थी। राष्ट्रीय शिक्षा के जिस आंदोलन की हमने पहले चर्चा की है उसने देश भर में विज्ञान की शिक्षा को भी बढ़ावा दिया। आजादी के आंदोलन के नेता देश के विकास के लिए विज्ञान के महत्व को भलीभांति समझते थे। भारतीय वैज्ञानिक, जिन्होंने विज्ञान की प्रायः प्रत्येक शाखा में महत्व का खोजकार्य किया था, देश के विकास में अपने योगदान के महत्व को समझते थे। मगर ब्रिटिश शासन उनके कार्य बाधक बना, क्योंकि अनुसंधान के लिए बहुत कम सुविधाएं उपलब्ध थी। देश के औद्योगिक विकास का स्तर बहुत निम्न होने के कारण वे अपने ज्ञान का उपयोग देश के विकास के लिए नहीं कर पाए। ये वैज्ञानिक अपने सम्मेलनों में, जिनमें आजादी के आंदोलन के नेता भी भाग लेते थे भाषण देते थे, अक्सर विचार-विमर्श करते थे कि भारत में विज्ञान को किस प्रकार देश की जरूरतों के साथ जोड़ा जाए।
राममोहन राय जैसे अनेक भारतीय सुधारकों ने अंग्रेजी शिक्षा का समर्थन किया था तो उसका प्रमुख कारण यह था, कि वह विज्ञान की शिक्षा को विशेष महत्व देते थे। सुधारकों का विश्वास था भारत के पिछड़ेपन का प्रमुख कारण भारत में विज्ञान की उपेक्षा होना है। उन्होंने विज्ञान के शिक्षा पर जोर देने की मांग उठाई। कई सुधारकों ने विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए वैज्ञानिक संस्थाएं स्थापित की।
भारत में आधुनिक विज्ञान का प्रवेश उन्नसवीं सदी के आरंभ में हुआ। बाद में, विश्वविद्यालयों की स्थापना के बाद, विज्ञान-विभाग खुलें। भारतीयों ने अधिकाधिक संख्या में विज्ञान के अध्ययन को चुना और उनमें से कईयों ने विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में महत्व का खोजकार्य किया। इसके लिए उन्हें अंधविश्वासों से अपने को मुक्त करना पड़ा। उदाहरण के लिए चिकित्सा-विज्ञान पर अधिकार प्राप्त करने के लिए और शल्य चिकित्सा करने के लिए चिकित्सा के विद्यार्थियों को शवच्छेदन करके मानव शारीरिक क्रिया के बारे में जानकारी प्राप्त करनी पड़ी। मगर शवच्छेदन को पाप कर्म माना जाता था। शवच्छेदन करने वाले चिकित्सा-विज्ञान के पहले भारतीय विद्यार्थी महेंद्र लाल सरकार थे। उन्होंने १८७६ ई० में 'इंडियन एसोसिएशन फॉर द कल्टिवेशन आफ साइंस' नामक संस्था की स्थापना की। यह विज्ञान का प्रचार-प्रसार करने वाली प्रमुख संस्था थी। बीसवीं सदी के तीसरे दशक में 'इंडियन साइंस कांग्रेस एसोसिएशन' की स्थापना हुई। साइंस कांग्रेस के अधिवेशनों में देश के विभिन्न भागों के वैज्ञानिक भाग लेते और एक-दूसरे से अपने विचारों और अनुभवों का आदान-प्रदान करते। देश ने विज्ञान की प्रत्येक शाखा में बड़ी संख्या में वैज्ञानिक पैदा किए। इनमें से प्रफुल्लचंद्र राय, जगदीशचंद्र बसु, मेघानाद साहा, डी. एन. वाडिया और बीरबल साहनी जैसे कई वैज्ञानिकों ने अंतरराष्ट्रीय ख्याति अर्जित की। चंद्रशेखर वेंकटरामन को भौतिक के क्षेत्र में किए गए उनके खोज कार्य के लिए १९३० ई० में नोबेल पुरस्कार मिला। प्रफुल्लचंद्र महलनोबिस एक श्रेष्ठ वैज्ञानिक थे, उन्होंने भारत में सांख्यिकी के अध्ययन की ठोस नींव रखी। श्रीनिवास रामानुजन बीसवीं सदी के एक महान गणितज्ञ थे। ब्रिटिश शासन के दौरान इंजीनियरी और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में एक महान भारतीय वैज्ञानिक थे मोसगुडंम विश्वेश्वरैया (१८६१-१९६२ ई०)। अपने दीर्घ जीवन काल में उन्होंने देश के विभिन्न भागों में कार्य किया और इंजीनियरी तथा टेक्नोलॉजी की विभिन्न शाखाओं में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। बांध निर्माण, जलविद्युत के विकास, रेशम उद्योग तथा तकनीक शिक्षा के विकास के क्षेत्र में किया गया उनका कार्य बड़ा महत्वपूर्ण है।
विज्ञान की उन्नति भारतीय जनता की व्यापक जागृति का ही एक अंग थी। राष्ट्रीय शिक्षा के जिस आंदोलन की हमने पहले चर्चा की है उसने देश भर में विज्ञान की शिक्षा को भी बढ़ावा दिया। आजादी के आंदोलन के नेता देश के विकास के लिए विज्ञान के महत्व को भलीभांति समझते थे। भारतीय वैज्ञानिक, जिन्होंने विज्ञान की प्रायः प्रत्येक शाखा में महत्व का खोजकार्य किया था, देश के विकास में अपने योगदान के महत्व को समझते थे। मगर ब्रिटिश शासन उनके कार्य बाधक बना, क्योंकि अनुसंधान के लिए बहुत कम सुविधाएं उपलब्ध थी। देश के औद्योगिक विकास का स्तर बहुत निम्न होने के कारण वे अपने ज्ञान का उपयोग देश के विकास के लिए नहीं कर पाए। ये वैज्ञानिक अपने सम्मेलनों में, जिनमें आजादी के आंदोलन के नेता भी भाग लेते थे भाषण देते थे, अक्सर विचार-विमर्श करते थे कि भारत में विज्ञान को किस प्रकार देश की जरूरतों के साथ जोड़ा जाए।