अध्याय - ६ - सन् १८५८ ई० के बाद भारत में ब्रिटिश नीतियां और प्रशासन
सन् 1858 ई० के विद्रोह को कुचल दिए जाने के बाद भारत में ब्रिटिश शासन के इतिहास का एक नया दौर शुरू हुआ। भारत के प्रशासन में कंपनी की भूमिका को समाप्त कर दिया गया। भारत पर ब्रिटिश सरकार का सीधा नियंत्रण स्थापित हो गया। भारत के प्रति ब्रिटिश नीति और प्रशासनिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इस अध्याय में तुम इन परिवर्तनों के बारे में और भारत के प्रति ब्रिटिश नीतियों के बारे में पढ़ोगे।
१८५८ ई० का एक्ट और इंग्लैंड की महारानी की घोषणा
अगस्त 1858 में ब्रिटिश पार्लियामेंट (संसद) ने एक अधिनियम (एक्ट) पास किया। इस एक्ट ने भारत में कंपनी के शासन को समाप्त कर दिया। भारत पर ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण ब्रिटिश शासक के नियंत्रण में बदल गया। उस समय विक्टोरिया इंग्लैंड की महारानी थी ब्रिटेन में सर्वोच्च संस्था पार्लियामेंट थी। ब्रिटिश सरकार वहां की पार्लियामेंट के प्रति उत्तरदाय़ी थी। ब्रिटिश सरकार राजा या रानी के नाम पर राजकाज चलाती थी। ब्रिटिश सरकार का एक मंत्री, जिसे राज्य-सचिव कहते हैं, भारत सरकार की जिम्मेदारी संभालता था। तुम पहले पढ़ चुके हो कि भारत के शासन में कंपनी की वास्तविक सकता घटती जा रही थी और ब्रिटिश सरकार की बढ़ती जा रही थी। १८५८ ई० के एक्ट ने इस प्रक्रिया पर पूर्ण विराम लगा दिया। चूंकि ब्रिटिश सरकार पार्लियामेंट के प्रति उत्तरदायी़ थी, इसलिए ब्रिटिश पार्लियामेंट भारत के लिए सर्वोच्च सत्ता बन गई। भारत के गवर्नर-जनरल को अब वायसराय की पदवी मिल गई। वायसराय का मतलब यह ब्रिटिश शासक (राजमुकुट) का प्रतिनिधि।
महारानी विक्टोरिया ने एक राजाज्ञा जारी की। गवर्नर जनरल केनिंग ने १ नवम्बर को इलाहाबाद में एक दरबार किया और उसमें महारानी की राजाज्ञा पढ़ कर सुनाई गई। घोषणा की गई कि भारतीय राजाओं के अधिकार सुरक्षित रहेंगे और अब अंग्रेजी राज में नए इलाके नहीं मिलाए जाएंगे। घोषणा में यह भी वादा किया गया कि लोगों के पुराने अधिकारों तथा रीति-रिवाजों को उचित सम्मान दिया जाएगा और न्याय, उदारता तथा धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई जाएगी। घोषणा में यह भी कहा गया कि प्रशासनिक सेवाओं में किसी भी धर्म और जाति का व्यक्ति प्रवेश पा सकेगा। इस प्रकार जहां एक और यह वादा किया गया कि राजाओं को सुरक्षा मिलेगी, वहां दूसरी और मध्यवर्ग के लिए तरक्की के रास्ते खोलने का भी वादा किया गया। मगर जल्दी ही यह स्पष्ट हो गया कि नए सामाजिक वर्गों की तरक्की के लिए समान अवसर प्रदान करने का जो वादा किया गया था वो पालन करने के लिए नहीं था। वस्तुतः अनेक ब्रिटिश प्रशासकों का, कुछ वायसरायों का भी, विचार था कि ऐसा वादा करना एक ग़लती थी। समाज के पुराने रीति-रिवाजों का सम्मान करने का जो वादा किया गया था वह सामाजिक कुप्रथा को बनाए रखने की नीति के रूप में बदल गया। अंग्रेजों को यकीन हो गया कि पुरानी सामाजिक व्यवस्था को कायम रख कर ही वे भारत पर अपना शासन बनाए रख सकते हैं। अच्छा हुआ कि सती-प्रथा को बंद करने और विधवा पुनर्विवाह को कानूनी मंजूरी देने जैसे कदम १८५७ ई० के पहले उठाए गए थे। उसके बाद विदेशी शासकों ने सामाजिक सुधारों में कोई दिलचस्पी नहीं ली। यहां तक कि भारतीय नेताओं ने ऐसे सुधारों की मांग की, तो अंग्रेजों ने उसका विरोध किया।
सन् १८५८ ई० के बाद ब्रिटेन के हितों के सामने भारत के हित और अधिक गौण हो गए। औद्योगिक क्रांति के बाद इंग्लैंड के राजनीतिक जीवन में ब्रिटिश उद्योगपति सबसे प्रभावशाली वर्ग के रूप में उभरे थे। संसार के अन्य भागों में भी, विशेषकर अफ्रीका में, ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार हो रहा था। ब्रिटिश साम्राज्य का अन्य साम्राज्यवादी शक्तियां से भी संघर्ष चल रहा था। इस संघर्ष में ब्रिटेन के आर्थिक हितों के लिए भारत का इस्तेमाल किया गया। संसार के अन्य भागों में भी ब्रिटिश साम्राज्य के हितों के लिए भारतीय साधनों का उपयोग किया गया। भारतीय साधनों से अंग्रेजों ने दूसरे देशों में खर्चीली लड़ाइयां लड़ी।
इंग्लैंड से भारतीय सरकार पर नियंत्रण
तुम पहले पढ़ चुके हो कि भारत सचिव को भारत सरकार की पूर्ण जिम्मेदारी सौंपी गई थी। ब्रिटिश सरकार के अन्य मंत्रियों की तरह वह भी केवल ब्रिटिश पार्लियामेंट के प्रति उत्तरदाय़ी था। भारत सचिव को सलाह देने के लिए एक इंडिया काउंसिल (भारत परिषद) बनाई गई थी। इसके कुछ सदस्यों ने भारत में काम किया था, इसलिए उन्हें भारतीय परिस्थितियों की प्रत्यक्ष जानकारी थी। मगर भारतीय सचिव किसी भी मामले में काउंसिल के सुझाव को ठुकरा सकता था।
सन् १८५७ ई० तक गवर्नर-जनरल इंग्लैंड में निर्धारित आम नीतियों के अनुसार स्वयं निर्णय लेकर काम करता था। इंग्लैंड के साथ संचार-संबंध स्थापित करने में लंबा समय लगता था। संचार-साधनों में सुधार हुए तो स्थिति बदल गई। १८७० ई० में भारत और इंग्लैंड के बीच टेलीग्राफ-संबंध स्थापित हो गया। इससे संचार-व्यवस्था सुगम हो गई। अब भारत सरकार और भारत सचिव के बीच दैनिक विचार-विमर्श संभव हो गया। भाप के इंजन से चलने वाले जहाजों ने इंग्लैंड और भारत के बीच की यात्रा का समय कम कर दिया। १८६९ ई० में स्वेज नहर खुल जाने से भूमध्य सागर और लाल सागर एक दूसरे से जुड़ गए। इससे इंग्लैंड और भारत के बीच की दूरी काफी कम हो गई। परिवहन और संचार के क्षेत्र में हुए इन सुधारों ने उस आजादी को कम कर दिया जो पहले भारत के गवर्नर-जनरल को मिली हुई थी। अब भारत सचिव को भारत के बारे में ताजी सूचनाएं मिलने लगी। भारत का प्रशासन अब उनकी सीधी देख-रेख में आ गया।
भारत सचिव भारतीय जनता के प्रति कतई उत्तरदायी़ नहीं था। यहां तक कि भारत का गवर्नर-जनरल भी व्यवहार में उसके महज एक प्रतिनिधि के रूप में ही काम करता था। इसका अर्थ यह था कि भारत सरकार ब्रिटिश सरकार के पूर्णतः अधीन हो गई। ब्रिटिश सरकार को होम गवर्नमेंट (स्वदेश सरकार) कहा जाने लगा। इस तरह, भारत के शासन में ब्रिटिश सरकार के हित सर्वोपरि हो गए, और ब्रिटिश सरकार के हितों को वे लोग निर्धारित करते थे जिनका ब्रिटेन के आर्थिक जीवन पर कब्ज़ा था।
इंग्लैंड से भारतीय सरकार पर नियंत्रण
तुम पहले पढ़ चुके हो कि भारत सचिव को भारत सरकार की पूर्ण जिम्मेदारी सौंपी गई थी। ब्रिटिश सरकार के अन्य मंत्रियों की तरह वह भी केवल ब्रिटिश पार्लियामेंट के प्रति उत्तरदाय़ी था। भारत सचिव को सलाह देने के लिए एक इंडिया काउंसिल (भारत परिषद) बनाई गई थी। इसके कुछ सदस्यों ने भारत में काम किया था, इसलिए उन्हें भारतीय परिस्थितियों की प्रत्यक्ष जानकारी थी। मगर भारतीय सचिव किसी भी मामले में काउंसिल के सुझाव को ठुकरा सकता था।
सन् १८५७ ई० तक गवर्नर-जनरल इंग्लैंड में निर्धारित आम नीतियों के अनुसार स्वयं निर्णय लेकर काम करता था। इंग्लैंड के साथ संचार-संबंध स्थापित करने में लंबा समय लगता था। संचार-साधनों में सुधार हुए तो स्थिति बदल गई। १८७० ई० में भारत और इंग्लैंड के बीच टेलीग्राफ-संबंध स्थापित हो गया। इससे संचार-व्यवस्था सुगम हो गई। अब भारत सरकार और भारत सचिव के बीच दैनिक विचार-विमर्श संभव हो गया। भाप के इंजन से चलने वाले जहाजों ने इंग्लैंड और भारत के बीच की यात्रा का समय कम कर दिया। १८६९ ई० में स्वेज नहर खुल जाने से भूमध्य सागर और लाल सागर एक दूसरे से जुड़ गए। इससे इंग्लैंड और भारत के बीच की दूरी काफी कम हो गई। परिवहन और संचार के क्षेत्र में हुए इन सुधारों ने उस आजादी को कम कर दिया जो पहले भारत के गवर्नर-जनरल को मिली हुई थी। अब भारत सचिव को भारत के बारे में ताजी सूचनाएं मिलने लगी। भारत का प्रशासन अब उनकी सीधी देख-रेख में आ गया।
भारत सचिव भारतीय जनता के प्रति कतई उत्तरदायी़ नहीं था। यहां तक कि भारत का गवर्नर-जनरल भी व्यवहार में उसके महज एक प्रतिनिधि के रूप में ही काम करता था। इसका अर्थ यह था कि भारत सरकार ब्रिटिश सरकार के पूर्णतः अधीन हो गई। ब्रिटिश सरकार को होम गवर्नमेंट (स्वदेश सरकार) कहा जाने लगा। इस तरह, भारत के शासन में ब्रिटिश सरकार के हित सर्वोपरि हो गए, और ब्रिटिश सरकार के हितों को वे लोग निर्धारित करते थे जिनका ब्रिटेन के आर्थिक जीवन पर कब्ज़ा था।
स्थानीय शासन
स्थानीय सरकार के संगठन में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। भारत पर अंग्रेजों का कब्ज़ा होने के बाद स्थानीय शासन की ग्राम-पंचायतों-जैसी व्यवस्थाएं टूट गई थी। स्थानीय महत्व के मामलों - सफाई, सड़कें, सड़कों पर रोशनी, पेयजल की आपूर्ति आदि पर बहुत कम ध्यान दिया गया। १८५७ ई० के बाद शहरों के लिए नगरपालिकाएं बनने लगी। इन नगरपालिकाओं में स्थानीय प्रशासन और निर्माण-कार्य हेतु जुटाने के लिए कर लगाएं। १८८२ ई० के बाद ग्रामीण क्षेत्रों में जिला-बोर्डों का गठन किया गया। जैसा कि तुम जानते हो केवल स्थानीय लोग ही अपने इलाके की समस्याओं को समझ सकते हैं और उन्हें सही ढंग से हल कर सकते हैं। इसके लिए यह आवश्यक है कि स्थानीय मामलों को देखने वाली स्थानीय शासन-संस्थाओं में उस इलाके के लोगों के प्रतिनिधि हो। मगर अंग्रेजों द्वारा गठित स्थानीय शासन में कोई निर्वाचित प्रतिनिधि नहीं होते थे। १८८२ ई० के बाद इन संस्थाओं में निर्वाचित सदस्यों को भी शामिल किया गया, मगर उन्हें केवल धनी लोग ही वोट देकर चुनते थे। भारतीय नेताओं ने गांव के स्तर तक स्थानीय स्वशासन की व्यवस्था स्थापित करने की मांग की।
वित्तीय प्रशासन
सन् १८५७ ई० के बाद वित्तीय प्रशासन का भी पुनर्गठन किया गया। पहले बजट की कोई व्यवस्था नहीं थी। तुम जानते हो कि बजट में सरकार को विभिन्न स्रोतों से होने वाली वार्षिक आय का और विभिन्न मदों में होने वाले खर्च का अनुमानित ब्योरा प्रस्तुत किया जाता है। सरकारी आयोग को केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों के बीच बांटने की भी कोई समुचित व्यवस्था नहीं थी। ब्रिटिश साम्राज्य के हितों के लिए लड़े जा रहे युद्धों पर होने वाले खर्चों के लिए अतिरिक्त आय की समस्या भी सरकार के सामने थी। १८६० ई० में बजट की व्यवस्था शुरू की गई और प्रत्येक स्त्रोत होने वाली अनुमानित आय का ब्यौरा तैयार किया गया। कुछ साल बाद केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों के बीच आय के वितरण के बारे में भी निर्णय लिया गया। डाकघरों, रेलवे, अफीम तथा नमक की बिक्री और चुंगी से होने वाली आय को पूर्णतः केंद्र सरकार के लिए सुरक्षित रखा गया। भू-राजस्व, आबकारी आदि स्त्रोतों से होने वाली आय को केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों के बीच बांटा गया। सरकार के राजस्व में वृद्धि करने के भी प्रयास किए गए। अफीम तथा नमक के उत्पादन और बिक्री पर सरकार का एकाधिकार था। अदालतों में मुकदमा चलाने के लिए मुद्रांक-शुल्क (स्टैंप ड्यूटी) नामक कर लगाया गया। व्यापारी लेन-देन पर भी ऐसे ही मुद्रांक शुल्क लगाए गए। भारत में उस समय सूती कपड़े के कारखाने और अन्य कुछ उद्योग स्थापित हो रहे थे। स्थानीय उद्योगों का विकास हो सके इसलिए विदेशों से आयातित वस्तुओं पर चुंगी लगाई जाती थी। भारत और ब्रिटिश सरकार ने ऐसी वस्तुओं पर चुंगी लगाई, मगर उनकी दर समय-समय पर बदलती रही। चुंगी लगाने के कारण इंग्लैंड में उत्पादित माल की विशेषकर सूती कपड़े की, बिक्री पर बुरा असर पड़ा। ब्रिटिश उद्योगपतियों के दबाव के कारण १८८२ ई० में चुंगी खत्म कर दी गई। मगर राजस्व की कमी को पूरा करने के लिए १८९४ ई० में पुनः चुंगी लगा दी गई। तब ब्रिटिश सरकार ने भारत सरकार पर दबाव डाला कि वह भारतीय वस्तुओं पर भी बराबरी का उत्पाद शुल्क लगाए, ताकि भारत में ब्रिटिश वस्तुओं की बिक्री न घटे। १८६० ई० में आय कर भी लगाया गया। कुछ समय बाद आय कर फिर लगाया गया। भारत की जनता को यह तमाम कर एक ऐसी सरकार को देने पड़ते थे जो उनके प्रति उत्तरदाय़ी नहीं थी, बल्कि जो ब्रिटेन के हितों की रक्षा तथा बढ़ोतरी के लिए चलाई जा रही थी।
सेना का पुनर्गठन
तुम देख चुके हो कि १८५७ ई० के विद्रोह में भारतीय सैनिकों ने बड़े महत्व की भूमिका अदा की थी। पैसा विद्रोह पुनः न हो, इसलिए सेना का पुनर्गठन किया गया। पहले बंगाल, मद्रास तथा बंबई प्रांतों की अपनी अलग-अलग सेनाएं थी। प्रत्येक प्रांत की सेना में भारतीय सैनिक, कंपनी द्वारा भर्ती किए गए यूरोपीय सैनिकों की टुकड़ियां तथा ब्रिटिश सैनिकों की रेजिमेंटें होती थी। १८५८ ई० के बाद यूरोपीय सैनिकों और ब्रिटिश सेना की इकाइयों को मिला दिया गया। १८५९ ई० में प्रांतों की पृथक सेनाओं का एकीकरण किया गया और भारत में ब्रिटिश सरकार की समूची सेना को एक सेनाध्यक्ष के नियंत्रण में लाया गया। भारतीय सैनिकों को तोपखाने और शास्त्रागारों से अलग रखने का निर्णय लिया गया। यूरोपीय सैनिकों की संख्या भी बढ़ाई गई। भारतीय सैनिकों और यूरोपीय सैनिकों का अनुपात २:१ रखा गया। इसे बाद में इसे बढ़ाकर १:२ कर दिया गया। यह व्यवस्था १९१४ ई० में प्रथम महायुद्ध शुरू होने तक कायम रही। सेना के सभी अफसर यूरोपीय थे।
अपनी स्थिति को अधिक मजबूत बनाने के लिए अंग्रेजों ने "फूट डालो और शासन करो" की नीति अपनाई। विभिन्न इलाकों, जातियों या कबीलों के सैनिकों की कंपनियों को मिलाकर रेजिमेंट का संगठन किया गया। उद्देश्य यह था कि यदि एक कंपनी विद्रोह करें तो उसे कुचलने के लिए दूसरी कंपनियों का इस्तेमाल किया जा सके। भारतीयों को दो वर्गों में बांटा गया - एक वर्ग वीर लड़ाकों का और दूसरा उनका जो वीर लड़ाके नहीं है। ज्यादातर इन तथाकथित वीर जातियों के लोगों को ही सेना में भर्ती किया जाता था। भारतीय जनता में फूट डालने के लिए यह नीति अपनाई गई थी।
अंग्रेजों ने अपनी भारतीय सेना का इस्तेमाल भारत पर अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए ही नहीं, बल्कि संसार के अन्य भागों में ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार के लिए भी किया। भारतीय सैनिक ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार के लिए अफगानिस्तान, वर्मा तथा अन्य कई स्थानों में लड़ें। भारत के अनेक राष्ट्रवादी नेताओं ने अन्य देशों के विरुद्ध अंग्रेजों द्वारा भारतीय सैनिकों और साधनों का उपयोग किए जाने का विरोध किया।
सिविल सर्विस
तुम पहले पढ़ चुके हो कि देश का शासन चलाने के लिए सिविल सर्विस की स्थापना की गई थी। सिविल सर्विस को ब्रिटिश साम्राज्य का 'इस्पाती चौखटा' कहा जाता था। महत्व के सारे सरकारी पदों पर सिविल सर्विस के लोग ही नियुक्त किए जाते थे। तुम पढ़ चुके हो कि १८५३ ई० से सिविल सर्विस के सदस्यों की भर्ती प्रतियोगिता परीक्षाओं के जरिए होने लगी थी। ये परीक्षाएं इंग्लैंड में होती थी। उनमें बहुत कम भारतीय बैठ पाते थे। परीक्षाएं अंग्रेजी में होती थी। प्रतियोगिता परीक्षा में बैठने के लिए भारतीयों को एक नितांत भिन्न वातावरण में रहना पड़ता था।
परीक्षा में बैठने की उम्र १८५३ ई० में २३ वर्ष थी। १८६६ ई० में इसे घटाकर २१ वर्ष और १८७६ ई० में १९ वर्ष कर दिया गया। इससे प्रतियोगिता में अंग्रेजों की बराबरी करने में भारतीयों को कठिनाई होने लगी। महारानी की घोषणा में कहा गया था कि सिविल सर्विस में प्रवेश पाने के लिए भारतीयों को अंग्रेजों के बराबर अवसर प्रदान किए जाएंगे। मगर वास्तव में सिविल सर्विस पर अंग्रेजों का ही एकाधिकार बना रहा। कई गवर्नर-जनरलों ने यहां तक सुझाव दिया था कि भारतीयों को ऊंचे पदों की नौकरियां न दी जाए। भारतीयों ने मांग की कि प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए आयु सीमा बढ़ाई जाए और यह परीक्षाएं इंग्लैंड तथा भारत में एक साथ हो। मगर ब्रिटिश सरकार और गवर्नर जनरलों सहित बड़े अंग्रेज अफसर भारतीयों को पसंद नहीं करते थे। वे नहीं चाहते थे कि शिक्षित भारतीय अपने को अंग्रेजों के बराबर समझे। विदेशी शासन की सभी जगह यह एक विशेषता होती है कि विदेशी शासक स्थानीय जनता से अपने को श्रेष्ठ समझते हैं। विदेशी अफसरों को यह सिखाया जाता है कि वह जिन लोगों पर शासन करते हैं उन्हें निष्कृष्ट जाति का समझे। उन्हें यह भी सिखाया जाता है कि ऐसी जाति पर शासन करना उनका अधिकार है। इस तरह सोचने से शासकों में जातिय घमंड आ जाता है। यह शासित लोगो को घृणा की दृष्टि से देखते हैं। सरकार की नीतियां बनाने और उन्हें लागू करने में ब्रिटिश सिविल सर्विस के लोगों का बड़ा हाथ था। भारत की सरकार पर उनका बड़ा बुरा प्रभाव रहा। उनके रवैयों से कभी-कभी सरकार तक हक्का-बक्का रह गई थी। उदाहरण के लिए, १८७६ ई० में एक अंग्रेज वकील ने अपने भारतीय नौकर को इतना पीटा कि वह मर गया। वकील को केवल ३० रुपए जुर्माना हुआ। ऐसी घटनाएं अक्सर होती रहती थी। कभी-कभी सरकार को भी ऐसे मामलों में हस्तक्षेप करना पड़ता था।
१८८३ ई० में गवर्नर-जनरल रिपन के समय में एक विधेयक पेश किया गया। इस विधेयक के जरिए भारतीय और यूरोपीय जजों के बीच एक मतभेद खत्म कर दिया गया। इसे 'इलबर्ट विधेयक' कहते हैं। इस विधेयक में कहा गया कि भारतीय जज भी मामला उसके अधिकार क्षेत्र में आने पर, यूरोपीय लोगों के विरुद्ध मुकदमे की सुनवाई कर सकता है। सिविल सर्विस के लोगों ने और बड़ी तादाद में यूरोपीय लोगों ने विधेयक का विरोध किया। मजबूर हो कर सरकार को विधेयक वापस लेना पड़ा।
सन् १८७९ ई० में एक नई प्रशासकीय सेवा बनी जिसमें हर साल कुछ भारतीय भर्ती किए जा सकते थे। मगर नियुक्ति प्रतियोगिता के आधार पर नहीं होती थी। इस सेवा के लिए उन भारतीय परिवारों से भर्ती की जाती थी जिन्हें अंग्रेज अच्छा समझते थे। अर्थात, भर्ती समाज के उन उच्च वर्गों से की जाती थी जो ब्रिटिश शासन के समर्थक थे। १८८६ ई० के बाद विभिन्न प्रकार की तीन सेवाएं बनी। उनमें एक पुरानी सिविल सर्विस थी जिसे इंडियन सिविल सर्विस (आई.सी.एस.) का नाम दिया गया। उच्च पदों के अधिकारी इस सेवा के होते थे। वे अधिकतर अंग्रेज होते थे। प्रांतों के लिए भी सिविल सर्विस बनी। इसे प्रांतों के आधार पर नाम दिए गए। जैसे, बंगाल सिविल सर्विस। इसके अलावा पेशेवर कामों के लिए एक और सर्विस बनी। उदाहरण के लिए, एजुकेशनल सर्विस (शिक्षा सेवा)।
ब्रिटिश शासन की एक महत्वपूर्ण विशेषता थी - अफसरशाही का बोलबाला। ये अपने को जनता के ऊपर समझते थे। हालांकि उसमें से कुछ काफी परिश्रम करते थे, मगर उनकी बुनियादी मान्यता यही थी कि उनका काम जनता पर शासन करना है, जनता का कल्याण करना नहीं।
भारतीय राजाओं के प्रति ब्रिटिश नीति
सन् १८५७ ई० में ब्रिटिश सरकार ने अपने शासन को मजबूत बनाने की नियत से भारतीय राजाओं को बनाए रखने की नीति अपनाई। तुम पहले पढ़ चुके हो कि महारानी की घोषणा में वादा किया गया था कि भारत में ब्रिटिश इलाकों का विस्तार नहीं किया जाएगा और भारतीय राजाओं के अधिकारों का तथा उनकी प्रतिष्ठा का सम्मान किया जाएगा। भारत की ब्रिटिश सरकार ने इन राजाओं को अपना सहयोगी मान लिया। कई जागीरदारों को राजा का दर्जा दिया गया। भारत में उस समय ५६२ रजवाड़े थे। इनमें से कई राज्य बहुत छोटे थे। कुछ का क्षेत्रफल लगभग १ वर्ग किलोमीटर था और आबादी १०० से भी कम। दूसरी तरफ कश्मीर और हैदराबाद - जैसे भी बड़े राज्य थे जो क्षेत्रफल में ब्रिटेन के बराबर थे। इस प्रकार १८५७ ई० के बाद भारत दो भागों में बट गया - एक ब्रिटिश भारत, जिस पर भारत सरकार के जरिए ब्रिटिश सरकार सीधे शासन करती थी, और दूसरा भारतीय राज्य, जिन पर भारतीय राजा शासन करते थे।
सन् १८५७ ई० के पहले भारत में ब्रिटिश शासन और भारतीय राज्यों के बीच के संबंध, के बीच हुई संधि के अनुसार, अलग-अलग किस्म के थे। कुछ राज्य अपने को भारत की ब्रिटिश सरकार के समक्ष और पूर्णतः स्वतंत्र समझते थे। कुछ अन्य राज्य भारत के ब्रिटिश सरकार के अधीन समझे जाते थे। १८५८ ई० के बाद संबंध बदल गए। एक तरफ यह वादा किया गया कि उन पर कब्जा नहीं किया जायेगा, तो दूसरी तरफ उन्हें ब्रिटिश सरकार के अधीन बनाया गया। भारतीय राज्यों को "प्रभु सत्ता के सिद्धांत' के अंतर्गत ब्रिटिश सरकार के अधीन बनाया गया था। इसके अनुसार भारत में ब्रिटिश सत्ता सर्वोच्च थी। भारत में ब्रिटिश प्रभुसत्ता १८७६ ई० के एक एक्ट में स्पष्ट रूप से व्यक्त की गई थी। उसी के अनुसार १ जनवरी, १८७७ ई० को महारानी विक्टोरिया ने 'भारत की साम्राज्ञी' की पदवी धारण की थी। जिस समय भारत के कई भागों में भयंकर अकाल पड़ा, उसी समय राज दरबार (इंपीरियल असेंबली) का आयोजन किया गया। दरबार में शामिल हुए राजाओं ने अपने वैभव का खूब प्रदर्शन किया। उसी राज-दरबार में महारानी विक्टोरिया द्वारा 'भारत की साम्राज्ञी' पदवी धारण करने की घोषणा की गई।
भारत में ब्रिटिश सरकार की प्रभुसत्ता कायम हो जाने पर भारतीय राजाओं की शक्ति और हैसियत हट गई। भारतीय राज्यों को भीतरी तथा बाहरी संकटों से बचाने की जिम्मेदारी अब ब्रिटिश सरकार की थी। इससे ब्रिटिश सरकार को भारतीय राज्यों के भीतरी मामलों में हस्तक्षेप करने के असीम अधिकार मिल गए। राज्य के उत्तराधिकार के हर मामले में ब्रिटिश राजसत्ता या भारत में उसके प्रतिनिधि - वायसराय की अनुमति प्राप्त करना जरूरी हो गया। उत्तराधिकार से संबंधित झगड़ों का निपटारा ब्रिटिश सरकार करती थी। उत्तराधिकार के नाबालिक होने पर राज्य का शासन अंग्रेज चलाते थे। यदि किसी राज्य में विद्रोह या कुप्रशासन होता, तो ब्रिटिश सरकार राजा को हटाकर उसका उत्तराधिकारी नियुक्त कर सकती थी। ऐसे मामलों में राज्य पर कब्जा नहीं किया जा सकता था; केवल उत्तराधिकारी नियुक्त किया जा सकता था। भारतीय राज्यों की कोई अंतरराष्ट्रीय हैसियत नहीं थी। वे अन्य देशों के साथ संबंध स्थापित नहीं कर सकते थे। यहां तक कि गवर्नर-जनरल कर्ज़न ने भारतीय राजाओं के बिना अनुमति के विदेश जाने पर भी रोक लगा दी थी। ब्रिटिश सरकार ने भारतीय राजाओं द्वारा रखे जाने वाले सैनिकों की संख्या निश्चित कर दी थी। राज्यों की ये सेनाएं अंग्रेज अफसरों के नियंत्रण में थी। इन राज्यों के लोग यदि किसी अन्य देश की यात्रा करते या वहां निवास करते तो उन्हें ब्रिटिश साम्राज्य की प्रजा माना जाता था। इन राज्यों की रेलवे तथा टेलीग्राफ और डाक व्यवस्थाएं ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण में थी। इस प्रकार, अंग्रेजों ने भारतीय राजाओं पर अपना पूर्ण नियंत्रण स्थापित करके उनकी शक्ति को नष्ट कर दिया। भारतीय राज्यों से ब्रिटिश शासन को अब कोई खतरा नहीं रहा। उलटे, वे ब्रिटिश शासन के समर्थक बन गए।
भारतीय राज्यों पर अंग्रेजों द्वारा कब्जा किए जाने का अब डर नहीं रहा, इसलिए उन्होंने ब्रिटिश सरकार की अधीनता स्वीकार कर ली। वे अब अपने लोगों से भी सुरक्षित थे, क्योंकि उनके लोगों द्वारा विद्रोह करने पर ब्रिटिश सरकार उनकी मदद करती। अधिकांश राजा अपने राज्य को अपनी व्यक्तिगत संपत्ति मानते थे और अपने लोगों की स्थिति सुधारने का कोई प्रयत्न नहीं करते थे। वे बड़े ऐशों-आराम से रहते थे और प्रशासन के कामों पर बहुत कम ध्यान देते थे। कुछ राज्यों में प्रशासन इतना अधिक बिगड़ गया कि ब्रिटिश सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ा। ब्रिटिश भारत में प्रशासन और कानून की व्यवस्था एकरूप थी। मगर राज्यों में ये व्यवस्थाएं अलग-अलग तरह की थी। ब्रिटिश सरकार ने भारतीय जनता में फूट डालने के लिए इन राज्यों को बनाए रखा। ब्रिटिश भारत की तुलना में इन राज्यों में जनता की दशा कई दृष्टियों से अधिक दयनीय थी। इन राजाओं का अक्सर दरबार लगता था। इन दरबारों में ये अपने वैभव का प्रदर्शन करते थे और उन्हें ब्रिटिश सरकार से पदवियां मिलती थी। चूंकि इनका अस्तित्व ब्रिटिश सरकार पर निर्भर था, इसलिए ये उसके निष्ठावान समर्थक बन गए।
"फूट डालो और शासन करो" की ब्रिटिश नीति
हर साम्राज्यवादी देश विजित देश की जनता में फूट डालकर वहां अपने शासन को बनाए रखता है। जनता में मौजूद मतभेदों का लाभ उठाया जाता है। एक समुदाय को दूसरों से लड़ा कर या एक के विरुद्ध दूसरे को समर्थन देकर में मतभेद पैदा किए जाते हैं। जैसा कि तुम जानते हो, अंग्रेज अपने शासन को राजाओं और जमीदारों के सहयोग से मजबूत बना रहे थे। देश के कई भागों में जहां नई भूमि-व्यवस्थाओं के अंतर्गत जमीदार खत्म हो गए थे, नए जमीदार खड़े करने की कोशिश की गई। १८५७ ई० के विद्रोह को कुचल देने के बाद अवध में तालुकेदारों को जमीन वापस कर दी गई। अंग्रेजों ने जमीदारों के बेटों को नौकरियां दी और इस प्रकार शिक्षित भारतीयों के साथ भेदभाव किया। भारतीय राज्यों के प्रति अंग्रेजों की नीति में भारतीय जनता को दो समुदायों में बांट दिया।
भारतीय राज्यों की जनता और ब्रिटिश भारत की जनता। जैसा कि तुम जानते हो सैनिक प्रशासन में भी उन्होंने वही नीति अपनाई। १८५७ ई० के बाद कोई सामाजिक सुधार न करके और भारतीय समाज में विद्यमान जाति तथा धर्म पर आधारित अंतरों को बरकरार रखकर उन्होंने मतभेदों को टिकाए रखा। तुम देख चुके हो कि १८५७ ई० के विद्रोह में किस प्रकार हिंदू और मुसलमान कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजो के खिलाफ लड़े थे। १८५८ ई० के बाद अंग्रेजों ने हिंदुओं और मुसलमानों में फूट डालने की नीति अपनाई। अंग्रेजों ने मुसलमानों को अपना मुख्य शत्रु माना, क्योंकि उन्हें १८५७ ई० के विद्रोह के लिए जिम्मेदार समझा गया। नौकरियां देने में उनके साथ भेदभाव किया गया। अंग्रेजों ने इतिहास की अपनी पुस्तकों में यह दिखाने की कोशिश की कि मुसलमानों ने हिंदुओं का दमन किया, इसलिए हिंदुओं का हित इसी में है कि वह ब्रिटिश शासन का समर्थन करें। बाद में उन्होंने अपनी मुस्लिम - विरोधी नीति बदल दी। ब्रिटिश सरकार ने हिंदुओं के विरुद्ध उच्च - वर्गीय मुसलमानों को सुविधाएं देना शुरू किया। मगर ब्रिटिश नीति का उद्देश्य वही कायम रहा, हिंदू और मुसलमानों में फूट डालना। बाद में जब भारतीय जनता की आशाओं और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाला राष्ट्रीय आंदोलन शुरू हुआ, तब अंग्रेजों ने धर्म पर आधारित दलों की स्थापना को प्रोत्साहन दिया। इस प्रकार उन्होंने आजादी के आंदोलन को कमजोर करने की कोशिश की।
अफगानिस्तान और बर्मा के प्रति नीति
भारत सरकार की विदेश नीति इंग्लैंड की सरकार की विदेश नीति का अंग थी। उन्नीसवीं सदी का उत्तरार्ध साम्राज्यवादी विस्तार का काल था। उपनिवेशों के लिए साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच होड़ लगी हुई थी। इस होड़ के कारण उनके बीच अक्सर झगड़े हुए। अंग्रेजों ने अपनी साम्राज्यवादी लड़ाईयों में और दूसरे देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए भारतीय साधनों और भारतीय सैनिकों का इस्तेमाल किया।
उन्नीसवीं सदी में रूसी साम्राज्य का मध्य एशिया में विस्तार हो रहा था। इससे अंग्रेज चौक में हो गए। रूसी विस्तार को रोकने के लिए उन्होंने अफगानिस्तान में अपना प्रभाव बढ़ाना शुरू कर दिया। वे सोचते थे कि अफगानिस्तान में पैर जमाने के बाद मध्य एशिया में अपना प्रभाव बढ़ाने में उन्हें आसानी होगी। अफगानिस्तान का राजा दोस्त मुहम्मद एक योग्य शासक था। अंग्रेजों ने १८३९ ई० में अपनी फौज अफगानिस्तान भेजी दोस्त मुहम्मद की सेना को हराया और उसके एक विरोधी को गद्दी पर बिठाया। दोस्त मुहम्मद को बंदी बनाकर भारत लाया गया। अफगानिस्तान में अंग्रेजों के हस्तक्षेप के खिलाफ विद्रोह हुए, इसलिए दोस्त मुहम्मद को पुनः गद्दी देनी पड़ी और अंग्रेजों को अफगानिस्तान छोड़ना पड़ा। इस लड़ाई में अंग्रेजों को भारी नुकसान उठाना पड़ा और उनके हजारों सैनिक मारे गए। बाद में अफगानिस्तान के शासक और अंग्रेजों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित हुए।
अंग्रेजों ने अफगानिस्तान के मामलों में हस्तक्षेप न करने की नीति अपनाई। १८७८ ई० में अंग्रेजों ने पुनः अफगानिस्तान पर हमला किया। इस बार भी वे अफगानिस्तान पर अपना शासन कायम नहीं कर पाए। यहां तक कि वहां अपना रेजिडेंट भी नहीं रख पाए। परंतु अफगानिस्तान की विदेशी नीति पर अपना नियंत्रण स्थापित करने में उन्हें सफलता मिल गई। चालीस साल बाद अफगानिस्तान के नए शासक ने ब्रिटिश भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया और १९२१ ई० में अपने देश को पूर्णतः आजाद कर लिया।
भारत अफगानिस्तान के बीच के इलाकों में रहने वाले लोगों को कब्जे में करने के लिए भी अंग्रेजों ने प्रयत्न किए। भारत और अफगानिस्तान के बीच सीमा निर्धारित की गई। उत्तर-पश्चिम के सीमावर्ती क्षेत्रों के कबीलों के विद्रोह को दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार को अक्सर फौज भेजनी पड़ी। फिर भी उस इलाके में विद्रोह जारी रहे। सीमावर्ती क्षेत्रों को पंजाब से पृथक करके एक उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत बना दिया गया। सीमावर्ती क्षेत्र पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित करने के लिए अंग्रेजों ने रेल-लाइनें और सड़कें बनाई। सीमावर्ती क्षेत्रों के आजादी पसंद लोगों को पूरे नियंत्रण में रखने के लिए अंग्रेजों ने आतंकवादी तरीके भी आजमाए, विमानों से उन पर बमबारी भी की गई, मगर उन्हें इसमें पूर्ण सफलता नहीं मिली।
बर्मा के राजा ने असम पर अधिकार कर लिया था। अंग्रेजों ने १८२४-२६ ई० में बर्मा के साथ युद्ध करके असम पर अपना अधिकार कर लिया। उसी समय अंग्रेजों ने बर्मा के कुछ इलाकों पर कब्जा कर लिया और बर्मा में अपना रेजिडेंट नियुक्ति किया। १८५२ ई० में अंग्रेजों ने बर्मा पर पुनः हमला किया और बर्मा के सभी तटवर्ती प्रांत ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य के अंग बन गए।
इस बीच फ्रांस में दक्षिण-पूर्व एशिया में अपना साम्राज्यवादी प्रभाव बढ़ाना शुरू कर दिया था। १८८० ई० के दशक में फ्रांसिसियों ने हिंद-चीन में अपना शासन कायम कर लिया था और उन्होंने उत्तरी वर्मा पर अपना प्रभाव बढ़ाना शुरू कर दिया था। फ्रांसिसियों के बढ़ते प्रभाव से अंग्रेज घबरा गए। उन्होंने बर्मा के राजा से कहा कि बर्मा की विदेश नीति पर उनका नियंत्रण स्वीकार करें और अपनी राजधानी मांडलें में एक ब्रिटिश रेजीडेंट रखें। उसने इस मांग को ठुकरा दिया, तो अंग्रेजों ने १८८५ ई० में बर्मा पर हमला करके उस पर अधिकार कर लिया। बर्मी लोग कई सालों तक ब्रिटिश शासन का विरोध करते रहे, मगर अंततः बर्मा को ब्रिटिश भारत का एक प्रांत बना दिया गया।
इस तरह, १८५७ ई० के विद्रोह के बाद ब्रिटिश नीति में अनेक परिवर्तन हुए। भारत पर ब्रिटिश सरकार का सीधा नियंत्रण स्थापित हो गया। इंग्लैंड अपने आर्थिक और साम्राज्यवादी हितों के लिए भारत पर शासन करता रहा। भारत के बारे में ब्रिटिश नीति १८५७ ई० के बाद पहले की अपेक्षा कई दृश्यों से अधिक हानिकर थी। ब्रिटिश शासकों ने सोचा कि भारत को पिछड़ा हुआ रखकर ही वे अपने शासन को मजबूत रख सकते हैं। इसलिए ब्रिटिश सरकार ने भारत में राजाओं और जमीदारों का ही समर्थन किया। अन्य भारतीयों को, विशेषकर शिक्षकों को वे घृणा की दृष्टि से देखते थे। देश के प्रशासन में उनकी कोई पूछ नहीं थी। इस बीच भारतीय अर्थ-व्यवस्था और समाज में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। सामाजिक व धार्मिक सुधार तथा राष्ट्रीय पुनरुत्थान का एक शक्तिशाली आंदोलन शुरू हुआ। इन परिवर्तनों के साथ भारतीय इतिहास का एक नया दौर-स्वतंत्रता के लिए संघर्ष का दौर शुरू हुआ।