अध्याय - १० - स्वराज के लिए संघर्ष
नरम दल और गरम दल
तुम पहले पढ़ चुके हो कि कांग्रेस के आरंभ के बीस वर्षों में इसके नेताओं की आशाओं पर ब्रिटिश सरकार ने पानी फेर दिया। कांग्रेस के प्रति ब्रिटिश सरकार का रवैया अधिकाधिक शत्रुता पूर्ण हो गया। उन्नीसवीं सदी के अंतिम सालों में राष्ट्रीय आंदोलन में नहीं प्रवृत्तियों का उदय हुआ। इन प्रवृत्तियों को लेकर नए नेता सामने आए। वे बलपूर्वक कहने लगे कि सरकार से केवल अनुनय-विनय करके भारतीय अपने अधिकार नहीं प्राप्त कर सकते। ब्रिटिश सरकार की सद्भावना में उनकी कोई आस्था नहीं थी। उन्होंने जनता को आत्म बल का पाठ पढ़ाया। उन्होंने जनता में देश प्रेम की भावना भर दी। उन्होंने जनता को देश के लिए कोई भी कुर्बानी देने के लिए तैयार रहने को कहा। 'वंदे मातरम्' सारे देश में राष्ट्रगीत के रूप में लोकप्रिय हो गया। तुम पहले ही पढ़ चुके हो कि यह गीत बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने लिखा था। इसने मातृभूमि के प्रति जनता की भक्ति को व्यक्त किया।
नए नेता में सबसे प्रमुख थे बाल गंगाधर तिलक, विपिनचंद्र पाल, लाला लाजपत राय और अरविंद घोष। वे "गरम दल" के नेता के रूप में प्रसिद्ध हुए। कांग्रेस के सुरेंद्र नाथ बनर्जी, गोपाल कृष्ण गोखले, फिरोजशाह मेहता और अन्य पुराने नेता "नरम दल" के कहलाए। नरम दल वालों को अभी भी विश्वास था कि भारतीयों की मांगों पर न्यायोचित विचार करने के लिए ब्रिटिश शासकों को मनाया जा सकता है। प्रस्तावों, प्रतिवेदनों तथा सभाओं के जरिए सरकार को भारतीय जनता के हित में सुधार करने के लिए मजबूर किया जा सकता है।
दुनिया की घटनाओं का प्रभाव
ब्रिटिश सरकार के प्रति जैसे-जैसे निराशा बढ़ती गई, वैसे-वैसे गरम दल के नेताओं का प्रभाव बढ़ता गया। भारत के बाहर की घटनाओं ने भी जनता के ब्रिटिश विरोध और देश प्रेम को बढ़ाने में योगदान दिया। १८९६ ई० में इटली ने इथियोपिया पर हमला किया, तो इथियोपिया के लोगों ने इतालवी सैनिकों को हरा दिया। इथियोपियाई जनता के हाथों एक यूरोपीय देश की हार से भारतीयों को खुशी हुई।
इटली की हार के करीब दस साल बाद १९०५ ई० के एक युद्ध में जापान ने रूस को हराया। साम्राज्यवादियों द्वारा एशिया को जीतने का सिलसिला शुरू होने के बाद यह पहला मौका था जब एक एशियाई देश में एक यूरोपीय देश को युद्ध में हराया था। इसलिए जापान की विजय का भारतीय जनता पर बड़ा असर हुआ और ब्रिटिश शासन के प्रति भारतीय जनता की घृणा बढ़ती गई। जैसा कि तुम आगे देखोगे, जापान स्वयं एक साम्राज्यवादी देश बन गया और उसने एशिया के अनेक भागों पर कब्जा करने की कोशिश की। परंतु १९०५ ई० में जापान की विजय इस माने में महत्वपूर्ण थी कि उसने दिखा दिया कि एक यूरोपीय देश को हराया जा सकता है। इससे भारतीय जनता को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध अपने संघर्ष को चलाने के लिए बल मिला।
सन् १९०५ ई० में रूस में एक क्रांति हुई। उन दिनों रूस पर एक निरंकुश बादशाह का शासन था और जनता अधिकारों से वंचित थी। रूस का बादशाह ज़ार कहलाता था। रूसी जनता ज़ार के खिलाफ उठ खड़ी हुई। क्रांति को हालांकि कुचल दिया गया, मगर इसने विदेशी शासन में कष्ट झेल रही भारतीय जनता को प्रेरणा दी। उत्पीड़न के विरुद्ध कई अन्य देशों की जनता के संघर्ष ने भी भारतीय जनता को प्रभावित किया। उदाहरण के लिए, आयरलैंड की जनता ब्रिटिश अधिपति से मुक्त होने के लिए संघर्ष कर रही थी। इन सब घटनाओं से भारतीय जनता और उसके नेता प्रभावित हुए। इन घटनाओं ने नए नेताओं की स्थिति को भी मज़बूत किया।
बंगाल का विभाजन
परंतु राष्ट्रीय आंदोलनों के लक्ष्यों और तरीकों को प्रभावित करने और बदलने में बंगाल के विभाजन में सबसे प्रभावकारी भूमिका अदा की। उस समय बंगाल भारत का सबसे बड़ा प्रांत था। उसमें संपूर्ण बिहार और उड़ीसा के हिस्से शामिल थे। उस समय बंगाल की आबादी ७ करोड़ ८० लाख थी। कई सालों से बंगाल के पुनर्गठन की बात चल रही थी। कहा जा रहा था कि इतने बड़े प्रांत के प्रशासन को संभालना कठिन है, इसलिए इसका विभाजन आवश्यक है। मगर बंगाल से गैर-बंगाली क्षेत्रों (बिहार और उड़ीसा) को अलग करने की बजाय विभाजन के प्रस्ताव में उस प्रांत से पूर्व बंगाल को पृथक करने का सुझाव दिया गया। इसके पीछे मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर बनाना था। बंगाल में राष्ट्रीय आंदोलन बड़ा मजबूत था। ब्रिटिश शासकों ने सोचा कि प्रांत का विभाजन करके वे इस आंदोलन को कमजोर बनाने में सफल हो जाएंगे। उनका दूसरा उद्देश्य था हिंदुओं और मुसलमानों में फूट पैदा करना। वे कहने लगे कि नए प्रांतों में मुसलमानों का बहुमत होगा, इसलिए यह उनके हित में होगा। अंग्रेजों का ख्याल था कि इस तरह वे मुसलमानों को राष्ट्रीय आंदोलन से अलग करने में सफल होंगे। मगर जनता ने और राष्ट्रीय नेताओं ने सरकार की असली चालों को समझ लिया। विभाजन के प्रस्ताव के विरोध में सारे बंगाल में सैकड़ों सभाएं हुईं।
परंतु सरकार ने जनता की भावनाओं की कोई परवाह नहीं की। जुलाई १९०५ ई० में विभाजन की घोषणा कर दी गई। बंगाल के पूर्वी हिस्सों को अलग करके असम के साथ मिला दिया गया। इस तरह पूर्वी बंगाल और असम का नया प्रांत बना। १६ अक्टूबर, १९०५ ई० को विभाजन को कार्यरूप दिया गया।
विभाजन के कारण सारे बंगाल में रोष की लहर दौड़ गई। विभिन्न शहरों में बड़ी सभाएं और जबरदस्त प्रदर्शन हुए। विभाजन के विरुद्ध आंदोलन शुरू हुआ। गरम दल और नरम दल के नेताओं ने मिलकर इस आंदोलन का नेतृत्व किया। इस आंदोलन के कुछ प्रमुख नेता थे - सुरेंद्रनाथ बनर्जी, बिपिन चंद्र पाल और अब्दुल रसूल। विभाजन का दिन सारे बंगाल में शोक-दिवस के रूप में मनाया गया। सारा कारोबार ठप हो गया। महाकवि रवींद्रनाथ ठाकुर के सुझाव पर वह दिन जन-एकता और मैत्री-दिवस के रूप में भी मनाया गया। सारे बंगाल के लोगों ने, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान हो या इसाई हो, एक-दूसरे को राखी बांधी। इस तरह उन्होंने अपनी एकता और भाई बंदी जाहिर की।
बंगाल के विभाजन को खत्म करने के लिए शुरू किए गए आंदोलन के दौरान संघर्ष के नए तरीके अपनाए गए। उन तरीकों के कारण, जिनमें "स्वदेशी" और "बहिष्कार" प्रमुख थे, ब्रिटिश विरोधी राजनीतिक गतिविधियों में आम जनता अधिकाधिक संख्या में शामिल हुई। राष्ट्रीय आंदोलन के लक्ष्य भी पहले की अपेक्षा अधिक क्रांतिकारी हो गए। इस प्रकार, बंगाल के विभाजन के परिणाम सरकार की आशा के विपरीत हुए।
स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन
बंगाल के विभाजन को समाप्त करने के लिए जिस स्वदेशी और बहिष्कार के आंदोलन की शुरुआत हुई, वह जल्दी ही आजादी की लड़ाई का प्रमुख हथियार बन गया। स्वदेशी का अर्थ है- "अपने देश का"। आजादी के संघर्ष के दौरान इसका अर्थ था कि हमें देश में उत्पादित वस्तुओं का इस्तेमाल करना चाहिए। इससे भारतीय उद्योगों को बढ़ावा मिलेगा और राष्ट्र मजबूत बनेगा। देशभक्ति बढ़ाने का यह एक प्रभावकारी तरीका था।
स्वदेशी वस्तुओं को बढ़ावा देने के साथ-साथ विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने का भी नारा दिया गया। इससे जनता की राष्ट्रीय भावनाओं को उभारने में मदद मिली। इस बात पर जोर दिया गया कि विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने से, अधिकांश विदेशी वस्तुएं इंग्लैंड किसे आती थी, इंग्लैंड के आर्थिक हितों को क्षति पहुंचेगी और तब ब्रिटिश सरकार को भारतीय मांगे स्वीकार करने के लिए मजबूर किया जा सकेगा।
कांग्रेस ने १९०५ ई० के वाराणसी अधिवेशन में और १९०६ ई० के कलकत्ता अधिवेशन में स्वदेशी और बहिष्कार के आंदोलन का समर्थन किया। इससे कांग्रेस द्वारा अपनाए गए तरीकों में भारी परिवर्तन हुआ। अब ये तरीके प्रतिवेदनों और अपीलों के जरिए ब्रिटिश शासकों से न्याय की मांग करने तक सीमित नहीं रह गए थे।
स्वदेशी और बहिष्कार का आंदोलन केवल बंगाल तक सीमित न रहकर देश के अनेक भागों में फैल गया। इससे सारे देश में राजनीतिक गतिविधियां तीव्र हो गई। ब्रिटिश कपड़ों, चीनी तथा अन्य वस्तुओं का बहिष्कार किया गया। लोग झुंड बनाकर दुकानों पर जाते और दुकानदारों से विदेशी सामान न बेचने का अनुरोध करते। वे दुकानों के बाहर खड़े रहकर ग्राहकों से विदेशी सामान न खरीदने का आग्रह करते। विदेशी सामान बेचने या इस्तेमाल करने वालों से लोगों ने बोलना-चालना छोड़ दिया। कई जगहों में नाइयो और धोबियों ने विदेशी वस्तुओं का उपयोग करने वाले लोगों का काम करना बंद कर दिया।
इस आंदोलन में स्कूलों और कालेजों के विद्यार्थियों ने बड़े महत्व की भूमिका अदा की। उन्होंने केवल स्वदेशी वस्तुओं का इस्तेमाल करना शुरू किया और लोगों को प्रेरित किया कि वे विदेशी वस्तुओं का इस्तेमाल न करें। सरकार ने दमन के कई तरीके आजमाएं। अनेक विद्यार्थियों को स्कूल-कालेजों से निकाल दिया गया। कईयों को पीटा गया और जेल में डाल दिया गया।
स्वदेशी और बहिष्कार का आंदोलन केवल सामान तक सीमित नहीं रह गया। स्वदेशी का अर्थ हो गया वह सब जो भारतीय है। इसी प्रकार, बहिष्कार का अर्थ हो गया वह सब जिसका संबंध ब्रिटिश शासन से है। बंगाल के विभाजन को रोकने के लिए शुरू हुआ यह आंदोलन अंततः विदेशी शासन से आजादी हासिल करने का साधन बन गया।
कांग्रेस और स्वराज का लक्ष्य
बंगाल के विभाजन के खिलाफ शुरू हुए आंदोलन ने और स्वदेशी तथा बहिष्कार के आंदोलन के फैलाव ने कांग्रेस की नीतियों को प्रभावित किया। गरम दल तथा नरम दल सहित कांग्रेस के भीतर के सभी दल बंगाल के विभाजन के खिलाफ एकजुट हुए। वाराणसी में १९०५ ई० में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष गोपाल कृष्ण गोखले थे। उस अधिवेशन ने स्वदेशी और बहिष्कार के आंदोलन को समर्थन दिया।
मगर नरम दल और गरम दल में मतभेद कायम रहे। नरम दल वालों का मत था कि बहिष्कार जैसे तरीकों का इस्तेमाल विशेष उद्देश्य के लिए विशेष परिस्थितियों में ही होना चाहिए। उनका मत था कि बंगाल के विभाजन के विरुद्ध इन तरीकों का इस्तेमाल करना सही था। मगर वे नहीं चाहते थे कि ब्रिटिश शासन के खिलाफ इन तरीकों का इस्तेमाल हमेशा किया जाए। वे अंग्रेजो के खिलाफ व्यापक संघर्ष छेड़ने के पक्ष में नहीं थे। ब्रिटेन में उदार दल की सरकार बनी थी। मार्ले भारत-मंत्री था। नरम दल के नेताओं का मत था कि अपीलों और प्रतिवेदनों से प्रशासन में सुधार करने के लिए उदार दल की सरकार को मनाया जा सकता है।
परंतु गरम दल वालों का विश्वास था कि बहिष्कार को व्यापक बनाना आवश्यक है। उन्होंने सरकारी स्कूलों, कालेजों तथा विश्वविद्यालयों का बहिष्कार करने और देशभक्ति को उभारने के लिए शिक्षा संस्थाएं शुरू करने का जोर दिया। संक्षेप में गरम दल वाले ब्रिटिश शासन के विरुद्ध व्यापक आंदोलन चलाना चाहते थे। स्वदेशी और बहिष्कार के आंदोलन ने लोगों में आत्मनिर्भरता का विकास किया। इसने भारतीय उद्योगों को बढ़ावा देने और स्वदेशी उद्योग की स्थापना में मदद दी। स्वदेशी वस्तुएं बेचने वाली दुकानें स्थापित करना देशभक्ति का प्रतीक और ब्रिटेन के विरुद्ध संघर्ष का हिस्सा बन गया। उसी दौरान तमिलनाडु के राष्ट्रवादी नेता वी. ओ. चिदंबरम पिल्लाई ने स्वदेशी स्टीम नेविगेशन कंपनी की स्थापना की।
कलकत्ता में १९०६ ई० में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन के समय भी गरम दल और नरम दल के बीच मतभेद बढ़ते जा रहे थे। भारतीय जनता के उस समय के परमप्रिय नेता दादा भाई नौरोजी कलकत्ता अधिवेशन के अध्यक्ष थे। उन्होंने विभिन्न मतों वाले नेताओं को समझाया कि वह कुछ व्यापक नीतियों को एकमत से स्वीकार कर लें। एक प्रस्ताव के जरिए कांग्रेस ने स्वदेशी और बहिष्कार को अपना समर्थन प्रदान किया। देश की आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षा-प्रणाली का आयोजन करने पर भी जोर दिया गया। यह भी कहा गया कि इस प्रणाली का आयोजन स्वयं भारतीयों को करना चाहिए। परंतु इस अधिवेशन की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि यह थी कि स्वराज-प्राप्त को कांग्रेस का लक्ष्य घोषित किया गया। इस लक्ष्य को दादा भाई नौरोजी के भाषण में शामिल किया गया था। स्वराज का मतलब था ब्रिटेन के कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे स्वशासित उपनिवेशों के तरह की सरकार स्थापित करना। ये दो देश ब्रिटिश साम्राज्य के अंग थे मगर इन देशों की सरकारें जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों से बनी थी। कांग्रेस के घोषित लक्ष्यों में यह एक महत्वपूर्ण प्रगति थी। तब तक कांग्रेस ने प्रमुख रूप से तत्कालीन सरकारी ढांचे में ही सुधार के लिए प्रयास किए थे। कांग्रेस का विश्वास था कि सुधारों के जरिए भारत धीरे-धीरे स्वशासन हासिल कर लेगा, परंतु पहले उनसे इसकी कभी स्पष्ट घोषणा नहीं की थी। इस दृष्टि से हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में कलकत्ता अधिवेशन का बड़ा महत्व है।
मगर गरम दल और नरम दल एकजुट नहीं रह सके। सूरत में १९०७ ई० में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में दोनों दलों में संघर्ष हुआ। कांग्रेस पर नरम दल वालों का पूरा कब्जा हो गया। नरम दल वालों कांग्रेस से अलग होकर काम करने लगे। नौ साल बाद १९१६ ई० में ही दोनों दलों का पुनः एकीकरण हुआ।
कांग्रेस पर नरम दल वालों का कब्जा हो जाने के बावजूद गरम दल के विचार तथा तरीके देशभर में फैलते गए। इससे अंग्रेज सतर्क हो गए। ब्रिटिश अधिकारियों में इसलिए भी आतंक फैला कि १९०७ ई० में १८५७ ई० के महान विद्रोह का पचासवां वार्षिकोत्सव पड़ता था। उन्हें भय था कि कहीं दूसरा विद्रोह न भड़क उठे। गरम दल वालों का अधिक दमन होने लगा। लाला लाजपत राय को गिरफ्तार करके १९०७ ई० के शुरू में बर्मा में निर्वासित कर दिया। उन्हें उस साल के अंत में रिहा किया गया।
बिपिनचंद्र पाल को छः महीने के लिए जेल में बंद कर दिया गया। १९०८ ई० में तिलक को गिरफ्तार करके ६ साल के लिए बर्मा में निर्वासित कर दिया गया। कई अखबारों पर प्रतिबंध लगाए दिए गए और उनके संपादकों को जेल में डाल दिया गया। वी. ओ. चिदंबरम पिल्लाई पर अत्याचार किए गए और उन्हें जेल में डाल दिया गया। मगर इन दमनकारी कार्रवाइयों के बावजूद गरम दल के नेताओं द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ अपनाई गई नीतियों तथा तरीकों का जनता में प्रचार बढ़ता गया। सरकारी दमन का जनता ने कड़ा मुकाबला किया। तिलक को सजा देने पर बंबई के मजदूरों ने हड़ताल की। तिन्नेवेल्ली (तमिलनाडु) में लोगों ने एक सभा पर लगाए गए प्रतिबंध को तोड़ा, तो चार प्रदर्शनकारियों को गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया गया। देश के कुछ भागों में अंग्रेजो के खिलाफ हिंसा की भी घटनाएं हुई।
मार्ले - मिंटो सुधार
सरकार ने एक और दमन की नीति को तीव्र बनाया, तो दूसरी ओर नरम दल वालों को संतुष्ट करने की कोशिश की। १९०९ ई० में 'इडियन कौंसिल एक्ट' की घोषणा की गई। इसे मार्ले - मिंटो सुधार के नाम से जाना जाता है। उस समय मार्ले भारत-मंत्री था और मिंटो वायसराय। इस एक्ट के अनुसार केंद्रीय तथा प्रांतीय विधान परिषदों (सभाओं) में सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गई। मगर इन परिषदों में निर्वाचित सदस्यों की संख्या कुल सदस्यों की संख्या से कम थी। ये निर्वाचित सदस्य भी जनता द्वारा नहीं बल्कि, जमीदारों, व्यापारियों तथा उद्योगपतियों के संगठनों, विश्वविद्यालयों और स्थानीय संस्थाओं द्वारा चुने गए थे। अंग्रेजों ने इन सुधारों के अंतर्गत सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व की भी प्रथा चलाई। इसका मकसद था कि हिंदुओं और मुसलमानों में फूट पैदा करना। परिषदों में कुछ सीटें मुसलमान मतदाताओं द्वारा चुने जाने वाले मुस्लिम प्रतिनिधियों के लिए सुरक्षित रखी गई। अंग्रेज सोचते थे कि ऐसा करके वे राष्ट्रीय आंदोलन से मुसलमानों को अलग करने में सफल होंगे। उन्होंने मुसलमानों को बताया कि उनके हित अन्य भारतीयों के हितों से भिन्न है। राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर बनाने के लिए अंग्रेजों ने भारत में सांप्रदायिकता को लगातार बढ़ावा देने की नीति अपनाई। संप्रदायिकता की वृद्धि के भारतीय जनता की एकता और आजादी के संघर्ष के लिए बड़े घातक परिणाम निकले। कांग्रेस ने १९०९ ई० के अपने अधिवेशन में इन सुधारों का स्वागत किया, मगर धर्म पर आधारित प्रतिनिधित्व का विरोध किया।
मार्ले - मिंटो सुधार को लागू करने से परिषदों के अधिकारों में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ। स्वराज की बात कौन कहे, इन सुधारों से प्रतिनिधि सरकार की स्थापना की दिशा में भी कोई प्रगति नहीं हुई। भारत-मंत्री ने तो खुलेआम कहा कि भारत में संसदीय सरकार की स्थापना करने का उनका कोई इरादा नहीं है। संसदीय सरकार में संसद सर्वोच्च होती है और वही सारे कानून और नीतियां बनाती है। संसद सदस्य एक निश्चित अवधि के लिए चुने जाते हैं और उसके बाद पुनः चुनाव होते हैं। भारत में आज संसदीय सरकार हैं। १८५७ ई० के विद्रोह के बाद जो निरंकुश सरकार स्थापित हुई थी वह मार्ले-मिंटो सुधार के बाद भी ज्यों की त्यों कायम रही। केवल इतना ही परिवर्तन हुआ कि सरकार ने अपने संसद के कुछ भारतीयों को उच्च पदों पर नियुक्त करना शुरू किया। सत्येंद्र प्रसन्न सिन्हा गवर्नर-जनरल के कार्यकारिणी परिषद के पहले भारतीय सदस्य बने। बाद में वे 'लॉर्ड' बने। उन्हें बिहार और उड़ीसा का गवर्नर बनाया गया। समूचे ब्रिटिश शासन के दौरान इतने ऊंचे पद पर पहुंचने वाले वे एकमात्र भारतीय थे।
सन् १९११ ई० में दिल्ली में दरबार लगा। उसमें ब्रिटेन का राजा जार्ज पंचम और उसकी रानी ने भाग लिया। दरबार में भारत के राजे-रजवाड़ों ने भी भाग लिया और ब्रिटिश सत्ता के प्रति अपनी वफादारी व्यक्त की। इस अवसर पर दो महत्वपूर्ण घोषणाएं की गई। एक तो १९०५ ई० में किए गए बंगाल का विभाजन रद्द किया गया, दूसरे, ब्रिटिश भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित कर दी गई।
क्रांतिकारी
अपीलों या जन आंदोलनों के जरिए सुधारों तथा स्वराज के लिए काम करने वाले गरम दल और गरम दल के अलावा भी देश के कुछ भागों में क्रांतिकारियों के कुछ ऐसे समूह थे जो ब्रिटिश शासन को बल के जरिए उखाड़ फेंकने में विश्वास रखते थे। उनके गुप्त संगठन थे और वे अपने सदस्यों को गोला-बारूद बनाने और हथियार चलाने का प्रशिक्षण देते थे। इन संगठनों के अधिकांश सदस्य ऐसे नौजवान थे जिनका रोष अंग्रेजों की दमनकारी कार्यवाहियों कारणों से अधिक भड़क उठा था। ये संगठन महाराष्ट्र और बंगाल में ज्यादा सक्रिय थे। क्रांतिकारियों के दो महत्वपूर्ण संगठन थे - महाराष्ट्र में 'अभिनव भारत सोसायटी' और बंगाल में 'अनुशासन समिति'। इनके सदस्यों ने बदनाम ब्रिटिश अफसरों, पुलिस अफसरों, मजिस्ट्रेटों और मुखबिरों, गवर्नरों तथा वायसरायों के खिलाफ हिंसात्मक कार्यवाहियां की।
खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने १९०८ ई० में मुजफ्फरपुर में एक घोड़ागाड़ी पर बम फेंके। उनका ख्याल था कि उसमें एक ब्रिटिश जज सवारी कर रहा है। वह जज स्वदेशी आंदोलन के कार्यकर्ताओं को कड़ी सजा देने के लिए बदनाम था। दरअसल, उस गाड़ी में दो अंग्रेज महिलाएं यात्रा कर रही थी। हमले में दोनों की मृत्यु हुई। चाकी ने आत्महत्या कर ली और खुदीराम बोस को फांसी दे दी गई। इस घटना के बाद कलकत्ता के मणिकतल्ला गार्डन हाउस पर, जिसका क्रांतिकारी बम बनाने और हथियार चलाने का अभ्यास करने के लिए उपयोग करते थे, पुलिस ने छापा मारा। अरविंद घोष और उनके भाई वरिंद्र कुमार घोष सहित अनेक क्रांतिकारी पकड़े गए और उनमें से कुछ को आजीवन कारावास की सजा दी गई। अरविंद घोष को रिहा कर दिया गया। उसके बाद ही उन्होंने सभी राजनीतिक गतिविधियां त्याग दी। वे पांडिचेरी चले गए। उस समय पांडिचेरी एक फ्रांसीसी उपनिवेश था। वहां अरविंद ने एक आश्रम की स्थापना की। अंग्रेजों के विरुद्ध हिंसा की और भी कुछ घटनाएं हुई। ढाका के मजिस्ट्रेट और नासिक तथा तिन्नेवेल्ली के कलेक्टरों को गोली मारकर हत्या कर दी गई। १९१२ ई० में वायसराय हार्डिंग की हत्या का प्रयास हुआ। ब्रिटिश भारत की नई राजधानी दिल्ली में हार्डिंग के पहुंचने पर चांदनी चौक से उसका जुलूस निकाला तो उस पर बम फेंका गया, पर वह बच गया।
भारतीय क्रांतिकारी संसार के अन्य भागों में भी सक्रिय थे। उन्होंने लंदन, पेरिस तथा बर्लिन और उत्तरी अमरीका तथा एशिया में अपने केंद्र स्थापित किए। उन्होंने पत्र-पत्रिकाएं निकाली और क्रांतिकारी विचारों का प्रचार किया। कुछ क्रांतिकारियों ने यूरोप के क्रांतिकारी संगठनों से संबंध स्थापित किए। भारत के बाहर काम करने वाले कुछ प्रमुख क्रांतिकारी थे - श्यामजी कृष्ण वर्मा, मदाम भिकाज़ी कामा, एम. बरकतुल्ला, वी. वी. एस. अय्यर, लीला हरदयाल, रामबिहारी बोस, सोहन सिंह भकना, विनायक दामोदर, सावरकर, उबैदुल्ला सिंधी और मानवेन्द्रनाथ राय। उत्तरी अमरीका के भारतीय क्रांतिकारियों ने विभिन्न भारतीय भाषाओं में ग़दर नामक अखबार निकाला और उसी नाम की एक पार्टी स्थापित की।
प्रथम महायुद्ध (१९१४-१९१८) के दौरान इन दलों ने सशस्त्र विद्रोह के जरिए ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के लिए भारत में चोरी-छिपे हथियार लाने की कोशिश की। बाघा जतिन जर्मनी से लाए हथियारों से विद्रोह की तैयारी कर रहे थे, मगर उन्हें मार दिया गया। भारत में विद्रोह की तैयारी करने के लिए गदर पार्टी ने भी अपने लोग भेजें। मगर उनमें से अधिकांश को पकड़ लिया गया और कुछ को फांसी दी गई। जिन्हें फांसी दी गई उनमें १९ साल के करतार सिंह सराभा भी थे। काबुल के एक क्रांतिकारी दल ने स्वतंत्र भारत की अंतरिम सरकार स्थापित की। राजा महेंद्र प्रताप उसके राष्ट्रपति और बरकतुल्ला प्रधानमंत्री थे।
यद्यपि ये क्रांतिकारी अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुए, परंतु इनका देशप्रेम, निश्चय और आत्म बलिदान भारतीय जनता के लिए प्रेरणा स्रोत बना। मगर इनकी गतिविधियों में कुछ कमजोरियां थी। उदाहरण के लिए, वे सोचते थे कि कुछ खास लोगों की हत्या करके वे देश को आजाद करने में सफल होंगे। वे समझ नहीं पाए कि हिंसा की कुछ घटनाओं से वे एक शक्तिशाली साम्राज्य को हरा नहीं सकेंगे। प्रथम महायुद्ध के दौरान उन्होंने अपनी गतिविधियां तेज कर दी और भारतीय सिपाहियों तथा आम जनता के सहयोग से देश के कुछ भागों में विद्रोह आयोजित करने की कोशिश की। मगर उनके सारे प्रयास में निष्फल रहे। अनेक क्रांतिकारी पकड़े गए। उनमें से कईयों को फांसी दी गई और दूसरों को लंबे कारावास की सजा सुनाई गई। समूचे राष्ट्र के एकजुट संघर्ष से ही ब्रिटिश सत्ता को हराया जा सकता था। मगर क्रांतिकारियों की निर्भयता ने भारतीय जनता को बल प्रदान किया।
मुस्लिम लीग की स्थापना
अंग्रेजों की "फूट डालो और राज्य करो" की नीति के बारे में तुम पहले पढ़ चुके हो। इस नीति की एक मुख्य विशेषता थी हिंदुओं और मुसलमानों में फूट डालना। अंग्रेज उन्हें कहने लगे कि उनके हित एक-दूसरे से एकदम अलग हैं। शुरू में उन्होंने मुसलमानों को अपना प्रमुख शत्रु समझ कर उनके प्रति भेदभाव का व्यवहार किया। बाद में जब राष्ट्रीय आंदोलन मजबूत होने लगा तो उन्होंने उच्च वर्ग मुसलमानों का पक्ष लेकर उन्हें राष्ट्रीय आंदोलन से अलग करने के प्रयास किए। मगर उनके इन प्रयासों के बावजूद बड़ी संख्या में मुसलमान कांग्रेस में शामिल हुए। परंतु उच्च वर्गीय मुसलमानों के एक हिस्से को अंग्रेज अपने पक्ष में करने में सफल हुए। उन्होंने उन्हें अपने अलग संगठन स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने मुसलमानों को अपने पक्ष में करने के लिए यह बताना शुरू किया कि सरकार के प्रति वफादार बने रहने में ही उनका हित है। उन्होंने यह भी कहा कि भारत की प्रतिनिधि सरकार में हिंदुओं का बहुमत रहेगा, क्योंकि वे संख्या में अधिक है। गरम दल के कुछ हिंदू नेताओं ने राष्ट्रीयता के प्रचार के लिए धार्मिक विश्वासों और उत्सवों का इस्तेमाल किया। इससे अंग्रेज-हिमायती मुसलमानों को यह कहने का मौका मिला कि राष्ट्रीय आंदोलन केवल हिंदुओं का आंदोलन है और मुसलमानों को उससे कोई सरोकार नहीं रखना चाहिए।
तुम जानते हो कि बंगाल के विभाजन का एक उद्देश्य हिंदू और मुसलमानों में फूट डालना था। १९०६ ई० में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई। इसकी स्थापना में प्रमुख भूमिका मुसलमानों के एक संप्रदाय के प्रमुख आग़ा खान और ढाका के नवाब सलीमुल्ला ने अदा की। आग़ा खान के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मंडल वायसराय मिंटो से मिला था। तब वायसराय ने उसकी पीठ ठोंकी। सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व को लागू करने के जिस प्रस्ताव के बारे में तुमने पहले पढ़ा है उसे इसी प्रतिनिधि मंडल ने वायसराय के सामने पेश किया था। मुस्लिम लीग ने घोषणा की कि उसका लक्ष्य सरकार के प्रति वफादारी कायम रखना, मुसलमानों के हितों की रक्षा तथा वृद्धि करना और भारत के अन्य समुदायों के प्रति मुसलमानों में शत्रुता की भावना नहीं पनपने देना है।
धर्म के आधार पर राजनीतिक संगठनों की स्थापना जनता के राजनीतिक जीवन के लिए हानिकारक होती है। ऐसे संगठन इसलिए हानिकारक होते हैं कि वे लोगों में यह विश्वास पैदा करते हैं कि अलग-अलग संप्रदायों के अलग-अलग हित हैं। इससे लोग महसूस नहीं कर पाते कि समूचे राष्ट्र के हित-साधन के बिना किसी एक समुदाय का हित-साधन संभव नहीं है। ऐसे विश्वासों को बढ़ावा देने वाले संगठनों को सांप्रदायिक संगठन कहते हैं। वे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दूसरे समुदायों के प्रति घृणा फैलाते हैं और इस प्रकार राष्ट्रीय एकता में बाधक बनते हैं। किसी भी एक राष्ट्र के लोगों को विभिन्न धर्मों के अनुयाई होने पर भी, समान अधिकार प्राप्त होते हैं। किसी भी नागरिक का धर्म उसका अपना निजी विश्वास होता है। धार्मिक विश्वास को राजनीतिक गतिविधियों के साथ नहीं जोड़ना चाहिए, क्योंकि किसी भी राष्ट्र के नागरिकों की राजनीतिक गतिविधियां उस राष्ट्र के सभी लोगों की सामूहिक समस्याओं से संबंधित होती हैं।
मगर ब्रिटिश सरकार के प्रयासों के बावजूद आम मुसलमान राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल हुए। इस काल में अबुल कलाम आजाद, मुहम्मद अली, हकीम अजमल खां और मज़रुल हक जैसे कई मुस्लिम नेता प्रसिद्ध हुए। इनके अलावा देवबंद विद्याकेंद्र के उलमा ने भी शुरू से ही ब्रिटिश शासन का विरोध किया। इन सभी नेताओं ने राष्ट्रीयता का प्रचार किया और जनता को आजादी के आंदोलन में लाने के प्रयास किए। स्वयं मुस्लिम लीग भी साम्राज्यवाद विरोधी विचारों के प्रसार से प्रभावित हुई थी। इसकी स्थापना के समय इसने मुसलमानों में ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादारी की भावना का प्रचार करना अपना एक उद्देश्य घोषित किया था। मगर १९१३ ई० में इसने स्वराज हासिल करना अपना लक्ष्य घोषित किया। कांग्रेस ने इस लक्ष्य की घोषणा सात साल पहले की थी।
प्रथम महायुद्ध के दौरान राष्ट्रीय आंदोलन
यूरोप के साम्राज्यवादी देशों के दो विरोधी गुटों के बीच की शत्रुता के कारण १९१४ में एक युद्ध शुरू हुआ जो १९१८ ई० तक चला। यह तब तक का दुनिया का सबसे बड़ा युद्ध था। इसलिए इसे प्रथम महायुद्ध कहते हैं। ब्रिटेन ने, अपने पहले के युद्ध की तरह प्रथम महायुद्ध में भी भारतीय साधनों और सिपाहियों का इस्तेमाल किया, यद्यपि अंग्रेजों के हितों का भारतीय जनता के हितों से कोई संबंध नहीं था।
तुम पढ़ चुके हो कि युद्ध के दौरान क्रांतिकारियों की गतिविधियां क्या रही। अन्य भारतीय नेताओं ने भी राष्ट्रीय प्रचार की अपनी गतिविधियां तेज कर दी। भारत में स्वशासन की स्थापना की मांग होने लगी। यह "होमरूल" के आंदोलन के नाम से प्रसिद्ध है। श्रीमती एनी बेसेंट और तिलक के नेतृत्व में होमरूल लीग की स्थापना हुई। एनी बेसेंट १८९३ ई० में भारत आई थी और थियोसोफिकल सोसायटी की नेता बनी थी। तिलक १९१४ ई० में बर्मा के निर्वासित जीवन से छूटकर आए थे और पुनः कांग्रेस में शामिल हो गए थे। होमरूल के आंदोलन में शामिल होने वाले अन्य प्रमुख नेता चितरंजन दास और मोतीलाल नेहरू थे। सरकार ने दमन का सहारा लिया। श्रीमती एनी बेसेंट को उनके दो सहयोगियों सहित नजरबंदी में रखा गया। तिलक और बिपिन चंद्र पाल के पंजाब जाने पर रोक लगा दी गई। मुहम्मद अली तथा उनके भाई शौकत अली, अबुल कलाम आजाद और हसरत मोहानी को पहले ही नजरबंद कर दिया था। इन्हें महायुद्ध समाप्त होने के बाद ही रिहा किया गया। पंजाब और बंगाल में दमन की कार्यवाहियां ज्यादा तीव्र थी।
इस दौरान की एक महत्वपूर्ण घटना थी १९१६ ई० का लखनऊ समझौता। इस समझौते पर कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ने हस्ताक्षर किए। जल्दी से स्वराज मिले, यह मांग उठाने के लिए दोनों संगठन एकजुट हुए। इस समझौते में कांग्रेस ने विधान परिषदों में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व को स्वीकार कर लिया। इस प्रकार मुस्लिम लीग का यह भय खत्म हुआ कि चुनावों से बनने वाली परिषदों में हिंदुओं का प्रभुत्व रहेगा और मुसलमानों के हितों की उपेक्षा होगी। एक सामूहिक उद्देश्य के लिए कांग्रेस और मुस्लिम लीग का एकजुट होना एक महत्वपूर्ण घटना थी कांग्रेस के सूरत अधिवेशन के नौ साल बाद अब कांग्रेस के गरम दल और नरम दल भी एकजुट हुए।
भारत-मंत्री एडविन मान्टेग्यू ने अगस्त १९१७ ई० में ब्रिटिश पार्लियामेंट में घोषणा की कि ब्रिटिश सरकार भारत में "उत्तरदाय़ी सरकार" स्थापित करने के उद्देश्य से धीरे-धीरे "स्वशासित संस्थाओं" की स्थापना करना चाहती है। इस घोषणा से कई भारतीय नेताओं की उम्मीदें बढ़ गई। भारतीय नेताओं ने ब्रिटेन के युद्ध प्रयासों में भी मदद की। दिसंबर १९१७ ई० में कांग्रेस का अधिवेशन कलकत्ता में हुआ। एनी बेसेंट को अध्यक्ष चुना गया। कांग्रेस के अध्यक्ष बनने वाली पहली महिला थी। इस अधिवेशन में ४००० प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसमें करीब ४०० महिलाएं थी। कांग्रेस ने मान्टेग्यू की घोषणा का स्वागत किया और सरकार से अपील की कि वह भारत में एक उत्तरदाय़ी सरकार की स्थापना करने के लिए तुरंत एक कानून बनाएं।
मान्टेग्यू की घोषणा ने जो आशाएं जगाई थी वे जल्दी ही तिरोहित हो गई। जुलाई १९१८ ई० में मान्टेग्यू चेम्सफोर्ड रिपोर्ट प्रकाशित हुई। मान्टेग्यू भारत-मंत्री और चेम्सफोर्ड वायसराय था। इस रिपोर्ट में उन सुधार को का जिक्र था जिन्हें ब्रिटिश सरकार भारत में लागू करना चाहती थी। सैयद हसन इमाम की अध्यक्षता में बंबई में कांग्रेस का एक विशेष अधिवेशन बुलाया गया। इसमें प्रस्तावित सुधारों को निराशाजनक और असंतोषप्रद बताया गया और दावा किया गया कि भारतीय जनता उत्तरदायी सरकार को चलाने में समर्थ है। कांग्रेस ने यह भी मांग की कि जिस कानून के जरिए सुधारों को लागू किया जाएगा उसमें ब्रिटिश नागरिकों की तरह भारतीय जनता के अधिकारों की घोषणा का भी समावेश होना चाहिए।
मान्टेग्यू - चेम्सफोर्ड रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद एक और रिपोर्ट प्रकाशित हुई। यह युद्ध के दौरान भारतीयों की सरकार विरोधी गतिविधियों की जांच करने के लिए स्थापित रौलट कमीशन की रिपोर्ट थी। इस रिपोर्ट ने दमन के नए तरीके सुझाए। इस रिपोर्ट पर आधारित कानून ने देश के राजनीतिक माहौल को एकदम बदल दिया। भारत की आजादी के संघर्ष के इतिहास में एक नए अध्याय का आरंभ हुआ।
गांधी का उदय
भारतीय जनता की आजादी के संघर्ष के इस नए दौर में महानतम नेता थे मोहनदास करमचंद गांधी। भारतीय राजनीति में उनका पदार्पण प्रथम महायुद्ध के दौरान हुआ। आधुनिक भारत के इस महानतम नेता ने भारतीय जनता के आजादी के संघर्ष का करीब ३० साल तक नेतृत्व किया। वे भारतीय जनता में महात्मा गांधी के नाम से लोकप्रिय हुए।
महात्मा गांधी का जन्म १८६९ ई० में हुआ था। इंग्लैंड में अपना अध्ययन पूरा करने के बाद वे एक वकील के रूप में दक्षिण अफ्रीका गए। दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए उन्होंने वहां के भारतीयों पर होने वाले गोरे शासकों के अत्याचार के खिलाफ संघर्ष किया। उसी दौरान उन्होंने अत्याचारों के खिलाफ लड़ने का अपना तरीका विकसित किया। बाद में इस तरीके को भारतीय जनता ने आजादी के अपने संघर्ष के लिए अपनाया। इसे "सत्याग्रह" कहा जाता है। सत्याग्रह करने वाला व्यक्ति हर प्रकार के कष्ट तथा दंड भोगने और जेल जाने के लिए तैयार रहता है। अत्याचार के विरुद्ध यह बुनियादी तौर पर एक अहिंसात्मक तरीका था।
गांधी जी १९१५ ई० में भारत लौटे और दमन के खिलाफ संघर्ष करने में जुट गए। उन्होंने अपने एक आरंभिक संघर्ष की शुरुआत चंपारण (बिहार) में की। वे वहां गरीब किसानों को निलहों के अत्याचारों से मुक्त करने के लिए लड़े। वे १९१७ ई० में चंपारण गए। वहां उन्हें चंपारण छोड़े जाने का आदेश दिया गया, मगर गांधी जी ने उसको नहीं माना। उन्होंने निलहों के अत्याचारों की जांच के लिए और उनका अंत करने के लिए सरकार को मजबूर कर दिया। बाद में १९१८ ई० में उन्होंने अहमदाबाद में कपड़ा मिल मजदूरों का और गुजरात के खेड़ा स्थान के किसानों का नेतृत्व किया। अहमदाबाद के मिल मजदूर वेतन में वृद्धि की मांग कर रहे थे और खेड़ा के किसान, फसल बर्बाद हो जाने के कारण राजस्व वसूली रोक देने की मांग कर रहे थे।
महायुद्ध की समाप्ति के बाद गांधी जी भारतीय जनता के सर्वमान्य नेता हो गए। महायुद्ध के बाद का काल, जैसा कि तुम आगे पढ़ोगे, अभूतपूर्व जन-आंदोलन का काल था। लाखों लोग आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। गांधी जी ने जनता में निर्भयता की भावना पैदा की और जेल, लाठी तथा गोली सहित हर प्रकार के दमन को सहने की इच्छाशक्ति उसमें भरी। उनके नेतृत्व में लोगों ने कानून की खुलेआम अवहेलना की, कचहरियों तथा दफ्तरों का बहिष्कार किया, करों की अदायगी नहीं की, शांतिपूर्ण प्रदर्शन किए, कारोबार ठप्प कर दिया और विदेशी माल बेचने वाली दुकानों के सामने धरना दिया। तुम्हें याद होगा कि इनमें से कुछ तरीके बंगाल के विभाजन के विरुद्ध अपनाए गए थे। परंतु गांधी जी के नेतृत्व में ये तरीके बड़े पैमाने पर अपनाए गए और इस नए संघर्ष में समाज के विभिन्न समुदायों के लाखों लोग शामिल हुए। राष्ट्रीय आंदोलन में किसानों तथा अन्य गरीब लोगों के शामिल हो जाने से यह सही अर्थ में एक जन-आंदोलन बन गया।
गांधी जी द्वारा शुरू किए गए समाज सुधार के कार्यों और अन्य रचनात्मक गतिविधियों ने भी राष्ट्रीय आंदोलन को जन-आंदोलन का स्वरूप प्रदान करने में योगदान दिया। उन्होंने अस्पृश्यता की अमानवीय प्रथा के खिलाफ लड़ाई शुरू कर दी। तुम जानते हो कि उन दिनों लाखों भारतीय अपमान का निकृष्ट जीवन जी रहे थे, क्योंकि उच्च जातियों के लोग उन्हें "अछूत" समझते थे। यह गांधीजी का एक महान योगदान है कि उन्होंने इस बुराई को मिटाने के लिए संघर्ष किया। उनके लिए तथाकथित अछूत "हरिजन" थे। उनके आश्रमों में वे तथा उनके अनुयाई पाखाना साफ करने जैसे कई ऐसे काम करते थे जिन्हें उच्च जाति के हिंदू अछूतों का काम समझते थे।
गांधीजी ने गांवों के लोगों की हालत सुधारने के भी प्रयत्न किए। उनका मत था कि जब तक गांवों में रहने वाली करीब ६०% जनता की हालत नहीं सुधरती, तब तक भारत प्रगति नहीं कर सकता। उन्होंने गांवों में छोटे उद्योग स्थापित करने के प्रयास किए। उन्होंने खादी का प्रचार किया। हर कांग्रेसी के लिए खादी पहनना अनिवार्य हो गया। चरखा ग्रामोद्योग के महत्व का प्रतीक बन गया और बाद में यह कांग्रेस के झंडे का भी अंग बन गया।
गांधीजी उन सभी चीजों के खिलाफ थे जो आदमी को आदमी से अलग करती है। उन्होंने विश्वबंधुत्व का प्रचार किया। वे हिंदू-मुसलमान एकता के कट्टर समर्थक थे और तुम जानते हो कि अंत में वे इसी के लिए शहीद भी हो गए।
युद्ध के बाद ब्रिटिश नीति
युद्ध के दौरान ब्रिटेन और उसके मित्रदेशों ने कहा था कि वे राष्ट्रों की आजादी के लिए लड़ रहे हैं। अनेक भारतीय नेताओं का विश्वास था कि लड़ाई खत्म होने पर भारत को स्वराज मिल जाएगा। मगर भारतीय जनता की मांगें मानने का ब्रिटिश सरकार का कोई इरादा नहीं था।
मान्टेग्यू - चेम्सफोर्ड सुधारों के अंतर्गत १९१९ ई० में भारत सरकार ने एक कानून बनाकर शासन-पद्धति में कुछ परिवर्तन किए। इन परिवर्तनों के अनुसार केंद्रीय विधानमंडल के दो सदन बनाए गए - विधान परिषद और राज्यसभा। इन दोनों सदनों में निर्वाचित सदस्यों का बहुमत था। मगर इन दोनों केंद्रीय सदनों के अधिकारों में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ। कार्यकारिणी परिषद के सदस्य, जो मंत्रियों की तरह थे, विधानमंडल के प्रति उत्तरदाय़ी नहीं थे। अर्थात्, विधान मंडल के सदस्य बहुमत से उनका समर्थन करें या ना करें, वे अधिकार में बने रहते थे। प्रांतीय विधान मंडलों का भी विस्तार किया गया और अब उन में निर्वाचित सदस्यों का बहुमत था। प्रांतों में चलाई गई दोहरी सरकार की व्यवस्था के अंतर्गत उन्हें व्यापक अधिकार दिए गए।
इस व्यवस्था के अंतर्गत शिक्षा और जनस्वास्थ्य जैसे कुछ विभाग ऐसे मंत्रियों को सौंपे पर गए जो विधान परिषदों के प्रति उत्तरदाय़ी थे। वित्त और पुलिस जैसे ज्यादा महत्व के विभाग सीधे गवर्नर के नियंत्रण में रहे। गवर्नर मंत्री के किसी भी निर्णय को अस्वीकार कर सकता था। इस प्रकार, मंत्री और विधान परिषदों के अधिकार सीमित थे। उदाहरण के लिए, शिक्षा मंत्री यदि शिक्षा के विस्तार से संबंधित कोई योजना लागू करना चाहता, तो उसके लिए धन गवर्नर की स्वीकृत से ही मिलता था। गवर्नर उस पूरी योजना को ही अस्वीकृत कर सकता था। इसके अलावा गवर्नर जनरल प्रांत के किसी भी निर्णय को अस्वीकार कर सकता था। जो मतदाता केंद्रीय विधानमंडल के दोनों सदनों तथा प्रांतीय परिषदों के सदस्यों का चुनाव करते थे उनकी संख्या बहुत सीमित थी। उदाहरणार्थ, केंद्रीय विधान परिषद के सदस्यों को चुनने के लिए जिनको लोगों को मतदान का अधिकार दिया गया था। उनकी संख्या ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आने वाली देश की व्यापक जनसंख्या का करीब एक प्रतिशत ही था। सभी महत्वपूर्ण अधिकार गवर्नर जनरल और उसकी कार्यकारिणी परिषद के हाथों में थे और वे अपने को ब्रिटिश सरकार के प्रति उत्तरदाय़ी मानते थे, न कि भारतीय जनता के प्रति। प्रांतों में, जैसा कि तुम जानते हो गवर्नरों को व्यापक अधिकार प्राप्त थे।
युद्ध की समाप्ति के बाद लोगों ने स्वराज प्राप्त की जो उम्मीद की थी वह उपर्युक्त परिवर्तनों से निराशा में बदल गई। सारे देश में व्यापक असंतोष फैल गया। इस असंतोष के दौरान ही सरकार ने दमन के नए तरीके अपनाएं। १९१९ ई० में रौलट एक्ट बना। यह रौलट कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर बना था। परिषद ने इसका विरोध किया था। कई नेताओं ने, जो परिषद के सदस्य थे, इसके विरोध में इस्तीफ़े दे दिए। मुहम्मद अली जिन्ना ने अपने इस्तीफे में कहा था : "जो सरकार शांति काल में ऐसे कानून को स्वीकार करती है वह अपने को एक सभ्य सरकार कहलाने का अधिकार खो बैठती है।" इस कानून के जरिए सरकार को किसी भी व्यक्ति को बिना मुकदमा चलाए जेल में डाल देने का अधिकार मिल गया। इस एक्ट के बनाने के कारण लोगों का रोष बढ़ गया। दमन के नए तरीकों को काले कानूनों का नाम दिया गया। गांधी जी पहले ही सत्याग्रह सभा की स्थापना कर चुके थे। अब उन्होंने देशव्यापी विरोध करने को कहा। सारे देश में ६ अप्रैल, १९१९ का दिन "राष्ट्रीय अपमान दिवस" के रूप में मनाया गया। देशभर में प्रदर्शन और हड़ताल हुई। सारे देश में व्यापार ठप पड़ गया। भारत की जनता ने एकजुट होकर ऐसा व्यापक विरोध पहले कभी नहीं किया था। सरकार ने बर्बरतापूर्वक दमन शुरू किया। कई जगहों पर लाठी-गोली का सहारा लिया गया।
जलियांवाला बाग हत्याकांड
दमन के इसी दौर में अमृतसर में सामूहिक हत्या की एक नृशंस घटना हुई। १० अप्रैल, १९१९ ई० को दो राष्ट्रवादी नेता सत्यपाल और डॉ. सैफुद्दीन किचलू गिरफ्तार कर लिए गए। अमृतसर में जलियांवाला बाग नाम का एक छोटा सा पार्क है। यह पार्क तीन ओर ऊंची दीवारों से घिरा है। एक छोटी गली से पार्क में जाने का रास्ता है। वहां १३ अप्रैल को उन दो नेताओं की गिरफ्तारी पर विरोध प्रकट करने के लिए जनता इकठ्ठी हुई। सभा शांतिपूर्ण थी। सभा में काफी संख्या में वृद्ध पुरुष, स्त्रियों और बच्चे भी थे। तभी अचानक ब्रिटिश अफसर जनरल डायर अपने सैनिकों को लेकर पार्क में पहुंचा। जनता को तितर-बितर होने की चेतावनी दिए बिना ही उसने अपने सैनिकों को गोली चलाने का आदेश दिया। सैनिकों ने दस मिनट तक निहत्थे लोगों पर गोलियां चलाई और जब गोलियां खत्म हो गई तो वे वहां से चले गए। कांग्रेस के अनुमान के अनुसार उन १० मिनट में करीब १००० आदमी मर गए और करीब २००० जख्मी हुए। जलियांवाला बाग की दीवारों पर गोली के निशान आज भी देखे जा सकते हैं। जलियांवाला बाग अब एक राष्ट्रीय स्मारक है।
यहां हत्याकांड जानबूझकर किया गया था। डायर ने शान के साथ कहा था कि लोगों को सबक सिखाने के लिए यह सब किया था और उसने निश्चय कर लिया था कि यदि सभा चालू रहती है तो वह सब की हत्या कर डालेगा। उसे कोई पश्चाताप नहीं हुआ। वह इंग्लैंड चला गया। वहां कुछ अंग्रेजों ने उसका सम्मान करने के लिए पैसे इकट्ठे किए। मगर अन्य अंग्रेजों को इस नृशंस हत्याकांड से बड़ा धक्का लगा। उन्होंने जांच की मांग की। एक ब्रिटिश अखबार ने इसे 'आधुनिक इतिहास का हत्याकांड' कहा। करीब २१ साल बाद, १३ मार्च, १९४० को एक भारतीय क्रांतिकारी उधम सिंह ने गोली मारकर माइकल ओडायर की हत्या कर दी। जलियांवाला हत्याकांड के समय माइकल ओडायर पंजाब का लेफ्टिनेंट-गवर्नर था।
जलियांवाला बाग हत्याकांड से भारतीय जनता का गुस्सा बढ़ गया। सरकार के दमन में भी वृद्धि हुई। पंजाब में लोगों को सड़कों पर रेंगने के लिए मजबूर किया गया। उन्हें खुले पिंजरे में रखा गया और कोड़े लगाए गए। अखबार बंद कर दिए गए और उनके संपादकों को जेल में डाल दिया या निर्वासित कर दिया। दमन का ऐसा भयंकर दौर चला जैसा कि १८५७ ई० के विद्रोह को कुचल देने के बाद चला था। अंग्रेजों ने रविंद्रनाथ ठाकुर को 'सर' की पदवी दी थी। वह उन्होंने लौटता दी। वायसराय को भेजे अपने पत्र में उन्होंने लिखा : "समय आ गया है जब सम्मान की पदवियां हमारी शर्म को अपमान के बेतुके संदर्भ में और अधिक उभारती हैं। अपनी सभी विशेषताओं को त्याग कर मैं अपने उन देशवासियों के साथ खड़ा रहना चाहता हूं जो अपनी तथाकथित महत्वहीनता के कारण ऐसी अप्रतिष्ठा झेल रहे हैं जिसे मानवीय नहीं कहा जा सकता।" इस हत्याकांड के बाद आजादी के संघर्ष के इतिहास में एक नया मोड़ आया। अगस्त १९१९ में अमृतसर में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। इसमें लोग, किसान भी, बड़ी संख्या में शामिल हुए। स्पष्ट था कि ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों ने आग में घी डालने का काम किया था। आज़ादी के लिए और दमन के खिलाफ लड़ने के लिए लोगों ने कमर कस ली।
ख़िलाफत और असहयोग आंदोलन
ब्रिटिश शासन के खिलाफ बढ़ता हुआ रोष ख़िलाफत और असहयोग आंदोलन के रूप में व्यक्त हुआ। प्रथम महायुद्ध में तुर्की ने ब्रिटेन के विरुद्ध लड़ाई लड़ी थी। युद्ध के बाद पराजित तुर्की को ब्रिटेन के अत्याचारों का शिकार होना पड़ा। इन अन्यायों के विरुद्ध १९१९ ई० में मुहम्मद अली तथा शौकत अली (जो अली बंधुओं के नाम से प्रसिद्ध थे), अब्दुल कलाम आजाद, हसरत मोहानी और दूसरों के नेतृत्व में आंदोलन चलाया। युद्ध के दौरान इन सभी नेताओं को बंदी बनाया गया था और युद्ध के बाद छोड़ दिया गया था। इस आंदोलन को चलाने के लिए जो खिलाफत कमेटी बनी थी उसमें गांधी जी भी शामिल हो गए। तुर्की के सुल्तान को ख़लीफा (मुसलमानों का धार्मिक नेता) भी माना जाता था। इसलिए तुर्की के प्रति हो रहे अन्याय के खिलाफ जो आंदोलन चलाया गया उसे "ख़िलाफत आंदोलन" का नाम दिया गया। इस आंदोलन ने असहयोग का नारा दिया। ख़िलाफत का यह आंदोलन जल्दी ही पंजाब में दमन के विरोध में और स्वराज के लिए चल रहे आंदोलन में मिल गया।
सन् १९२० ई० में कांग्रेस ने प्रथम कलकत्ता के अपने विशिष्ट अधिवेशन में और फिर नागपुर में १९२० ई० के अंत में आयोजित अपने नियमित अधिवेशन में, गांधी जी के नेतृत्व में, सरकार के खिलाफ संघर्ष की एक नई योजना स्वीकार की। नागपुर अधिवेशन में करीब १५,००० प्रतिनिधि शामिल हुए। इस अधिवेशन में कांग्रेस के संविधान में संशोधन किया गया। "सभी न्यायोचित और शांति में साधनों से भारतीय जनता द्वारा स्वराज्य प्राप्त करना" कांग्रेस के संविधान की प्रथम धारा बन गई। इन साधनों को 'असहयोग आंदोलन' का नाम दिया गया। इस आंदोलन का लक्ष्य था पंजाब तथा तुर्की के साथ हो रहे अन्याय को खत्म करना और स्वराज प्राप्त करना। इस आंदोलन में अपनाए गए तरीकों के कारण ही इसे असहयोग आंदोलन का नाम दिया गया। इसे स्तरों में चलाया गया। इसकी शुरुआत ब्रिटिश सरकार द्वारा की गई "सर" जैसी पदवियों को त्यागने के साथ हुई। सुब्रमण्यम अय्यर और रविंद्र नाथ ठाकुर इस दिशा में पहले ही पहल कर चुके थे। गांधी जी ने १९२० ई० में अपना कैंसर-ए-हिंद पदक लौटा दिया। कईयों ने उनका अनुकरण किया। भारतीय लोग अब ब्रिटिश सरकार से पदवियां प्राप्त करना सम्मान की बात नहीं समझते थे। इसके बाद विधान परिषदों का बहिष्कार शुरू हुआ। जब परिषदों के लिए चुनाव हुए तो अधिकांश लोगों ने वोट डालने से इंकार कर दिया। हजारों विद्यार्थियों और अध्यापकों ने स्कूल-कॉलेज छोड़ दिए। राष्ट्रवादियों ने दिल्ली में जामिया मिलिया और वाराणसी में काशी विद्यापीठ जैसी नई शिक्षण संस्थाएं स्थापित की। लोगों ने अपनी सरकारी नौकरियां छोड़ दी। वकीलों ने अदालतों का बहिष्कार किया सारे देश में हड़तालें हुईं।
असहयोग आंदोलन काफी सफल रहा गोली-बारी और गिरफ्तारियां उस की लहर को नहीं रोक सकी। १९२१ ई० का साल खत्म होने के पहले ही ३०,००० लोग जेलों में बंद हो गए। उनमें अधिकांश प्रमुख नेता शामिल थे। मगर गांधी जी जेल से बाहर थे। केरल के कुछ भागों में विद्रोह भड़क उठा। अधिकांश विद्रोही मोपला किसान थे इसलिए इसे 'मोपला विद्रोह' कहते हैं। विद्रोह को बर्बरतापूर्वक कुचल दिया गया। २००० से अधिक मोपला मारे गए और करीब ४५,००० को बंदी बनाया गया। बर्बरतापूर्ण अत्याचारों का एक उदाहरण यह है कि जब मोपला कैदियों को रेल-वैगनों में ठूंस कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जा रहा था तो दम घुटने से ६७ मोपलाओं की मृत्यु हुई।
सन् १९२१ ई० में कांग्रेस का अधिवेशन अहमदाबाद में हुआ।हकीम अजमल खां इसके अध्यक्ष थे। अधिवेशन में आंदोलन को जारी रखने का निर्णय लिया और तब असहयोग आंदोलन का अंतिम दौर आरंभ हुआ। इसमें लोगों से कहा गया कि वे कर अदा न करें। गांधीजी ने गुजरात के बारदोली स्थान पर यह आंदोलन शुरू किया। आंदोलन का यह अत्यंत महत्वपूर्ण दौर था, क्योंकि जब जनता खुलेआम घोषणा करती है कि वह कर अदा नहीं करेगी तो वह कर अदा करने वाली सरकार को भी वैध नहीं मानती। उत्पीड़क सरकार के खिलाफ लड़ने का यह एक अत्यंत शक्तिशाली तरीका है। गांधीजी ने सदैव इस बात पर जोर दिया कि समूचा आंदोलन शांतिपूर्ण होना चाहिए। मगर लोग कभी-कभी अपने को काबू में नहीं रख पाते थे। फरवरी,१९२२ ई० में उत्तर प्रदेश के चौरी-चौरा स्थान में लोग एक प्रदर्शन में भाग ले रहे थे तो, छेड़खानी की कोई बात न होने पर भी पुलिस ने गोलियां चला दी। गुस्से में आकर लोगों ने पुलिस स्टेशन को घेर लिया और उसे आग लगा दी। स्टेशन के भीतर २२ पुलिस-कर्मियों की मृत्यु हो गई। गांधी जी की यह शर्त थी कि आंदोलन पूर्णतः शांतिमय होना चाहिए। चौरा-चौरी की घटना का समाचार सुनने पर गांधीजी ने आंदोलन वापस ले लिया। १० मार्च १९२२ ई० को उन्हें गिरफ्तार किया गया और ६ साल की कैद की सजा सुनाई गई।
आंदोलन को वापस लेने के साथ राष्ट्रीय आंदोलन का एक और दौर खत्म हुआ। इस आंदोलन में देशभर के लोगों ने बड़े पैमाने पर भाग लिया। राष्ट्रीय आंदोलन अब केवल शिक्षित लोगों तक या नगरवासियों तक सीमित नहीं रह गया था। यह गांवों में भी फैल गया। स्वराज की मांग के लिए लोग सरकार के खिलाफ खुले मैदान में उतरे। इस आंदोलन ने हिंदू और मुसलमानों की एकता को भी मजबूत बनाया। इस आंदोलन के दौरान का एक सर्वाधिक लोकप्रिय नारा था : 'हिंदू मुसलमान की जय'।