Vaidikalaya

अध्याय २ - अठारहवीं सदी का भारत 


मुगल साम्राज्य का विघटन

तुम 'मध्यकालीन भारत' पुस्तक में पढ़ चुके हो कि मुगल साम्राज्य ने लगभग समूचे देश को एक सूत्र में बांध दिया था। अकबर के शासन में कुशल प्रशासन कायम हो गया था, जिसने आगे के डेढ़ सौ सालो तक साम्राज्य के स्थापित और विस्तार में मदद दी। इस काल में साहित्य, संगीत, कला और स्थापत्य के क्षेत्र में हुई प्रगति के बारे में भी तुम पढ़ चुके हो।

अंतिम महान् सम्राट औरंगजेब के शासनकाल में साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह हुए। यह विद्रोह मराठों, जाटों, सिक्खों आदि लोगों ने किए थे। औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य तेजी से बिखरने लगा। देश जल्दी ही छोटे-छोटे प्रदेशों में बंट गया। उनमें से कई प्रदेश लगभग स्वतंत्र हो गए।

          

परवर्ती मुग़ल

औरंगजेब की मृत्यु के बाद जो मुगल बादशाह गद्दी पर बैठे उन्हें परवर्ती मुगल कहते हैं। इन शासकों के समय में वास्तविक सत्ता सरदारों के हाथों में चली गई। यह सरदार अपने-अपने मूल स्थान के आधार पर कई गुटों में बैठे हुए थे। उदाहरण के तौर पर, मध्य एशिया के तूरान प्रदेश से आए सरदारों ने अपना एक गुट बनाया और यह तूरानी कहे जाते थे। इसी तरह ईरानी, अफगानी और हिंदुस्तानी सरदारों के अपने अलग-अलग गुट थे। इनमें से प्रत्येक गुट ने अपनी सर्वोच्चता और सत्ता स्थापित करने के प्रयास किए।

तुम पहले पढ़ चुके हो कि औरंगजेब के शासन के अंत समय तक साम्राज्य में मनसबदार की संख्या काफी बढ़ गई थी, मगर राजस्व घट गया था। प्रत्येक मनसबदार पहले से बड़ी जागीर की मांग करने लगा, ताकि उसे ज्यादा आमदनी हो सके। मनसबदारों ने अपने तबादलों का विरोध किया और जागीरो पर अपने अधिकार पक्के और पुश्तैनी बनाने के प्रयास किए। जागीरें बांटने का काम वज़ीर करता था। इसलिए वज़ीर के ओहदे पर कब्जा करने के लिए सरदारों के बीच संघर्ष चला। कोई भी सरदार वज़ीर के ओहदे पर कब्जा करके ही अपने रिश्तेदारों और अनुयायियों का हित साध सकता था।

औरंगजेब की मृत्यु के बाद गद्दी के लिए हुए संघर्ष में बहादुर शाह विजयी हुआ। बहादुर शाह ने अपने अल्प शासनकाल (१७०७-१७१२ ई०) में मराठा और राजपूतों से मेल मिलाप करके मुगल साम्राज्य के साख फिर से कायम करने की कोशिश की। औरंगजेब ने शिवाजी के पोते (साहू) को कैद किया था। बहादुर शाह ने उसे छोड़ दिया।

जुल्फिकार खां की मदद से १७१२ ई० में जहांदार शाह गद्दी पर बैठा। जुल्फिकार खां औरंगजेब का सबसे ऊंचे ओहदे वाला सेनापति था जहांदार शाह के शासनकाल में जजिया कर खत्म कर दिया गया। मगर एक साल से कुछ अधिक समय बाद ही जहांदार शाह को गद्दी से हटा दिया गया। फ़र्रु़खसियर १७१३ ई० में बादशाह बना। उस समय अब्दुल्ला खां और हुसैन अली खां सबसे शक्तिशाली सरदार थे। वह 'सैयद बंधु' के नाम से जाने जाते हैं। बादशाह ने जब इन सैयद बंधुओं की शक्ति को तोड़ने की कोशिश की तो उसे १७१९ में मौत के घाट उतार दिया गया। सैयदों ने तब फ़र्रु़खसियर के रिश्ते के दो भाइयों को एक-एक कर गद्दी पर बैठाया और चचेरे भाई मुहम्मदशाह को १७२० ई० में बादशाह बनाया मगर जल्दी से चिन किलिंच खां के नेतृत्व में सरदारों के एक दल ने सैयद बंधुओं को उखाड़ फेंका। चिन किलिंच खां औरंगजेब का एक मशहूर सेनापति रह चुका था।

मुहम्मदशाह ने १७४८ ई० तक २९ साल शासन किया।‌ मगर साम्राज्य का बिखरना जारी रहा। सरदारों के विभिन्न दलों के बीच जारी कलहों ने केंद्रीय सत्ता की शक्ति को कमजोर बना दिया था। वास्तविक सत्ता सरदारों ने हथिया ली थी। वे बादशाह के प्रति औपचारिक निष्ठा तो दिखाते रहे, मगर अपना उल्लू सीधा करने के लिए उसे शतरंज के मोहरे की तरह इस्तेमाल करते रहे। धीरे-धीरे अनेक इलाके साम्राज्य से अलग हो गए और बंगाल, अवध, हैदराबाद तथा रुहेलखंड में अर्ध-स्वतंत्र राज्यों का उदय हुआ। नादिरशाह ने १७३९ ई० में करनाल में मुगल सेनाओं को हराया। उसके बाद दिल्ली में कत्ले-आम हुआ और धन-दौलत लूटी गई। नादिरशाह के आक्रमण के बाद साम्राज्य का और अधिक विघटन हुआ। मुगल साम्राज्य का गौरव एक तरह से समाप्त हो चुका था।

मुहम्मद शाह के उत्तराधिकारी अहमद शाह (१७४८-१७५४) आलमगीर द्वितीय (१७५४-१७५९) और शाह आलम  द्वितीय (१७५९-१८०६) केवल कहने भर को ही बादशाह थे। इस दौरान देश में मराठों की अत्यंत महत्वपूर्ण शक्ति का उदय हुआ।


स्वतंत्र राज्यों का उदय

बंगाल

मुर्शीद कुली खां औरंगजेब के मातहत बंगाल का दीवान था। फ़र्रु़खसियर ने उसे बंगाल का सूबेदार बना दिया। वह जल्दी ही एक तरह से स्वतंत्र शासक बन गया। वह अपनी राजधानी मध्य बंगाल के एक स्थान पर ले गया जिसे उसने मुर्शिदाबाद का नाम दिया। मुर्शिद कुली खां और उसके उत्तराधिकारी नवाबों ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा पर स्वतंत्र शासकों की तरह शासन किया। यद्यपि वे मुगल बादशाह को नियमित रूप से राजस्व भेजते रहें। उन्होंने सूबे के प्रशासन का पुनर्गठन किया और कृषि, व्यापार तथा उद्योग को बढ़ावा दिया। राजस्व की वसूली नियम से और सख़्ती से की जाती थी। गरीब किसानों को कर्ज दिया जाता था, मगर राजस्व की मात्रा में कटौती नहीं की जाती थी। इस प्रकार प्रांत में राजस्व के साधनों को बढ़ाया गया, यद्यपि किसानों को कोई राहत नहीं मिली।

हैदराबाद

चिन किलिंच खां को निज़ाम-उल-मुल्क की पदवी दी गई थी और उसे ढक्कन का सूबेदार बना दिया था। १७२२ ई० में उसे वजीर बनाया गया, मगर वह जल्दी ही दक्कन लौट गया और उस प्रदेश पर उसने अपने अधिकार को अधिक मजबूत किया। यद्यपि उसने अपने को कभी भी स्वतंत्र घोषित नहीं किया, मगर दक्कन पर उसने एक स्वतंत्र शासक की तरह ही राज किया। उसे आसफ़जाहि वंश की नींव डाली। उसके उत्तराधिकारी हैदराबाद के निज़ाम कहलाए।

अवध

स‌आदत खां एक छोटा मुगल अफसर था। उसने सैयद बंधुओं को उखाड़ फेंकने में मदद की थी। उसे १७२२ ई० में अवध का सूबेदार बना दिया गया। उसका उत्तराधिकारी था उसका दामाद सफदरजंग। जो कुछ सालों तक साम्राज्य का वजीर भी रहा। अवध के शासकों ने अराजकता खत्म करने, सूबे के वित्तीय साधनों को बढ़ाने तथा न्याय व शक्ति का शासन स्थापित करने के प्रयास किए। उन्होंने एक शक्तिशाली सेना खड़ी की थी। उसमें मुसलमानों और हिंदुओं के अलावा नागा सन्यासी भी थे। अवध के शासकों के राज्य का विस्तार रुहेलखंड तक था। रूहेलखंड प्रदेश दिल्ली के पूर्व में था। इस प्रदेश में भारत की पश्चिमोत्तर सीमा की पर्वत श्रेणियां (रुह) से अफगान लोग बड़ी संख्या में आकर बस गए थे। उन्हें रुहेला कहते थे। रुहेला सरदार इस प्रदेश में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की कोशिश कर रहे थे।

पंजाब

दिल्ली के उत्तर में लाहौर और मुलतान के क्षेत्रों पर मुगल सूबेदारों का शासन था। परंतु नादिरशाह और बाद में अहमद शाह अब्दाली के हमलों के कारण उनकी शक्ति खत्म हो गई और उस क्षेत्र में एक सर्वोच्च राजनीतिक शक्ति के रूप में सिक्खों का उदय हुआ।

उसी दौरान दिल्ली आगरा और मथुरा के आसपास के क्षेत्रों में जाटों की एक नई शक्ति का भी उदय हुआ। उन्होंने भरतपुर में अपना राज्य कायम किया और वहां से वे आसपास के इलाकों में लूट-पाट मचाते रहे। उन्होंने दिल्ली दरबार में चल रहे षड्यत्रों में भी भाग लिया।


अन्य भारतीय राज्य

तुम ऊपर पढ़ चुके हो कि किस प्रकार मुगल साम्राज्य के अधिकारियों ने अपने स्वतंत्र राज्य कायम किए। साथ ही, अनेक राज्यों ने, जो पहले मुगल साम्राज्य के अंग थे, अपने को स्वतंत्र घोषित किया और अपना प्रभाव बढ़ाने लगे। 

राजपूत

राजपूत सरकार अकबर के समय से ही मुगल साम्राज्य को दृढ़ समर्थन देते आ रहे थे। मगर उनमें से बहुतों ने औरंगजेब के विरुद्ध विद्रोह किया। इसका कारण यह था कि औरंगज़ेब उनके पैतृक भूमि के उत्तराधिकार में हस्तक्षेप करने लगा था। औरंगजेब की मृत्यु के बाद उन्होंने मुगल साम्राज्य के बंधन से अपने को मुक्त करने का प्रयास किए। उन्होंने अपना प्रभाव-क्षेत्र बढ़ाने के भी प्रयत्न किए।

जोधपुर और आमेर के शासकों का क्रमशः गुजरात और मालवा का सूबेदार बनाया गया। कुछ समय तक लगा कि राजपूत मुगल साम्राज्य में अपना स्थान और प्रभाव प्राप्त कर रहे हैं और जाटों तथा मराठा के विरुद्ध साम्राज्य के मुख्य समर्थक बन रहे हैं।

इस काल में सबसे श्रेष्ठ राजपूत शासक आमेर का सवाई राजा जयसिंह (१६८१-१७४३) था। उसने खूबसूरत जोधपुर नगर बनवाया और खगोल के अध्ययन के लिए दिल्ली, जयपुर, वाराणसी, उज्जैन तथा मथुरा में वेधशालाएं स्थापित की।

परंतु राजपूतों का प्रभाव ज्यादा दिनों तक नहीं टिका। वे आपसी कलहों में इतने अधिक उलझे रहे कि अपने प्रभाव क्षेत्र के बाहर सत्ता की होड़ के लिए उनमें न ताकत थी और न ही क्षमता। जाटों, मराठों और सवाई शासकों के शक्ति बढ़ी तो राजपूतों के हाथों से राज्यों के बाहर की उनकी जागीरें निकल ग‌ई और उनका प्रभाव घटने लगा।

राजपूतों का राजनीतिक प्रभाव यद्यपि घट गया था, परंतु राजस्थानियों के एक समूह का देश की अर्थव्यवस्था में प्रभाव बढ़ गया। ये सौदागर लोग थे और उस समय गुजरात, दिल्ली तथा आगरा के महत्वपूर्ण केंद्रों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में लगे हुए थे। मुगल साम्राज्य के साथ इन केंद्रों का व्यापारिक महत्व घट गया। राजस्थानी सौदागर न‌ए केंद्रों में पहुंचे और उन्होंने बंगाल, अवध तथा दक्कन में वाणिज्य-व्यापार पर अपना कब्जा जमाना शुरू कर दिया।

सिक्ख

गुरु गोविंद सिंह ने जो सिक्खों के दसवें और अंतिम गुरु लड़ाकू सिक्खों के एक समूह का गठन किया था, मगर औरंगजेब के शासनकाल में वे अपना राज्य स्थापित नहीं कर पाए थे। गुरु की मृत्यु के बाद सिखों को बंदा बहादुर के रूप में एक योग्य नेता मिला। उसके नेतृत्व में सिक्खों ने मुगलों का बहादुरी से मुकाबला किया और वे लाहौर से दिल्ली तक के सारे इलाके में छा गए। मगर अंत में उनकी पराजय हुई और बंदा बहादुर को मौत के घाट उतार दिया गया। कुछ समय बाद उन्होंने फिर से अपने को संगठित कर लिया। नादिरशाह के आक्रमण के बाद पंजाब में मुगल सत्ता का पतन हो गया और अफ़गानों तथा उस क्षेत्र में नादिरशाह द्वारा छोड़े गए उसके अनुयायियों के बीच संघर्ष छिड़ जाने के कारण गड़बड़ी की स्थिति पैदा हो गई। उस स्थिति का फायदा उठाकर सिक्खों ने धीरे-धीरे उस सूबे पर कब्जा जमाना शुरू कर दिया। उन्होंने अपने को बारह छोटे-छोटे समूहों में संगठित किया। उन समूहों को (मिसल) कहते थे।‌ मिसल के नेताओं ने इलाके को आपस में बांट लिया। अहमद शाह अब्दाली भी इन मिसलों को खत्म नहीं कर सका। उसके चले जाने के दो साल के अंदर ही उसके लाहौर और सरहिंद के सूबेदारों को निकाल बाहर किया गया। नाभा, पटियाला और कपूरथला जैसे छोटे राज्यों का उदय हुआ। अठारहवीं सदी के अंतिम दौर में महाराजा रणजीत सिंह ने मिसलों का एकीकरण किया और एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की।

कर्नाटक और मैसूर

अठारहवीं सदी के दौरान भारत में अनेक नए राज्यों का उदय हुआ। इनमें से कुछ ने अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में यूरोपीय कंपनियों के साथ झगड़ों में फंसकर काफी महत्व प्राप्त किया। इन राज्यों के बारे में विस्तार पूर्वक अगले अध्यायों में पढ़ोगे।

कर्नाटक का सूबा धीरे-धीरे दक्कन के मुगल सूबेदार के कब्जे से निकल गया। तुम्हें याद होगा कि दक्कन के सूबेदार में अपने को मुगल सत्ता से लगभग स्वतंत्र कर लिया था और हैदराबाद में निज़ाम के आसफ़जाहि वंश की स्थापना की थी।

१७६१ ई० में हैदर अली ने मैसूर के राजा से गद्दी छीन कर राज्य पर अधिकार कर लिया। हैदर अली ने अपना जीवन एक मामूली सैनिक के रूप में शुरू किया था। हैदर अली और उसका बेटा टीपू सुल्तान बड़े ही योग्य शासक थे। उन्होंने कई महत्वपूर्ण सुधार किए। फलतः मैसूर भारत का एक अत्यंत शक्तिशाली राज्य बन गया। उदाहरण के लिए, उन्होंने सैनिक प्रशिक्षण और संगठन के आधुनिक तरीकों को अपनाया और आधुनिक किस्म के हथियार बनाने के लिए एक कारखाना खोला। उन्होंने कुछ नए उद्योग स्थापित करने के भी प्रयास किए। धार्मिक मामलों में वे काफी समझदार और उदार थे, इसलिए उन्होंने अपनी सारी प्रजा का समर्थन प्राप्त कर लिया। तत्कालीन भारत के अधिकांश शासकों के विपरीत उन्होंने दुनिया की घटनाओं के बारे में अच्छी जानकारी प्राप्त की।

मराठा शक्ति का उत्थान और पतन

तुम पढ़ चुके हो कि शिवाजी ने औरंगजेब के शासनकाल में मराठा राज्य की स्थापना की थी। औरंगजेब की मृत्यु के बाद शिवाजी के पोते साहू को कैद से रिहा कर दिया गया। राजाराम की विधवा पत्नी ताराबाई ने अपने बेटे को एक प्रतिद्वंदी राजा के रूप में कोल्हापुर की गद्दी पर बिठा दिया, जबकि साहू सतारा में शासन करने लगा। इससे मराठा राज्य के दो दावेदारों के समर्थकों के बीच युद्ध छिड़ गया। आखिरकार साहू का अधिपत्य दृढ़तापूर्वक स्थापित हो गया।

पेशवाओं का उदय

साहू की सफलता में बालाजी विश्वनाथ का बड़ा हाथ था। उसने पेशवा का पद प्राप्त किया और उसके साथ ही मराठा राज्य के विस्तार का युग शुरू हुआ। उसने सैयद बंधुओं में से एक के साथ समझौता किया। 

शिवाजी के राज्य के सारे क्षेत्र साहू को वापस मिल गए। उसे दक्कन के छः सूबों से चौथ और सरदेशमुखी वसूल करने के अधिकार भी मिल गए। बदले में साम्राज्य की सेवा के लिए १५००० घुड़सवारों की सेना रखना साहू ने स्वीकार कर लिया। १७१९ ई० में पेशवा मराठा सेना लेकर सैयद बंधुओं में से एक की मदद को दिल्ली गया और वहां फ़र्रू़खसियर को गद्दी से हटा दिया गया। दिल्ली में मराठों ने मुगल साम्राज्य की कमजोर दशा देखी तो, उनमें मराठा की प्रभुसत्ता स्थापित करने की लालसा जागी। पेशवा का पद सबसे शक्तिशाली बन गया और उसने मराठा राज्य की शक्ति को निस्तेज कर दिया।

बालाजी विश्वनाथ का बेटा बाजीराव (प्रथम) १७२० ई० में पेशवा बना। उसने निज़ाम के राज्य पर हमले करने की ओर खि़राज वसूल करने के लिए उत्तर की ओर मराठा शक्ति का विस्तार करने की नीति अपनाई। उसने मालवा, उत्तर गुजरात तथा बुंदेलखंड को जीत लिया और ठेठ दिल्ली तक हमले किए। मगर उसने दिल्ली पर कब्जा नहीं किया, क्योंकि अभी भी मुगल बादशाह की काफी इज्जत थी। मराठों ने ये हमले राज्य-विस्तार के इरादे से नहीं किए थे। उनकी दिलचस्पी मुख्य रूप से उन इलाकों के भू-राजस्व का अधिकांश हिस्सा हथियाने की थी।

बाजीराव के पुत्र बालाजी बाजीराव ने अपने पिता की विस्तार की नीति को जारी रखा। उसके पेशवा-काल में मराठे पूर्व में बिहार तथा उड़ीसा तक और उत्तर में पंजाब तक पहुंचे। वह मराठा-शक्ति के महत्तम विस्तार का काल था।

मराठों की राज्य-व्यवस्था की कमजोरियां

मराठा-शक्ति की अपनी कुछ बुनियादी कमजोरियां थी जिनके कारण आखिर में उनका पतन हुआ। मराठे एक ऐसी राज्य व्यवस्था कभी विकसित नहीं कर पाए जो उन्हें अपनी विजयों को स्थायी बनाने और एक स्थिर प्रशासन कायम करने में सहायता दे सकती। वस्तुतः जिस नीति ने उन्हें अपनी सत्ता के विस्तार में मदद दी उसी ने उन्हें आखिर में बर्बाद भी किया। चौथ और सरदेशमुखी के रूप में राजस्व का एक निश्चित हिस्सा सतारा में मराठों की केंद्रीय सरकार को भेज दिया जाता था। शेष हिस्से को मराठा सरदार अपने पास रखते थे और उनकी अपनी-अपनी सेनाएं थी। ये सरदार कहने को पेशवा के प्रतिनिधि थे, मगर उन्होंने अपने-अपने क्षेत्र में काफी हद तक अपनी स्वतंत्र सेनाएं स्थापित कर ली थी। वे सभी सतारा की सरकार के प्रति अपनी राजनिष्ठा से छुटकारा पाना चाहते थे। इस प्रकार अठारहवीं सदी के मध्यकाल तक पांच स्पष्ट मराठा-शक्तियों का उदय हुआ। ये शक्तियां थी - पुणे में पेशवा, बड़ौदा में गायकवाड़, नागपुर में भोंसले, इंदौर में होलकर और ग्वालियर में सिंधिया।

मराठों ने अपने खास ढंग की राज्य-व्यवस्था के कारण अन्य लोगों की सहानुभूति खो दी। उनके छापों के कारण दूसरे शासक उनके शत्रु बन गए उनकी कर-वसूली से आम जनता के, विशेषकर किसानों और व्यापारियों के कष्ट बढ़े। पानीपत की तीसरी लड़ाई ने उनकी भीतरी कमजोरियों को और अन्य जगहों से उन्हें न मिलने वाले सहयोग को उजागर कर दिया।

पानीपत की तीसरी लड़ाई

नादिरशाह के बारे में तुम पहले पढ़ चुके हो। उसे उसके सैनिकों ने ही मार दिया था। उसने अफगानिस्तान के जो इलाके जीते थे वे उसके एक सेनापति अहमद शाह अब्दाली के हाथों में चले गए। अहमद शाह अब्दाली ने दुर्रानी वंश की स्थापना की।

इसी बीच मराठों ने दिल्ली और पंजाब में अपना प्रभाव जमाना शुरू कर दिया, मराठों और अब्दाली के बीच युद्ध अवश्यभावी हो गया। मराठों के अलावा इस काल में उत्तर में अन्य शक्तियां थी - अवध का नवाब, जाट और रुहेला। मुगल बादशाह की कोई पूछ नहीं थी। अब्दाली अवध के नवाब और रुहेलों का समर्थन प्राप्त करने में सफल हो गया। मराठा का साथ लगभग सभी ने छोड़ दिया था। जब १७६१ ई० में पानीपत में निर्णायक लड़ाई हुई, और न ही अन्य किसी शक्ति ने मराठों की मदद की। मराठों की करारी हार हुई और उनके श्रेष्ठ नायक तथा सैकड़ों सैनिक मारे गए। यह लड़ाई इतिहास में पानीपत की तीसरी लड़ाई के नाम से प्रसिद्ध है। पानीपत की पहली लड़ाई, जैसा कि तुम जानते हो बाबर और इब्राहिम लोदी के बीच १५२६ ई० में और पानीपत की दूसरी लड़ाई हेमू और अकबर की सेनाओं के बीच १५५६ ई० में हुई थी‌।

अहमद शाह अब्दाली के साथ लड़ाई के नतीजे मराठों के लिए भयंकर साबित हुए। भारत में, विशेषकर उत्तरी क्षेत्रों में, मराठों के अधिपत्य को गहरा धक्का लगा। उनके बीच जो कुछ एकता कायम थी वह लड़ाई के बाद खत्म हो गई। मराठा सरदार आपस में झगड़ने लगे और अपने इस आंतरिक कलह में अन्य शक्तियों की मदद खोजने लगे। कुछ समय के लिए मराठों ने अपने खोए हुए इलाके पुनः प्राप्त कर लिए थे, मगर उनकी वह स्थिति कुछ समय तक ही बनी रही। 

इस बीच भारत के राजनीतिक मामलों में यूरोप की व्यापारिक कंपनियों के हस्तक्षेप के कारण देश के राजनीतिक जीवन में बड़े भारी परिवर्तन हो रहे थे।

समाज और राजनीति की कुछ विशेषताएं

राजनीतिक संघर्षों के इस काल में वाणिज्य-व्यवसाय में वृद्धि होती गई। इस काल में वाणिज्य-व्यापार के कुछ प्रमुख केंद्र थे - बंगाल में मुर्शिदाबाद और ढाका, दक्षिण में हैदराबाद और मछलीपट्टनम, तथा अवध में फैजाबाद, वाराणसी, लखनऊ और गोरखपुर।

सूबे के शासकों ने हिंदू व मुसलमान अधिकारियों तथा सरदारों का समर्थन प्राप्त करने की कोशिश की। राज्य के विभिन्न पदों पर नियुक्तियां करते समय धर्म का ख्याल नहीं किया जाता था। तुम देख चुके हो कि अवध के नवाब की सेना में नागा सन्यासी भी थे। हिंदुओं और मुसलमानों के परस्पर निकट आने से एक मिली-जुली संस्कृति के विकास में मदद मिली। भारतीय भाषाओं ने जैसे, बंगला, मराठी, तेलुगू और पंजाबी में अच्छी प्रगति की और उनका साहित्य अधिक समृद्ध बना। पहले से विकसित होती आ रही उर्दू का अब अधिक इस्तेमाल होने लगा, खासकर शहरों में। उसका साहित्य समृद्ध होने लगा, विशेषकर काव्य। शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में, जैसे, ख्याल और अर्ध-शास्त्रीय गायन-शैली ठुमरी तथा गजल में, खूब प्रगति हुई। मुगल और राजपूत शैलियों के प्रभाव से देश के कई हिस्से में विशेषकर कुलू, कांगड़ा और चंबा में चित्रकला का विकास हुआ। इस प्रकार, कलहों और युद्ध के बावजूद सांस्कृतिक प्रगति जारी रही।

अठारहवीं सदी के भारत में राजनीतिक एकता का बड़ा अभाव था। मुगल साम्राज्य के पतन के बाद उसके तुल्य शक्ति और प्रतिष्ठा वाले ऐसे किसी अन्य भारतीय राज्य का उदय नहीं हुआ जो देश का एक केंद्रीय सत्ता में एकीकरण कर सके। नए भारतीय राज्यों में मराठों ने सबसे ऊंची हैसियत प्राप्त कर ली थी, मगर वे भी एकीकरण की भूमिका को निभाने में असमर्थ रहे। विस्तार के उनके तरीकों ने उन्हें अन्य शासकों और लोगों से विलग कर दिया। विभिन्न राज्यों में अधिकारियों की श्रेणियां विरोधी गुटों में बंटी हुई थी और उनकी आपसी प्रतिद्वंद्विता ने उनके राज्यों को कमजोर बना दिया था।

भारतीय समाज में भी एकता नहीं थी। जैसा कि तुम जानते हो, हिंदू ऊंच-नीच के भेदभाव से ग्रसित थे और अनगिनत जातियों में बंटे हुए थे। ऐसा कोई समान उद्देश्य नहीं था जो सभी पृथक गुटों को एक साथ ला सकता। ऊंची जातियों के लोग जनता के एक बड़े समूह के साथ दुर्व्यवहार करते थे और उन्हें 'अछूत' समझते थे। मुसलमानों में भी समुदाय थे और कुछ समुदाय अपने को दूसरे से श्रेष्ठ समझते थे।

एकता न होने के अनेक कारण थे। तुम पिछले अध्याय में पढ़ चुके हो कि यूरोप के अनेक देशों में हुए आर्थिक परिवर्तनों के फलस्वरुप किस प्रकार राष्ट्रगत राज्यों का उदय हुआ था। वाणिज्य-व्यवसाय में वृद्धि और बाद में उद्योगों के उदय में विभिन्न देशों की जनता के आर्थिक जीवन को एक समान बनाने में मदद दी। उन परिवर्तनों ने देश के विभिन्न भागों को एक-दूसरे पर निर्भर बना दिया और ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी कि किसी एक भाग में रहने वाले लोगों का हित दूसरे भागों की घटनाओं से प्रभावित होता था। जो देश अनेक स्वतंत्र राज्यों में बंटे हुए थे उन्हें उन देशों की जनता एक सूत्र में बांधने के लिए संघर्ष कर रही थी। जनता सरकार के पुराने ढांचे को नष्ट करने के लिए भी लड़ रही थी। वे जनतंत्र की स्थापना की दिशा में आगे बढ़ रहे थे। जनतंत्र का अर्थ था एक देश के सभी नागरिकों के लिए समान अधिकार और एक ऐसी सरकार जो जनता की इच्छाओं के अनुसार बनती है और काम करती है। सत्रहवीं सदी में ही इंग्लैंड में गृहयुद्ध हुआ था और राजा को मौत के घाट उतार दिया गया था। यद्यपि राजतंत्र की फिर से स्थापना हुई, मगर वास्तविक सत्ता संसद के हाथों में चली गई। राजा धीरे-धीरे नाम मात्र का राजा रह गया। अठारहवीं सदी में उत्तरी अमरीका और फ्रांस में क्या घटित हुआ, यह हम पिछले अध्याय में बता चुके हैं।

यूरोप की तरह के अनेक तत्व अठारहवीं सदी के भारत में मौजूद नहीं थे। बाहरी दुनिया के साथ और देश के भीतर भी व्यापार काफी अधिक मात्रा में हो रहा था, मगर इसने जनता के आर्थिक और सामाजिक जीवन को अधिक प्रभावित नहीं किया। हर गांव अपनी जरूरत की वस्तुएं स्वयं बना लेता था। इस प्रकार गांव एक स्वतंत्र आर्थिक इकाई था। राज्य गांव से बड़ी मात्रा में राजस्व वसूल करता था। आमतौर पर गांव के कुल उत्पादन का आधे से अधिक राजस्व के रूप में लिए लिया जाता था। वह राजस्व बड़ी सेनाएं रखने में और सरदारों के विलासी जीवन पर खर्च होता था। शासकों में परिवर्तन, नए राज्यों का उदय और इसी प्रकार के अन्य राजनीतिक परिवर्तन गांवों के जीवन को नहीं के बराबर प्रभावित करते थे। साथ ही, यूरोप में जिस तरह के मध्य वर्ग का उदय हुआ था वैसा मध्यवर्ग भारत में नहीं था। मगर ऐसे परिवार अवश्य थे जो व्यापार के जरिए धनी हो गए थे। परंतु उन्होंने जो धन-दौलत इकट्ठी की थी उसका उपयोग कर्ज देने और ब्याज कमाने के लिए किया गया, न कि नए हुनर, वस्तुओं के उत्पादन की नई विधियां और नई तकनीक विकसित करने के लिए।

स्मरण रहे कि इस काल में इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति शुरू हो गई थी जो जल्दी ही यूरोप के कुछ देशों में फैलने वाली थी। देश के राजनीतिक जीवन में होने वाले परिवर्तनों ने किसानों के कष्टों को और अधिक बढ़ा दिया। सुवाई शासकों ने अपने सत्ता की सुरक्षा और बढ़ोतरी के लिए दूसरे शासकों के विरुद्ध और स्थानीय सरदारों के खिलाफ भी लड़ाइयां लड़ी जो उनका प्रतिरोध करते थे। इन लड़ाईयों का खर्च मुख्यतः किसानों को उठाना पड़ता था। उन्हें अपने उत्पादन का पहले से अधिक हिस्सा लड़ाई के लिए देना पड़ता था।

भारतीय राज्यों के शासक संसार की घटनाओं से बेखबर थे। भारत की राजनीतिक जीवन में एक नए तत्व का प्रवेश हुआ था। यूरोप के व्यापारी कंपनियों ने, जिन के आरंभिक इतिहास के बारे में तुम पहले पढ़ चुके हो, इस देश के राजनीतिक मामलों में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया था। साथ ही, वे कंपनियां अपनी राजनीतिक सत्ता स्थापित करने के प्रयास में भी जुटी हुई थी। तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति में उन्हें ऐसा करने के लिए अवसर प्रदान किए। मगर भारतीय राज्यों के शासक उनके अपने शासन के लिए पैदा हो रहे इस खतरे से बेखबर थे। वास्तव में वे अपने प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले अपना स्वार्थ साधने की आशा में विदेशी व्यापारी कंपनियों के हाथों की कठपुतली बनाने के लिए पूर्णतः तैयार थे। पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों की पराजय होने के पहले ही भारत में ब्रिटिश विजय की शुरुआत हो चुकी थी। आगे के दशकों में उनकी यह विजय जारी रहेगी धीरे-धीरे लगभग सारे भारत पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया।