Vaidikalaya

भारत इतिहास का अध्ययन :-

तुम्हारे मन में अक्सर सवाल उठता होगा कि तुम इतिहास क्यों पढ़ते हो । गुजरे हुए ज़माने को समझने का एक रास्ता है इतिहास का अध्ययन। इतिहास में यह समझाने का प्रयास किया जाता है कि हमारे पूर्वजो का जीवन किस तरह का था, उन्हें किन दिक्कतों का सामना करना पड़ता था और वे उन दिक्कतों को किस प्रकार हल करते थे । अतीत को जानना तुम्हारे लिए अति आवश्यक है , क्योकि तभी तुम आज के भारत की परिस्थितियों को बेहतर ढंग से समझ सकते हो। तभी तुम्हे अपने देश की कहानी मालूम होगी इस कहानी की शुरुआत सदियों पहले हुई।

अब इतिहास के अध्ययन का तरीका कुछ बदल गया है। पहले इतिहास में ज्यादातर तारीखों और घटनाओ की, अधिकतर केवल राजनीतिक घटनाओं की, भरमार रहती थी। अब इतिहास का दायरा विस्तृत हो गया हैं। अब इतिहास में जीवन के अनेक पहलुओं का समावेश होता हैं 

जीवन के विविध अंगो के अध्ययन को ही हम संस्कृति कहते हैं। एक जमाना था जब समझा जाता था कि कला, स्थापत्य, साहित्य और दर्शन से संबंधित जानकारी ही संस्कृति हैं। अब संस्कृति में समाज की सभी गतिविधियों का समावेश होता हैं। इसलिए इतिहास में अब समाज के केवल उच्च वर्गों का ही नहीं बल्कि समाज के सभी स्तरों के समुदायों का अध्ययन होता हैं। अब इतिहास में राजाओं और राजनीतिज्ञों के अलावा उन सामान्य लोगो के बारे में भी जानकारी रहती हैं जिन्होंने इतिहास को बनाने में योग दिया हैं। इतिहास में कला और स्थापत्य का, भारतीय भाषाओ के विकास का, साहित्य का तथा धर्मो का अध्ययन होता हैं। अब हम केवल यह नहीं देखते कि समाज के कुलीन वर्गों में क्या होता था बल्कि निचले स्तरों के लोगो के कार्यों और रुचियों को भी जानने का प्रयास करते हैं। इससे इतिहास का अध्ययन अधिक दिलचस्प हो जाता हों और हम अपने समाज को काफी बेहतक ढंग से समझ सकते हैं

कुलीन और सामान्य स्तर के जिन लोगों से हमारा समाज बना हैं वे सभी आरंभ में भारत के मूल निवासी नहीं थे। उनमें से बहुत से बहार से आकर भारत मैं बस गए। यहाँ उन्होंने शादियां की, यहाँ के लोगो में वे घुल - मिल गए और भारतीय समाज का अंग बन गए। इसलिए नाना प्रकार के धार्मिक कृत्य, बोलियां और रीति-रिवाज  प्रचलित हुए हैं

हमारे कई मौजूदा विचारों के बारे में हम सोचते हैं कि ये पुराने ज़माने से चले आ रहे हैं इसलिए सही हैं। लेकिन हर मामले में ऐसा नहीं हैं। इसलय अपने इतिहास को ठीक से जानने और समझने में हमें बड़ी सावधानी बरतनी चाहिए, ताकि इसका दुरुपयोग न हो। वर्तमान को समझने के लिए अतीत को समझना अत्यत जरुरी हैं

इतिहास की सही जानकारी दो चीजों पर निर्भर करती हैं। एक हैं स्रोत-सामग्री का विवेचन करके सावधानी से उपयोग करना। प्राचीन काल के इतिहासवेत्ताओं को विभिन्न किस्म की स्रोत-सामग्री का उपयोग करना पड़ता हैं। इसमें से कुछ स्रोत-सामग्री विश्वसनीय होती हैं, और कुछ नहीं भी होतीइसलिए विश्वसनीय स्रोत-सामग्री को ज्यादा महत्व देना जरुरी हैं। दूसरी चीज यह है की इतिहासवेत्ता अपने कुछ कथनो के बारे में जो दलीलें देते हैं वे बुद्धिसंगत होनी चाहिए। ऐतिहासिक घटनाओं के पीछे कुछ-न-कुछ कारण होते हैं। इन कारणों की पूरी जांच-पड़ताल होना चाहिए। अतीत की बुद्धिपूर्वक जांच-पड़ताल करना तो और भी ज्यादा जरुरी हैं। केवल इसी तरीके से ऐतिहासिक ज्ञान आगे बढ़ सकता हैं 

इसके अलावा, अतीत का अध्ययन बड़ा ही दिलचस्प होता हैं। यह 'गड़े हुए खजाने' की खोज के खेल जैसी चीज हैं। इस खेल में 'खजाने' को खोजने के लिए भिन्न-भिन्न जगहों पर सुराग या संकेत छिपे रहते हैं। एक सुराग मिलने पर तुम्हे अगले सुराग का पता चल जाता हैं। इस प्रकार  धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए अंत में तुम 'खजाने' तक पहुंच जाते हो। इतिहास के मामले में 'खजाने' का अर्थ हैं यह जानना कि तुम्हारे जन्म के काफी पहले दुनिया में और  हमारे देश में क्या-क्या  घटित हुआ है

भारत के अतीत की शुरुआत कई हजार साल पहले हुई। हमारे पूर्वजों ने अपने पीछे जो चीजे छोड़ी हैं उनसे हमे अतीत के बारे में जानकारी मिलती हैं। नजदीक के अतीत के बारे में लिखित और मुद्रित दस्तावेजों से जानकारी मिलती हैं। जब अभी छपाई का ज्ञान नहीं था उस युग के हमे कागज पर हाथ से लिखे हुए लेख या ग्रंथ मिलते हैं। परन्तु उससे भी पहले के युग में, जब कागज नहीं बना था, लेख और ग्रंथ ताड़पत्रों, भोजपत्रों और ताम्रपत्रों पर लिखे जाते थे। कभी -कभी लेख बड़ी शिलाओं, खंभो, पत्थरों की दीवारों या मिट्टी तथा पथरो के छोटे फलको पर भी उकेरे जाते थे। अतीत में और अधिक पीछे एक ऐसा भी समय था जब लोग लिखना भी नहीं जानते थे। प्राचीन काल के उन लोगो के जीवन के बारे में हमे जानकारी उन चीजों से मिलती है जो वे छोड़ गए हैं, जैसे उनके मिट्टी के बर्तन, मृदभांड या उनके हथियार और औजार। ये ठोस चीजें हैं। इन्हे हम देख सकते है, छू सकते हैं। कभी-कभी तो इन चीजों को सचमुच ही धरती से खोदकर निकलना पड़ता हैं। ये तमाम चीजें ऐतिहासिक खजाने को खोज निकालने के खेल के सुराग हैं 

सुराग अनेक प्रकार के हो सकते हैं। सबसे ज्यादा उपयोग हस्तलिपियों का होता है। हस्तलिपियां उन पुस्तकों को कहते हैं जो ताड़पत्रों या भोजपत्रों या कागा पर लिखी गई हैं। (आमतौर पर कागज पर लिखी हुई हस्तलिपियां ही अधिक मिलती हैं,यद्यपि ये उतनी पुरानी नहीं होती हैं जितनी कि ताड़पत्रों या भोजपत्रों पर लिखी हुई पुस्तकें) ये ज्यादा पुरानी पुस्तकें जिन भाषाओं में लिखी गई है उनमें से कुछ भाषाएं आज हमारे देश में नहीं बोली जाती, जैसे पाली और प्राकृत भाषाएं। दूसरी अनेक पुरानी पुस्तकें संस्कृत और अरबी भाषा में हैं। इन भाषाओं का आज भी हम अध्ययन करते हैं, और कभी-कभी धार्मिक संस्कारों में भी इनका इस्तेमाल करते हैं, पर आज हम इन्हे अपने घरों में नहीं बोलते। तमिल भाषा में भी पुस्तके मिलती है। दक्षिण भारत में बोली जाने वाली इस तमिल भाषा में काफी पुराना साहित्य मिलता है। ये सभी शास्त्रीय भाषाएं कहलाती हैं। दुनिया के अनेक भागों का इतिहास विभिन्न शास्त्रीय भाषाओं में लिखा मिलता हैं। प्राचीन यूरोप में पुस्तकें प्रायः यूनानी(ग्रीक) और लैटिन भाषा में लिखी जाती थी। पश्चिमी एशिया में पुस्तकें अरबी तथा हिब्रू भाषा में और प्राचीन चीन में शास्त्रीय चीनी भाषा में लिखी जाती थीं

भारत की हस्तलिखित पुस्तकें जिन लिपियों में लिखी गई हैं वे हमारी आज की लिपियों से काफी मिलती-जुलती हैं। संस्कृत की अधिकतर पुस्तकें देवनागरी लिपि में लिखी गई हैं। देवनागरी में लिखी इन पुस्तकों को तुम पढ़ तो सकोगे, परन्तु जब तक तुम्हे संस्कृत भाषा का ज्ञान नहीं होगा तब तक समझ नहीं पाओगे कि इन पुस्तकों में क्या लिखा हुआ हैं। लेकिन दो हजार साल पहले की लिखावट काफी भिन्न रही हैं। उस जमाने के अभिलेख पढ़ने के लिए तुम्हे उस पुरानी लिखावट या लिपि को मेहनत करके सीखना होगा। उस अधिक प्राचीन लिपि में लिखी गई हस्तलिपियां आज नहीं मिलती, पर उस जमाने के अभिलेख आज भी मिलते है। पत्थर की सतह पर या धातु के पत्रों पर जो लेख उकेरे जाते हैं उन्हें शिलालेख या अभिलेख कहते हैं। देश के विभिन्न भागों से विभिन्न भाषाओं में ऐसे अनेक अभिलेख मिले है। अतीत के बारे में जोड़-बटोरकर जानकारी प्राप्त करने के लिए ये अभिलेख एक प्रकार से सुरागों का काम करते हैं। हस्तलिखित पोथियां प्रायः पुस्तकालयों में मिलती हैं, परंतु अभिलेख शिलाखंडों, स्तंभों, प्रस्तर-फलकों,भवनों और धातुपात्रों पर पाए जाते हैं  

भारत के इतिहास के बारे में अधिकतर जानकारी हमें पुरातत्व विज्ञान द्वारा जुटाए गए सबूतों से मिलती हैं। प्राचीन काल के अवशेषों के अध्ययन को पुरात्तत्व विज्ञान कहते हैं। इन अवशेषों में स्मारक या भवन, सिक्के, मिट्टी के बर्तन, पत्थर तथा धातु के औजार, प्रतिमाएं, मूर्तियां तथा अन्य अनेक किस्म की ऐसी चीजें होती हैं जिनका सदियों पहले के लोग अपने दैनिक जीवन में उपयोग करते थे। कुछ अति प्राचीन नगर और गांव या तो उजड़ गए हैं या नष्ट हो गए हैं और उनके मकान धरती के भीतर समा गए हैं। उनका उत्तखनन करना पड़ता हैं, यानी उन्हें धरती के भीतर से खोदकर निकला जाता हैं। परन्तु कुछ प्राचीन भवन आज भी खड़े हैं (जैसे, मंदिर) इनका उत्तखनन करने की जरुरत नहीं हैं

पुरातत्व विज्ञानं की सामग्री से हमें जानकारी मिली हैं कि हजारों साल पहले के भारत के स्त्री-पुरुषों का जीवन किस प्रकार का रहा है। उसे हम आदिम-अवस्था वाला जीवन कहते हैं, क्योकि लोग अपनी जीविका के लिए ज्यादातर प्रकति पर निर्भर रहते थे। न वे अपना भोजन पकाते थे, न उनके कपड़े सिले होते थे, न ही उनके घर होते थे। चूँकि वे अनाज और सब्जियाँ नहीं उगाते थे, पौधों और पेड़ों से जो मिलता था उसी पर गुजरा करते थे और पशुओं को पालने की बजाय उनका शिकार करते थे, इसलिए उन्हें हम 'खाघ-संग्राहक' कहते हैं। आगे जब धीरे-धीरे उन्हें अपने आसपास के पौधों तथा पशुओं के बारे में अधिकाधिक जानकारी मिली और उनके औजार और काम करने के ढंग में सुधार हुआ, तब उनका जीवन सुविधाजनक बनता गया। अंत में उन्होंने पौधे उगने और पशु पलने का तरीके खोज निकाले। उस अवस्था वाले मानव को हम 'खाघ-उत्तपादक' कहते हैं। तब मानव केवल उन चीजों पर निर्भर नहीं रह गया था जो प्रकृति में सहज मिल जाती हैं, बल्कि उसने आवश्यक वस्तुओं का उत्तपादन करना प्रारम्भ कर दिया था। जीवन में यह एक बहुत बड़ा सुधार था। जल्दी ही, इन लोगों के जीवनस्तर में इतना अधिक सुधार हुआ कि वे न केवल बढ़िया झोपड़ियों में रहने लगे, बल्कि उन्हें चिंतन करने, अपने विचारों को लिपिबद्ध करने और अपना रहन-सहन सुधारने के लिए पर्याप्त समय मिलने लगा   

भारत एक बड़ा उप-महाद्वीप हैं, परन्तु इसके भौगोलिक लक्षण सुस्पष्ट हैं। उत्तरी सिमा पर जो पर्वत है वे भारत को पश्चिमी तथा मध्य एशिया से अलग करते हैं। परंतु इन पर्वतो में जो अनेक दर्रे हैं वे संपर्क के रस्ते थे और सदियों तक लोग इनमें से दोनों ओर आते-जाते रहे हैं। ये पहाड़ी दर्रे विचारों के आदान-प्रदान के भी मार्ग बने हैं

सिंधु और गंगा के मैदान उपजाऊ क्षेत्र थे, इसलिए अनेक लोग यहां बस गए। आरंभ में यहां घने जंगल थे। धीरे-धीरे इन जंगलो को कटा गया, जमीन को कृषियोग्य बनाया गया। तभी जाकर इन मैदानों में कई राज्यों का उदय और विस्तार हुआ। यदि तुम दिल्ली से कलकत्ता तक रेलयात्रा  करो, तो तुम्हे दूर-दूर  तक खेत ही खेत खेत नजर आएंगे। आज यकीन करना कठिन हैं कि किसी समय इस क्षेत्र में घने जंगल रहे हैं

भारतीय प्रायद्वीप एक ऊंचा पठार हैं। इसमें से अनेक नदियां बहती हैं। आरम्भ में नदियों की इन घाटियों में ही आदमी ने अपनी बस्तियां बसायी थी। भारत के पश्चिमी तथा पूर्वी समुद्रतट का क्षेत्र अधिक उपजाऊ हैं,क्योंकि यहां अनेक नदियां डेल्टा बनती हैं। जिन क्षेत्रों में वातावरण अनुकूल होता हैं वहां अधिक वस्तियां स्थापित हो जाती हैं  

विभिन्न क्षेत्रों में पैदा होने वाली चीजों का लेन-देन करने के लिए बस्तियों के बीच अक्सर ही संबंध स्थापित हो जाते हैं। ऐसे लेन-देन से व्यापर का जन्म होता हैं और संपर्क-सूत्र व्यापारी मार्गों में बदल जाते हैं व्यापर से लोगों के आवागमन को बढ़ावा मिलता है व्यापारी एक स्थान से दूसरे स्थान जाते है और इस प्रकार लोगों में आपसी मेल-मिलाप बढ़ता है सबसे पहले लेन-देन और आवागमन करने वाले वे पशुचारी लोग थे जो अपने पशुओं को विभिन चरागाहों तक ले जाते थे, आबाद हुए किसानों से संबंध स्थापित करते थे और अपने साथ लेन-देन की कुछ चीजें लेकर चलते थे जहां ऐसे लेन-देन में सफलता मिली, वहां धीरे-धीरे लेन-देन के काम का पूरा जिम्मा व्यापारियों ने ले लिया और तब वाणिज्य-व्यवसाय को बढ़ावा मिला इसलिए पशुपालन, कृषि तथा व्यापर मनुष्य के महत्वपूर्ण कार्य हैं,और ये इतिहास के विकास में प्रमुख भूमिका अदा करते हैं 

कौन लोग कहां से आए, यह जानने का एक तरीका है उस क्षेत्र की भाषाओं का अध्ययन करना एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा बसने वाले लोग अपने साथ अपनी भाषा भी ले जाते हैं तब इन नए लोगों की भाषा का स्थानीय लोगों की भाषा के साथ मिश्रण होता है भाषाओं के इस मिश्रण से एक नई भाषा जन्म लेती है 

जिन क्षेत्रों के लोगों का दूसरे लोगो के साथ अधिक संपर्क होता है उनका जीवन तेजी से बदलता है परन्तु कुछ ऐसे भी क्षेत्र होते है जो दुसरो से कटे हुए या अलग-थलग बने रहते है ऐसे क्षेत्रों के लोगों में कम परिवर्तन होता है भारत के कुछ भागों में ऐसे क्षेत्र हैं जहां अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है ऐसे क्षेत्रों में अक्सर जो लोग बसते हैं उन्हें हम आदिम जनजातियां या आदिम संस्कृतियां कहते हैं भारतीय संस्कृति के अध्ययन के लिए इनका बड़ा महत्व हैं इनका जीवनक्रम प्राचीन भारत के उस समय के लोगों के जीवन के समान है जब भारतीय संस्कृति का प्रारंभ हो रहा था इनमें ऐसे अनेक पुराने जीवनमूल्य मौजूद है जो भारत के अन्य भागों से अब लुप्त हो गए हैं हमारे लिए यह सौभाग्य की बात है कि भारत में ऐसी आदिम संस्कृतियां अब भी जीवित हैं इनसे हमें अनेक बातों की जानकारी मिलती है 

  एक पुरातात्विक स्थल