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महात्मा गांधी

मोहनदास करमचंद गाँधी, महात्मा गाँधी या बापू किसी भी नाम से जानो मन में एक ही छवि आती हैं और उसकी वही कहानियाँ याद आती हैं जो हमे सुनाई गयी या हमने कही से पढ़ी और इसमें भी लोगो के दो पक्ष हैं, एक पक्ष जो उन्हें महान मानता हैं और दूसरा पक्ष जो उन्हें महान नहीं मानता और इनमें भी वो लोग ज्यादा हैं जिनके पास कोई तथ्य नहीं हैं इस बात को प्रमाणित करने का कि वो महान थे या नहीं क्योकि उन्होंने जो सुना उसी को आने बाली पीढ़ियों को सुना दिया, कभी प्रयत्न नहीं किया सच जानने का, कभी ये नहीं सोचा की जो ज्ञान दर पीढ़ी में दे रहे हैं उसका पैमाना कहाँ तक सही हैं। तो चलिए हम उनके बारे में पढ़ते हैं और खुद निश्चित करते हैं कि वो कौन थे और उन्होंने ऐसा क्या किया जो उनके व्यक्तित्व को निर्धारित करता हैं कि वो महान थे या नहीं।

मोहनदास करमचंद गाँधी

नाम मोहनदास करमचंद गाँधी
जन्म 2 अक्टूबर  1869, पोरबंदर
मृत्यू 30 जनवरी 1948, बिड़ला भवन, नई दिल्ली
पिता करमचंद गांधी
माता पुतलीबाई
राष्ट्रीयता भारतीय
व्यवसाय वकील, राजनीतिज्ञ, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता



जन्म:

महात्मा गांधी का जन्म 2 अक्टूबर सन् 1869 ई० को गुजरात राज्य के पोरबंदर नामक स्थान पर हुआ था, जो पश्चिमी भारत का एक तटीय शहर है। इनके पिता का नाम श्री करमचंद गांधी था, जो ब्रिटिश शासन के अंतर्गत पोरबंदर के दीवान थे और इनकी माता का नाम पुतलीबाई था, जो एक धार्मिक महिला थी। गाँधी जी के दादा जी नाम उत्तमचंद गाँधी था, जिनको ओता गाँधी के नाम से भी जाना जाता था और इनकी दो शादियाँ हुई थी जिनमे पहली शादी से 4 और दूसरी शादी से 2 लड़के थे जिनमे पांचवे करमचंद अथवा कबा गाँधी थे। करमचंद गाँधी की भी चार शादियाँ हुई थी जिनमे अंतिम पत्नी पुतलीबाई थी जिन्होंने 1 कन्या और 3 पुत्रों को जन्म दिया था जिनमें सबसे छोटे हमारे मोहनदास गाँधी अथवा महात्मा गाँधी जी थे।


विवाह:

गांधी जी का विवाह सन् 1883 में मात्र 13 वर्ष की आयु में करा दिया गया था। इनकी पत्नी का नाम कस्तूरबा बाई मकनजी था, जो एक धनी परिवार से थी और गांधीजी इनको प्यार से 'बा' बुलाया करते थे। कस्तूरबा बाई पढ़ना लिखना नहीं जानती थी तब गांधीजी ने इनको पढ़ना लिखना सिखाया। गाँधी जी कस्तूरबा को आदर्श पत्नी मानते थे और एक आदर्श पत्नी की तरह उन्होंने भी गांधी जी का हर एक काम में साथ दिया। जब वे 15 वर्ष के थे तब उनकी पहली संतान हुई थी, लेकिन वह ज्यादा दिनों तक जीवित न रह सकी। इसके बाद गाँधी की के चार पुत्र हुए, उन चारो के नाम इस प्रकार है - हीरालाल गाँधी, मणिलाल गाँधी, रामदास एवं देवदास गाँधी।


शिक्षा:

गाँधीजी की प्रारंभिक शिक्षा पोरबंदर में हुई। इसके बाद उन्होंने राजकोट के अल्फ्रेड हाई स्कूल से सन् 1887 में मेट्रिक की परीक्षा पास की और आगे की पढ़ाई के लिए भावनगर के सामलदास आर्ट्स कॉलेज मे दाखिला लिया, लेकिन घर से दूर रहने के कारण वह अपना ध्यान केंद्रित नहीं कर पाए और अस्वस्थ होकर पोरबंदर वापस लौट गए। चूँकि इनका परिवार इनको बैरिस्टर बनाना चाहता था इसलिए बैरिस्टर की पढाई करने के लिए इनको 4 सितंबर 1888 को इंग्लैंड भेजा गया जहाँ इन्होने यूनीवर्सिटी ऑफ लंदन में दाखिला लिया और यहाँ 3 सालों (1888-1891) तक फैकल्टी ऑफ लॉ में पढाई करके बैरिस्टर की डिग्री प्राप्त की और सन् 1891 में वापस भारत लौट आए।


गांधीजी का प्रारंभिक करियर और दक्षिण अफ्रीका प्रवास

भारत लौटने के बाद गांधीजी ने वकालत शुरू करने का प्रयास किया, लेकिन प्रारंभ में उन्हें अधिक सफलता नहीं मिली। बंबई (मुंबई) में कुछ समय काम करने के बाद वे राजकोट लौट आए जहाँ उन्होंने अपने भाई की सहायता से मामूली कानूनी काम किए। इसी समय, उन्हें दक्षिण अफ्रीका की एक भारतीय फर्म—दादा अब्दुल्ला एंड कंपनी—के मुकदमे के सिलसिले में कानूनी सलाहकार के रूप में 1893 में दक्षिण अफ्रीका जाने का अवसर मिला। यही यात्रा उनके जीवन का निर्णायक मोड़ साबित हुई।

दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने पहली बार नस्लभेद (Apartheid) और भारतीयों पर हो रहे अन्याय को प्रत्यक्ष रूप से देखा। पीटरमैरिट्जबर्ग स्टेशन पर प्रथम श्रेणी का वैध टिकट होते हुए भी उन्हें ट्रेन से धक्का देकर नीचे उतार दिया गया था। इस घटना ने उनके भीतर गहरा परिवर्तन किया और उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि वे सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलकर न्याय के लिए संघर्ष करेंगे।


सत्याग्रह और संघर्ष

दक्षिण अफ्रीका में ही गांधीजी ने सत्याग्रह (Satyagraha) की नींव रखी, जिसका अर्थ है सत्य पर दृढ़ रहना। यह अहिंसक तरीके से अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने का मार्ग था। उन्होंने भारतीयों के नागरिक अधिकारों, पास कानूनों के विरुद्ध और दमनकारी टैक्सों के खिलाफ कई आंदोलनों का सफल नेतृत्व किया।

लगभग 21 वर्षों तक (1893–1914) उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय के लिए संघर्ष किया, और अंततः एक सम्मानजनक समझौता करवाने में सफल रहे। इसके बाद वे स्थायी रूप से भारत लौट आए और यहीं से उनका भारत के स्वतंत्रता संग्राम में प्रवेश हुआ।


भारत में गांधीजी की भूमिका – स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व

सन् 1915 में भारत लौटने के बाद गांधीजी ने देश के सामाजिक और राजनीतिक हालात को समझने के लिए व्यापक यात्रा की। इसके पश्चात उन्होंने कई प्रमुख आंदोलनों का नेतृत्व किया, जिनमें प्रमुख हैं:

1. चंपारण सत्याग्रह (1917)

बिहार के चंपारण में किसानों पर नील की खेती का अत्याचार था। गांधीजी ने इस अत्याचार के खिलाफ सत्याग्रह चलाया और किसानों को न्याय दिलाया। यह भारत में उनका पहला बड़ा सफल आंदोलन था।

2. खेड़ा सत्याग्रह (1918)

गुजरात में अकाल के कारण किसान टैक्स नहीं भर पा रहे थे। गांधीजी ने टैक्स माफी की मांग की और यह आंदोलन सफल हुआ।

3. असहयोग आंदोलन (1920)

रोलेट एक्ट और जलियावाला बाग हत्याकांड के विरुद्ध गांधीजी ने पूरे देश में असहयोग आंदोलन चलाया—अंग्रेजी शासन से हर तरह का सहयोग बंद करने की अपील की।

4. नमक सत्याग्रह / दांडी मार्च (1930)

अंग्रेजों के नमक कानून के विरोध में 12 मार्च 1930 को साबरमती आश्रम से दांडी तक 24 दिनों का पैदल मार्च ऐतिहासिक बन गया। इस आंदोलन ने स्वतंत्रता की लड़ाई को नई ऊर्जा दी।

5. भारत छोड़ो आंदोलन (1942)

“करो या मरो” के नारे के साथ गांधीजी ने ब्रिटिश शासन को भारत छोड़ने का स्पष्ट संदेश दिया। यह स्वतंत्रता संग्राम का निर्णायक चरण था।


गांधीजी का दर्शन – सत्य, अहिंसा और सरलता

गांधी जी का पूरा जीवन तीन मूल सिद्धांतों पर आधारित था:

सत्य (Truth)

वे कहते थे— “सत्य ही ईश्वर है।”

अहिंसा (Non-Violence)

उनके लिए हिंसा केवल शारीरिक नहीं, बल्कि मन, वचन और कर्म से किसी को भी चोट पहुँचाना था।

सत्याग्रह (Satyagraha)

अन्याय के खिलाफ दृढ़ता से, मगर शांतिपूर्ण तरीके से खड़ा होना।

उन्होंने छुआछूत, शराबबंदी, ग्रामीण विकास, शिक्षा, स्वच्छता, और महिला सशक्तिकरण के लिए भी पूरे जीवन काम किया।


गांधीजी की मृत्यु

30 जनवरी 1948 को नई दिल्ली के बिड़ला भवन में नाथूराम गोडसे ने गांधीजी की गोली मारकर हत्या कर दी। अपनी अंतिम सांसों के साथ उन्होंने “हे राम” कहा, ऐसा माना जाता है। इस दिन को हर वर्ष शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है।


क्या गांधीजी महान थे?

अब यह प्रश्न कि गांधीजी महान थे या नहीं—

इसका उत्तर किसी पुस्तक में नहीं, बल्कि उनके जीवन को देखकर मिलता है।

  • जिन्होंने अपना जीवन दूसरों के अधिकारों के लिए समर्पित कर दिया,
  • जिन्होंने सत्य और अहिंसा को हथियार बनाया,
  • जिन्होंने दुनिया को बिना हिंसा के स्वतंत्रता का मार्ग दिखाया,
  • जिनकी शिक्षाएँ आज भी विश्वभर में प्रेरणा हैं (मार्टिन लूथर किंग, नेल्सन मंडेला आदि),

ऐसा व्यक्ति महान कहा जाए या नहीं — यह अब पाठक स्वयं निर्णय कर सकते हैं।