कुटिल नीति का रहस्य
परस्य पीडनं कुर्वन् स्वार्थसिद्धिं च पण्डितः
गूढबुद्धिर्न लक्ष्मेत वने चतुरको यथा ॥
अर्थात
अर्थ:स्वार्थ-साधन करते हुए कपट से भी काम लेना पड़ता है।
कुटिल नीति का रहस्य जिसका अर्थ होता है कि कोई ऐसी गुप्त योजना जिसके बारे में किसी को जानकारी ना हो, जिसे आमतौर पर दूसरों से छुपाया जाता है ताकि कोई व्यक्ति या समूह अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सके।
यह पंचतंत्र के प्रथम तंत्र की तेहरवीं कहानी है, जब दमनक - पिंगलक और संजीवक को एक दूसरे के प्रति भड़काकर अपने मित्र करकट के पास जाता है तो करकट उससे पूछता है कि बताओ क्या रहा, क्या तू दोनों के बीच बैर कराने में सफल हुए कि नहीं तब दमनक कहता है कि "हाँ, मैंने तो अपना काम कर दिया बाकि भगवान की इच्छा"। तब करकट उससे कहता है कि ये तूने अच्छा नहीं किया दो मित्रो का बैर करा दिया तब दमनक कहता है कि संजीवक ने हमारा पद छीना था तो वो हमारा शत्रु हुआ और शत्रु का नाश करने में कुछ धर्म-अधर्म नहीं होता, जिस तरीके से बन पाए शत्रु का नाश कर देना चाहिए जैसे चतुरक गीदड़ ने किया था तब करकट कहता है कि ये कौनसी कहानी है तब दमनक उसे चतुरक की कहानी सुनाता है जो इस प्रकार है-
किसी जंगल में वज्रदंष्ट्र नाम का शेर रहता था। उसके दो अनुचर, चतुरक गीदड़ और क्रव्यमुख भेड़िया, हर समय उसके साथ रहते थे। एक दिन शेर ने जंगल में बैठी हुई ऊंटनी को मारा। ऊंटनी के पेट से एक छोटा-सा ऊँट का बच्चा निकला। शेर को उस बच्चे पर दया आई। घर लाकर उसने बच्चे को कहा- "अब मुझसे डरने की कोई बात नहीं। मैं तुझे नहीं मारूँगा। तू जंगल में आनन्द से विहार कर।" ऊँट के बच्चे के कान शंकु (कील) जैसे थे इसलिए उनका नाम शेर ने शंकुकर्ण रख दिया। वह भी शेर के अन्य अनुचरों के समान सदा शेर के साथ रहता था। जब वह बड़ा हो गया तब भी वह शेर का मित्र बना रहा। एक क्षण के लिए भी वह शेर को छोड़कर नहीं जाता था।
एक दिन उस जंगल में एक मतवाला हाथी आ गया। उससे शेर की ज़बर्दस्त लड़ाई हुई। इस लड़ाई में शेर इतना घायल हो गया कि उसके लिए एक कदम आगे चलना भी भारी हो गया। अपने साथियों से उसने कहा कि तुम कोई ऐसा शिकार ले आओ जिसे मैं यहाँ बैठा-बैठा ही मार दूँ। तीनों साथी शेर की आज्ञानुसार शिकार की तलाश करते रहे; लेकिन बहुत यत्न करने पर भी कोई शिकार हाथ नहीं आया।
चतुरक ने सोचा, "यदि शंकुकर्ण को मरवा दिया जाए तो कुछ दिन की निश्चिन्तता हो जाए। किन्तु शेर ने उसे अभय-वचन दिया है; कोई युक्ति ऐसी निकालनी चाहिए कि वह वचन-भंग किए बिना इसे मारने को तैयार हो जाए।" अन्त में चतुरक ने एक युक्ति सोच ली। शंकुकर्ण से वह बोला- "शंकुकर्ण मैं तुझे एक बात तेरे लाभ की ही कहता हूँ। स्वामी का इसमें कल्याण हो जाएगा। हमारा स्वामी शेर कई दिन से भूखा है। उसे यदि तू अपना शरीर दे दे तो वह कुछ दिन बाद दुगुना होकर तुझे मिल जाएगा और शेर की भी तृप्ति हो जाएगी।"
शंकुकर्ण- "मित्र! शेर की तृप्ति में तो मेरी भी प्रसन्नता है। स्वामी को कह दो कि मैं इसके लिए तैयार हूँ। किन्तु इस सौदे में धर्म हमारा साक्षी होगा।"
इतना निश्चित होने के बाद वे सब शेर के पास गए। चतुरक ने शेर से कहा- "स्वामी! शिकार तो कोई भी हाथ नहीं आया। सूर्य भी अस्त हो गया। अब एक ही उपाय है; यदि आप शंकुकर्ण को इस शरीर के बदले द्विगुण शरीर देना स्वीकार करें तो वह यह शरीर ऋण-रूप में देने को तैयार है।"
शेर- "मुझे यह व्यवहार स्वीकार है। हम धर्म को साक्षी रखकर यह सौदा करेंगे। शंकुकर्ण अपने शरीर को ऋण-रूप में हमें देगा तो हम उसे बाद में द्विगुण शरीर देंगे।"
तब सौदा होने के बाद शेर के इशारे पर गीदड़ और भेड़ियों ने ऊँट को मार दिया।
वज्रदंष्ट्र शेर ने तब चतुरक से कहा- "चतुरक! मैं नदी में स्नान करके आता हूँ, तू यहाँ इसकी रखवाली करना।"
शेर के जाने के बाद चतुरक ने सोचा- "कोई युक्ति ऐसी होनी चाहिए कि वह अकेला ही ऊँट को खा सके।" यह सोचकर वह क्रव्यमुख से बोला- "मित्र! तू बहुत भूखा है, इसलिए तू शेर के आने से पहले ही ऊँट को खाना शुरू कर दे। मैं शेर के सामने तेरी निर्दोषता सिद्ध कर दूँगा, चिन्ता न कर।"
अभी क्रव्यमुख ने दाँत गड़ाए ही थे कि चतुरक चिल्ला उठा- "स्वामी आ रहे हैं, दूर हट जा।"
शेर ने आकर देखा तो ऊँट पर भेड़िये के दाँत लगे थे। उसने क्रोध से भवें तानकर पूछा- "किसने ऊँट को जूठा किया है!"
क्रव्यमुख चतुरक की ओर देखने लगा। चतुरक बोला- "दुष्ट, स्वयं माँस खाकर अब मेरी ओर क्यों देखता है? अब अपने लिए का दण्ड भोग।"
चतुरक की बात सुनकर भेड़िया शेर के डर से उसी क्षण भाग गया।
थोड़ी देर में उधर कुछ दूरी पर ऊँटों का एक काफिला आ रहा था। ऊँटों के गले में घण्टियाँ बँधी हुई थीं। घण्टियों के शब्द से जंगल का आकाश गूँज रहा था। शेर ने पूछा- "चतुरक! यह कैसा शब्द है? मैं तो इसे पहली बार ही सुन रहा हूँ, पता तो करो।"
चतुरक बोला- "स्वामी! आप देर न करें, जल्दी से चले जाएँ।"
शेर- "आखिर बात क्या है? इतना भयभीत क्यों करता है मुझे।"
चतुरक- "स्वामी! यह ऊँटों का दल है। धर्मराज आप पर बहुत क्रुद्ध हैं। आपने उनकी आज्ञा के बिना उन्हें साक्षी बनाकर अकाल में ही ऊँट के बच्चे को मार डाला है। अब वह सौ ऊँटों को, जिनमें शंकुकर्ण के पुरखे भी शामिल हैं, लेकर आपसे बदला लेने आया है। धर्मराज के विरुद्ध लड़ना युक्तियुक्त नहीं। आप हो सके तो, तुरन्त भाग जाइए।"
शेर ने चतुरक के कहने पर विश्वास कर लिया! धर्मराज से डरकर वह मरे हुए ऊँट को वैसा ही छोड़कर दूर भाग गया। और चतुरक ने उस ऊँट को अकेले ही खा लिया और अपना स्वार्थ सिद्ध कर लिया।
दमनक ने यह कथा सुनाकर - करकट से कहा- "इसलिए मैं तुम्हें कहता हूँ कि स्वार्थ साधन में छल-बल सबसे काम लें।"
दमनक के जाने के बाद संजीवक ने सोचा, "मैंने यह अच्छा नहीं किया जो शाकाहारी होने पर एक माँसाहारी से मैत्री की। किन्तु अब क्या करूँ? क्यों न अब फिर पिंगलक की शरण में जाकर उससे मित्रता बढ़ाऊँ? दूसरी जगह अब मेरी गति भी कहाँ है?"
यही सोचता हुआ वह धीरे-धीरे शेर के पास चला। वहाँ जाकर उसने देखा कि पिंगलक शेर के मुँह पर वही भाव अंकित थे जिसका वर्णन दमनक ने कुछ समय पहले किया था। पिंगलक को इतना क्रुद्ध देखकर संजीवक आज ज़रा दूर हटकर बिना प्रणाम किए बैठ गया। पिंगलक ने भी आज संजीवक के चेहरे पर वही भाव अंकित देखे जिनकी सूचना दमनक ने पिंगलक को दी थी। दमनक की चेतावनी का स्मरण करके पिंगलक संजीवक से कुछ भी पूछे बिना उस पर टूट पड़ा। संजीवक इस अचानक आक्रमण के लिए तैयार नहीं था। किन्तु जब उसने देखा कि शेर उसे मारने को तैयार है तो वह भी सींगों को तानकर अपनी रक्षा के लिए तैयार हो गया।
उन दोनों को एक-दूसरे के विरुद्ध भयंकरता से युद्ध करते देखकर करटक ने कहा : "दमनक! तूने दो मित्रों को लड़वाकर अच्छा नहीं किया। तुझे सामनीति से काम लेना चाहिए था। अब यदि शेर का वध हो गया तो हम क्या करेंगे? सच तो यह है कि तेरे जैसा नीच स्वभाव का मन्त्री कभी अपने स्वामी का कल्याण नहीं कर सकता। अब भी कोई उपाय है तो कर। तेरी सब प्रवृत्तियाँ केवल विनाशोन्मुख हैं। जिस राज्य का तू मन्त्री होगा, वहाँ भद्र सज्जन व्यक्तियों का प्रवेश ही नहीं होगा। अथवा अब तुझे उपदेश देने का क्या लाभ? उपदेश भी पात्र को दिया जाता है। तू उसका पात्र नहीं है, तुझे उपदेश देना व्यर्थ है। अन्यथा कहीं मेरी हालत भी सूचीमुख चिड़ियों की तरह न हो जाए।"
दमनक ने पूछा- "सूचीमुख चिड़िया कौन थी?"
करटक ने तब सूचीमुख चिड़िया की यह कहानी सुनाई-