Vaidikalaya

कुसंग का फल 


न ह्यविज्ञातशीलस्य प्रदातव्यः प्रतिश्रयः ।

अर्थात

अर्थ:अज्ञात या विरोधी प्रवृत्ति के व्यक्ति को आश्रय नहीं देना चाहिए।


कुसंग का फल जिसका अर्थ होता है- बुरी संगति का परिणाम। यह एक कहावत है जो बताती है कि यदि कोई व्यक्ति गलत या बुरे लोगों के साथ रहता है, तो उसे अंततः उसका बुरा नतीजा भुगतना पड़ता है। इसका अर्थ यह भी है कि बुरी संगति व्यक्ति के चरित्र, आचरण और भविष्य पर नकारात्मक प्रभाव डालती है।

यह पंचतंत्र के प्रथम तंत्र मित्रभेद की छटी कहानी हैं, यह कहानी दमनक के द्वारा पिंगलक को सुनाई जाती है, दमनक पिंगलक के पास आकर उसको संजीवक के लिए उकसाता है ताकि संजीवक और पिंगलक में वैर हो जाये और वह पिंगलक का विश्वासपात्र वन जाये, दमनक पिंगलक को बोलता है कि संजीवक उसे मारकर जंगल में राज करना चाहता है और इससे पहले संजीवक उसे मारे, पिंगलक को उसे मार देना चाहिए किन्तु पिंगलक संजीवक को प्रेम करता और उसका बहुत संम्मान करता है और वह दमनक से कहता है कि उसमे कितनी भी बुराइयाँ हो किन्तु वह मेरा मित्र है। मैं  ऐसा नहीं कर सकता तब दमनक उससे कहता है कि संजीवक शाकाहारी है, सीधा है और उसके ये गुण आपके अंदर न आ जाये और आपको भी दूषित कर दे और आप कमजोर हो जाये और दूसरे जीव आपके ऊपर हमला करके आपको मार दे तो इससे पहले आप संजीवक को मार कर उसके अवगुणों से खुद को मुक्त करे जैसे साधु लोग नीच का संग छोड़ देते है वैसा ही आप करे नहीं तो खटमल के कारण जैसे जूँ मार दिया जाता है वही हाल आपका होगा तो पिंगलक उससे इस कहानी का मतलब पूछता है तब दमनक उसे यह कहानी सुनाता है, जो इस प्रकार है -


एक राजा के शयनगृह में शय्या पर बिछी सफेद चादरों के बीच एक मन्दविसर्पिणी सफेद जूँ रहती थी।  मन्दविसर्पिणी ने उस आरामदेह जगह को वर्षों की सावधानी से अपना घर बनाया था। वह जानती थी कि कब खाना है और कब छिपना है। उसका जीवन शांत और सुरक्षित था।

एक दिन, एक फुर्तीला, लालची खटमल, जिसका नाम अग्निमुख था, इधर-उधर भटकता हुआ राजा के बिस्तर पर आ पहुँचा। वह बहुत ही चंचल और बेचैन था।

अग्निमुख को देखकर दुःखी जूँ ने कहा- "हे अग्निमुख! तू यहाँ अनुचित स्थान पर आ गया है। इससे पूर्व कि कोई आकर तुझे देखे, यहाँ से भाग जा।"

खटमल बोला- "भगवती! घर आए हुए दुष्ट व्यक्ति का भी इतना अनादर नहीं किया जाता, जितना तू मेरा कर रही है। उससे भी कुशलक्षेम पूछा जाता है। घर बनाकर बैठने वालों का यही धर्म है। मैंने आज तक अनेक प्रकार का कटु-तिक्त, कषाय-अम्ल रस का खून पिया है; केवल मीठा खून नहीं पिया। आज इस राजा के मीठे खून का स्वाद लेना चाहता हूँ। तू तो रोज़ ही मीठा खून पीती है। एक दिन मुझे भी उसका स्वाद लेने दे।"

जूँ बोली- "अग्निमुख! मैं राजा के सो जाने के बाद उसका खून पीती हूं। तू बड़ा चंचल है, कहीं मुझसे पहले ही तूने खून पीना शुरू कर दिया तो दोनों ही मारे जाएँगे। हाँ, मेरे पीछे रक्तपान करने की प्रतिज्ञा करे तो एक रात भले ही ठहर जा।"

जूँ बोली- "अग्निमुख! मैं राजा के सो जाने के बाद उसका खून पीती हूं। तू बड़ा चंचल है, कहीं मुझसे पहले ही तूने खून पीना शुरू कर दिया तो दोनों ही मारे जाएँगे। हाँ, मेरे पीछे रक्तपान करने की प्रतिज्ञा करे तो एक रात भले ही ठहर जा।"

खटमल बोला- "भगवती! मुझे स्वीकार है। मैं तब तक रक्त नहीं पीऊंगा, जब तक तू नहीं पी लेगी। वचन-भंग करूँ तो मुझे देव-गुरू का शाप लगे।"

इतने में राजा ने चादर ओढ़ ली। दीपक बुझा दिया। खटमल बड़ा चंचल था। उसकी जीभ से पानी निकल रहा था। मीठे खून के लालच से उसने जूँ के रक्तपान से पहले ही राजा को काट लिया। जिसका जो स्वभाव हो, वह उपदेशों से नहीं छूटता। अग्नि अपनी जलन और पानी अपनी शीतलता के स्वभाव को कहाँ छोड़ सकता है। मर्त्य जीव भी अपने स्वभाव के विरुद्ध नहीं जा सकते।

अग्निमुख के पैने दाँतों ने राजा को तड़पाकर उठा दिया। पलंग से नीचे कूदकर राजा ने सन्तरी से कहा- "देखो, इस शय्या में खटमल या जूँ अवश्य हैं। इन्हीं में से किसी ने मुझे काटा है।" सन्तरियों ने दीपक जलाकर चादर की तहें देखनी शुरू कर दीं। इस बीच खटमल जल्दी से भागकर पलंग के पायों के जोड़ों में जा छिपा। मन्दविसर्पिणी जूँ चादर की तह में ही छिपी थी। सन्तरियों ने उसे देखकर पकड़ लिया और मसल डाला।

   

दमनक शेर से बोला- "इसलिए मैं कहता हूँ कि संजीवक को मार दें अन्यथा वह आपको मार देगा, अथवा उसकी संगति से आप जब स्वभाव-विरुद्ध काम करेंगे, अपनों को छोड़कर परायों को अपनाएँगे, तो आप पर वही आपत्ति आ जाएगी जो चण्डरव पर आई थी।"

पिंगलक ने पूछा- "कैसे?"