Vaidikalaya

घड़े-पत्थर का न्याय 


बलवन्तं रिपु दृष्ट्वा न वाऽऽमान प्रकोपयेत्

अर्थात

अर्थ:शत्रु अधिक बलशाली हो तो क्रोध प्रकट न करे, शान्त हो जाए।



घड़े-पत्थर का न्याय एक मुहावरा है जिसका अर्थ है किसी विवाद या लड़ाई में एक पक्ष का बहुत कमज़ोर होना और दूसरे का बहुत मज़बूत होना, जिससे कमज़ोर पक्ष को भारी नुकसान उठाना पड़े या वह पूरी तरह से समाप्त हो जाए। घड़ा कमज़ोर पक्ष का प्रतीक है, जो आसानी से टूट सकता है और पत्थर मज़बूत या शक्तिशाली पक्ष का प्रतीक है, जो अचल और कठोर होता है। जब घड़ा और पत्थर आपस में टकराते हैं, तो हमेशा घड़ा ही टूटता है, पत्थर को कोई नुकसान नहीं होता। इसी तरह, जब दो असमान शक्तियाँ या पक्ष आमने-सामने होते हैं, तो कमज़ोर को ही नुकसान झेलना पड़ता है।

यह पंचतंत्र के प्रथम तंत्र की नौवीं कहानी है, पिछली कहानी में जब संजीवक पिंगलक से युद्ध करने को तैयार हो जाता है तो दमनक को भय होता है कि कही संजीवक के धारदार सींगो से पिंगलक मारा न जाये तब वह संजीवक को समझाता है कि वह पिंगलक से युद्ध की वजाय ये जंगल छोड़ कर चला जाये क्योकि पिंगलक उससे ज्यादा बलवान है और अपने से बलवान से युद्ध करना मूर्खता है क्योकि जैसे टिटिहरे ने समुंद्र से लड़ कर खुद का नुकसान किया था वैसे ही तुम करोगे तब संजीवक उससे इस कहानी के बारे में पूछता है तब दमनक उसे ये कहानी सुनाता है जो इस प्रकार है-


समुद्र तट के एक भाग में एक टिटिहरी का जोड़ा रहता था। अण्डे देने से पहले टिटिहरी ने अपने पति को किसी सुरक्षित प्रदेश की खोज करने के लिए कहा।

टिटिहरा ने कहा- यहाँ सभी स्थान पर्याप्त सुरक्षित हैं, तू चिन्ता न कर।

टिटिहरी- समुद्र में जब ज्वार आता है तो उसकी लहरें मतवाले हाथी को भी खींचकर ले जाती हैं, इसलिए हमें इन लहरों से दूर कोई स्थान देख रखना चाहिए।

टिटिहरा- समुद्र में इतना दुस्साहसी नहीं है कि वह मेरी सन्तान को हानि पहुँचाए। वह मुझसे डरता है। इसलिए तू निःशंक होकर यहीं तट पर अण्डे दे।

समुंद्र ने टिटिहरी की ये बातें सुन लीं। उसने सोचा, यह टिटिहरा बहुत अभिमानी है। आकाश की ओर टाँगे करके भी इसीलिए सोता है कि इन टाँगों पर गिरते हुए आकाश को थाम लेगा। इसका अभिमान भंग होना चाहिए। यह सोचकर उसने ज्वार आने पर टिटिहरी के अण्डों को लहरों में बहा दिया।

टिटिहरी जब दूसरे दिन आई तो अण्डों को बहता देखकर रोती-बिलखती टिटिहरे से बोली- मूर्ख ! मैंने पहले ही कहा था कि समुद्र की लहरें इन्हें बहा ले जाएँगी, किन्तु तूने अभिमानवश मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया। अपने प्रियजनों के कथन पर भी जो कान नहीं देता उसकी वही दुर्गति होती है जो उस मूर्ख कछुए की हुई थी। जिसने रोकते-रोकते भी मुख खोल दिया था।

टिटिहरे ने टिटिहरी से पूछा- कैसे ?

टिटिहरी ने तब मूर्ख कछुए की कहानी सुनाई :