Vaidikalaya

अध्याय 5 - मौर्य साम्राज्य   

मौर्य राजा 

ईसा पूर्व चौथी सदी में मगध पर नंद राजाओं का शासन था। और वह उत्तर भारत का सबसे शक्तिशाली राज्य था। नंद राजाओं ने करों की वसूली से अपार संपत्ति जमा कर ली थी और उनके पास एक विशाल सेना भी थी। परंतु वे एक कुशल शासक नहीं थे और लोकप्रिय भी नहीं थे, इसलिए उनको उखाड़ फेंकना कठिन नहीं था। चाणक्य नाम के एक ब्राह्मण मंत्री ने, जो कौटिल्य के नाम से भी प्रसिद्ध हैं, मौर्य वंश के एक तरुण चंद्रगुप्त को शिक्षा देकर तैयार किया। चंद्रगुप्त ने अपनी सेना का संगठन किया और नंद राजा को सिंहासन से उतार दिया। समझा जाता है कि नंद राजा लोकप्रिय नहीं था। शायद इसलिए लोगों ने नए राजा का स्वागत किया।

सिकंदर

मगध में अपनी शक्ति स्थापित करने के बाद चंद्रगुप्त ने अपना ध्यान पश्चिमोत्तर में पंजाब की ओर लगाया। यूनानी राजा सिकंदर ने 326 ई०पू० में पंजाब पर हमला किया था। सिकंदर ने भारत पर इसलिए हमला किया था क्योंकि उत्तर के कुछ क्षेत्र हखमनी शासकों के ईरानी साम्राज्य में शामिल थे। सिकंदर ने हखमनी सम्राट को हराकर उसके साम्राज्य को जीत लिया था। लेकिन स्वयं सिकंदर 323 ई०पू० में इस संसार से चल बसा। पंजाब पर अब सिकंदर द्वारा पीछे छोड़े गए गवर्नर शासन करते थे।

चंद्रगुप्त मौर्य

चंद्रगुप्त ने जल्दी ही समूचे पंजाब को जीत लिया। सुदूर उत्तर में कुछ प्रदेश यूनानी सेनापति सेल्यूकस निकेटर के अधीन थे। चंद्रगुप्त ने एक लंबे अभियान के बाद अंत में उसे 305 ई० पू० में हरा दिया। उसने सिंधु नदी के परे के उस प्रदेश को भी जीत लिया जो आजकल अफगानिस्तान का हिस्सा है। दोनों परिवारों के बीच विवाह-संबंध भी स्थापित हो गए। इसके अलावा, चन्द्रगुप्त ने मध्य भारत के भाग भी जीत लिये। इस प्रकार, चंद्रगुप्त का शासन काल समाप्त होने तक समूचा उत्तर भारत मौर्यो के अधीन हो गया।

बिंदुसार

करीब 25 साल तक शासन करने के बाद चंद्रगुप्त ने अपना सिंहासन अपने पुत्र बिंदुसार को सौंप दिया। उल्लेखो के अनुसार चंद्रगुप्त इसके बाद जैन मुनि बन गया था। बिंदुसार के शासनकाल में मौर्य साम्राज्य दक्षिण में मैसूर तक फैल गया था, और इस तरह उसमे लगभग सारा देश शामिल था। केवल कलिंग प्रदेश (उड़ीसा) और सुदूर दक्षिण के राज्य ही उसके साम्राज्य में नहीं थे। परंतु दक्षिण के राज्यों के साथ उसकी मैत्री थी, इसलिए उन्हें जीतना जरूरी नहीं था। कलिंग के लोग मौर्य के अधीन नहीं रहना चाहते थे। इसलिए मौर्यों को उन पर आक्रमण करना पड़ा। यह काम चंद्रगुप्त के पौत्र अशोक ने किया।

अशोक

मौर्य राजाओं में अशोक सबसे अधिक प्रसिद्धि हुआ। वह भारत के महानतम शासकों में से एक था। उसने कलिंग को जीत कर उसे अपने साम्राज्य में शामिल करने का फैसला किया। कलिंग पर चढ़ाई की गई और उसे जीत लिया गया। पर दोनों ओर की सेनाओं को भारी हानि उठानी पड़ी घायल और मरते हुए सिपाहियों को देखकर अशोक को बड़ा दुख हुआ। युद्ध से पीड़ित स्त्रियों और बच्चों को देख कर भी उसे बड़ा क्लेश हुआ। तब उसने फैसला किया कि वह आगे कोई युद्ध नहीं करेगा। बजाय इसके वह प्रयत्न करेगा और लोगों को समझाएगा कि वह शांतिपूर्वक रहे। उसके आगे के तीस साल के शासन काल में कोई युद्ध नहीं हुआ। कलिंग अब मौर्य साम्राज्य का एक हिस्सा हो गया था। भारतीय इतिहास में पहली बार सुदूर दक्षिण के प्रदेश को छोड़कर, लगभग समूचा भारतीय उप-महाद्वीप एक शासक के अधीन हो गया था।

अपने शासन के बारहवें वर्ष के बाद अशोक ने राजाज्ञाए जारी करना शुरू कर दिया। इनमें उसने धर्म, अच्छे शासन और लोगों का एक-दूसरे के प्रति बर्ताव जैसे मामलों के बारे में अपने विचार व्यक्त किए। यह राजाज्ञाए उसके साम्राज्य के सभी प्रांतों को भेज दी गई ।इन्हें चट्टानों तथा स्तंभों पर ऐसे स्थानों पर खुदवा दिया गया जहां लोग इकट्ठा होकर इन्हें पढ़ सकें। इस प्रकार प्रजा को जानकारी मिली कि उनका राजा क्या सोचता है। इन अभिलेखों से हमें अशोक के विचारों के बारे में भी जानकारी मिलती है।

अशोक का धम्म

अशोक बौद्ध था और बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करना चाहता था। परंतु इससे भी अधिक वह उन ऊंचे आदेशों में विश्वास करता था जो मनुष्य को शांतिपूर्ण और सदाचारी बना सकते हैं। इन्हें उसने धर्म कहा (संस्कृत के धर्म शब्द का प्राकृत रूप धम्म है)। अपने इस धम्म को उसने अपने राजाज्ञाओमें समझाया है। उसकी राजाज्ञाए विभिन्न लिपियों में लिखी गई हैं। अधिकांश राजाज्ञाए ब्राह्मी लिपि में है। उस समय भारत के अनेक प्रदेशों में इस ब्राह्मी लिपि का प्रचलन था। अशोक के अभिलेखों की भाषा आमतौर पर प्राकृत है। यह आम जनता की भाषा थी, जबकि संस्कृत भाषा ऊंची जातियों के शिक्षित लोगों द्वारा बोली जाती थी। अशोक के कुछ राजाज्ञाए यूनानी भाषा में थी और अफगानिस्तान में खुदवाई गई थी। क्योंकि अशोक अपने विचारों को आम लोगों तक पहुंचाना चाहता था, इसलिए उसने ऐसी भाषा का प्रयोग किया जो वह समझ सकते थे।

अशोक की इच्छा थी कि विभिन्न धर्मों के अनुयाई आपस में शांति और सौहार्द से रहे। उस समय के अधिकांश धार्मिक संप्रदाय या पंथ दो समुदायों में बैठे हुए थे। एक समुदाय था ब्राह्मणों का और दूसरा था श्रमणो का। श्रमणो में बौद्ध, जैन और ब्राह्मणों से मतभेद रखने वाले अन्य धर्मों के साधनों का समावेश होता था। कभी-कभी इन विभिन्न धार्मिक संप्रदायों के बीच जबरदस्त कला भी होती थी। अशोक को यह पसंद नहीं था। वह चाहता था कि लोग एक दूसरे से मैत्री रखें और तरुण लोग बड़े-बूढ़ों की आज्ञा माने तथा बालक अपने माता पिता के आदेश माने। उसे मालिकों द्वारा अपने दासो तथा सेवकों के साथ किए जाने वाले बर्ताव के बारे में भी चिंता थी। इसलिए उसने विशेष रूप से निवेदन किया कि मालिकों को अपने सेवकों के प्रति नम्र और दयालु होना चाहिए। इससे भी अधिक महत्व की बात यह थी कि वह आदमियों और पशुओं की हत्या पर रोक लगाना चाहता था। उसने युद्ध ना करने का वचन दिया था। उसने धार्मिक अनुष्ठानों पर पशुओं की बलि देने पर प्रतिबंध लगाया, क्योंकि वह इसे एक क्रूर कार्य समझता था। वह यह भी नहीं चाहता था कि लोग मांस खाए। उसके अपने रसोई घर में प्रतिदिन दो मोर और एक हिरण राजा के लिए पकाए जाते थे। इस पर उसने रोक लगा दी। उसकी सबसे बड़ी इच्छा यह थी कि लोग शांतिपूर्वक रहे और जमीन तथा‌ धर्म के मसलों पर कलह ना करें। उसका मानना था कि महत्व की बात आपसी मतभेद नहीं है। वरन साम्राज्य के भीतर एकता बनीं रहे।

प्रशासन, समाज और संस्कृति
मौर्य कला

अशोक की राजाज्ञाए चट्टानों और बलुआ पत्थरों के ऊंचे स्तंभों पर खोदी गई हैं। स्तंभों पर इतनी बढ़िया पालिश की गई है कि यह शीशे-जैसे चमकते हैं‌ प्रत्येक स्तंभ के सिरे पर हाथी, सांड, सिंह की प्रतिमा बनाई गई थी। सारनाथ के स्तंभ के सिरे पर चार सिंह बनाए गए थे। 1947 में भारत जब स्वतंत्र हुआ तो चार सिंहो की इस बनावट को भारत के राष्ट्रीय चिन्ह के रूप में अपनाने का निर्णय लिया गया।

अशोक का प्रशासन

अशोक की राजाज्ञाओं में उसके शासन संबंधी विचारों के बारे में भी जानकारी मिलती है। उसका मत था कि राजा को प्रजा के साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा कि पिता अपने बच्चों के साथ करता है। अपनी राजाज्ञाओ में वह अक्सर कहता है-'सभी मनुष्य मेरे बच्चे हैं।'  जिस प्रकार पिता अपने बच्चों का पालन पोषण करता है, उसी प्रकार राजा की भी अपनी प्रजा की देखभाल करनी चाहिए। अशोक विविध प्रकार से प्रजा की देखभाल करता था उसने नगरों को एक-दूसरे से जोड़ने के लिए अच्छी सड़कें बनवाई, ताकि लोग सुगमता से और शीघ्रता से यात्रा कर सकें। तेज धूप से बचने के लिए उसने सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष लगवाए, पानी के लिए कुआं खुदवाए, और थके-मांदे यात्रियों के विश्राम के लिए धर्मशालाएं बनवाई। उसने रोगियों के इलाज के लिए चिकित्सा-केंद्र खुलवाए। उसने पशुओं के इलाज के लिए भी चिकित्सा-केंद्रों का प्रबंध किया।

अशोक अपनी राजधानी पाटलिपुत्र (पटना) से शासन करता था। उसे सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद थी और उसके आदेशों का पालन करने के लिए अनेक अधिकारी थे। साम्राज्य को चार बड़े प्रांतों में बांटा गया था। प्रत्येक प्रांत का शासन एक राज्यपाल संभालता था। यह राज्यपाल राजा के अधीन होते थे। जान पड़ता है कि इन प्रांतों को जिलों में बांटा गया था। और प्रत्येक जिले में कई गांव होते थे। जिले के प्रशासन की देखभाल के लिए कई तरह के अधिकारी थे। कुछ अधिकारी जिलों का दौरा करते थे और व्यवस्था को देखते थे। कुछ अधिकारी जिलों से कर वसूल करते थे। कुछ न्यायाधीश होते थे और उनके सामने लाए गए मुकदमों का फैसला करते थे। अशोक चाहता था कि न्यायाधीश, जहां तक संभव हो अपने फैसलों में और दंड देने में उदारता बरते। कुछ अन्य अधिकारी करो के रूप में वसूल किए गए धन का हिसाब रखते थे और बड़े अधिकारियों को उनके कार्यों में मदद करते थे। प्रत्येक गांव में अधिकारियों का एक दल होता था जो गांवों के लोगों तथा पशुओं का लेखा-जोखा रखता था और करों की वसूली करके बड़े अधिकारियों तक पहुंचाता था।

प्रशासन-कार्य कई विभागों में बंटा हुआ था। प्रत्येक विभाग का अध्यक्ष पाटलिपुत्र में रहता था। इस प्रकार राजा को सदैव जानकारी मिलती रहती थी कि उसके राज्य में कहां, क्या हो रहा है। नगर का प्रशासन एक परिषद और छः समितियां देखती थी उनके अधीन अलग-अलग विभाग होते थे। अधिकारियों के अलावा अशोक में एक विशेष प्रकार के अधिकारियों को नियुक्त किया। इन्हें वह 'धर्म महामात्र' कहता था। यह अधिकारी सारे देश का दौरा करते, स्थानीय कामों की जांच पड़ताल करते लोगों की शिकायतें सुनते और सभी को समझाते कि धर्मानुसार आचरण करें और आपस में मेलजोल से रहें।

पड़ोसी देशों से संबंध

अशोक अपने पड़ोसियों से  भी मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखना चाहता था। उसने आजकल के दूतों की बात भांति धर्मदूतों के कई दल पश्चिमी एशिया के राजदरबारों में भेजें। यूनानी राजा थे जिनके नामों का उल्लेख उसने अपने एक अभिलेख में किया है। अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र को श्रीलंका भेजा। महेंद्र ने वहां बौद्ध धर्म का प्रचार किया और श्रीलंका का राजा बौद्ध हो गया। उसके मन में अशोक के लिए बड़ा सम्मान और प्रेम था।

कौटिल्य और मेगस्थनीज़

मौर्य काल के बारे में बहुत कुछ जानकारियां दो साहित्यिक स्रोतों से मिलती हैं। उसमें से एक है 'अर्थशास्त्र', जिसका आज उपलब्ध अधिकांश हिस्सा चंद्रगुप्त मौर्य के प्रधानमंत्री को

कौटिल्य ने लिखा था। इस ग्रंथ में कौटिल्य ने समझाया है कि एक अच्छे शासन का संगठन किस प्रकार किया जाए। दूसरा स्त्रोत है मैगस्थनीज़ द्वारा यूनानी भाषा में लिखा हुआ विवरण। मेगस्थनीज़ सेल्यूकस निकेटर का राजदूत था और उसने चंद्रगुप्त के शासनकाल में कुछ समय भारत में बिताया था। मेगस्थनीज़ का वृत्तांत जिसका दुर्भाग्यवश कुछ ही अंश बचा है, उसका आंखों देखा वर्णन है।

मेगास्थनीज जानकारी देता है कि पाटिलपुत्र एक विशाल और सुंदर नगर था। और मजबूत परकोटो से घिरा हुआ था। मकान लकड़ी के बने हुए थे, परंतु राजा का महल पत्थर का बना हुआ था। राजा के दरबार और उसके वैभवपूर्ण जीवन से मेगस्थनीज़ बहुत प्रभावित था। राजा जनता की सब तरह की शिकायतें सुनने को सदैव तैयार रहता था। चंद्रगुप्त की एक बड़ी सेना थी, क्योंकि उसे कई युद्ध लड़ने पड़े थे, अधिकारियों द्वारा जमा किए गए करो का एक बड़ा भाग सेना पर खर्च होता था।

समाज

मेगस्थनीज़ लिखता है कि अधिकतर लोग खेती करते थे। उनकी या तो अपनी भूमि होती थी या वे राजा की भूमि पर काम करते थे। वे गांवों में सुख पूर्वक रहते थे। चरवाहे और गडरिए भी गांवों में ही रहते थे। बुनकर, बढ़ई, लोहार, कुम्हार और अन्य कारीगर नगरों में रहते थे। उनमें से कुछ राजा के लिए काम करते थे, जबकि कुछ नागरिकों के इस्तेमाल के लिए चीजें तैयार करते थे। व्यापार उन्नति पर था और व्यापारी अपना माल देश के कोने-कोने में ले जाते थे।

काफी अधिक लोग सेना में भर्ती थे। सैनिकों को अच्छा वेतन मिलता था और वह सुख-चैन से रहते थे। मंत्री, अध्यक्ष और अन्य अधिकारी नगर तथा गांवों दोनों में काम करते थे। किसानों, कारीगरों और सैनिकों की तुलना में ब्राह्मणों और जैन तथा बौद्ध भिक्षुओं की संख्या बहुत कम थी, परंतु हर कोई उनका सम्मान करता था। वे राजा को कोई कर नहीं देते थे।

मौर्य साम्राज्य का अंत

मौर्य साम्राज्य सौ से कुछ अधिक सालों तक टिका रहा और अशोक की मृत्यु के बाद वह छिन्न-भिन्न होने लगा। मौर्य साम्राज्य के विघटन के कई कारण थे। एक तो यह था कि अशोक के उत्तराधिकारी दुर्बल थे और वे साम्राज्य का शासन अच्छी तरह संभाल न सके। दूसरा कारण यह था कि साम्राज्य के विभिन्न प्रदेश अत्यधिक दूरी के कारण एक दूसरे से अलग-थलग पड़े हुए थे, और इसलिए प्रशासन में तथा संपर्क स्थापित करने में कठिनाई होती थी। एक विशाल सेना और विशाल प्रशासनिक सेवा का खर्च उठाने के लिए भी भारी धन की आवश्यकता थी। शायद बाद के मौर्य शासक इतने भारी खर्च के लिए पर्याप्त कर वसूल नहीं कर पाते थे। धीरे-धीरे मौर्य साम्राज्य के विभिन्न प्रांत अलग होने लगे और अंत में स्वतंत्र बन गए।

फूट का नतीजा यह हुआ कि चंद्रगुप्त द्वारा यूनानीयों को हराने के सौ साल बाद  बख्त्रियो के यूनानी राजाओं ने पश्चिमोत्तर प्रदेश के एक भारतीय राजा पर आक्रमण किया। इस राजा को अकेले ही आक्रमण का सामना करना पड़ा। किसी दूसरे भारतीय राजा ने उसकी मदद नहीं की, इसलिए यूनानीयों से वह पराजित हुआ। बीस साल बाद, 185 ई०पू० में, पुष्पमित्र शंगु ने अंतिम मौर्य शासक की हत्या करके मगध में शुंग वंश की स्थापना की।