अध्याय 2 - नगर जीवन का आरंभ
समय के साथ-साथ कुछ छोटे गांव बड़े होते गए। उनमें रहने वाले लोगों की संख्या बढ़ गई नयी जरूरतें पैदा हुई और नये धन्धे शुरू हुए। इन बड़े गांवों के निवासी सम्पन्न थे, क्योंकि वे अपनी आवश्यकता से अधिक अनाज पैदा करते थे। इसलिए वे बचे हुए अनाज को कपड़ा, मिट्टी के बर्तन या आभूषण जैसी चीजों के बदले में दे सकते थे। अब इस बात की आवश्यकता नहीं रह गई थी कि प्रत्येक परिवार खेतों में काम करें और अपने लिए अनाज पैदा करें। जुलाहे कुम्हार और बढई अपनी बनाई हुई चीजों को दूसरे परिवारों द्वारा पैदा किए गए अनाज से बदल लेते थे। धीरे-धीरे व्यापार बढ़ता गया तो कारीगर साथ-साथ रहने लगे और इस प्रकार गांव नगर बनते गए।
आमतौर पर शहरी जीवन के आरंभ को सभ्यता की शुरुआत माना जाता है। सभ्यता मानव संस्कृति के विकास की वह अवस्था है जब मनुष्य अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के अलावा भी कुछ और चाहता है। पर्याप्त अनाज उपलब्ध होने से कुछ लोग शिल्पो में विशेषज्ञता प्राप्त करते हैं। विभिन्न प्रकार की उपज का शहरों और गांवों के बीच लेनदेन होता है। इस लेनदेन से शिल्पविज्ञान के विकास को बढ़ावा मिलता है। प्रकृति और उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण अधिक कार्यक्षम हुआ, तो लोगों को सोचने के लिए और अपना जीवन-स्तर सुधारने के लिए अधिक समय मिला। इस समय लेखन की खोज होना एक महान उपलब्धि थी। लेखन की खोज से ज्ञान को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाना आसान हो गया और ज्ञान की उपलब्धि पहले के मुकाबले बहुत अधिक लोगों के लिए संभव हो गई। लेखन-ज्ञान का प्रसार अक्सर शहरों के विकास के साथ-साथ होता है, क्योंकि व्यापारियों को अपना हिसाब-किताब रखना होता है। शहरों के विकास के साथ-साथ विभिन्न जन समूह के बीच आर्थिक भिन्नता भी बढ़ती गई। समाजों के शासन के लिए कानून की आवश्यकता पड़ी। साथ ही, अब कुछ लोगों को विश्व और मानव दशा के बारे में सोचने का अवसर मिला। इससे तरह तरह के धार्मिक विश्वासों का जन्म हुआ।
सबसे पुराने जिस नगर की भारत में खोज हुई वह था पश्चिम पंजाब (वर्तमान पाकिस्तान) में स्थित हड़प्पा। दूसरे सबसे महत्वपूर्ण स्थल की खोज सिंधु (वर्तमान पाकिस्तान) के मोहनजोदड़ो में हुई। पुरातत्वेक्ताओं ने इस प्राचीन नगरों की सभ्यता को सिंधु घाटी की सभ्यता का नाम दिया क्योंकि यह दोनों नगर और इस तरह की संस्कृति वाले अन्य स्थल सिंधु की घाटी से मिले थे परंतु पिछले चालीस वर्षों में पुरातत्व व्यक्ति ने भारत के उत्तरी तथा पश्चिमी भागों में अन्य स्थलों की खुदाई करके सिंधु सभ्यता के नगरों से मिलते-जुलते कई नगर खोज निकाले हैं। इसलिए सिंधु घाटी की सभ्यता को अब हड़प्पा संस्कृति भी कहते हैं, क्योंकि इन नगरों में रहने वाले लोगों का जीवन हड़प्पा निवासियों से मिलता जुलता रहा है ऐसा एक नगर चंडीगढ़ के पास सरोवर में, दूसरा अहमदाबाद के पास लोपल में, तीसरा राजस्थान में कालीबंगा में और एक अन्य सिंध प्रांत में कोट-दीजी में मिला है। इसे सिंधु सभ्यता भी कहते हैं, क्योंकि इसका विस्तार सिंधु घाटी के परे भी हुआ है।
हड़प्पा संस्कृति समूचे सिंह तथा बलूचिस्तान में और लगभग पूरे पंजाब (पूर्वी और पश्चिमी) हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, जम्मू, उत्तरी राजस्थान, गुजरात तथा उत्तरी महाराष्ट्र में फैली हुई थी। यदि तुम इन क्षेत्रों को मानचित्र में ढूंढो तो तुम्हें पता लगेगा कि इस संस्कृति का भौगोलिक विस्तार कितना बड़ा था। इसे इसलिए सभ्यता कहते हैं, क्योंकि लोग अब पहले की आदिम की अपेक्षा अधिक उन्नत जीवन व्यतीत कर रहे थे। नगरों का निर्माण बढ़िया योजना के अनुसार हुआ था और उनकी देखभाल का अच्छा प्रबंध था। लोग सुखी और संपन्न थे और मनोरंजन तथा चिंतन के लिए उनके पास अवकाश था। हड़प्पा संस्कृति के लोग लिखना जानते थे। वे अपनी भाषा को चित्र संकेतों में लिखते थे। दुर्भाग्य से, इन चित्र-संकेतों को पढ़ने और समझने में इतिहासकारों को अभी सफलता नहीं मिली है।
भारत में हड़प्पा संस्कृति का विकास उसी समय हुआ जब एशिया तथा अफ्रीका के अन्य भागों में मुख्यत: नील, फरात, दजला तथा हवाड्-हो नदियों की घाटियो में, दूसरी सभ्यता फल-फूल रही थी। हड़प्पा संस्कृति को लगभग २५०० ईसा पूर्व, में यानी आज से लगभग ४५०० वर्ष पहले, महत्व प्राप्त हुआ। उस समय मिस्र में पिरामिड ओं का निर्माण करवाने वाले फ्रराओ (मिस्र के राजाओं की उपाधि) की सभ्यता थी। आज जो प्रदेश इराक के नाम से प्रसिद्ध है वहां सुमेर सभ्यता थी। हड़प्पा संस्कृति के लोगों के सुमेरी लोगों के साथ व्यापारी संबंध थे। उन दिनों भी भारत और संसार के अन्य भागों के बीच व्यापार चलता था।
परिवेश
उस समय भारत के उत्तरी और पश्चिमी भाग (जिनमे आजकल का पाकिस्तान भी शामिल है) जंगलों से ढके हुए थे। जलवायु नम और आद्र थी तथा सिंध और राजस्थान आजकल की तरह रेगिस्तानी इलाके नहीं थे। इस प्रदेश के लोग जिन पशुओं से परिचित थे वे जंगली जानवर के जैसे, बाघ, हाथी,और गैंडा। जंगलों से मिलने वाली लकड़ी का इस्तेमाल भट्ठो में किया जाता था, जिनमें मकान बनाने के लिए ईंटें पकाई जाती थी। लकड़ी से नौकाए भी बनाई जाती थी।
भूमि उपजाऊ थी। पता चलता है कि जौ और गेहूं का काफी अधिक उत्पादन होता था। खेतों में हल जोते जाते थे, इसलिए काफी अधिक अनाज पैदा होता था खेतों की सिंचाई के लिए नदियों से नहरे निकाली गई होंगी। गांवों के लोगों को जितने अनाज की आवश्यकता थी उससे अधिक अनाज पैदा किया जाता था। अतिरिक्त अनाज नगर वासियों की जरूरत के लिए शहरों में भेज दिया जाता था, जहां इसे खासतौर से बनाए गए बड़े धान्यागारो या कोठरों में संचित रखा जाता था।
नगरवासी खेती नहीं करते थे। वे मुख्यतः शिल्पकार तथा व्यापारी होते थे और विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का उत्पादन तथा विनिमय करके जीविका चलाते थे। वे अपने हाथों से चीजें बनाते थे जैसे मनके, कपड़े और गहने। इन चीजों का नगरों में इस्तेमाल होता था। ऐसी कुछ चीजें सुदूर देशों को भी भेजी जाती थी, जैसे इराक़ के सुमेर राज्य को।
नगर और उनके भवन
मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के नगर दो भागों में बंटे हुए थे। ऊंचे चबूतरे पर बसे हुए ऊपरी भाग को दुर्ग या गढ़ माना गया है। इस भाग में सार्वजनिक भवन, धान्य कोठार, क्रियाशालाए और धार्मिक इमारतें थी। नगर का दूसरा भाग, जो काफी बड़ा था, निचले हिस्से में था। यहां लोग रहते थे और अपना-अपना धंधा करते थे। यदि नगर पर हमला होता या बाढ़ का खतरा बढ़ जाता तो लोग गढ़ में जाकर शरण लेते थे।
हड़प्पा के दुर्ग में सबसे प्रभावशाली इमारतें धान्यागारों की थी। वे बड़ी सावधानी से आयताकार के रूप में बनाई गई थी और नदी के नजदीक थी। धान्य नदी के रास्ते नावों से लाया जाता था और धान्यागारो में संचित रखा जाता था । धान्य को एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाने का यह सबसे बढ़िया तरीका था, क्योंकि सस्ता और बेहतर होने के साथ इसमें मेहनत भी कम लगती थी। धान्यागारो का बड़ा महत्व था क्योंकि नगरवासियों का जीवन उनके भरे-पूरे रहने पर ही आश्रित था। धान्यागारो के नजदीक ही वे भठ्ठीयां थी जिनमें जहां धातु-कर्मकार तांबे, कांसे, सीसे, टीन आदि धातुओं से अनेक प्रकार की चीजें तैयार करते थे। कुम्हार भी इसी हिस्से में काम करते थे। सभी मजदूर कर्मशालाओं के समीप बने छोटे-छोटे कमरो में रहते थे।
परकोटे से गिरे हुए मोहनजोदड़ो के दुर्ग में भी ऐसी और अन्य प्रकार की इमारतें भी थी। यहां एक बड़ा भवन जान पड़ता है की राजमहल या किसी शासक का मकान था। यकीन के साथ नहीं कहा जा सकता कि हड़प्पा संस्कृति के लोगों का कोई राजा होता था या नागरिकों की एक सीमित शासन चलाती थी। नजदीक ही एक और इमारत है जो या तो सभा-भवन था या बाजार-चौक। मोहनजोदड़ो के दुर्ग का सबसे प्रसिद्ध इस्मारक स्नानाकुंड है। यह तैरने के लिए बने एक बड़े कुंड की तरह है, पर हम नहीं जानते कि ठीक किस काम के लिए इसका उपयोग होता था।
मकान
मोहनजोदड़ो का निचला नगर बढ़िया योजना तैयार कर के बसाया गया था। सड़के सीधी जाती थी और एक-दूसरे को समकोण में काटती थी। सड़के चौड़ी थी। मुख्य सड़कें करीब दस मीटर चौड़ी थी, जो आधुनिक नगरों की बड़ी-बड़ी सड़को के बराबर है सड़क के दोनों ओर मकान बनाए जाते थे।
मकान ईंटों के बने होते थे और उनकी दीवारें मोटी और मजबूत होती थी। दीवारों पर प्लास्टर और रंग किया जाता था छते सपाट होती थी। खिड़कियां कम परंतु दरवाजे अधिक होते थे। दरवाजे शायद लकड़ी के बने होते थे। रसोई में एक चूल्हा होता था और वहीं पर धान्य तथा तेल रखने के लिए मिट्टी के बड़े-बड़े घड़े रहते थे। रसोई के पास ही नाली या मोरी होती थी। स्नानागार मकान के अलग हिस्से में बनाए जाते थे । और उनकी नालियां सड़क की नालियों से मिली हुई होती थी। सड़क की नाली सड़क के किनारे-किनारे चलती थी और उसके दोनों ओर ईंटें लगी हुई होती थी, ताकि उसे साफ़ रखा जा सके। कुछ नालियां पत्थर की पाटियों से ढकी रहती थी।
मकान में एक आंगन होता था जिसमें रोटी पकाने के लिए एक चूल्हा होता था। यहीं पर ग्रहणी सिलबट्टे से मसाला पीसने के लिए बैठती थी। शायद बकरा बकरी और कुत्ते जैसे घरेलू जानवर भी आंगन में ही रखे जाते थे। कुछ घरों में कुएं भी होते थे। इससे पता चलता है कि घर के भीतर पानी सदैव उपलब्ध रहता था।
नगर के प्रत्येक निवासी के लिए ऐसे आरामदेह मकान नहीं थे ऐसे मकान संभवत व्यापारीयो और धनी लोगों के थे। हम यह भी जानते हैं कि नगर वासियों में ऐसे मजदूर भी थे जो धान्यागारो और भठ्ठो में काम करते थे। वे छोटे-छोटे कमरों में रहते थे और शायद गरीब थे। इन नगरों की खुदाई में मिले मकानों को देखने से पता चलता है कि वहां कम से कम तीन स्पष्ट सामाजिक वर्गों का अस्तित्व रहा है। एक वर्ग उन लोगों का था जो शासन करते थे और लगता है कि दुर्ग के भीतर रहते थे। दूसरा वर्ग धनी व्यापारियों व अन्य लोगों का था जो निचले नगर में रहते थे। तीसरा वर्ग गरीब मजदूरों का था। नगरवासियों के इन वर्गों के अलावा, आसपास के क्षेत्रों में किसान भी थे जो शहरों के लिए अन्न पैदा करते थे। देहाती इलाकों में रहने वाले और घूमने-फिरने वाले पशुचारी लोगों की गतिविधियों के बारे में भी जानकारियां मिलती हैं। सिलसिलेवार वार्षिक स्थानांतरण करते हुए जब वे अपने पशुओं को विभिन्न चरागाहों में ले जाते तो अपने साथ व्यापार की छोटी-मोटी चीजें भी ले जाते थे। इस प्रकार वे विभिन्न जन-समुदायों के बीच संबंध स्थापित करते थे।
भोजन
लोग जौ और गेहूं को चक्कियों में पीसकर उनके आटे की रोटी पकाते थे। उन्हें फल भी पसंद थे, विशेष रूप से अनार और केले। वे मांस और मछली भी खाते थे।
वस्त्र
वे सूत से कपड़ा बुनना जानते थे। मिट्टी के जो तकुए मिले हैं उन से पता चलता है कि बहुत सी स्त्रियां घर पर सूट कात लेती थी। स्त्रियां छोटा घागरा पहनती थी जो कमरबंद से कसा रहता था। पुरुष कपड़े की लंबी चादर शरीर पर ओढ़ लेते थे। कपड़े सूती होते थे यद्यपि ऊन का भी इस्तेमाल होता था। स्त्रियों को अपने केश तरह-तरह से संवारने का शौक था। वह केसों को भाति-भाति से गूथती और कंधों से सजाती थी। स्त्री और पुरुष दोनों को आभूषण पहनने का शौक था। पुरुष ताबीज बांधते थे और स्त्रियां कंगन और हार पहनती थी। यह आभूषण सीप की गुरिया के दाने होते थे, परंतु अमीरों के लिए सोने और चांदी के बनाए जाते थे।
मनोरंजन और खिलौने
कुछ ऐसी चीजें मिली है जिनसे अनुमान लगाया जा सकता है कि हड़प्पा संस्कृति के लोगों के मनोरंजन के साधन क्या थे। बच्चों के लिए खिलौने थे; आज कल के इको से मिलती-जुलती मिट्टी की छोटी गाड़ियां, जो शायद बड़ी बैल गाड़ियों की नकल थी; पशुओं की शक्ल के खिलौने जिनके अंगों को कठपुतलियों की तरह दूर से खींचा जा सकता था; चिड़ियों के आकार की सीटियां और तरह-तरह के झुनझुने। बच्चे गोलियां खेलते थे। लड़कियों के लिए गुड़ियाए थी। बड़े आदमियों को जुआ खेलने और खिलाड़ियों के साथ खेलने का शौक था।
व्यवसाय-धंधे
अनेक लोग रूई और ऊन की कताई-बुनाई के व्यवसाय में लगे हुए थे। हड़प्पा संस्कृत के लोग कपड़ों का उपयोग करते थे और इन्हें फारस की खाड़ी के तटवर्ती शहरों और सुमेर को भी भेजते थे। कुम्हार शायद सबसे ज्यादा व्यस्त रहते थे। वे मिट्टी के बढ़िया बर्तन बनाते थे। अधिकतर बर्तन गेरुआ रंग के होते थे और उन पर काले रंग में रूपांकन किया जाता था; जैसी रेखाएं, बिन्दु, ज्यामितीय आकृतियां, पेड़ पत्तो तथा पशुओं की आकृतियां।
मणिकाओ या मनको तथा तावीजों का निर्माण भी लोकप्रिय था। यह बड़ी संख्या में मिले हैं मणिकाए मिट्टी, पत्थर, लुगदी, शंख तथा हाथीदांत की बनाई जाती है। धातुकर्मकार तांबे और कांसे के औजार तथा हथियार बनाते थे; जैसे- भाले, चाकू,तीर के फाल, कुल्हाड़ी, मछली फासने के काटे और उस्तरे। धातु की पतली चादर के भी बर्तन भी बनाये जाते थे, जो मिट्टी के बर्तनों से मिलते-जुलते होते थे, परन्तु ये बहुत कीमती रहे होंगे, इसलिए केवल धनी लोग ही इनका इस्तेमाल करते होंगे।
मोहेजो-दारो से बड़ी संख्या में जो चीज़े मिली है उनमें मिट्टी या पत्थर की बनी चपटी आयताकार मुहरें उल्लेखनीय है। मुहर के एक तरफ सांड या वृक्ष या किसी दृश्य की आकृति है। आकृति के ऊपर चित्र-संकेतों की पंक्ति है। हड़प्पा संस्कृति के लोग इन चित्र संकेतो का लीपि के रूप में इस्तेमाल करते थे। व्यापारी लोग इन मुहरों का उपयोग शायद माल की गठरियो पर ठप्पा लगाने के लिए करते थे।
व्यापार
उस समय सुमेर और फारस की खाड़ी के तटवर्ती नगरों के लोगों के साथ हड़प्पा संस्कृति के लोगों के व्यापारी संबंध थे। एक जगह से दूसरे जगह को बराबर माल भेजा करते थे। मोहनजोदड़ो में बनी मुहरें तथा अन्य छोटी चीजें इराक के स्थलों से मिली हैं। लोथल में, जहां खुदाई में एक डाकॅ या नौका-गोदी मिली है, माल नौकाओं पर लादकर भेजा जाता था और बाहर से आने वाला माल यहां तथा अन्य स्थानों पर उतारा जाता था। बांटो और मापो का व्यापारी के जीवन में निश्चय ही महत्वपूर्ण स्थान था। सिंधु सभ्यता के स्थलों से विभिन्न आकार के बांट मिले हैं। इनके तौल एकदम सही-सही हैं। हड़प्पा संस्कृति के लोगों के उत्तरी अफगानिस्तान के साथ भी व्यापारी संबंध थे। अफगानिस्तान से सुंदर नीले लाजवर्द पत्थर का आयात किया जाता था।
धर्म
मिस्र और सुमेर से प्राचीन पुस्तकें मिली हैं, परंतु हड़प्पा संस्कृति के लोगों के ऐसे कोई अभिलेख नहीं मिले हैं। जिनसे उनके शासन समाज और धर्म के बारे में जानकारी मिल सके। उनके धर्म के बारे में हम केवल अनुमान ही लगा सकते हैं। मातृदेवियों की मिट्टी की मूर्तियां मिली है। वे लोग शायद इनकी पूजा करते थे। पत्थर की एक छोटी मुहर पर उत्कीर्ण एक आसीन पुरुष-देवता की प्रतिमा मिली है। वह कुछ वृक्षों को शायद पवित्र मानते थे जैसे, पीपल जो अक्सर मुहरों पर दिखाई देता है। वे शायद सांड को भी पवित्र मानते थे हड़प्पा संस्कृति के कुछ लोग अपने मृतकों को जमीन में गाड़ते थे और कुछ लोग उनको शवाधान में रखकर गाड़ते थे। उनका यह विश्वास रहा होगा की मृत्यु के बाद भी कहीं जीवन है क्योंकि उनकी कब्रों से मिट्टी के घरेलू बर्तन, गहने और शीशे मिले हैं, जो मृतक की संपत्ति रहे होंगे, और उन्हें यह सोचकर रखा गया होगा कि मृतक को बाद में भी इनकी जरूरत पड़ सकती है।
हड़प्पा संस्कृति के लोगों का पतन
हड़प्पा संस्कृति लगभग एक हजार वर्ष तक जीवित रही। 1500 ई०पू० के आसपास जब आर्य लोग भारत में पहुंचने लगे थे उस समय हड़प्पा संस्कृति का पतन हो चुका था। यह कैसे हुआ? संभव है की निरंतर आने वाली बाढ़ो के कारण यह नगर नष्ट हो गए हो, अथवा किसी महामारी ने या भयंकर रोग ने लोगों का सफाया कर दिया हो। जलवायु भी बदलने लगी और यह प्रदेश अधिकाधिक शुष्क और रेगिस्तान की तरह होने लगा। यह भी संभव है कि इन नगरों पर हमला हुआ हो और नगरवासी अपनी रक्षा करने में असमर्थ रहे हो।
हड़प्पा संस्कृति के नगरों के पतन के साथ भारत के इतिहास में एक नया दौर शुरू हुआ। यद्यपि हड़प्पा संस्कृत की कुछ विशेषताएं कायम रही, परंतु बाद में आए लोग नगर जीवन के बारे में कुछ नहीं जानते थे। एक हजार साल का लंबा समय गुजर जाने के बाद ही भारत में पुनः नगरों का उत्थान हुआ।