अध्याय 7 - गुप्त काल
गुप्त शासक
मौर्य के बाद के काल में यवन (यूनानी और रोमनों और पश्चिम एशिया के निवासियों के लिए प्रयुक्त होने वाला भारतीय नाम) कुषाण, शक आदि विदेशी लोग भारत में आए।
वे भारत में बस गए, इसलिए कुछ समय के बाद वे विदेशी नहीं रह गए। उन्होंने अपने को भारतीय संस्कृति के अनुकूल बना लिया। साथ ही, भारतीय संस्कृति में उन्होंने अपनी ओर से कुछ नई चीजें भी जोड़ी। ऐसा प्रायः उन सभी नए लोगों के साथ हुआ जो भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में आकर बस गये।
ईशा की चौथी सदी में एक नए भारतीय राजवंश का उदय हुआ जिसने उत्तर भारत के एक बड़े भाग पर एक विशाल राज्य की स्थापना की। यह था गुप्त राजवंश, जिसका शासन दो सौ साल से अधिक समय तक कायम रहा। इस युग में भारतीय संस्कृति की उन कतिपय महान उपलब्धियों का सिलसिला जारी रहा जिनकी शुरुआत पहले के युग में हुई थी। गुप्त सम्राट, न केवल शक्तिशाली नरेश थे, बल्कि वे विद्या के संरक्षक भी थे। उन्होंने कवियों, लेखकों, वैज्ञानिकों और कलाकारों को प्रोत्साहन दिया। इन सब ने भारतीय संस्कृति में अपना योगदान दिया
इस राजवंश का पहला प्रसिद्ध शासक चंद्रगुप्त-प्रथम था। उसने लिच्छवी राजकुमारी से विवाह किया। लिच्छवी जनजाति की पूर्वोत्तर भारत में अब भी प्रतिष्ठा थी। चंद्रगुप्त-प्रथम लगभग 320 ई० में गद्दी पर बैठा। उसने साकेत (अयोध्या का प्रदेश), प्रयाग (इलाहाबाद) और मगध पर शासन किया। एक बार फिर मगध उत्तर भारत में शक्तिशाली राज्य हो गया। इसे चंद्रगुप्त-प्रथम के पुत्र समुद्रगुप्त ने और भी अधिक शक्तिशाली बना दिया।
समुद्रगुप्त
एक अभिलेख से समुद्रगुप्त के बारे में हमें काफी जानकारी मिलती है। यह अभिलेख इलाहाबाद के एक स्तंभ पर खुदा हुआ है। इस अभिलेख में समुद्रगुप्त की विजयों का वर्णन है। समुद्रगुप्त के एक दरबारी कवि ने इस अभिलेख की रचना की थी। ऐतिहासिक दृष्टि से इस स्तंभ का बड़ा महत्व है। यह इलाहाबाद के किले में खड़ा है। सबसे पहले सम्राट अशोक ने इस स्तंभ पर अपना एक लेख करवाया था। बाद में समुद्रगुप्त से संबंधित लेख भी इस पर खुदवा दिया गया। और बाद में एक मुगल लेख भी इसी स्तंभ पर खोदा गया।
समुद्रगुप्त ने अपने पिता से उत्तराधिकार में राज्य प्राप्त किया था। राजा बनने पर वह दिग्विजय के लिए निकला। अपने लंबे अभियान में उसने भारत के विभिन्न भागों पर विजय प्राप्त की। उसने उत्तर भारत के चार राजाओं को हराया और आजकल के दिल्ली प्रदेश और पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अपने राज्य में मिला लिया। उसने दक्कन और दक्षिण भारत के कई राज्यों से युद्ध किया; जैसे,- उड़ीसा, आंध्र और तमिलनाडु के राजाओं से। उसने पूर्वी भारत के राजाओं पर चढ़ाई की और अरण्य-प्रदेशों के अनेक राजाओं को चाकर बनाया। उसने असम, गंगा के डेल्टा, नेपाल और उत्तर भारत के राज्यों से, राजस्थान के नौ गणराज्यों से, कुषाण राजाओं से, श्रीलंका के राजा से और शायद सुदूर दक्षिण-पूर्व एशिया तक के द्वीपों से भी कर वसूल किए।
परंतु मौर्य राजाओं की तुलना में गुप्त राजाओं का प्रत्यक्ष शासन कम क्षेत्र पर था। कर देने वाले राजा गुप्त शासन के सीधे अधीन नहीं थे। दक्षिण के राजा जल्दी ही गुप्त शासन से अलग हो गए। पश्चिम में शको ने नया खतरा खड़ा कर दिया। इस तरह, गुप्त साम्राज्य प्रमुखत: उत्तर भारत तक ही सीमित था। और उतना बड़ा नहीं था जितना कि मौर्य साम्राज्य। समुद्रगुप्त केवल एक विजेता ही नहीं बल्कि कवि और संगीतज्ञ भी था। उसके एक सिक्के पर उसे वीणा बजाते हुए दिखाया गया है।
चंद्रगुप्त-द्वितीय
चंद्रगुप्त-द्वितीय, समुद्रगुप्त का पुत्र था। वह विक्रमादित्य के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। पश्चिम भारत में गुप्तों को परेशान करने वाले शको पर चढ़ाई करके उसने विजय प्राप्त की। उसने दक्कन और दक्षिण के राजाओं से वैवाहिक संबंधों के जरिए मित्रता कायम की। इसमें सबसे महत्वपूर्ण वैवाहिक संबंध दक्कन के वाकाटक राज्य से था।
विद्या और कलाओं के संरक्षक के रूप में चंद्रगुप्त-द्वितीय को सबसे अधिक स्मरण किया जाता है। राजा यदि किसी दार्शनिक, कवि या लेखक की रचना से प्रसन्न होता था, तो उन्हें राज्याश्रम मिलता था राज्य श्रम मिलता था चंद्रगुप्त द्वितीय को इस बात का गर्व था कि चन्द्रगुप्त-द्वितीय को इस बात का गर्व था कि उसके दरबार में देश के सबसे बुद्धिमान कुछ पंडित मौजूद हैं।
चंद्रगुप्त द्वितीय के बाद कई शासक कमजोर निकले। मध्य एशिया के हूणों ने उत्तर की ओर से आक्रमण करके उनकी परेशानियों को और बढ़ा दिया। हूण खानाबदोश लोग थे। उन्होंने चीन पर हमला करने की कोशिश की, परंतु पराजित हुए। इसलिए वे मध्य एशिया में फैल गये। भारत की दौलत के बारे में सुनकर उन्होंने ईसा की पांचवी सदी में उत्तर भारत पर हमला किया। उनके लगातार के हमलों के कारण गुप्तों की शक्ति क्षीण हो गई और अंत में हूण पंजाब तथा कश्मीर के शासक बन गए। करीब सौ साल तक हूण शक्तिशाली बने रहे। उसके बाद उनकी शक्ति क्षीण हो गई। परंतु तब तक उनमें से बहुत से भारत में स्थाई रूप से बस गए और भारतीय जन-समुदाय का अंग बन गए।
गुप्तों की शासन व्यवस्था
गुप्तो की शासन-व्यवस्था मौर्यों की शासन-व्यवस्था से भिन्न थी। प्रांतों के शासक (गवर्नर) मौर्य काल की अपेक्षा अधिक स्वतंत्र थे। उदाहरण के लिए, अपने हर काम के लिए वे राजा की अनुमति नहीं लेते थे। प्रांत जिलों में बांटे गए थे और जिलों के लोगों से कहा गया था कि वे शासन व्यवस्था में मदद करें। गवर्नर की सलाह देने के लिए जिला-समितियां थी और इन समितियों में केवल शासन के अधिकारी ही नहीं बल्कि शहरों के नागरिक भी शामिल थे। पाटलिपुत्र एक वैभवशाली बड़ा नगर था। गुप्त शासन के कुछ अधिकारियों को नगद वेतन मिलता था। लेकिन परिवर्ती शासकों के समय में यह प्रथा बदल गई। नगद वेतन के स्थान पर अब अधिकारियों को उनके वेतन के बराबर भूमि से राजस्व वसूल करने का अधिकार दिया जाने लगा।
अधिकारियों को वेतन नगद के रूप में न देकर जागीर के रूप में देने का परिणाम यह हुआ कि राजा का उन पर उतना अधिकार नहीं रहा जितना कि मौर्य सम्राटों को अपने अधिकारियों पर था। चंद्रगुप्त+द्वितीय के बाद के शासक कमजोर साबित हुए, तो दूर के कुछ प्रांतों के गवर्नर राजाओं की तरह व्यवहार करने लगे। गुप्त साम्राज्य भंग हुआ, तो इन गवर्नर ने अपने को अपने-अपने छोटे प्रांतों का राजा घोषित कर दिया।
जन-जीवन
समाज
कुषाण के समय में भारत के बौद्ध धर्म-प्रचारक मध्य एशिया और पश्चिम एशिया में सक्रिय रहे और कुछ चीन तक भी पहुंचे। जब चीनी लोगों की बौद्ध धर्म में दिलचस्पी बढ़ी तो उनके कुछ विद्वानों की भारत में उपलब्ध मूल धर्मग्रंथों का अध्ययन करने की इच्छा हुई। इन चीनी विद्वानों में एक था फाहियान। ३९९ ई० में चीन से रवाना हुआ और गोबी मरुस्थल तथा मध्य एशिया को पार करके भारत पहुंचा। वह भारत के विभिन्न बौद्ध विहारो में कई साल तक रहा। उसने बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन किया और अपने साथ चीन ले जाने के लिए पुस्तकें इकट्ठा की। चीन वापस लौटने पर उसने अपनी भारत-यात्रा के बारे में एक ग्रंथ लिखा। फाहियान के इस विवरण में गुप्तकालीन जीवन के बारे में हमें बड़ी उपयोगी जानकारी मिलती है। फाहियान लिखता है कि बस और ब्राह्मण आपस में शांतिपूर्वक रहते हैं। उसमें भारत की धन-दौलत और समृद्धि भूरि-भूरि प्रशंसा की हैं। लोग कानून का पालन करने वाले और इमानदार थे। कानून नरम थे और दंड भी कठोर नहीं थे। गांवों की संख्या बहुत अधिक थी। कृषि भूमि के करो से राज्य को आमदनी होती थी। फाहियान के अनुसार अधिकतर लोग शाकाहारी थे, परंतु इस काल के अन्य स्रोतों से जानकारी मिलती हैं कि मांस भी खाया जाता था।
समाज जातियों में बंटा था। अधिकतर जातिया आपस में मेल-जोल से रहती थी। परंतु नगरों में एक ऐसा वर्ग भी था जिसके साथ बुरा व्यवहार किया जाता था यह लोग थे-अछूत। उन्हें बाकी नगर वासियों से दूर नगर के बाहर रहना पड़ता था। उन्हें इतना अपवित्र माना जाता था कि उच्च जातियों के लोग उनकी तरफ देखना तक ठीक नहीं समझते थे। गुप्तकालीन समाज के बारे में यह निश्चय ही एक बुरी बात थी। दूसरे मनुष्यों के प्रति इतनी निर्दयता एक गंभीर दोष था।
व्यापार
पहले के काल में व्यापार में वृद्धि होने के कारण नगर बड़े और समृद्ध हुए। गुप्त काल के आरंभिक दौर में यह समृद्धि जारी रही। न केवल भारत के भीतर और पश्चिम एशिया के साथ बल्कि दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ भी व्यापार होता था। बहुत से व्यापारी माल लेकर विदेशों में जाने लगे और उसे भारी मुनाफे पर बेचने लगे। व्यापार में वृद्धि के साथ-साथ समुद्री यात्रा और जहाज निर्माण के ज्ञान में भी वृद्धि हुई। पहले से बड़े जहाज बनाए जाने लगे और पश्चिम तथा पूर्वी तटों के बंदरगाह में पहले से अधिक जहाज झुंड बनाने लगे
गंगा के नदी-मुख प्रदेश (डेल्टा) में स्थित ताम्रलिप्ति(तमलुक) बंदरगाह से दक्षिण पूर्व एशिया के सुवर्णभूमि (बर्मा, अब म्यांमार), यवद्वीप (जावा) और कंबोज (कंबोडिया) जैसे- देशों के साथ सबसे ज्यादा व्यापार होता था। भड़ौच, सोपारा और कल्याण पश्चिमी तट पर मुख्य बंदरगाह थे और वहां से दक्षिण-पूर्व को जहाज भेजे जाते थे। व्यापार के साथ-साथ भारतीय धर्म और संस्कृति, बौद्ध धर्म, हिंदू धर्म, संस्कृत भाषा, कला तथा भारतीय संस्कृति के अन्य रूप दक्षिण-पूर्व एशिया में पहुंचे। दक्षिण-पूर्व एशिया के लोगों ने भारतीय संस्कृत के कुछ पहलुओं को पसंद किया और उन्हें अपना लिया, हालांकि उन्होंने अपनी परंपराओं और अपनी संस्कृति को भी कायम रखा। आज भी भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया की संस्कृत के बीच अनेक बातें समान हैं।
मालाबार तट पर स्थित अनेक बंदरगाहों से भारतीय वस्तुएं अफ्रीका, अरब, ईरान तथा भूमध्य सागरीय देशों को ले जाई जाती थी। व्यापारियों के काफिले (सार्थ) और धर्म प्रचारकों की मंडलियां भी स्थल-मार्ग से मध्य एशिया और चीन जाया करती थी। लेकिन गुप्त काल के अंतिम दौर में उत्तर भारत का व्यापार का ह्रास हुआ। गंगा के मैदान के नगरों में इस अवनति के लक्षण प्रकट होते हैं। इसका आंशिक कारण था हूणो की हलचल से मध्य एशिया में पैदा हुई थी अस्थिर परिस्थितियां। एक अन्य कारण हो सकता है- बाढो़ से और नदी मार्गों में हुए परिवर्तन से गंगा की द्रोणी के वातावरण में आया बदलाव।
धर्म
गुप्त काल में हिन्दू धर्म बड़ा शक्तिशाली बन गया। परन्तु अभी हिन्दू शब्द का प्रयोग नहीं होता था। बाद में अरबों ने हिंद के निवासियों के लिए इस शब्द का इस्तेमाल किया। हिंदू लोग शिव, शक्ति और विष्णु के उपासक थे। क्योंकि उस समय शिव और विष्णु की उपासना बड़ी लोकप्रिय हो गई थी, इसलिए गुप्त काल के इस धर्म को हिंदू धर्म कहा जाता है।
अधिकांश गुप्त नरेश वैष्णव थे, यानी विष्णु के उपासक थे। उन्होंने अश्वमेघ-जैसे धार्मिक यज्ञ भी किए। परंतु अब धार्मिक यज्ञ उतने नहीं होते थे जितने कि वैदिक काल में। उन्होंने मंदिरों के निर्माण के लिए दान दिए। अब ब्राह्मणों ने प्रार्थनाओं तथा स्त्रोतों से विष्णु की उपासना किए जाने पर अधिक बल दिया। देवताओं की मूर्तियों की पूजा की जाने लगी। इन मूर्तियों के लिए छोटे-छोटे देवग्रह बनने लगे। यह मंदिरों के निर्माण की शुरुआत थी।
विश्वास किया जाता था कि लोगों को सदाचारी जीवन का मार्ग दिखाने के लिए विष्णु कभी-कभी पृथ्वी पर उतरते हैं। इसी को अवतार लेना कहते हैं (विष्णु ने मनुष्य आपस रूप में अवतार लिया था)। रामायण और महाभारत जैसे पुराने ग्रंथ और कुछ पुराण इस युग में पुनः लिखे गए। अब इन्हें धार्मिक साहित्य माना गया। आज इन्हें हम संस्कृत में जिस रूप में पढ़ते हैं वह इनका गुप्त काल में बना रूप है।
वास्तुकला
उसी युग के गुप्त राजाओं और अन्य शासकों ने विष्णु और शिव की उपासना के लिए मंदिरों का निर्माण करने हेतु अनुदान दिए। ये मंदिर अजंता और एलोरा की तरह पहाड़ियों को काटकर बनाई गई गुफाओं की बात नहीं थे। इन्हें ईट और पत्थर जैसी चीजों से बनाया गया था। इस साल के आरंभिक मंदिर बहुत साधारण थे। इनमें केवल एक कक्ष होता था जहां देवता की मूर्ति स्थापित की जाती थी। इस कक्ष के प्रवेश द्वार को मूर्तिकला से सजाया जाता था। धीरे-धीरे कक्षाओं की संख्या बढ़ती गई, एक से दो, तीन, चार और ज्यादा पर पहुंची। अंततः बाद की शताब्दियों में मंदिर बहुत विशाल हो गए और उनके भीतर कई भवन बनने लगे। यदि तुम सांची जाओ तो वहां बौद्ध स्पूत के पास इस काल का बना हुआ तुम्हें एक कक्ष का मंदिर देखने को मिलेगा देवघर (झांसी जिले) में भी उस युग का ऐसा ही एक छोटा मंदिर है।
गुप्त काल में वाराणसी के निकट सारनाथ में एक विशाल बौद्ध विहार था। यहां से बुद्ध की प्रस्तर-मूर्तियां मिली हैं। इनकी गणना भारतीय मूर्तिकला की सबसे सुंदर कृतियों में होती है। हिंदू भी अपने देवताओं की मूर्तियां बनाने लगे और उन्हें मंदिरों में स्थापित करने लगे। कुछ बौद्ध विहार पहाड़ियों को काटकर बनाए गई गुफाओं के रूप में थे। ऐसा एक गुफा-विहार औरंगाबाद के पास अजंता में था। इन गुफाओं की दीवारों पर बुद्ध के जीवन से संबंधित घटनाओं का चित्रांकन (जिन्हें भित्ति चित्र कहते हैं) किया गया था। यह चित्र आज भी मौजूद हैं और इनके रंग अब भी लगभग वैसे ही ताजे हैं जैसे कि वह शुरू में थे।
साहित्य
गुप्त शासकों की धर्म के अलावा दूसरी बातों में भी दिलचस्पी थी। उन्होंने कवियों और लेखकों को भी प्रोत्साहन दिया। इस प्रोत्साहन के फल स्वरुप उच्चकोटि के कुछ काव्य-ग्रंथों और नाटकों की रचना हुई। माना जाता है कि कालिदास कुछ साल तक चंद्रगुप्त-द्वितीय के दरबार में रहे। उनके नाटक अभिज्ञान शाकुंतलम् का संसार की अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ है और इसकी ख्याति सारी दुनिया में फैली है। उनके मेघदूत और रघुवंश काव्य में साहित्यिक गुणों के अलावा गुप्तकालीन समाज का भी स्पष्ट चित्र देखने को मिलता है। कालिदास की संस्कृत भाषा सुंदर है। उनके पहले की संस्कृत रचनाओं में ऐसी सुंदर भाषा देखने को नहीं मिलती। पहले के काल की अपेक्षा अब शिक्षित वर्ग में संस्कृत का अधिक व्यापक प्रयोग होने लगा। एक अन्य लोकप्रिय संस्था पंचतंत्र, जिसमें कहानियों का संग्रह है। बाद में पंचतंत्र का संसार की अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ।
विज्ञान
महान संस्कृति केवल कला और साहित्य से नहीं बनती। ज्ञान-विज्ञान में भी प्रगति होना आवश्यक है। इस काल में ज्योतिष, चिकित्सा और गणित की अनेक प्रतिभाओं को पैदा किया। इसका एक कारण था व्यापार के जरिए दूसरों के साथ संपर्क और ज्ञान का फैलाव। इस काल के दो प्रसिद्ध वैज्ञानिक थे- आर्यभट्ट और वराहमिहिर। दोनों ही ज्योतिषी तथा गणितज्ञ थे। गणित -ज्योतिष और फलित-ज्योतिष का स्पष्ट विभाजन हो गया था। फलित-ज्योतिष में आकाश के पिंडों की जानकारी का अंधविश्वास प्रयोजन के लिए उपयोग हुआ।
आर्यभट्ट ने स्पष्ट किया था कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है, परंतु उनके इस सिद्धांत को स्वीकार नहीं किया गया। आज हम जानते हैं कि आर्यभट्ट का सिद्धांत सही था। भारतीय गणितज्ञ में दशमिक स्थानमान पद्धति का प्रयोग किया और उन्हें शून्य की जानकारी थी। यह अंक-पद्धति संसार में अंत्यंत प्रयुक्त होने वाली पद्धतियों से बहुत उन्नत थी। भारतीय अंक-पद्धति और अंक-संकेतों को अरबों ने अपना लिया फिर वहां से इन्हें यूरोप ले जाया गया। अत: जिन्हें हम अरबी अंक कहते हैं वस्तुत: भारतीय मूल के अंक हैं।
धातुओं के ज्ञान में लोगों की बहुत दिलचस्पी थी और धातुओं को मिलाने के प्रयोग किए जा रहे थे। दिल्ली में महरौली के नजदीक का लौहस्तंभ उत्तम किस्म के लोहे के उपयोग का उस समय का एक उदाहरण है। आयुर्वेद पर भी ग्रंथ लिखे गए। भाषा का अध्ययन, विशेषकर व्याकरण और कोष-रचना का ज्ञान, बहुत उन्नत था।
इस प्रकार, गुप्त काल में ऐसी अनेक उपलब्धियां हुई जो एक उन्नत सभ्यता की द्योतक होती हैं। इनमें से कुछ पहले के काल में विकसित हो चुकी थी। भारत की शास्त्रीय संस्कृति के मूल्यांकन के लिए पहले की इन उपलब्धियों पर विचार करना आवश्यक है। अशंत: पहले के काल की समृद्धि के कारण ही गुप्त काल में विज्ञान और कला को प्रोत्साहन मिला। यह भी महत्वपूर्ण है कि भौतिक समृद्धि का उपयोग विविध प्रकार के ज्ञान को उन्नत बनाने में हुआ।