Vaidikalaya

अध्याय 3 - वैदिक युग का जीवन 

आर्य बस्तियां 

मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खोज होने तक ऐसी धारणा थी कि भारतीय इतिहास और सभ्यता का आरंभ आर्यों के आगमन के साथ होता है। सिंधु सभ्यता के नगरों का तो पतन हुआ था, परंतु गांवों में संस्कृत जीवित रही। ईसा पूर्व दूसरी सहस्राब्दी में भारतीय उपमहाद्वीप में कई प्रकार की संस्कृतियों थी। इसका मतलब यह था कि देश के विभिन्न भागों में विभिन्न प्रकार के लोग बसे हुए थे। इसी युग में भारतीय आर्य भाषा (जो वैदिक संस्कृति का आधार है) बोलने वाले लोग पश्चिमोत्तर भारत में प्रकट हुए। हम नहीं जानते कि वह लोग कहां से आए। शायद वे उत्तर-पूर्वी ईरान से या केस्पियन सागर के समीप के क्षेत्र से या मध्य एशिया से आए, पश्चिम एशिया और यूरोप में जाकर बसे विभिन्न आर्य भाषाए बोलने वाले से पृथक पहचान के लिए भारत में आए आर्यभाषियो को हम भारतीय आर्य (इंडो आर्य ) कहते हैं। उनकी प्रजाति के बारे में हम कुछ नहीं जानते। हम यह भी नहीं कह सकते कि पश्चिमोत्तर भारत में पहले से आजाद लोगों की प्रजाति से  वे भिन्न थे या नहीं। पहले सोचा गया था कि आर्यभाषी लोगों ने बड़ी तादाद में आकर देश पर हमला किया, परंतु यहां सिद्ध करने के लिए बहुत कम सबूत हैं। इसलिए आजकल अनेक इतिहासकारों का मत है कि वह लंबे समय तक छोटे-छोटे समूहों में आए और पहले से बसे हुए लोगों के साथ रहने लगे। इसलिए भाषा तथा रहन-सहन में मेल-मिलाप हुआ।

भारतीय इतिहास के इस काल को वैदिक युग कहते हैं, क्योंकि इस युग के इतिहास की रचना वैदिक साहित्य के स्रोतों के आधार पर की जाती है। परंतु पिछले 40 वर्षों में वैदिक युग के इतिहास के लिए पुरातत्व-विज्ञान के भी सबूत मिले हैं। जिन क्षेत्रों में आर्यभाषियों की संस्कृति का विकास हुआ है, वहां ऐसे लोगों की बस्तियां थी जो पशु चारी और कृषक थे और जो खास प्रकार के मिट्टी के चित्र भूरे बर्तनों का, जिन्हें चित्रित धूसर भाडं कहते हैं, इस्तेमाल करते थे। इन क्षेत्रों के समीप ही अन्य किस्म के मिट्टी के जो बर्तन मिले हैं वे काले और लाल भांड हैं (पकाए हुए मिट्टी के बर्तनों को भांड कहते हैं)। इसलिए अब साहित्यिक और पुरातत्विक, दोनों ही स्रोतों के आधार पर वैदिक युग का इतिहास रचना संभव है। अब यह भी समझा जाता है वैदिक संस्कृति पहले से ही विद्यमान स्थानीय संस्कृतियों के कुछ विचारों तथा रीति-रिवाजों और कुछ नए विचारों तथा रीति-रिवाजों के मिश्रण का परिणाम है।

आर्य सबसे पहले पंजाब में बसे। धीरे-धीरे वे दक्षिण-पूर्व की ओर आगे बढ़कर दिल्ली के उत्तरी प्रदेश में आबाद हुए। उस समय यहां पास ही सरस्वती नदी बहती थी, परंतु अब इस नदी का जल सूख गया है। यहां आर्यभाषी लोग कई सालों तक रहे, और यहीं पर उन्होंने अपने सबूतों का संग्रह, ऋग्वेद तैयार किया। इसी क्षेत्र में कुरुक्षेत्र का मैदान है। समझा जाता है कि कुरुक्षेत्र के इसी मैदान में पांडवों और कौरवों का युद्ध हुआ था। कुछ समय बाद आर्य लोग पूर्व की ओर गंगा की घाटी आगे बढ़े। घने जंगलों को साफ करते हुए वे आगे को बढे़ थे। इनमें से कुछ जंगलों को तो उन्होंने जलाकर साफ किया, और कुछ को लोहे की कुल्हाड़ी से काटकर साफ किया। अब भी लोहे के औजार व हथियार बनाने लगे थे।

आरंभ में आर्य पशुचारी खानाबदोश लोग थे। वे पशुओं के बड़े-बड़े झुंड पालते थे। यही उनकी जीविका के साधन थे। वे एक जगह से दूसरी जगह पर घूमते-फिरते रहते थे। धीरे-धीरे उन्होंने खेती करना आरंभ किया और स्थाई रूप से गांवों में बसने लगे। चूंकि वे खानाबदोश थे, इसलिए नगर-जीवन से परिचित नहीं थे। नगरों का उदय होने में कुछ सदियों का समय लगा। इसलिए आर्यों के आरंभिक निवास स्थल गांव ही थे।

हड़प्पा संस्कृति के लोगों के बारे में अधिकतर जानकारी हमें उनके निवास स्थलों की खुदाई करने से मिली है, परंतु आर्यों के बारे में बात ऐसी नहीं है। आर्यों के बारे में जानकारी हमें उन सूक्तो से मिलती है जिनकी उन्होंने रचना की थी ओरिजिन को कंठस्थ रख कर अनेक पीढ़ियों तक सुरक्षित रखने के बाद अंत में लिपिबद्ध किया गया है। इसे हम "साहित्यिक साक्ष्य" कहते हैं, और इससे हमें उनके इतिहास के लिए सुराग मिलते हैं। परंतु इधर के वर्षों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हस्तिनापुर और अंतरंजी खेड़ा जैसे कुछ स्थानों पर की गई खुदाई मैं आर्यों की संस्कृति के बारे में और कुछ जानकारी मिली है।

आर्यो ने अपने देवताओं की स्तुति में सूक्तो की रचना की। उन्होंने अपने धार्मिक अनुष्ठानों कार्यों और पूजा-पाठ के बारे में नियम बनाएं। इसकी जानकारी चार वेदों में मिलती है ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। उन्होंने अपने राजा तथा वीरों के जीवन, पराक्रम तथा युद्ध के बारे में भी लंबी कविताएं लिखी है। बाद में इन काव्य-गाथाओं को संकलित किया गया और ये प्राचीन भारत के दो महाकाव्य बन गए- रामायण और महाभारत।

आर्यो ने अपने देवताओं की स्तुति में सूक्तो की रचना की। उन्होंने अपने धार्मिक अनुष्ठानों कार्यों और पूजा-पाठ के बारे में नियम बनाएं। इसकी जानकारी चार वेदों में मिलती है ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। उन्होंने अपने राजा तथा वीरों के जीवन, पराक्रम तथा युद्ध के बारे में भी लंबी कविताएं लिखी है। बाद में इन काव्य-गाथाओं को संकलित किया गया और ये प्राचीन भारत के दो महाकाव्य बन गए- रामायण और महाभारत।

राजा और उसके पदाधिकारी

उस काल का समाज कबीलो या जनजातियों में बटा हुआ था और प्रत्येक कबीला एक खास प्रदेश में बसा हुआ था। लेकिन यह कबीले अक्सर आपस में लड़ा करते थे। पशुओं के झुंडो के लिए चरागाहो की आवश्यकता थी और इन चरागाहों पर अधिकार करने के लिए कबीलों में लड़ाई होती थी। प्रत्येक कबीले का एक राजा या सरदार होता था। जिसे प्रायः उसके बल तथा शौर्य के आधार पर चुना जाता था। बाद में राजपद वंशानुगत हो गया, अर्थात राजा की मृत्यु के बाद उसका पुत्र राजा होता था। राजा का कर्तव्य था कि वह कबीले की रक्षा करें, और उसके संबंधित इसमें उसकी मदद करते थे।

राजा कबीले की इच्छा के अनुसार शासन करता था, और इसमें कई व्यक्ति उसकी मदद करते थे। योद्धाओं का एक नायक होता था, जिसे सेनानी कहते थे। सेनानी हमेशा राजा के साथ रहता था। एक पुरोहित होता था जो राजा के लिए धार्मिक अनुष्ठान करता था और उसे सलाह देता था। दूतों के जरिए वह नजदीक के गावों में बसे हुए अपने कबीले के लोगों से संपर्क स्थापित करता था। राजा अपनी जनजातियों के गांव के मुखिया से भी सलाह-मशवरा करता था। यदि किसी अत्यधिक महत्व के मामले पर विचार करना होता तो राजा समूचे कबीले की सलाह लेता था। ये संस्थाएं सीमित और सभा कहलाती थी। सीमित में कोई भी व्यक्ति अपनी स्पष्ट राय दे सकता था। जान पड़ता है कि सभा चुने हुए लोगों की एक छोटी संस्था थी।

ग्राम 

कबीला छोटी-छोटी इकाईयों में बंटा हुआ था, जिन्हें ग्राम कहते थे। प्रत्येक ग्राम में कई परिवार बसते थे। जब लोगों ने धीरे-धीरे खानाबदोशी का जीवन छोड़ दिया और खेती करना शुरू किया, तो गांव बड़े हो गए और एक कबीले के काफी अधिक सदस्य एक गांव में रहने लगे। परिवारो का समूह कुल या दिश कहलाता था। कबीले के लोग को जन कहते थे। 

गांव परिवारों में बंटा हुआ था, और एक परिवार के सभी सदस्य साथ-साथ रहते थे। परिवार पितृ-प्रधान था, अर्थात परिवार का सबसे वयोवृद्ध पुरुष, जो प्रायः दादा या पितामह होता था, परिवार का मुखिया होता था। परिवार में यह अधिकार का पद था, क्योंकि मुखिया सब निर्णय लेता था। और परिवार के अन्य सदस्यों को उसका निर्णय स्वीकार करना पड़ता था। पुत्र अपनी पत्नी को घर लाने के बाद पिता के साथ ही रहता था। जैसा कि कबीलाई व्यवस्था पर आधारित समाजों में आमतौर पर होता है, स्त्रियों का आदर किया जाता था लड़कों के साथ-साथ कुछ लड़कियां भी पढ़ी होती थी।

गावों में खेतीहरो के अलावा और भी लोग बसते थे। इसमें कारीगर या शिल्पकार भी थे। किसी-किसी गांव में किसी खास शिल्प का काम ज्यादा होता था। उदाहरण के लिए, जिन क्षेत्रों में बर्तन बनाने के लिए अच्छी मिट्टी मिलती थी वहां कुम्हार ज्यादा होते थे। एक गांव की खपत से बचे हुए बर्तनों को पड़ोस के उन गांवों में भेज दिया जाता था जहां बर्तनो की कमी होती थी। इस प्रकार, चीजें एक गांव से दूसरे गांव भेजी जाने लगी और इस लेनदेन के साथ व्यापार की शुरुआत हुई।

परन्तु यह सब कुछ अभी अत्यन्त साधारण स्तर पर ही चलता था। गांवों में छप्पर वाली कच्ची झोपड़ियां होती थी जिनके चारों ओर एक बाड़ा रहता था और उसके बाहर खेत होते थे। खेतों में हल जोते जाते थे और कुओं या नालियों के पानी से उसकी सिंचाई की जाती थी। जौ कि व्यापक रूप से खेती होती थी और बाद में गेहूं तथा चावल की भी खेती होने लगी। एक अन्य आम पेशा था शिकार करना। हाथियों, भैंसा, बारहसिंघा, और सुअरों का शिकार किया जाता था। सांड और बैल हल में जोते जाते थे। पशुओं में गायों का गौरवपूर्ण स्थान था, क्योंकि लोग अनेक चीजों के लिए गायों पर निर्भर थे। वास्तव में, विशिष्ट अतिथियों के लिए गौ मांस का परोसा जाना सम्मान-सूचक माना जाता था(यद्यपि बाद की सदियों में ब्राह्मणों के लिए इसका सेवन वर्जित माना गया)। मनुष्य के जीवन का सौ गायों के जीवन के तुल्य समझा जाता था। यदि कोई मनुष्य दूसरे की हत्या कर डालता तो उसे दंड के रूप में मृतक के परिवार को सौ गायों देनी पड़ती थी।

घोड़ा मूलतः भारतीय पशु नहीं है। इसे आर्य लोग ईरान और मध्य एशिया से भारत में लाए थे। घोड़े रथ खींचते थे और रथो का इस्तेमाल युद्ध में होता था। रथ-दौड़ एक प्रिय मनोरंजन था। रथकार का समाज में सम्मान था। हल्का, दो पहियों का रथ ऊंची हस्ती का सूचक माना गया था, और बाद के युग में राजाओं को रथ दौड़ते या हाथी की सवारी करते दिखाया गया है। घोड़ा एक महत्वपूर्ण धार्मिक प्रतीक भी बन गया था। अश्वमेध यज्ञ में एक घोड़ा छोड़ा जाता था और जितने प्रदेश में यह घूमता था उतने पर घोड़ा छोड़ने वाला राजा अपना अधिकार जताता था।

जन जीवन 

आर्य और दस्यु 

आर्य जब उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बस गए तो स्थानीय लोगों से उनकी शत्रुता रही। इन स्थानीय लोगों को वे दास और दस्यु कहते थे। आर्यों के जो देवता थे उनकी दास और दस्यु पूजा नहीं करते थे। उनकी भाषा भी वैदिक संस्कृत से भिन्न थी। दासों के कुछ मुखियो का बड़ा सम्मान किया जाता था, परंतु अनेक दास लोगों को गुलाम बनाया गया था। इसलिए अंततः दास का अर्थ हो गया गुलाम। जिन   दासों को गुलाम बनाया गया था उन्हें बड़े कठिन और घटिया काम करने पड़ते थे, और उनके साथ भला व्यवहार नहीं किया जाता था। परन्तु आर्य स्थानीय लोगों के साथ घुल-मिल गये और उन्होंने स्थानीय परिवारों के साथ विवाह-सबंध भी स्थापित किए। आर्य शब्द सम्मानित व्यक्ति द्योतक बन गया।

समाज 

स्वयं आर्य भी तीन समूहों में बंटे हुए थे। सबसे शक्तिशाली समूह था राजा और उसके सैनिकों का, जिन्हें क्षत्रिय कहते थे। उतने ही महत्वपूर्ण थे पुरोहित अथवा ब्राह्मण। उसके बाद शिल्पकारो और किसानों अथवा वैश्यो का स्थान था। इसके अलावा एक चौथा वर्ग भी था जो शुद्र कहलाता था। यह वर्ग दस्यओ और उन आर्यों से बना था जिन्हें नीच समझा जाता था। इस प्रकार, आर्य समाज धीरे-धीरे चार समूहों या वर्णों में बट गया- क्षत्रिय ब्राह्मण वैश्य और शूद्र। आरंभ में कोई भी बालक अपना मनचाहा पेशा चुन सकता था। धीरे-धीरे बच्चे वही पेशा अपनाने लगे जो उनके बाप का होता था। शुरू में ब्राह्मणों और क्षत्रियों का दर्जा समान था, परंतु धीरे-धीरे ब्राह्मण इतने प्रभावशाली हो गए कि उन्होने समाज में प्रथम स्थान प्राप्त कर लिया। धर्म को अत्यंत महत्वपूर्ण बना देने से उन्हें यह स्तर मिला।

व्यवसाय-धंधे 

कृषि के अलावा पशुपालन, मछली मारना, धातु कर्म, बढ़ाईगिरी और चमड़े का काम गांवों के सामान्य व्यवसाय थे। धातु-कर्मकारों को अब एक नई धातु मिल गई थी-लोहा। लोहे के उपयोग ने जीवन को सुगम बना दिया था। लोहा कठोर और मजबूत होने के कारण औजार तथा हथियार बनाने के लिए तांबे या काशी से बेहतर था।

भारत में लोहे का उपयोग 1000 ई० पू० से कुछ पहले शुरू हुआ। सबसे पहले तीर के नोको, भालो के नोको, तलवारों और चाकू जैसे हथियारों में इसका इस्तेमाल हुआ। बाद में लोग लोहे की कुल्हाड़ियां बनाने लगे। गंगा की घाटी के घने जंगलों को साफ करने के लिए इनका बड़ा उपयोग हुआ। अंत में हल के लिए लोहे के फाल भी बनाए गए। इससे इस क्षेत्र की भारी मिट्टी में खेती की उन्नति हुई।

पुरोहित धार्मिक अनुष्ठानों में लगे रहते थे, विशेषकर उन बड़े यज्ञों में जिसमें समूचा कबीला भाग लेता था और जो अनेक दिनों तक चलते थे। पुरोहित शिक्षक भी होते थे। बालक पुरोहितों के यहां रहते थे; पुरोहित उन्हें वेद-मंत्रों का पाठ करना सिखाते थे। एक सूक्त में वेदपाठी विद्यार्थियों का बड़ा दिलचस्प वर्णन है। लिखा है कि शिष्य जब गुरु के पाठ दोहराते हैं तो ऐसा लगता है मानो वर्षा के आगमन के पहले मेंढक टर्र-टर्र कर रहे हो। पुरोहित गांव के वैद्य भी होते थे। उन्हें जड़ी-बूटी और पेड़-पौधों की जानकारी होती थी, और जब कोई बीमार पड़ता था तो उसे दवा देने के लिए पुरोहित को बुलाया जाता था।

वस्त्र 

यह लोग जो वस्त्र पहनते थे वे हड़प्पा संस्कृत के लोगों से ज्यादा भिन्न नहीं थे। इनके पहनावे में दो वस्त्र होते थे-एक ऊपर का और दूसरा नीचे का। एक अन्य पोशाक टखनों तक पहुंचती थी। सिर पर पगड़ी भी बांधी जाती थी। आभूषणों का भी इस्तेमाल होता था। यह गहने स्वर्ण या अन्य धातुओं के होते थे। स्त्रियां अनेक किस्म की मणि-मालाएं पहनती थी। अधिक धनी लोग सोने की जरी के कशीदे वाले वस्त्र पहनते थे।

मनोरंजन 

रथो की दौड़ के खेल के अलावा नाच और गाने का भी उन लोगों को बड़ा शौक था। वह बांसुरी, एक प्रकार की वीणा और ढोल का प्रयोग करते थे। परंतु जान पड़ता है कि जुआ खेलना उनका सबसे प्रिय मनोरंजन था।
आहार 

वे छक कर दूध पीते थे और खूब मक्खन और घी खाते थे। फल, सब्जियां, अन्न और मांस भी खूब खाया जाता था। मधु और नशीली सुरा जैसे पेय भी पीते थे। एक और अतिविशिष्ट पेय भी था जिसे सोम कहते थे और जो धार्मिक उत्सवों में पिया जाता था, क्योंकि इसे तैयार करना कठिन था।

धर्म 

आर्यों के अनेक देवता थे। सूर्य, नक्षत्र, वायु, चंद्र, पृथ्वी, आकाश, वृक्ष, नदियां, पर्वत आदि प्रकृति की शक्तियां देवता बन गए। द्यौ: आकाश का देवता था। सवित् सूर्य की प्रेरक शक्ति का देवता था।अग्नि आग का देवता था। उषा प्रातः काल की देवी मानी जाती थी। देवताओं को मानवरूप समझा जाता था, परंतु वे अलौकिक और अति शक्तिशाली थे, इसलिए लोग उनसे डरते थे। यह समझा जाता था कि देवता स्त्री-पुरुषों पर कृपा करते हैं, परंतु जब वह रुष्ट पर हो जाते हैं तो उनका क्रोध भयानक होता है और तब उन्हें संतुष्ट करना होता है। इंद्र उनका सबसे प्रिय देवता था, क्योंकि वह पराक्रमी था और आर्यों के शत्रुओं तथा राक्षसों का विनाश करने में समर्थ था।

आर्यों का विश्वास था कि पुरोहित द्वारा किए गए यज्ञों से देवता संतुष्ट होते हैं। इन यज्ञों के लिए भव्य तैयारियां की जाती थी। वेदियां बनाई जाती थी, पुरोहित वेद-मंत्रों का पाठ करते थे और पशुओं की बलि दी जाती थी। पुरोहित को अन्न, पशु और वस्त्र दान में दिए जाते थे और सोमरस का पान किया जाता था। पुरोहित देवताओं से प्रार्थना करते थे कि वे लोगों की गुहार सुने। लोगों का विश्वास था कि देवता उनकी पुकार सुनते हैं और उनकी मनोकामना पूरी करते हैं। पुरोहित देवताओं और मनुष्यो के बीच संदेशवाहक बन गए, इसलिए वे सहज ही शक्तिशाली हो गए।

परंतु सभी लोग यज्ञ-बलि वाले इस धर्म से संतुष्ट नहीं थे। उनके दिमाग में दूसरे सवाल उठते थे। वे जानना चाहते थे कि यह विश्व कैसे बना ,देवता कहां से आए, मनुष्य को किसने बनाया इत्यादि। इन सवालों का उत्तर खोजने के लिए और विचार-विमर्श करने के लिए दार्शनिक गांवों को छोड़कर जंगल के शांत स्थलों में चले गए। उनके विचारों को उनके शिष्यों ने कंठस्थ रखा और बाद में उन्हें लिपिबध्द किया गया। उन विचारों को आज हम उपनिषदों में पढ़ सकते हैं। उपनिषद् वेदों के अंग हैं।