अध्याय 8 छोटे-छोटे राज्यों का युग
उत्तर
उत्तर भारत में 500 ई० और 800 ई० के बीच एक बड़ा राज्य स्थापित करने की कोशिश हुई, परंतु वह बहुत दिनों तक कायम नहीं रह सका। उत्तर भारत धीरे-धीरे छोटे-छोटे राज्यों में बट गया। ये राज्य लगातार एक-दूसरे से लड़ते थे।
हर्ष
हूणों के हमलों ने गुप्त साम्राज्य को कमजोर बना दिया। उनके पतन के करीब सौ साल बाद, सातवीं शताब्दी में, एक नए राज्य का उदय हुआ। दिल्ली के उत्तर में कुरुक्षेत्र के समीप थानेश्वर नाम का एक छोटा शहर हैं। आजकल इसका महत्व नहीं है, परंतु एक जमाना था जब यहां एक राजा का निवास-स्थान था। ईसा की सातवीं सदी में यहां स्थानेश्वर (थानेश्वर) राज्य की राजधानी थी। यहीं पर हर्षवर्धन का जन्म हुआ था। हर्षवर्धन को प्रायः हर्ष कहा जाता है। वह अभी छोटा ही था कि 606 ई० में उसके भाई की मृत्यु हो गई और उसे राजा बना दिया गया। परंतु आगे जाकर वह शक्तिशाली राजा हुआ और उसने उत्तर भारत में गुप्तों कि भांति एक बड़ा राज्य बनाने का प्रयास किया। बाणभट्ट ने हर्ष की जीवनी लिखी है। वह हर्ष का एक दरबारी कवि था। एक अन्य चीनी बौद्ध यात्री युवान च्वाड हर्ष के शासनकाल में भारत आया था। उसने अपनी भारत यात्रा का वृतांत लिखा है।
हर्ष अपनी राजधानी थानेश्वर से हटाकर कन्नौज ले गया, क्योंकि कन्नौज उसके राज्य के अधिक बीच में स्थित था। वह एक लंबे अभियान पर निकला और उसने उत्तर भारत के अनेक भागों को जीत लिया। इसमें पंजाब, पूर्वी राजस्थान और असम तक गंगा की घाटी का प्रदेश शामिल था। परंतु जब उसने दक्कन के राज्यों पर चढ़ाई करनी चाही तो उसे पुलकेशिन-द्वितीय ने रोक दिया। पुलकेशिन-द्वितीय चालुक्य वंश का राजा था और उसकी राजधानी उत्तरी कर्नाटक में वातापी या बादामी में थी। हर्ष का राज गुप्तों की तरह का था। उसने जिन राजाओं पर विजय प्राप्त की थी वे उसे राज-कर देते थे और जब वह युद्ध करता तो उसकी मदद के लिए सैनिक भेजते थे। उन्होंने हर्ष का अधिपत्य तो स्वीकार कर लिया था, परंतु वे अपने-अपने राज्यों के शासक बने रहे और स्थानीय मामलों में स्वयं ही निर्णय लेते थे।
हर्ष को बौद्ध धर्म से लगाव था और शायद जीवन के अंतिम सालों में वह बौद्ध भी बन गया था। परंतु दूसरे धर्मों को भी उसका आश्रय मिलता रहा। चीनी यात्री युवान च्वाड से मिलने के लिए वह बड़ा उत्सुक था। युवान च्वाड लिखता है कि हर्ष से उसकी लंबी बातचीत हुई थी और उसने उस समय के ग्रंथों का अध्ययन किया था। हर्ष ने संस्कृत में तीन नाटकों की रचना की है।
सामाजिक दशा
इस काल के इतिहास के लिए उपलब्ध स्रोतों में से एक है बौद्ध यात्री युवान च्वाड का वृतांत। युवान च्वाड 26 साल की आयु में चीन से रवाना हुआ और लगभग फाहियान का अनुसरण करते हुए मध्य एशिया को पार करके भारत पहुंचा। मार्ग में वह अनेक बौद्ध विहारों में रुका, क्योंकि अब मध्य एशिया में बौद्धों की तादाद काफी अधिक थी। भारत में अनेक साल तक भ्रमण और अध्ययन करने के बाद वह उसी मार्ग से चीन वापस लौट गया। युवान च्वाड ने देखा कि बौद्ध धर्म भारत के सभी मार्गो में उतना लोकप्रिय नहीं है जितना कि उसे समझ रखा था। लेकिन पूर्वी भारत में यह अब भी बड़ा लोकप्रिय था। उसने कुछ साल पटना के पास के नालंदा महाविहार में गुजारें। नालंदा उस समय देश का एक प्रमुख विश्वविद्यालय था और एशिया के विभिन्न देशों से विद्यार्थी यहां अध्ययन करने आते थे।
युवान च्वाड ने यह भी देखा कि भारत में जाति प्रथा है और नगरों के बाहर रहने वाले अछूतों के साथ बुरा सलूक किया जाता है। सभी लोग शाकाहारी नहीं थे, हालांकि इस बात पर जोर दिया जाता था कि लोग मांस ना खाएं। नगरों में अमीरों और गरीबों के मकानों में अंतर था। अमीरों के मकान, खूबसूरती से बनाए और सजाए जाते थे, जबकि गरीबों के घर से आधे सफेदी पुते हुए और कच्चे फर्श के होते थे। अलग-अलग स्थानों के लोगों का पहनावा अलग-अलग था। युवान च्वाड लिखता है कि भारत के लोग गर्म मिजाज के हैं, उन्हें जल्दी गुस्सा आता है, परंतु ईमानदार होते हैं भारतीय लोग स्वच्छता प्रेमी होते हैं। अपराधियों की संख्या बड़ी नहीं थी, यद्यपि वह बार-बार लिखता है कि यात्रा के दौरान लोगों ने उसे लूट लिया। मृत्युदंड नहीं दिया जाता था। आजीवन कारावास ही सबसे कठोर दंड था।
हर्ष की मृत्यु के बाद कुछ समय तक उत्तर भारत में अस्थिरता की स्थिति रही। राज्य कई छोटी छोटी इकाईयों में बट गया। इनमें आपस में लड़ाई होती रही। इस बीच दक्कन और दक्षिण के राज्य शक्तिशाली हो गए।
दक्कन और दक्षिण
चालुक्य
सातवाहन के पतन के बाद दक्कन में छोटे-छोटे अनेक राज्यों का उदय हुआ। वाकाटको ने एक नया राज्य बनाने का प्रयास, किया परंतु यह अधिक दिनों तक टिका नहीं इसके बाद चालुक्य वंश आया, जिसका केंद्र वातापी में था। यहां चालुक्य-नरेश पुलकेशिन-द्वितीय का शासन उसी समय पर जिस समय उत्तर में हर्ष का था। उसकी महत्वाकांक्षा समूचे दक्कन पठार पर शासन करने की थी और कुछ समय तक उसे इसमें सफलता भी मिली। नर्मदा के तट पर हुई लड़ाई में उसने हर्ष को हराया। परंतु चालुक्यों के दो शत्रु थे- उत्तर में राष्ट्रकूट और दक्षिण में पल्लव। राष्ट्रकूटो का उत्तरी दक्कन में एक छोटे राज्य पर शासन था। आरंभ में वे चालूक्यों के अधीन थे, परन्तु ईसा की आठवीं शताब्दी में शक्तिशाली हो गए और उन्होंने चालुक्य राजा पर आक्रमण करके उसे हरा दिया। परंतु जब दक्कन में चालू क्योंकि शक्ति बढ़ ही रही थी, तब उसी समय दक्षिण भारत में पल्लव शक्तिशाली हो रह थे। पुलकेशिन-द्वितीय ने पल्लव नरेश महेंद्रवर्मन से युद्ध किया और उसे हरा दिया। परंतु कुछ साल बाद पल्लव राजा नरसिंहवर्मन ने पुलकेशिन-द्वितीय पर चढ़ाई की और उसकी राजधानी पर अधिकार कर लिया। चालुक्यो की यह करारी हार थी।
चालुक्यो की राजधानी वातापी एक समृद्धशाली नगर था। प्राचीन में ईरान, अरेबिया तथा लाल सागर के बंदरगाहों से और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों से पुराने व्यापारिक संबंध अभी कायम थे। व्यापार में समृद्धि हुई। पुलकेशिन-द्वितीय ने ईरान के राजा खुसरो-द्वितीय के पास एक दूत-मंडली भेजी। सौ साल बाद जब ज़रथुस्त्रियों ने ईरान छोड़ा, तो वे दक्कन के पश्चिमी तट के नगरों में आकर बस गए और आगे चलकर पारसी कहलाए। ज़रथुस्त्र-धर्म का उपदेश ईसा पूर्व 600 के कुछ पहले ज़रथुस्त्र ने दिया था। ईरान के महान हख़मनी सम्राट ज़रथुस्त्र-धर्म के अनुयायी थे। ज़रथुस्त्र की शिक्षा थी कि अच्छाई और बुराई की शक्तियां आपस में सदैव संघर्षरत रहती हैं और लेकिन अंत में अच्छाई की विजय होती है ज़रथुस्त्रियों की पवित्र पुस्तक का नाम जे़न्द-अवेस्ता है। ज़रथुस्त्र-धर्म का पश्चिम एशिया के और मध्य एशिया के कुछ भागों के भी लोगों के धार्मिक विचारों पर गहरा प्रभाव पड़ा। इस्लाम के आगमन तक यह ईरान का प्रमुख धर्म रहा।
चालुक्य नरेश कला के प्रेमी और संरक्षक थे। उन्होंने दक्कन की पहाड़ियों में गुफा-मंदिरों तथा मंदिरों के निर्माण के लिए प्रचुर धन दिया। एलोरा की अधिकांश मूर्तिकला का श्रेय चालुक्य और राष्ट्रकूट राजाओं की दानशीलता को जाता है।
तमिल संत
इस काल में दक्षिण भारत में ऐसा जन-समुदाय था जिसका विश्वास था कि धर्म ईश्वर(विष्णु या शिव) की व्यक्तिगत उपासना का मामला है। यह विचारधारा 'भक्ति' कहलाई। इसमें कई जातियों के लोग शामिल थे। बहुत से तो कारीगर और किसान थे। वह जगह-जगह घूमते हुए विष्णु या शिव की स्तुति में गीत गाते थे। आलवार् विष्णु के उपासक थे और नयन्नार् शिव के। बीच-बीच में वे कांचीपुरम में एकत्र होते थे और वहां उत्सवों के अवसर पर गीत-भजन गाते थे। यह गीत जन-साधारण की तमिल भाषा में लिखे गए। वैदिक धार्मिक ग्रंथ संस्कृत में थे। इन्हें केवल पुरोहित और कुछ शिक्षित लोग ही समझ सकते थे।
कांचीपुरम पल्लवों की राजधानी होने के अलावा तमिल और संस्कृत के अध्ययन का केंद्र भी था। दंडी जैसे लेखकों ने संस्कृत में लिखा, क्योंकि वह राजदरबारी और उच्च वर्गों के लिए लिखते थे।
पल्लव
दक्षिण के पल्लव आरंभ में संभवत सातवाहनों के अधिकारी थे। जब सातवाहन राज्य का पतन हुआ, तो पल्लव अपने स्थानीय इलाकों के शासक बन गए और धीरे-धीरे उन्होंने कांचीपुरम क्षेत्र (मद्रास के निकट) के दक्षिण में अपना शासन फैलाया उन्हे पांड्यो और चालुक्यो से अनेक लड़ाइयां लड़नी पड़ी। इन दोनों ने पल्लवों के शक्तिशाली बनने में बाधाएं डाली। फिर भी पल्लव अपना शासन स्थापित करने में सफल हुए। उन्होंने कांचीपुरम के दक्षिण का इलाका, तंजौर तथा पद्युकोट्टे क्षेत्र जीत लिया, क्योंकि यह भाग संपन्न और उपजाऊ था।
पल्लव-नरेश महेंद्रवर्मन हर्ष और पुलकेशिन-द्वितीय का समकालीन था। अपने जमाने के अन्य कई राजाओं की तरह, केवल एक योद्धा ही नही, बल्कि एक कवि और संगीतज्ञ भी था। शुरू में जैन मतावलंबी था, परंतु बाद में तमिल सतं अप्पर के प्रभाव में आकर शैव बन गया।
स्थापत्य
पल्लव राजाओं ने अनेक मंदिर बनवाए। उनमें से कुछ विशाल चट्टानों को काटकर बनाए गए, जैसे, महाबलीपुरम के रथ-मंदिर। अन्य मंदिर प्रस्तर-खडों से बनाए गए, जैसे कांचीपुरम के मंदिर मंदिर। मंदिर के एक सिरे पर एक कक्ष में मूर्ति रखी जाती थी और इस छत पर एक ऊंचा शिखर बनाया जाता था। बाद की शताब्दियों में ये शिखर अधिकाधिक ऊंचे होते गए। यदि तुम आज तमिलनाडु की यात्रा करो, तो सबसे पहले क्षितिज पर गांवों के ये मंदिर-शिखर ही तुम्हें दिखाई देंगे।
ये मंदिर लोगों के जमाव के स्थान बन गए। शाम के समय ग्रामवासी मंदिर के प्रांगण में आकर बैठे और एक दूसरे को खबर सुनाते या ग्राम-कल्याण से संबंधित मामलों पर विचार विमर्श करते, जैसे, करो तथा खेतों की सिंचाई के मामले पर। यहीं पर पुजारी बच्चों को पढ़ाते थे, और दिन के समय प्रांगण का प्रयोग पाठशाला के रूप में होता था। उत्सव के अवसर पर गांव में मेले लगते थे, और मंदिर के प्रांगण में नृत्य और नाटकों का आयोजन होता।
इस प्रकार, अनेक बड़े धार्मिक भवनो की तरह मंदिर का उपयोग एक सामाजिक और राजनीतिक केंद्र के रूप में होता था। यह मंदिर बड़े धनी होते थे। इनकी अपनी जमीन होती थी जिससे आमदनी होती थी। इस तरह प्राप्त हुए धन को व्यापार में भी लगाया जाता था। पुजारियों के अलावा मंदिर के सांसारिक हितों की सुरक्षा के लिए एक प्रबंध-समिति की भी आवश्यकता थी।