अध्याय 6 - भारत: 2०० ई०पू० 3०० ई० तक
मौर्य काल को इसके महान साम्राज्य के कारण स्मरण किया जाता है। मौर्य काल के बाद 200 ई०पू० से 300 ई० तक के युग में समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में अनेक राज्यों का उदय हुआ। इसमें कुछ राज्य छोटे थे, परंतु दूसरे कुछ राज्य काफी बड़े थे; जैसे- कुषाणो का राज्य, जो मध्य एशिया तक फैला हुआ था। लेकिन इन राज्य से भी अधिक जिस चीज ने इस काल में पूरे उपमहाद्वीप को एकता में बांधा वह थी वाणिज्य और व्यापारियों का फैलाव। इस काल में अनेक क्षेत्रों में भौतिक समृद्धि रही।
दक्कन
प्राचीन काल में विंध्य पर्वतमाला और नर्मदा नदी के दक्षिण का प्रदेश दक्षिणापथ के नाम से जाना जाता था। आज इसे हम दक्कन कहते हैं। दक्कन के दक्षिण में द्रविड़ परिवार की भाषाएं बोलने वाले लोगों का क्षेत्र है।
ईसा पूर्व प्रथम सहस्राब्दी में भारतीय प्रायद्वीप में रहने वाले लोगों का जीवन सामान्य खेतों से बदलकर अधिक संपन्न हो गया था। यह बात दक्षिण भारत के समूचे प्रदेश में पाए जाने वाले महापाषाण (मेगालीथिक) शव-कक्षों के अध्ययन से स्पष्ट हो जाती है। महापाषाण (मेगालीथ) का अर्थ है बड़ा पत्थर। शव-कक्ष या कब्र के ऊपर पहचान के लिए खास तौर से बड़े पत्थर रखे जाते थे। इन शव-कक्षों से उन लोगों के जीवन के बारे में हमें काफी जानकारी मिली है। वे किसान तथा पशुपालक थे, लोहे के औजारों का इस्तेमाल करते थे, घोड़े पर सवारी करते थे और स्वर्ण तथा मणियों से बने आभूषण पहनते थे। यह शव-कक्ष विभिन्न प्रकार के हैं। कुछ जमीन में खड़ी की गई सामान्य प्रस्तर शिलाओं के घेरे के रूप में है, तो कुछ चट्टानों को काटकर बनाई गई गुफाओं के रूप में भी हैं।
महापाषाणी स्थलों की खुदाई से जानकारी मिली है कि लोग लौहकर्म से परिचित थे और काफ़ी उन्नति कर चुके थे। वे लोहे की कुदाल तथा हंसिया का इस्तेमाल करते थे और शायद चावल तथा बाजरे की खेती करते थे। मिट्टी के काले-लाल बर्तन पर्याप्त संख्या में मिले हैं। उन्हें उसी प्रकार बनाया जाता होगा जिस प्रकार उत्तर भारत में। शव-कक्षों को देखने से पता चलता है कि उन लोगों की मृत्यु के बाद के जीवन के बारे में बड़ी विचित्र धारणाएं रही होंगी। मृतक का अंतिम संस्कार शायद वे काफी विस्तारपूर्वक करते होंगे। इन शव-कक्षों पर बड़े पत्थरों के खास निशान शायद इसलिए लगाए गए हैं कि ये सरदारों और उनके परिवारों के सदस्यों के समाधि-स्थल हैं।
घोड़े की हड्डियों के और घोड़े की साज-सामान के प्राप्त अवशेषों से पता चलता है कि वे इस पशु से भलीभांति परिचित थे। निस्संदेह घोड़े के कारण ही वे प्रायद्वीप की लंबी दूरियों की यात्राएं कर पाए। इन यात्राओं से विभिन्न वस्तुओं का विनिमय सम्भव हुआ, जैसे सोनी तथा कीमती पत्थरों की मणि और संभवत आ लोहे की वस्तुएं भी।
जब मौर्य ने प्रायद्वीपों के कुछ भागों को जीत लिया था उस समय वहां एक विशिष्ट संस्कृत पहले से ही मौजूद थीं। अशोक के कुछ अभिलेख ऐसे क्षेत्रों से मिले हैं जहां से महत्वपूर्ण महापाषाणी अवशेष भी प्राप्त हुए हैं: जैसे रायचूर दोआब के मास्की स्थान से।
इनमें से अधिकांश राज्यों तथा क्षेत्रों को मौर्यों ने जीत लिया था। परन्तु मौर्यों के साम्राज्य के पतन के बाद ये क्षेत्र स्वतंत्र हो गए। नए राजा प्रायः उन्ही परिवारों से थे जिन्होंने मौर्यों की सेवा की थी।
सातवाहन
इनमें सबसे प्रसिद्ध था सातवाहनों का वंश-परिवार जो आंध्र के नाम से भी जाना जाता है। इसका एक महान विजेता शासक था शातकर्णि, जिसे 'पश्चिम का स्वामी' कहा गया था। कलिंग नरेश से उसका युद्ध हुआ था। उसमें शायद ईसा पूर्व पहली सदी में शासन किया। शातकर्णि के शासन के कुछ समय बाद शकों ने, जो सौराष्ट्र पर शासन कर रहे थे, सातवाहनों पर आक्रमण किया और उन्हें नासिक से खदेड़ कर आंध्र में भगा दिया। परन्तु सातवाहनों में पुनः अपनी सेना का संगठन करके शको पर हमला किया और अंत में पश्चिमी दक्कन पर फिर से कब्जा करने में सफल हुए। यह काम गौतमीपुत्र शातकर्णि ने किया।
गौतमीपुत्र सातकर्णि ने दक्कन में सातवाहनों के राज्यों को शक्तिशाली बना दिया। परन्तु शको ने सातवाहनो पर आक्रमण करने का अवसर कभी हाथ से नहीं जाने दिया और यह स्थिति गौतमीपुत्र के बेटे वशिष्ठपुत्र के शासनकाल तक बराबर चलती रही। अंत में वशिष्ठपुत्र ने शकशासक की पुत्री से विवाह विवाह किया तभी जाकर कुछ समय के लिए शको और सातवाहनों के बीच शांति बनी रही ईसा की दूसरी शताब्दी के अंतिम दौर में शक पहले की अपेक्षा कमजोर हो गए, तो सातवाहनो को राज्य-विस्तार का मौका मिला। उन्होंने उत्तर में काठियावाड़ को जीत लिया और दक्षिण में कृष्णा नदी के मुहाने के प्रवेश पर कब्जा कर लिया। परंतु इसके बाद सातवाहनों की शक्ति बहुत समय तक कायम नहीं रही और ईसा की तीसरी शताब्दी हुई वह क्षीण हो गयी।
सातवाहन राज्य ने उत्तर और दक्षिण भारत के बीच सेतु का काम किया। कुछ जंगल साफ करके गांव बसा दिए गए। गोदावरी और कृष्णा की घाटियों में समूचे उत्तरी दक्कन में आवागमन के लिए सड़के बनवाई गई। इन भागों में यात्रा करना अब खतरनाक नहीं था। व्यापार में वृद्धि के कारण नासिक के क्षेत्र में, गोदावरी के मुहाने के प्रदेश में और मुंबई के आसपास भी नगर बस गए। ईरान, इराक, अरेबिया और मिस्र से आने वाले जहाज पश्चिमी समुद्र तट के भड़ौच बंदरगाह का उपयोग करते थे। गोदावरी नदी-मुख के बंदरगाह गंगा के नदी-मुख से दक्षिण भारत को जाने वाले समुद्री मार्ग मार्ग पर पड़ते थे। इन बंदरगाहों से जहां बर्मा और मलाया को जाते थे।
सातवाहन राज्य समृद्धिशाली था। और इसका प्रशासन अच्छा था। राज्य प्रांतों में बंटा था। जिन पर सैनिक तथा असैनिक राज्यपाल शासन करते थे। प्रत्येक गांव का प्रधान राजस्व या कर वसूल करता था।
बौद्ध स्मारक
नगरों में व्यापारी और कारीगरों की श्रेणीयों के नेता मालामाल हो गए थे और उनके पास अन्य कामों में खर्च करने के लिए अतिरिक्त धन था। उनमें से अधिकतर बौद्ध या जैन थे। इसलिए उन्होंने बौद्ध विहार को धन दान मे दिया। यह धन चैत्य-मंडपों और स्तूपों की सजावट में लगाया गया। बौद्ध इन चैत्य-मंडपो में पूजा-पाठ करते थे। स्तूप अर्ध-गोलाकार बड़े स्मारक होते थे और इनके भीतर बुद्ध या बौद्ध भिक्षुओं के अस्थि-अवशेष रखे जाते थे। इसलिए बौद्ध इन स्तूपों को पवित्र मानते थे। सांची (भोपाल के पास) के स्तूप की वेदिका (रेलिंग) और तोरण-द्वार इसी प्रकार के दान से बने हैं। अमरावती (आंध्र प्रदेश) का स्तूप भी व्यापारियों तथा भूस्वामियों द्वारा दिए गए दान से बना था। स्तूपो के समीप विहार होते थे जहां भिक्षु रहते थे। बहुत से बौद्ध विहार बड़े नगरों के निकट बनाए गए थे, जैसे, तक्षशिला (पेशावर के निकट) और सारनाथ (वाराणसी के निकट) के विहार।
इससे नगरों में जाकर भिक्षा प्राप्त करने में बौद्ध भिक्षुओं को सुविधा होती थी। कुछ बौद्ध भिक्षु पहाड़ियो को काटकर बनाए गए बड़े गुफा-विहारों में रहते थे। इन्हें भी प्रतिमाओं से सजाया जाता था; जैसे, कार्ले और बेदसा( पश्चिमी घाट में पुणे के नजदीक) के गुफा-विहार। इस समय की धार्मिक कला मुख्यतः बौद्ध धर्म से संबंधित थी। कुछ जैन प्रतिमाएं भी मिलती हैं।
दक्षिण भारत
चोल, पांड्य और चेर
दक्कन के पठार के दक्षिण में और सातवाहन राज्य के दक्षिण में तीन राज्य का उदय हुआ। ये थे- चोल (जिसका केंद्र चेन्नई के दक्षिण में तंजौर क्षेत्र में था), पांडे (जिसका केंद्र मदुरै था) और केरल या चेर (मलाबार का तटीय क्षेत्र जो आज केरल का भाग है)। दक्षिण-पूर्व का क्षेत्र तमिलों की भूमि कहलाया, क्योंकि वहां की बोली तमिल थी। दक्षिण भारत के इन तीन राज्यों- चोल, पांड्य और चेर का हमारा ज्ञान संगम साहित्य के स्त्रोतों पर आधारित है।
संगम साहित्य
उल्लेख मिलते हैं कि कई सदियों पहले तीन कवि-परिषदों का आयोजन हुआ था। तीसरी कवि-परिषद मदुरै में हुई थी। दक्षिण की उन परिषदों में कवि, भाट और चारण एकत्र हुए और उन्होंने कविताएं रची। बाद की परिषदों में दो हजार कविताओं का संग्रह करके उन्हें आठ पुस्तकों में प्रस्तुत किया गया। यह कविता आज भी उपलब्ध हैं और यही 'संगम साहित्य' कहलाती हैं। यह कविताएं तमिल भाषा में है। कविजन जगह-जगह घूमते थे और कबीलों के सरदारों के अनुरोध पर कविताएं रचते थे। इन कविताओं में दक्षिण भारत के कबीलों के सरदारों का और आम जनता के जीवन का वर्णन है। इसमें से कुछ वर्णन महापाषाणी संस्कृत के भौतिक अवशेषों से मेल खाता है।
चोल, पांड्य और चेर अक्सर एक-दूसरे से लड़ते रहते थे। संगम साहित्य की अनेक कविताओं में इन युद्ध के बारे में जानकारी मिलती है।
चोलो को इन स्थल-युद्धो से संतोष नहीं हुआ तो उन्होंने एक हजारी बेड़ा तैयार किया और उससे श्री लंका पर आक्रमण किया। कुछ साल तक उत्तरी श्रीलंका पर उनका कब्जा रहा, परंतु बाद में श्रीलंका के राजा ने उन्हें भगा दिया। भारत के अपने विवरण में मेगस्थनीज़ जानकारी देता है कि पांड्य राज्य की स्थापना एक स्त्री शासक ने की थी और उसके पास एक बड़ी सेना थी।
केरल के राजाओं में नेडुंचेरलादन को एक महान वीर समझा था। कहा जाता है कि उसने कई राज्य जीते थे और मलाबार तट के पास रोम के जहाजी बेड़े को भी पकड़ लिया था।
रोमन व्यापार
रोमन जहाज व्यापार की तलाश में मलाबार तट और तमिलनाडु के पूर्वी तट पर पहुंचते थे। उस समय रोम के साम्राज्य का भूमध्यसागर के सभी देशों पर अधिकार था। और रोम के बाजारों में भारत से बनी विलास की वस्तुओं की बड़ी मांग थी। रोमन लोग भारत से मसाले, कपड़े, कीमती पत्थर और बंदर तथा मोर जैसे पशु-पक्षी मंगवाते थे।रोमन जहाज लाल सागर से चलकर अरब सागर पार करके मलाबार तट या पूर्वी समुद्र तट पर मन्नार की खाड़ी तक पहुंचते थे। उन्हें जिन चीज़ों की जरूरत होती उन्हें वे जहाजों में भर लेते, और सोने मे कीमत चुका कर रोम वापस चलें जाते। रोम के सोने ने दक्षिण भारत के राज्यो को बहुत धनवान बना दिया था।
रोमन लोग दक्षिण भारत के तटवर्ती नगरों में भी रहते थे। जहां वे चीजें जमा करते और उन्हें जहाजों से रोम भेजने का इंतजाम करते। इन नगरों में एक था अरिकमेड (पांडिचेरी के नजदीक), जिसकी पुराविदों ने खुदाई की है। यहां रोम में बनी अनेक चीजें मिली है। इन बंदरगाहों से जहाज दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों को भी जाते थे और कुछ भारतीय व्यापारी चीन के साथ भी व्यापार करते थे। यद्यपि समुद्रीयात्राओ में कठिनाईयां थी, फिर भी खतरों का सामना करने वाले लोगों की कमी नहीं थी अब दक्षिण भारत का माल उत्तर भारत में भी पहुंचता था। दक्षिण से होने वाले कीमती पत्थरों के निर्यात के कारण दक्षिणी राज्य बहुत धनी हो गया थे।
जन-जीवन
दक्षिण भारत के अधिकांश लोग गांवों में रहते थे। पहाड़ी इलाकों में, जहां खेती करना कठिन था, लोग पशु पालते थे। ज्यादातर व्यापारी और शिल्पी नगरों में रहते थे। ऐसे कुछ नगर समुद्र तट पर थे जहां से व्यापार सुगम था। राज्य का शासन चलाने में सलाहकार ब्राह्मण राजा को सहयोग देते थे। सभी प्रमुखों की एक आम सभा भी होती थी। इसमें विभिन्न मामलों पर विचार-विमर्श होता था; जैसे, किसी से युद्ध किया जाए या नहीं अथवा किसी अपराध के लिए किसी व्यक्ति को दंड दिया जाए या नहीं आदि। राजा किसानों, पशुपालकों, कारीगरों और व्यापारियों से कर वसूल था। व्यापारी जब एक स्थान से दूसरे स्थान माल ले जाते थे तो उनसे कर लिया जाता था।
नगरों या गांव में, सभी जगह जीवन सादा था। दिन भर के काम के बाद लोग मन-बहलाव के लिए विभिन्न खेल खेलते थे। जुआ भी खेलते थे। नृत्य, संगीत और काव्य-पाठ लोकप्रिय थे। विभिन्न प्रकार के संगीत वाद्यों का उपयोग होता था; जैसे, बांसुरी, तंतुवाद्य और मृगंद। दिन और रात के विभिन्न प्रहरो के लिए अलग-अलग किस्म के विशिष्ट संगीत का आयोजन होता था।
धर्म
उत्तर के धार्मिक विचार, जैसे वैदिक देवताओं की पूजा और बौद्ध तथा जैन धर्मों के सिद्धांत, दक्षिण के लोगों को ज्ञात थे। कुछ लोग इन धर्मों के अनुयायी बन गए, परंतु अधिकांश लोग अब भी अपने पुराने देवी-देवताओं की पूजा करते थे और अपने ही धार्मिक अनुष्ठान करते थे। मुरुगन, जो उत्तर में कार्तिकेय या स्कंद के नाम से प्रसिद्ध है, तमिल लोगों का सबसे प्रसिद्ध देवता था। उसे पर्वत-वासी देवता समझा जाता था। वह युद्ध और शौर्य का देवता था। उसे पूजा-पाठ के साथ बलि दी जाती थी। वीरगति को प्राप्त हुए योद्धाओं के लिए लोगों के मन में अपार श्रद्धा थी और उनकी भी पूजा होती थी। समुद्र-तटवासी लोग समुद्र-देवता की आराधना करते थे।
ईसा की छठी सदी में पल्लव राज्य की स्थापना होने तक तमिल लोगो कई सदियों तक इसी तरह का जीवन व्यतीत करते रहे।
ईसाई धर्म
आख्यान है कि ईसा की पहली सदी में पश्चिमी एशिया में एक नए धर्म का उदय हुआ और वह भारत में पहुंचा। यह था इसाई धर्म, जिसकी स्थापना ईसा मसीह ने की थी। यह पहले के यहूदी धर्म पर आधारित था। यहूदी धर्म में एक ईश्वर की पूजा को महत्व दिया गया था। ईसा को ईश्वर का केवल मसीह (संदेशवाहक) ही नहीं, वस्तुतः ईश्वर-पुत्र समझा गया। ईसा ने उस प्रेम पर जोर दिया जो ईश्वर के दिल में अपने बनाए हुए मनुष्य के लिए है। मनुष्य को चाहिए कि वे सदाचारी जीवन व्यतीत करें। मृत्यु के बाद उनकी आत्माएं स्वर्ग में जाएंगी और वहां पुनः उनका ईश्वर से मिलन होगा। ईसाई धर्म अपने विभिन्न रूपों में समूचे यूरोप में फैल गया और वहां यहां प्रमुख धर्म बन गया। भारत में ईसाई धर्म सबसे पहले मलाबार-तट के लोगों में और आधुनिक चेन्नई के नजदीक के क्षेत्र में फैला। अभिलेखों से स्पष्ट जानकारी मिलती है कि ईसा की सातवीं सदी में केरल में ईसाई भारतीय परिवार रह रहे थे।
आरंभिक ईसाई लेखोंको ने ईसा के जन्म के समय से वर्षों की या संवत्सर की गिनती करने की एक नई प्रथा चलाई। इस प्रकार जो घटनाएं ईसा के जन्म से पहले हुई थी उन्हें ईसा पूर्व (ई०पू०) की तारीख में व्यक्त किया और जो ईसा के जन्म के बाद घटित हुई उन्हें ईसवी (ई०) में गिना गया। घटनाओं का समय बताने की यह विधि आज लगभग सारे संसार में प्रचलित है।
उत्तर भारत
इस दौरान 200 ई०पू० और 100 ई० के बीच, सुदूर उत्तर में विदेशियों के अनेक जत्थे आए। वह भारत में बस गए और उन्होंने अपनी विशिष्ट जीवन-पद्धति के जरिए भारतीय संस्कृति को समृद्ध बनाया। यह लोग थे बाख्वी यूनानी (जिन्हें हिंद यवन भी कहते हैं), पार्थव (पार्थियन), शक और कुषाण। यूनानियों के अलावा बाकी सब मध्य एशिया से आए थे। यह उन अनेक अवसरों में से एक था जब मध्य एशिया से आए लोगों ने न केवल भारतीय संस्कृति को प्रभावित किया, बल्कि वे भारतीय जन-समुदाय के अंग बन गए।
हिन्द यवन
सिकंदर के यूनानी सेनापतियों ने ईरान और अफगानिस्तान में अपना-अपना शासन स्थापित किया था। इन राजाओं के उत्तराधिकारियों ने अब अपनी नजर उतर भारत की ओर फेरी। उत्तरी भारत धनी था और ईरान तथा पश्चिम एशिया के साथ उसका भारी व्यापार चलता था। मौर्य साम्राज्य के विघटन के बाद यूनानी राजाओं के लिए पंजाब के कुछ भागों और काबुल की घाटी को जीत लेना कठिन नहीं था। यह प्रदेश गांधार प्रांत के नाम से भी जाना जाता था। यूनानियों ने, जिन्हें हिंद यवन के नाम से भी जाना जाता है, इस गांधार प्रांत पर शासन किया। उन्होंने अनेक प्रकार के सिक्के चलाए। इन सिक्कों से इस युग का इतिहास रचना संभव हुआ है। इन शासकों में से कुछ बौद्ध बने; जैसे, राजा मिलिन्द (मिनांदर)। दूसरे शासक विष्णु के उपासक बने। इसलिए उनकी संस्कृति वस्तुतः भारतीय और यूनानी संस्कृतियों की मिश्रण थी।
शक
शक लोग पश्चिम भारत में आए और उन्होंने सिंध तथा सौराष्ट्र को रौंद डाला। अंत में काठियावाड़ और मालवा में बस गए। सातवाहनों से उनके अक्सर युद्ध होते थे। उनके सबसे प्रसिद्ध राजा रुद्रदमन ने सातवाहन शक्ति को नर्मदा के उत्तर में फैलने नहीं दिया। चाहने पर भी स्वयं शक भी उत्तर की ओर आगे नहीं बढ़ पाए, क्योंकि कुषाणो ने उन्हें रोक रखा था।
कुषाण
कुषाण, जिनका मूल निवास-स्थान चीनी तुर्किस्तान में था, ईसा की पहली शताब्दी में अफगानिस्तान में पहुंचे और हिन्द-यवनों, पार्थवो तथा शकों को खदेड़कर खुद तक्षशिला और पेशावर में जम गये। बाद में उन्होने समूचे पंजाब के मैदान पर अधिकार कर लिया और धीरे-धीरे गंगा के मैदान के पश्चिम भाग पर भी कब्जा जमा लिया। मथुरा उनके राज्य का दक्षिणी भाग का एक प्रमुख केंद्र था। राज्यों को प्रांतों में विभक्त किया था और गया और क्षत्रप या गवर्नर इनका शासन संभालते थे। कुषाण राजा कनिष्क ने उत्तर भारत में अपने राज्य को सुदृढ़ बनाने के लिए बड़े प्रयत्न किए। वह अपनी सेनाएं उत्तर में मध्य एशिया तक ले गया था और उसे एक पराक्रमी राजा समझा जाता था। मध्य एशिया में हूण साम्राज्य की चीनी सेनाओं के साथ कुषाणो की मुठभेड़ हुई।
मथुरा के संग्रहालय में कनिष्क की एक आदमकद खडिंत मूर्ति है। इसमें वह गठीले बदन का व्यक्ति नजर जाता है। उसने बौद्ध विहारों के निर्माण के लिए धन दिया। उस समय प्रचलित धार्मिक वाद-विवादों में उसकी दिलचस्पी थी। उसी के शासनकाल में चौथी बौद्ध महासंगिति (महासभा) का आयोजन हुआ था। पहले की भांति इस बार भी बुद्ध की शिक्षाओं के बारे में अनेक निर्णय लिए गए।
विचारों का आदान-प्रदान
इस सब परिणाम यह हुआ कि भारतीय जीवन के विभिन्न पक्षों में धर्म, कला तथा विज्ञान से संबंधित कई नए विचारों का प्रवेश हुआ और परिवर्तन हुए। भारत, ईरान तथा पश्चिम एशिया के निकट संपर्क में आया। व्यापार के कारण उत्तरी भारत और मध्य एशिया के सीमांत प्रदेशों के साथ सबंध स्थापित हुए। भारतीय वस्तुएं भूमध्यसागर के नगरों तथा बंदरगाहों में पहुंचने लगी। भारत और सिकंदरिया (मिस्र में नील नदी के मुहाने पर) के बीच लम्बी दूरी होने के बावजूद सिकंदरिया के बंदरगाह के साथ भारत के व्यापार में वृद्धि हुई। इस व्यापार के कारण तक्षशिला, मथुरा और उज्जयिनी जैसे नगरों का महत्व और भी अधिक बढ़ गया।
कला
पश्चिम एशिया के साथ संपर्क बढ़ने के कारण उत्तर भारत के नगरों में यूनानी मूर्तिकला का प्रवेश मिला। इनमें यूनानी तथा रोमन देवताओं की और भूमध्यसागर के लोगों की मूर्तियां थी। गांधार प्रदेश के भारतीय कलाकारों की मूर्तिकला की इस नई शैली में दिलचस्पी बढ़ी और इससे प्रभावित भी हुए। उनकी बनाई हुई बुद्ध की मूर्तियां और बुद्ध के जीवन से संबंधित दृश्य-पटल यूनानी शैली से मेल खाते हैं। यह शैली गांधार कला के नाम से जानी जाती है। यह कला-शैली न केवल आधुनिक पंजाब और कश्मीर जैसे क्षेत्रों में लोकप्रिय थी, बल्कि आधुनिक अफगानिस्तान में भी, क्योंकि गांधार शैली की कला के अनेक अवशेष वहां मिले हैं। मथुरा में दूसरे मूर्तिकार थे जिन्होंने अपनी एक अलग शैली का विकास किया, परंतु उन्होंने यूनानी यों की नकल नहीं थी उन्होंने यूनानियों की नकल नहीं की, हालांकि उन्होंने भी बुद्ध की मूर्तियां बनाई। इसे मथुरा शैली की कला कहते हैं।
धर्म
ये मूर्तियां केवल बुद्ध की ही नहीं, बल्कि उन अनेक बोधिसत्वो की भी थी जिनका बौद्ध लोग सत्कार करते थे। बोधिसत्व उन त्यागी-पुरुषो को कहा जाता है जो इस धरती पर बुद्ध के पहले पैदा हुए थे। जातक ग्रंथों में बोधिसत्वो के बारे में अनेक कथाएं हैं। इस समय तक बौद्ध धर्म में काफी परिवर्तन हो गया था। अब यह वह सरल धर्म नहीं रह गया था जिसका बुद्ध ने उपदेश दिया था। अब यह दो संप्रदायों में बट गया था- महायान और हीनयान। महायान संप्रदाय में अनेक प्रकार के अनुष्ठानों का प्रचलन था और बोधिसत्वो की पूजा की जाती थी। महायानी बौद्ध भिक्षु शक्तिशाली बन गए थे। परंतु भारत में अब भी ऐसे लोग थे जो इस तरह के बौद्ध धर्म को नहीं मानते थे। वहीं हीनयानी बौद्ध कहलाए। महायानी बौद्धों ने धर्मदूतों की मंडलियां चीन भेजी। धर्म-प्रचारक भारतीय व्यापारियों के साथ यात्रा करके चीन पहुंचे। इस तरह जल्दी ही मध्य एशिया और चीन में बौद्ध धर्म फैलता गया।
पश्चिम एशिया के साथ भारत के सम्पर्क का एक और परिणाम निकला। भारतीय ज्योतिषयों ने यूनानी ज्योतिष का तुलनात्मक अध्ययन किया। फलस्वरूप भारतीय ज्योतिष ने प्रगति की। इससे ज्योतिष के वैज्ञानिक अध्ययन को बढ़ावा मिला, यद्यपि बाद में भविष्य-कथन के लिए इसका दुरुपयोग किया गया। चिकित्सा संबंधी ज्ञान में भी वृद्धि हुई, जैसा कि चरक-संहिता और सुश्रुत-संहिता ग्रंथों से पता चलता है। शल्य-चिकित्सा के क्षेत्र में भी काफी प्रगति हुई। ज्योतिष, चिकित्सा और गणित के क्षेत्र की भारतीय विद्वानो की उपलब्धियों को बड़ा सम्मान मिला।