Vaidikalaya

अध्याय 4 - भारत: 600 ई० पू० से 400 ई० पू० तक 

राज्य और गणराज्य

लगभग 600 ई० पू० तक के जंगल साफ कर दिए गए थे और लोग विभिन्न इलाकों में आबाद हो गए थे, जैसे पांचाल (बरेली जिला), शूरसेन(मथुरा), कोशल(अवध), काशी, विदेह, मगध आदि। ये इलाके जनपद कहलाते थे। प्रत्येक इलाके में शासन करने वाला जन या कुल के आधार पर इन्हें यह नाम दिए गए थे। अब यह ग्राम-समूह में रहने वाले सादे कबीले नहीं रह गए थे। इन्होंने अपने राज्य और गणराज्य स्थापित कर लिए थे। गणराज्य ऐसा शासन होता है जिसमें शक्ति लोगों के या कुछ चुने हुए व्यक्तियों के या किसी चुने हुए मुखिया के हाथ में रहती है। गणराज्य में कोई वंशानुगत राजा नहीं होता। प्राचीन गणराज्यों में क्षत्रिय परिवार ही भूमि के मालिक होते थे। राजनीतिक सत्ता भी उन्हीं के पास होती थी और कबीलों की सभाओं में भी उन्हीं का प्रतिनिधित्व होता था। यही कारण है कि कुछ इतिहासकार इस प्रकार की सरकार को अल्प तंत्र अर्थात चुनिंदा लोगों का शासन कहते हैं, क्योंकि सभा में गैर-क्षत्रियों का प्रतिनिधित्व नहीं होता था। राज्यों और गणराज्य ने नए कानून बनाने शुरू कर दिए और उनकी शासन-व्यवस्थाएं भी बदल गई।

शाक्य और लिच्छवी वंश के अपने प्रसिद्ध गणराज्य थे। इनके इलाके आजकल के उत्तरी बिहार में थे। सबसे शक्तिशाली राज्य थे -गंगा की घाटी में कौशल, मगध और वत्स। एक अन्य शक्तिशाली राज्य था अवन्ति, जिसका केंद्र था उज्जयिनी (उज्जैन)। जो राज्य और गणराज्य अधिक शक्तिशाली थे उन्हें प्रायः महाजनपद कहा जाता था। यह राज्य आपस में लगातार लड़ते रहते थे, क्योंकि यह अपने-अपने क्षेत्रों का विस्तार या नदियों पर अधिकार जमाना चाहते थे। अंत में मगध सबसे शक्तिशाली राज्य हो गया। महान धर्माचार्य महावीर और गौतम बुद्ध ने मगध में ही धर्म-प्रचार किया था। इन्होंने अपने उपदेशों में मगध के राजाओं और लोगों की चर्चा की है।

मगध राज्य

लगभग 542 ई०पू० मे बिंबिसार मगध का राजा हुआ। उसने विभिन्न उपायों से इसे एक शक्तिशाली राज्य बना दिया। एक उपाय यह था कि उसने पड़ोसी राज-परिवार की राजकुमारियों से विवाह-संबंध जोड़े। तब यह शासक उसके मित्र बन गये। मगध राज्य में (आजकल के छोटा-नागपुर क्षेत्र में) बहुत अधिक कच्चा लोहा मिलता था। हथियारों और औजारों के लिए उस समय इस धातु का बड़ा महत्व था। अब जमीन को साफ करने और उसे जोतने के लिए और साथ ही अन्य शिल्पो में इस्तेमाल होने वाले औजार बनाने के लिए लोहे का व्यापक इस्तेमाल होता था। इससे मगध की शक्ति और संपत्ति में वृद्धि हो गई। गंगा के मैदान का अधिकांश व्यापार नदियों के रास्ते होता था। नौकाएं एक स्थान से दूसरे स्थान को माल ढोती थी।  शीघ्र ही नदी पर मगध का अधिकार हो गया। मगध के दक्षिण-पूर्व में अंगराज्य था (इसकी राजधानी आधुनिक भागलपुर के पास थी)। बिंबिसार ने अंग राज्य को जीत लिया। अंग राज्य मे गंगा के तट पर चंपा एक प्रसिद्ध बंदरगाह था, जहां से जहाज गंगा के मुहाने तक और आगे पूर्वी समुद्र तट के साथ-साथ दक्षिण भारत को जाते थे। दक्षिण भारत से यह जहाज मसाले और मणि माणिक्य लेकर लौटते थे जिनसे मगध धनवान बन गया था।

बिंबिसार

बिंबिसार ने मगध पर अच्छा शासन किया। उसकी मदद के लिए सलाहकारों की एक समिति थी। उसने गांव के मुखिया को सीधे उससे मिलने की अनुमति दे रखी थी, क्योंकि वह जानता था कि उसकी त्रिज्या क्या चाहती है यदि उसका कोई पदाधिकारी ठीक से काम नहीं करता तो वह उसे दंड देता था। उसने विभिन्न शहरों और गांवों को आपस में जोड़ने के लिए सड़के बनवाई और नदियों पर पुल बनवाए। राज्य की दशा स्वयं जानने के लिए उसने अपने सारे राज्य के दौरे किए।

वह दूसरे राज्यों के साथ (अंग को छोड़कर) मित्रता पूर्ण संबंध बनाए रखना चाहता था। उसने सुदूर देश को यहां तक कि पश्चिमोत्तर भारत के गांधार राज्य को भी अपने राजदूत भेजे थे। पटना के पास राजगृह में उसकी राजधानी थी। पहाड़ियों से घिरा हुआ यह एक सुंदर नगर था। पुरातत्वविदों द्वारा खोदे गए इस शहर के कुछ अवशेषो को अब भी देखा जा सकता है।

अजातशत्रु

अजातशत्रु ने अपने पिता बिंबिसार का वध किया। अजातशत्रु मगध को और भी अधिक शक्तिशाली बनाना चाहता था, परंतु वह सोचता था कि वह अपने सभी पड़ोसी राज्य को जीतने पर ही यह संभव हो सकता है। इसलिए उसने अपने मामा को कोशलराज पर हमला किया। उसने वज्जियो पर भी आक्रमण किया। वज्जियो का गणराज्य उत्तर बिहार में था। यह युद्ध कई सालों तक चला। अंत में अजातशत्रु की विजय हुई। उत्तर भारत में मगध सबसे शक्तिशाली राज्य बन गया।

राजा की स्थिति

राजा अब एक आतिविशिष्ट की व्यक्ति बन गया था। अब वह समाज और धर्म का रक्षक था। गणराज्य में यह समझा जाता था कि मुखिया को जनसाधारण से चुना जा सकता है। परंतु राजतंत्र के मामले में ब्राह्मणों का कहना था कि राजा कोई सामान्य पुरुष ना होकर देवता के समान है, और ब्राह्मण ही कुछ अनुष्ठान करके राजा को दैवी शक्ति तथा गुणों से संपन्न बना देते थे। इस प्रकार राजा बहुत शक्तिशाली हो गया। ब्राह्मणों का भी प्रभाव बढ़ गया था, क्योंकि वह राजा के सलाहकार थे और उनके बिना राजा ना तो शासन करता था, ना ही यज्ञ अनुष्ठान।

राजा की स्थिति इसलिए शक्तिशाली हो गई क्योंकि अब वह राज्य का प्रतीक बन गया था। राज्य में जिस प्रकार का शासन स्थापित हो गया था उसके बारे में दलील दी जाती थी कि राजा समाज की रक्षा करता है इसलिए रक्षा के लिए उसे सेना की आवश्यकता है और कानून तथा व्यवस्था स्थापित करने के लिए उसे अधिकारियों की मदद की आवश्यकता है। यह कर्तव्य निभाने के लिए राजा को कर वसूल करने के अधिकार दिए गए। इन करो से सेना, अधिकारी तथा राजा के खर्चे के लिए धन मिलता था। अब समाज वैदिक युग के कबीलो और कुलों के समय से काफी  भिन्न था।

राजा शान- शौकत‌ से बड़े महल में रहता था और सेवकों तथा अधिकारियों से घिरा रहता था। पुरोहित, अमात्य, मंत्री और कई अन्य अधिकारी राजकाज में उसकी मदद करते थे। राज्य के खर्चों के लिए वह किसानों से उपज का एक हिस्सा लेता था। इस सारी आय को वह केवल अपने ऊपर खर्च नहीं करता था, बल्कि सेना पर, वेतन देने में और सड़कों तथा नहरों के निर्माण और ब्राह्मणों की सहायता करने जैसे अन्य कामों में खर्च करता था।


जन-जीवन

करों का महत्व

चीजों का उत्पादन करने वाले सभी लोग राजा को कर देते थे। किसान अपनी उपज का एक हिस्सा राजा को देते थे। आमतौर पर यह उपज का छठा हिस्सा होता था। धातु कर्मकार राजा के लिए मुफ्त औजार बनाते थे। बढ़‌ई राजा के लिए मुफ्त में रथ बनाते थे। बुनकर कपड़े की एक निश्चित मात्रा राजा को बिना मूल्य देते थे। शुरू में कर वस्तुओं के रूप में इकट्ठा किए जाते थे। अर्थात, लोगों द्वारा तैयार की गई चीजों के रूप में और वही चीजें वेतन के रूप में अधिकारियों को बांट दी जाती थी।

करो का बड़ा महत्व था, क्योंकि उनके बिना राजा कुछ भी नहीं कर सकता था। ना वह सेना रख सकता था, ना वह काम करवाने के लिए अधिकारी नियुक्त कर सकता था, ना ही सड़के बनवा सकता था। इसलिए कर वसूल करने के लिए वह अधिकारियों का दल नियुक्त करता था। इन्हीं में से कुछ अधिकारियों का यह काम था कि वह गांव-गांव जाकर प्रत्येक किसानों के खेतों की पैमाइश करें और किसान द्वारा पैदा किए जाने वाले अनाज का हिसाब रखे। हिसाब करके छठा हिस्सा निकाला जाता था और इसे किसान को राजा के लिए देना पड़ता था। फसल तैयार हो जाती तो कर वसूल करने वाला अधिकारी किसान के पास पहुंचता था और राजा को दिया जाने वाला हिस्सा वसूल कर लेता था। अन्य सभी उद्योग-व्यवसाय से भी इसी प्रकार कर वसूल किया जाता था। शहरों में भी कर वसूल करने वाला अधिकारी वस्तु के रूप में या नगद में वसूली करता था।

गांव
अधिकतर लोग अभी कामों में रहते थे और इन लोगों के जीवन में पहले के युग की अपेक्षा अधिक परिवर्तन नहीं हुआ था। आबादी बढ जाने से अब गांव की संख्या में वृद्धि हो गई थी। गांव सड़कों और पगडंडियों के जरिए एक दूसरे से जुड़े हुए थे। नदी तट के गांवो के लोग नावो से आते जाते थे। प्रत्येक गांव का एक प्रधान होता था जो ग्रामवासियों तथा राजा के लिए काम करता था और इसलिए वह राजा और किसानों के बीच एक कड़ी के समान होता था। राजा कुछ गांवों तथा भूमि का मालिक होता था। इस भूमि को जोतने के लिए मजदूर रखे जाते थे और उन्हें मजदूरी दी जाती थी।


नगर

इस युग में और पहले के युगों में एक बड़ा अंतर था, और वह था शहरों का विकास। पहले के युग में कुछ ही छोटे शहर थे। परंतु अब काफी अधिक शहर और नगर बस गए थे। इनमें से कुछ नगर बड़े महत्व के थे और पुराने ग्रंथों में इनके बारे में जानकारी मिलती है यह नगर थे- उज्जयिनी (मालवा मे),  प्रतिष्ठान (उत्तरी दक्कन में), भृगकच्छ (गुजरात में भड़ौच), ताम्रलिप्ति (गंगा के मुहाने की भूमि में), श्रावस्ती (उत्तर प्रदेश में), चंपा, वैशाली तथा राजगृह (बिहार में), अयोध्या (उत्तर प्रदेश में) और कौशांबी (उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद के पास)। इनमें से कुछ नगरों की खुदाई हुई है। पता चला है कि यह लकड़ी और ईटों से बने हुए थे, इसलिए गांवों से अधिक स्थाई होते थे। राजा का महल प्राय: पत्थर और लकड़ी का बना होता था और उसकी बढ़िया सजावट होती थी।

शहरों का विकास प्रायः शिल्प-केंद्रो, व्यापारी-केंद्रों और राजधानियों के इर्द-गिर्द हुआ। आरंभ में शिल्प-केंद्र ऐसे गांव थे जहां धातुकर्म, बढ़ईगिरी या बुनाई-जैसे शिल्प ज्यादा विकसित थे। जब आसपास के क्षेत्र में रहने वाले शिल्पकार या कारीगर एकत्र हो गये तो उनकी बस्ती धीरे-धीरे शहर में बदलती गई। उन्होंने एक स्थान पर रहकर काम करना इसलिए पसंद किया, क्योंकि कच्चा माल प्राप्त करने में और तैयार हुई चीजों को बेचने में उन्हें अधिक सुविधा होती थी। व्यापारियों का एक अन्य वर्ग उनके इस काम का संगठन करता था।

व्यापारी गांव जा जाकर कताई करने वालों से सूत और बुनकरों से सूती कपड़ा इकट्ठा करते और उन्हें उन गांवों में ले जाकर बेचते जहां उनकी मांग  होती थी। किस प्रकार कताई और बुनाई करने वाले अपने माल को गांव के बाहर ले जाकर बेचने के झंझट से बच जाते थे। व्यापारी भी खरीदे गए माल को बेचकर मुनाफा कमाते थे सूत और कपड़ों के मामले में जैसा होता था वैसा ही अनाज और दूसरी उपज के बारे में भी होता था। शीघ्र ही देश में व्यापार या माल का लेनदेन (विनिमय) बढ़ गया।

व्यापार
विनिमय और मूल्य कि एक नई व्यवस्था अस्तित्व में आने से व्यापार सुगम हो गया था। यह नई व्यवस्था थी- मुद्रा अर्थात सिक्के। सिक्कों के चलन के पहले वस्तुओं का लेनदेन या विनिमय होता था, जैसे एक गाय के बदले कपड़े की दस गांठे है या तेल के पांच घड़ों के बदले गेहूं के दो बोरे। विनिमय के जरिए खरीदना और बेचना आसान नहीं था। परंतु सिक्कों को ले जाने से आसानी है। सिक्कों का चलन बढ़ा, तो व्यापारियों की संख्या भी बढ़ी। इस युग के सिक्के तांबे या चांदी के अनगढ़ टुकड़े होते थे और इन पर चिन्ह पंच किए जाते थे। व्यापारिक छोटे इलाके तक सीमित नहीं रह गया था। गंगा की घाटी में पैदा की गई चीजें पंजाब के उस पार तक्षशिला भेजी जाती थी या विंध्य पर्वत के पास भृगकच्छ (भड़ौच) के बंदरगाह को भेजी जाती थी जहां से उन्हें जहाजों द्वारा दक्षिण भारत या पश्चिम एशिया को ले जाया जाता था।

समाज 
शिल्पकार और व्यापारी अपने जो संगठन बनाते थे उन्हें 'श्रेणी' कहते थे। क्योंकि कारीगर साथ-साथ रहते थे और मिलजुल कर काम करते थे, इसलिए वे इतने अधिक घुल-मिल गए की एक जाति के रूप में समझे जाने लगे। बेटे अपने बाप का धंधा करने लगे, इसलिए जाति वंशानुगत हो गई। धीरे-धीरे इनमें से प्रत्येक जाति के लिए अलग-अलग कानून बन गए। इन कानूनों को ब्राह्मणों ने स्थापित किया। इनमें कुछ कानून बड़े कठोर थे।एक जाति के लोग ना तो दूसरी जाति के लोगों के साथ खाना खा सकते थे, ना ही अपनी जात के बाहर विवाह कर सकते थे।

सैद्धांतिक रूप से वर्ण चार थे- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इन चारों से अलग एक पांचवां वर्ग अछूतों का था जिन्हें घृणा की दृष्टि से देखा जाता था और नीच समझा जाता था। ऐसा समझा जाता था कि वह गंदे काम करने के लिए हैं। लेकिन यह कोई तर्कसंगत बात नहीं थी, क्योंकि टोकरिया बनाने वाले को भी नीच समझा जाता था।

धर्मशास्त्रकारों ने उच्च वर्गों के आचरण के लिए नियम बनाए।‌इन‌ नियमों के अनुसार जीवन को चार अवस्थाओं या आश्रमों में बांटा गया था। पहला ब्रम्हचर्य आश्रम शिक्षा ग्रहण करने के लिए था। दूसरे गृहस्थ आश्रम में गृह-गृहस्थी बसाई जाती थी। तीसरे वानप्रस्थ आश्रम में ध्यान-चिंतन करने के लिए जंगल में रहना होता था। चौथे संन्यास आश्रम में तपस्वी या उपदेशक का जीवन बिताना पड़ता था। यह एक आदर्श व्यवस्था थी, परंतु पता नहीं कितने लोग इसका पालन करते थे।

जैन धर्म और बौद्ध धर्म

नये धर्म
वैदिक धर्म अनेक कर्मकांडो तथा यज्ञों का धर्म हो गया था। कुछ लोग इन अनुष्ठानों से असंतुष्ट थे। कुछ लोग सोचते थे कि पूजा पाठ का दिखावा करने की बजाय सच्चाई, सदाचार और त्याग का जीवन व्यतीत करना अच्छा है। उनमें से कुछ सन्यासी हो गए और वनों में रहने लगे क्योंकि वे एकांत में ध्यान-चितंंन करना चाहते थे। उनमें से कुछ वनों से लौट आए और अपने विचारों का नगरों तथा गांवों में प्रचार करने लगे। इनमें से वो व्यक्ति जैन धर्म और बौद्ध धर्म के प्रवर्तक के रूप में प्रसिद्ध हुए। महावीर जैन धर्म के संस्थापकों में से एक थे और गौतम ने बौद्ध धर्म की स्थापना की। महावीर लिच्छवी गणराज्य में और बुद्ध शाक्य गणराज्य में पैदा हुए थे। राजकुमारों की तरह उनका पालन-पोषण हुआ था और सुखभोग की सभी मनचाही चीजें उन्हें सुलभ थी। परंतु दोनों ही दूसरों को दुखी देखकर दुखी होते थे, इसलिए उन्होंने इस दुख को दूर करने का उपाय ढूंढने का निश्चय किया।

जैन धर्म
महावीर का जन्म ईसा पूर्व छठी सदी में वैशाली नगर में हुआ था। उन्होंने घर छोड़ दिया और कई वर्षों तक जीवन से संबंधित प्रश्नों का हल ढूंढते हुए भटकते रहे जो उन्हें परेशान कर रहे थे। १२ साल के बाद उन्हें विश्वास हो गया कि उन्होंने प्रश्नों का हल खोज लिया है। उन्होंने पहले २३ तीर्थकरो के उपदेशों का समर्थन किया और अपने उनमें अपने विचार भी जोड़ दिए। यह धर्म जैन धर्म कहलाया। महावीर का कहना था कि वैदिक अनुष्ठान करने और देवताओं से मदद मांगने से कोई लाभ नहीं है। इससे अच्छा है सदाचार का जीवन बिताना और बुरा काम ना करना। उन्होंने अपने अनुयायियों से कहा कि उनके काम सम्यक श्रद्धा, सम्यक ज्ञान और सम्यक कर्म इन त्रिरत्नो पर आधारित होने चाहिए। इन्हीं से उनका जीवन सदाचारी बन सकता है।उन्हें मनुष्य, पशु या किसी भी जीव की हत्या करने की मनाही थी। इसी को अहिंसा कहा गया। यदि किसी का जीवन सदाचारपूर्ण होगा तो उसकी आत्मा मुक्त हो जाएगी और उसका इस संसार में पुनर्जन्म नहीं होगा। यह सरल‌ उपदेश था जिस पर कोई भी चल सकता था। महावीर ने अपने उपदेश आम जनता की बोली में दिए, संस्कृत में नहीं, क्योंकि इस काल में संस्कृत का प्रयोग केवल उच्च जातियों के लोग ही करते थे।

बौद्ध धर्म
महावीर के जन्म के कुछ साल बाद शाक्य कुल में राजकुमार सिद्धार्थ के रूप में बुद्ध का जन्म हुआ वह कपिलवस्तु के पास के लुम्बिनी वन में (नेपाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश की सीमा के पास) पैदा हुए थे। उन्होंने भी गृहत्याग किया और वर्षों तक तपस्वी की भांति घूमते रहे। तब उन्हें लगा कि उन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया है और उन्होंने जीवन की समस्याओं का हल खोज लिया है। उनका कहना था कि संसार में दुख ही दुख है और इसका कारण है सांसारिक चीजों के लिए तृष्णा। अष्टांगिक मार्ग पर चलकर मनुष्य तृष्णा से छुटकारा पा सकता है। आठ प्रकार के आचार-विचार पर चलकर मनुष्य सदाचारी बन सकता है और किसी चीज की अधिक चाह रखे बिना संतुलित जीवन व्यतीत कर सकता है। बुद्ध ने भी अहिंसा के महत्व पर बल दिया। उन्होंने धार्मिक यज्ञ अनुष्ठानों में पशुओं की हत्या करना वर्जित ठहराया और पशुओं की अनावश्यक हत्या को अमानुषिक बतलाया। उस समय खेती-बाड़ी के लिए पशुपालन का बड़ा महत्व था, इसलिए बिंन्र्ध कारण पशुओं की हत्या करना निरर्थक था। पशुओं के प्रति इस दृष्टिकोण से शाकाहारी खानपान को बढ़ावा मिला। सदाचारी जीवन बिताने का उद्देश्य था मन को शुद्ध करना और निर्वाण प्राप्त करना। समझा जाता था कि निर्वाण प्राप्त करने पर फिर पुनर्जन्म नहीं होता।

बुद्ध भी वैदिक यज्ञ और लोगों के लिए जरूरी समझे जाने वाले विविध अनुष्ठानों के विरोधी थे। वर्ण-व्यवस्था को दिए जाने वाले महत्व का उन्होंने विरोध किया, क्योंकि ऊंचे वर्णों वाले निम्न वर्णों वालो शुद्र तथा दूसरों के साथ दुर्व्यवहार करते थे। बुद्ध ने विहार की स्थापना की। विहार वे स्थान होते थे जहां बौद्ध भिक्षु रहते थे और आराधना तथा धर्मोपदेश करते हुए जीवन व्यतीत करते थे। यह विहार पाठशाला के भी काम आते थे बौद्ध धर्म और जैन धर्म के अनुयायी प्रायः कारीगर, व्यापारी और किसान होते थे, क्योंकि वे समझते थे इन धर्मों के अनुसार आचरण करना कठीन नहीं है। दूसरी तरफ, ब्राह्मणों से अनेक संस्कारों और अनुष्ठानों से अपने धर्म के आचरणो को कठिन बना दिया था। उन दिनों बौद्ध धर्म इन जटिल संस्कारों का विरोधी था, क्योंकि न केवल ये बड़े खर्चीले थे, बल्कि अंधविश्वास को भी बढ़ावा दे रहे थे। विशेषकर नगरों में बौद्ध धर्म और जैन धर्म का अधिक प्रचार था। भिक्षुक जगह-जगह नये विचारों का प्रचार करते फिरते थे, इसलिए बौद्ध धर्म भारत के अनेक भागों में फैल गया। इसने भारतीय जीवन के प्रायः सभी पक्षों को प्रभावित किया। बौद्ध विहार शिक्षा के प्रसिद्ध केंद्र बन गए। धनी व्यापारी बौद्धों को धन दान में देते थे और सुंदर स्मारक बनवाते थे। इन्हें सर्वोत्तम शिल्पो से सजाया गया था। बाद में बौद्ध भिक्षु भारतीय संस्कृत को एशिया के दूसरे भागों में भी ले गए- जैसे, मध्य एशिया, चीन, तिब्बत और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों को। बौद्धों और जैनों ने अहिंसा के सिद्धांत को लोकप्रिय बना दिया।