अध्याय ५ - जनता का जीवन
जब कोई विदेशी जाति किसी देश को जीत कर उस देश में बस जाती है तो उसके साथ जीवन के नए आदर्श और नए तौर-तरीके भी आ जाते हैं। ये आदर्श पराजित देश की सभ्यता और संस्कृति को प्रभावित करते हैं। किंतु कभी-कभी इसका उल्टा भी होता है। पराजित देश की संस्कृति विजेता जाति के जीवन के तौर-तरीकों को प्रभावित करती है। तुर्को और अफगानों की विजय के साथ भी ये दोनों बातें हुई। उन्होंने अपने जीवन को ईरान के सम्राटों के आदर्शों में ढाला था। वे अपने साथ ईरान और मध्य एशिया से वहां की संस्कृति और विचार लाए और जब वे भारत में बस गए तब भारतीय जीवन के रीति-रिवाज उनके विचारों और व्यवहारों को प्रभावित करने लगे। साथ ही तुर्को और अफगानों के आने से भारतीय समाज में भी बहुत से परिवर्तन हुए। यह परिवर्तन जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिफलित होते रहे। कुछ ही समय में कुछ रीति-रिवाजों की एक निश्चित एकरूपता सामान्य जनता के जीवन में दिखलाई देने लगी।
सल्तनत के युग में भारतीय समाज चार प्रमुख वर्गों में विभाजित था। अभिजात वर्ग और पुरोहित वर्ग को समाज में उच्चतम स्थान प्राप्त था, साधारण नगर निवासी और किसान अन्य वर्गों के थे।
अभिजात
अभिजात वर्ग शासन करने वालों का वर्ग था और इसके अंतर्गत सुल्तान, सरदार, हिंदू राजे और जमींदार होते थे। दिल्ली के दरबार में सुल्तान बड़ी शान-शौकत से रहता था। जब कोई नया सुल्तान दिल्ली के सिंहासन पर बैठा था शुक्रवार की नमाज में उसके नाम का खुतबा पढ़ा जाता था और उसके नाम खुदे हुए सिक्के टकसाल से जारी किए जाते थे। इस प्रकार नए शासक के सिंहासन पर बैठने की पुष्टि की जाती थी। सुल्तान एक विशिष्ट व्यक्ति होता था। प्रतिदिन उसके विशेष गुणों को प्रमुख रूप से व्यक्त करने के लिए उसके दरबार के कार्यों को विधिवत् संपादित किया जाता था। उसके राजमहल के प्रबंध के लिए बहुत से अधिकारी और कर्मचारी होते थे। उसके कार्य करने के लिए उसके बहुत से गुलाम होते थे। सुल्तान का अनुसरण करते हुए अन्य सरदार भी विलासिता का जीवन व्यतीत करते थे।
पुरोहित वर्ग
ब्राह्मण और उलेमा जैसे पुरोहित और धर्मशिक्षक भी समाज के महत्वपूर्ण अंग थे। विशेषकर जो शासकों के सलाहकार थे उनका तो जनता पर अत्यधिक प्रभाव था। उनमें से कुछ बहुत धनवान थे और उनको भूमि का अनुदान मिला हुआ था। सुल्तान प्रमुख ब्राह्मणों का बड़ा आदर करता था और उनकी भूमि का अनुदान देता था। इन ब्राह्मणों और उलेमा में बहुत से ऐसे थे जो देहाती क्षेत्रों में बस गए थे। इस प्रकार यह दोनों ही हिंदू और इस्लामी संस्कृतियों के प्रचार में सहायता देते थे। कुछ ऐसे लोग भी थे जो इन हिंदुओं और मुसलमान पुरोहितों के व्यवहार से संतुष्ट नहीं थे। जन-साधारण का अनुभव था कि ये पुरोहित धर्म में पर्याप्त रुचि नहीं रखते थे बल्कि उनकी सांस्कृतिक कार्यों में अधिक रूचि थी।
नगर निवासी
इस काल में बहुत से नगरों में व्यापार की बड़ी उन्नति हुई। नगरों में रहने वाले लोग प्रायः व्यापारी, दुकानदार, शिल्पकार तथा कुछ सरदार और अधिकारी होते थे। अधिकतम नगर व्यापार के केंद्र होते थे। कुछ नगर प्रशासन और सेना के केंद्र भी थे और इनमें अधिक संख्या में अधिकारी और सैनिक रहते थे। कुछ नगर तीर्थ स्थान थे जिनमें बहुत बड़ी संख्या में पुरोहितों और यात्रियों की भीड़ लगी रहती थी।
शिल्पकार अपने शिल्प के अनुसार नगर के किसी विशेष भाग में रहते थे। उदाहरण के लिए नगर के एक भाग में जुलाहे रहते थे। पीतल के बर्तन बनाने वाले ठठेरे दूसरे भाग में रहते थे। सुनारों की बस्ती एक अलग क्षेत्र में थी। इसी प्रकार अन्य शिल्पकार भी नगर में बसे हुए थे। आज भी बहुत से नगरों और कस्बों में हमको मुहल्लों के नाम उन शिल्पकारों के नाम पर मिलते हैं जो किसी समय उन मुहल्लों में रहते थे। सरदारों और उनके परिवारों को कीमती रेशम और ज़री के कपड़े जैसी विलासिता की और बर्तन आदि प्रतिदिन की वस्तुओं की आवश्यकता रहती थी। वे शिल्पकार अपनी इस मांग की पूर्ति करते थे। शिल्पकार ऐसी वस्तुओं को भी बनाते थे जो देश के विभिन्न भागों को और विदेश को भी भेजी जाती थी और जिन पर उस काल का व्यापार आधारित था। सुल्तान विभिन्न प्रकार की वस्तुओं के उत्पादन के लिए कारखानों में सैकड़ों गुलामों को नौकर रखते थे।
व्यापार
प्रत्येक नगर में हाट या बाजार होता था जहां व्यापारी वस्तुओं को खरीदने और बेचने के लिए एकत्र होते थे। अक्सर बड़े-बड़े मेले लगा करते थे। समाज के कुछ ऐसे समुदाय भी थे जो विशेष रूप से व्यापार ही करते थे। बनिए और मुल्तानी लोग व्यापार में बड़ी रूचि लेते थे और वे सारे देश में यात्रा करते थे। वे लोग दक्षिण से मलाबार तक पहुंचते थे। बंजारों के पास बड़े-बड़े काफिले रहते थे और वे वस्तुओं को एक बाजार से दूसरे बाजार तक पहुंचाया करते थे।
इब्बबतूता नई दिल्ली का वर्णन करते हुए लिखा है कि उसने जितने नगर अपनी यात्रा में देखे उनमें दिल्ली सबसे अधिक सुंदर नगर था। देश के सब भागों से दिल्ली नगर में सामान आता था। पूर्व से चावल, कन्नौज से चीनी, दोआब से गेहूं और दक्षिण भारत से बहुमूल्य रेशम आता था। सूती कपड़े, धातु के बर्तन, बहुमूल्य रत्नों, आभूषणों और हाथी दांत की वस्तुओं आदि का तो कुछ कहना ही नहीं। अरब, पूर्वी अफ्रीका, श्रीविजय और चीन से बहुत सा सामान आता था। चीन के साथ व्यापार का मुख्य केंद्र बंगाल था। पंन्द्रहवीं शताब्दी में चीन के बहुत से व्यापारियों और मिशन बंगाल आए और उनके लिखे बंगाल के बहुत से वर्णन मिलते हैं। जिनमें वहां के जीवन पर प्रकाश पड़ता है।
व्यापार की उन्नति से धन का प्रयोग अधिक होने लगा। टकसालों में बहुत बड़ी संख्या में सिक्के ढाल कर चलाए गए। चांदी के सिक्के टंका का बहुत अधिक प्रयोग किया जाता था। सुल्तान इल्तुतमिश ने इस सिक्के को जारी किया था। इसी सिक्के के आधार पर बाद में चांदी का रुपया चलाया गया। इस समय के तोले के बांटो का प्रयोग आधुनिक काल में मीट्रिक प्रणाली के अपनाए जाने के पहले तक जारी रहा।
किसान गांवों में किसानों का जीवन बहुत कुछ पहले जैसा ही रहा। तुर्को और अफ़गानों के इस देश में आने से होने वाले परिवर्तन उच्च वर्ग तक सीमित रहे। किसानों के जीवन में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ।
जाति प्रणाली इस काल के समाज की प्रमुख विशेषता बनी रही। जिन हिंदुओं को मुसलमान बना लिया गया था वह प्रायः अपने पहले की जाति का स्मरण करते रहे और उनके विवाह की रीति रिवाज पहले की भांति ही चलते रहे। सरदारों में भी तुर्क, अफगान और उन हिंदुओं में जो मुसलमान बना लिए गए थे परस्पर विवाह-संबंध होते रहे। इसलिए रीति-रिवाजों और विचारों का आदान-प्रदान स्वाभाविक था। मुसलमानों के बहुत से रीति-रिवाज हिंदू जीवन के अंग बन गए और हिंदुओं के बहुत से रीति-रिवाज मुसलमानों के जीवन में दिखलाई देने लगे।
धर्म
भारत में इस्लाम धर्म के आ जाने के अनेक परिणाम हुए। इसका एक सबसे महत्वपूर्ण परिणाम यह था कि हिंदुओं और मुसलमानों ने परस्पर एक दूसरे के बहुत से धार्मिक विचार अपना लिए। इससे दो प्रकार की धार्मिक विचारधाराएं- एक सूफी आंदोलन और दूसरी भक्ति आंदोलन बड़ी लोकप्रिय बन गई।
सूफी
ग्यारहवीं शताब्दी में भारत और अन्य देशों से आने वाले मुसलमानों में सूफी संप्रदाय के कुछ संत भी थे। वे भारत के विभिन्न भागों में बस गए और बहुत से भारतीय उनके अनुयाई बन गए। सूफियों ने ईश्वर के निकट पहुंचने के लिए प्रेमसाधना और भक्ति का उपदेश दिया। उनका कहना था कि यदि व्यक्ति के हृदय में भगवान के प्रति सच्चा प्रेम भाव है तो वह भगवान और अपने साथी मनुष्यों के अधिक निकट आ जाता है। ये सूफी संत ईश्वर के सच्चे प्रेम के सामने प्रार्थना, उपवास और पूजा-पाठ को अधिक महत्व नहीं देते थे। ईश्वर के प्रेम के महत्व के कारण उनका दृष्टिकोण अन्य धर्मों और संप्रदायों के प्रति उदार था और उनका विश्वास था कि ईश्वर के निकट पहुंचने के अनेक मार्ग हो सकते हैं। ये मनुष्य भाव के आदर पर अधिक बल देते थे। सूफियों के इस दृष्टिकोण से परंपरावादी उलेमा सहमत नहीं थे क्योंकि उनका कहना था कि सूफियों के कुछ सिद्धांत प्राचीन परंपरागत इस्लाम धर्म से मेल नहीं खाते। बहुत से हिंदू भी सूफी संतों का आदर-सम्मान करते थे। सूफियों का विश्वास था कि लोगों को पीरों के उपदेशों को मानना चाहिए। उनका पीर हिंदुओं के गुरु के समान था। पास-पड़ोस के नगरों और गांवों से लोग पीरों के उपदेश सुनने आते थे। सूफी संतों ने हिंदुओं को मुसलमान बनाने का प्रयत्न नहीं किया बल्कि उन्हें एक सच्चे ईश्वर से प्रेम करके अच्छा हिंदू बनने का उपदेश दिया।
मुईनुद्दीन चिश्ती अपने समय के एक प्रसिद्ध सूफी महत्मा थे। वह बहुत समय तक अजमेर में रहें। वहीं सन् १२३६ ई० में उनकी मृत्यु हुई। उनका विश्वास था कि भक्ति-संगीत भी ईश्वर के निकट पहुंचने का एक रास्ता है। यदि संगीत सुंदर ढंग से गाया-बजाया गया हो तो उससे उतना ही आनंद प्राप्त होता है जितना कि ईश्वर के सम्मुख उपस्थित होने से। उलेमा संगीत को धर्म से संबंधित करने के सिद्धांत को नहीं मानते थे। चिश्ती के अनुयाई धर्म सभाएं (महफिल) करते थे जिनमें उच्चकोटि का संगीत सुना जा सकता था। इस सभाओं में होने वाले संगीत का परिचित रूप कव्वाली था। हिंदी में गाए जाने वाले गीत भी बड़े लोकप्रिय थे।
दूसरे प्रसिद्ध सूफी महात्मा बाबा फरीद थे। वह अजोधन या पाकपाटन के रहने वाले थे जो अब पाकिस्तान में है। अन्य सूफी महात्मा भारत के दूसरे भागों में रहते थे। सैयद मुहम्मद गेसूदराज गुलबर्ग में, शाह आलम बुखारी गुजरात में, बहाउद्दीन जकरिया मुल्तान में और शेख़ शिहाबुद्दीन सुहरावर्दी सिलहट में रहते थे। दिल्ली के पड़ोस में निजामुद्दीन औलिया रहते थे जिनको सुल्तान और जनता दोनों का सम्मान प्राप्त था। वे ईमानदार और साहसी व्यक्ति थे और स्वतंत्रतापूर्वक अपने विचार प्रकट करते थे। यदि वे सुल्तान के किसी कार्य को पसंद नहीं करते तो स्पष्ट कह देते और अन्य व्यक्तियों की भांति डरते नहीं थे।
भक्ति आंदोलन
केवल सूफी ही उस काल के लोकप्रिय धर्म-प्रचारक नहीं थे। भक्ति आंदोलन के चलाने वाले और संत भी थे। उनका भारत में अपना प्राचीन इतिहास था। तमिल देश के भक्ति संप्रदाय के चलाने वाले आलवार नयन्नार संतों ने कहानियों और गीतों के द्वारा भक्ति भावना की परंपरा को प्रारंभ किया था। नगरों में व्यापारियों और शिल्पकारों तथा गांवों में किसानों के बीच यह आंदोलन बहुत लोकप्रिय हुआ। भक्ति आंदोलन में इसी प्रकार के उपदेश जारी रहे। इस आंदोलन के समर्थक अधिकांश संत-महात्मा अब्राह्मण थे। भक्ति मार्ग के उपदेशकों ने बतलाया कि मनुष्य और ईश्वर का संबंध प्रेमभाव पर आधारित है और धार्मिक कर्मकांडों के करने की अपेक्षा भक्तिभाव से ईश्वर की उपासना करना कहीं अधिक श्रेष्ठ है। मनुष्यों और धर्मों में उन्होंने सहिष्णुता की भावना पर अधिक बल दिया।
चैतन्य एक धर्मोंपदेशक थे जिन्होंने बंगाल में धर्म का उपदेश दिया। वे कृष्ण के भक्त हो गए और उन्होंने कृष्ण-लीला के बहुत से पदों की रचना की। वे जनता के एक समूह को एकत्र करके भक्ति का उपदेश देते थे और उन्हें अपने भक्ति-पद सिखाते थे। उन्होंने देश के विभिन्न भागों की यात्रा की और फिर उड़ीसा प्रांत में पुरी में रहने लगे ।ज्ञानेश्वर ने महाराष्ट्र में भक्ति का उपदेश दिया। उन्होंने गीता को फिर से मराठी भाषा में लिखा जिससे जो लोग संस्कृत के विद्वान नहीं थे वे भी उसे समझ सके। उनसे अधिक लोकप्रिय नामदेव और कुछ समय पश्चात तुकाराम हुए। दोनों ही प्रेम के माध्यम से ईश्वर के प्रति भक्ति का उपदेश देते रहे।
बनारस में कबीर, जो एक जुलाहे थे, रहते थे। वे भी एक भक्त महात्मा थे। उनके लिखे हुए दोहे जिनके द्वारा वे अपने शिष्यों को उपदेश देते थे, आज तक पढ़े जाते हैं। कबीर ने हिंदू और मुसलमानों के भेदभाव को दूर करने का प्रयत्न किया। उनका कहना था कि धर्मों का अंतर कोई महत्व नहीं रखता। महत्व इस बात का है कि प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर के प्रति प्रेमभाव रखें। ईश्वर के अनेक नाम है कोई उसको राम कहता है कोई रहीम। कोई उसको हरी कहता है कोई अल्लाह। लोग व्यर्थ ही उसके नामों के ऊपर झगड़ा करते हैं। कबीर के शिष्यों ने कबीर-पंथ के नाम से अपना अलग संप्रदाय बनाया। बाद में सूरदास और दादू ने इस भक्ति मार्ग की परंपरा को कायम रखा।
नानक एक अन्य धर्मोपदेशक थे, जिनका महत्व कबीर से कम नहीं है। उन्होंने सिक्ख धर्म की स्थापना की। उनके अनुयाई कुछ शताब्दियों के बाद उत्तर भारत में बहुत शक्तिशाली हो गए। सिक्खों के कथनानुसार नानक एक गांव के लेखाकार के पुत्र थे और पंजाब में रहते थे। नानक के बहनोई ने उन्हें स्थानीय प्रशासन दौलत खां लोदी के कार्यालय में नौकरी दिलवाने में मदद की। पर नानक को इस काम में कोई रुचि नहीं थी। इसलिए उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी और फकीरों और सूफी संतों के साथ कुछ समय बिताया। उन्होंने सारे देश का भ्रमण किया और अंत में अपने गांव लौटकर शिष्यों के एक समुदाय को उपदेश दिया। पदों में दिए गए उनके उपदेशों को एक पुस्तक में एकत्र किया गया जिनको आदिग्रन्थ कहा जाता है। नानक ने भी यही उपदेश दिया कि ईश्वर के निकट केवल प्रेम करके ही पहुंचा जा सकता है। उन्होंने बड़ी दृढ़ता से कहा कि सब मनुष्य बराबर हैं अतः जाति के कारण कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए।
उन्होंने अपने शिष्यों को विशेष बल देकर कहा कि उन्हें एक सार्वजनिक भोजनालय, लंगर में भोजन करने के लिए तैयार रहना चाहिए जिसमें सभी जाति के लोग भोजन कर सके। उन्होंने अपने शिष्यों का संगठन किया और अपनी मृत्यु के समय उनका नेतृत्व करने के लिए एक गुरु को नियुक्त किया। उनके अनुयाई आगे चलकर अपने को 'खालसा' कहने लगे जिसका अर्थ है शुद्ध। सत्रहवीं शताब्दी में खालसा लोगों को एक शक्तिशाली सैनिक दल बन गया। तब सिक्खों ने अपने को अन्य लोगों से इन पांच विशेषताओं के द्वारा अलग कर लिया- केश, कंघा, कड़ा, कृपाण और कच्छा। ये विशेषताएं सामान्य रूप से 'पंच ककार' या 'पंच कक्के कहलाती है।
भक्ति आंदोलन एक धार्मिक आंदोलन मात्र ही नहीं था बल्कि उसका प्रभाव समाज के विचारों पर भी पड़ा। आरंभ के भक्ति संप्रदाय के संतो, जैसे तमिल देश के भक्त संतों और बंगाल के चैतन्य जैसे महात्मा ने मुख्य रूप से धर्म भावना से ही अपना संबंध रखा परंतु कबीर और विशेष रूप से नानक ने इस पर भी विचार किया कि समाज का संगठन किस प्रकार किया जाना चाहिए। उन्होंने समाज को जातियों में विभाजित किए जाने का विरोध किया। उन्होंने समाज में नारी को दिए गए निम्न स्थान को भी स्वीकार नहीं किया। उन्होंने स्त्रियों को पुरुषों के अनेक कार्य में सहयोग देने के लिए प्रोत्साहित किया। जब कबीर और नानक के शिष्य एकत्र होते तो उस समुदाय में स्त्रियों को भी सम्मिलित किया जाता था। मीराबाई ने भक्ति भावना से ओतप्रोत कुछ श्रेष्ठ पदों की रचना की। वह राजस्थान के एक राजवंश की थी। उन्होंने अपने वैभव और विलास के जीवन का परित्याग कर दिया और कृष्ण की भक्त हो गई।
भाषा और साहित्य
सारे देश के भक्त संतों ने क्षेत्रीय भाषाओं में उपदेश दिए जिससे कि साधारण लोग भी उनके उपदेशों को समझ सकें। सर्वसाधारण के बीच में जो भाषाएं बोली जाती थी वे हमारी वर्तमान भारतीय भाषाओं से बहुत मिलती-जुलती थीं। वास्तव में इन आरंभिक रूपों से ही हमारी वर्तमान भाषाओं का विकास हुआ। हिंदी के दो रूपों- ब्रज और अवधि का प्रयोग किया जाता था। उत्तर में पंजाबी, पश्चिम में गुजराती, पूर्व में बंगला, उत्तरी-पश्चिमी दक्षिण में मराठी, मैसूर के आसपास के क्षेत्र में कन्नड़ और आंध्र प्रदेश में तेलुगू भाषाओं का विकास हो रहा था। आंध्र प्रदेश के दक्षिण के क्षेत्र में तो तमिल कई शताब्दियों से बोली जा रही थी। इसी समय के आसपास उड़ीसा में उड़िया, आसाम में असमिया, सिंध में सिंधी और केरल में
मलयालम भाषाओं का विकास आरंभ हुआ। इनमें से कुछ भाषाएं अपभ्रंश और प्राकृत भाषाओं से विकसित हुई।
देश के बहुत से भागों में इस काल में फारसी राजभाषा रही। अतः बहुत-सी भारतीय भाषाओं पर फारसी का प्रभाव पड़ा और फारसी के बहुत से शब्द भारतीय भाषाओं में आ गए। हिंदी और फारसी के सम्मिश्रण से एक नई भाषा उर्दू बनी। 'उर्दू' का शाब्दिक अर्थ है 'शिविर'। विभिन्न मातृभाषाओं वाले सैनिक पारस्परिक वार्तालाप के लिए जिस भाषा का प्रयोग करते थे उसे उर्दू कहने लगे। उर्दू का व्याकरण हिंदी व्याकरण के समान ही था पर उसके शब्द फारसी, तुर्की और हिंदी भाषाओं से लिए गए थे। दक्षिण भारत में बोली जाने वाली उर्दू पर तमिल और मराठी भाषाओं का बड़ा प्रभाव था। धीरे-धीरे उर्दू भाषा का प्रयोग सामान्य रूप से नगरों में बहुत होने लगा। पश्चिमी समुद्र तट पर पश्चिमी एशिया के व्यापारी अरबी भाषा का प्रयोग करते थे। अरबी भाषा का प्रभाव भी भारत की स्थानीय भाषाओं पर पड़ा।
सीमित संख्या में कुछ विद्वान संस्कृत भाषा का भी प्रयोग करते थे। शैव और वैष्णव संप्रदाय के धार्मिक कर्मकांडों के अवसर पर तथा कुछ हिंदू राज्यों जैसे विजयनगर के उत्सव के अवसर पर राज दरबारों में संस्कृत भाषा का प्रयोग किया जाता था। यह भाषा उच्च शिक्षा का माध्यम थी। संस्कृत भाषा का बहुत-सा लोकप्रिय साहित्य जैसे पुराण, रामायण और महाभारत क्षेत्रीय भाषाओं में भी अनुवाद के रूप में उपलब्ध था। तमिल में कंबन और तेलुगु में पोथन के साहित्य को वे लोग पढ़ने लगे जो संस्कृत भाषा समझ सकते थे। संस्कृत ग्रंथों के अनुवाद अब केवल भारतीय भाषाओं में ही नहीं बल्कि फारसी और अरबी में भी मिलने लगे।
इस काल के साहित्य में केवल संस्कृत के ग्रंथों के अनुवाद ही नहीं मिलते बल्कि इस काल में बहुत से कवि और लेखक ऐसे भी हुए जिन्होंने विभिन्न भाषाओं में अनेक मौलिक ग्रंथ जैसे महाकाव्यों, गीत काव्यों और नाटकों की रचना की। तेलुगु के कवि श्रीनाथ ने शिव के सम्मान में 'हरविलास' जैसी अनेक कविताओं की रचना की। मलिक मोहम्मद जायसी ने हिंदी भाषा में 'पद्मावत' नाम का प्रसिद्ध महाकाव्य लिखा। इसी प्रकार विद्यापति के मैथिली भाषा में लिखे पद भी बहुत प्रसिद्ध हुए। कुछ कवियों और लेखकों की रचनाओं पर फारसी के साहित्य का प्रभाव पड़ा। उदाहरण के लिए अमिर खुसरो ने अपना बहुत-सा साहित्य फारसी भाषा में लिखा पर उसके साहित्य के विषय भारतीय हैं और उनमें खुसरो ने भारत के प्रति अपना प्रेम और अपने भारतीय होने का गर्व प्रकट किया है।
वास्तुकला
फारस और मध्य एशिया से तुर्क और अफगान अपने साथ वास्तुकला की नई शैलियां और तकनीकी भी लाए। इन शैलियों का प्राचीन भारतीय शैलियों से सम्मिश्रण हुआ और वास्तुकला के नवीन रूपों का विकास हुआ। इस काल की वास्तुकला की दो महत्वपूर्ण विशेषताएं नुकीले महाराब और गुंबद थे। इनको इस काल में बहुत अधिक प्रयोग किया जाने लगा। नुकीले महाराब को संभालने के लिए किसी धरन का प्रयोग नहीं किया जाता था बल्कि पत्थरों को तिरछा सटाकर महाराब की नोक बनाई जाती थी। गुंबद अर्धवृत्ताकार खोखली छत से ढका हुआ विस्तृत क्षेत्र होता था। ये दोनों रूप उच्च गणित और इंजीनियरिंग के कौशल पर आधारित थे। तुर्कों के आने के पूर्व भारतीय वास्तुकला में इस प्रकार के ज्ञान और कौशल के अधिक प्रयोग नहीं किए गए यद्यपि भारतीय शिल्पकार नुकीले मेहराबों को बनाना जानते थे। इसी कारण आरंभिक भवनों में केवल शिखरों और मीनारों के अतिरिक्त गुंबद नहीं होते थे। मेहराब भी दो सीधे खंभों पर एक धरन रखकर बनाई जाती थी। नई शैलियों के आ जाने पर मस्जिदों, राजमहलों, मकबरों और कुछ समय बाद निजी घरों के निर्माण में नुकीले महाराब और गुंबद दोनों का ही प्रचुरता से उपयोग किया जाने लगा। ऊंची सकरी मीनारों का निर्माण इस काल की दूसरी शैली थी जिसका प्रयोग बहुधा इमारतों के निर्माण में किया गया था।
इन इमारतों का रूप और आकार फारस और मध्य एशिया की इमारतों से मिलता-जुलता था किन्तु इनकी सजावट भारतीय थी क्योंकि भारतीय कारीगर उनको बनाते थे। वास्तु कला की दो शैलियों के एक दूसरे के संपर्क में आने से कुछ बहुत सुंदर इमारतों का निर्माण किया गया। मामलुक सुल्तानों के शासनकाल में बनी दिल्ली की कुतुब मीनार तथा उसके निकट की मस्जिद इन इमारतों में से सबसे पहले की है। दिल्ली के सुल्तान बड़ी शानशौकत से रहते थे और अपने रहने के लिए बड़े सुंदर राजमहल बनवाते थे। फिरोजशाह का दुर्ग फिरोजशाह कोटला इन सुंदर इमारतों का अच्छा उदाहरण है। इसी प्रकार का तुग़लकाबाद का किला भी है। प्राचीन समय में दिल्ली में बने लोदी सुल्तानों के मकबरे और भी अधिक सुंदर रहे होंगे। उनके गुंबदों की बाहरी सतह रंग-बिरंगे खपरैलों की डिजाइन से सजी हुई थी। इसमें बैंगनी, नीले, हरे, पीले और गुलाबी आदि अनेक हल्के और गहरे रंगों की चमक उन इमारतों को प्राप्त होती थी।
यह नई इमारतें केवल दिल्ली में ही नहीं बनवाई गई थी। भारत और फारस की शैलियों के सम्मिश्रण से इमारतों के निर्माण में अनेक नए प्रयोग हुए। प्रांतीय राजवंशों ने भी अपनी राजधानी और दुर्गों को सुंदर इमारतों से सुशोभित किया। जौनपुर के शकरी के शासकों ने उस नगर में सुंदर मस्जिदें बनवाई। गुजरात के शासक अहमदशाह ने अहमदाबाद का निर्माण कराया जो अपने समय के भारत के सर्वश्रेष्ठ नगरों में से एक था। मालवा के शासक ने मांडू की पहाड़ियों पर अपने सुंदर राजमहल बनवाएं। इस क्षेत्र की प्रायः सभी इमारतें पत्थर की बनी हुई है क्योंकि इस क्षेत्र में पत्थर बड़ी आसानी से मिल जाता था। पर बंगाल के गौड़ और पांडुआ के राजमहलों के बनवाने में ईंटों का प्रयोग किया गया। सारे पूर्वी भारत में पत्थर आसानी से नहीं प्राप्त होता। कश्मीर में भवन-निर्माण में मध्य एशिया की शैली अपनाई गई और वहां लकड़ी की इमारतें बनाई गई। जहां कहीं व्यापार की उन्नति हुई और देश धनी हुआ राजाओं और सरदारों ने नई इमारतें बनवाई।
बहमनी राज्य के शासकों ने वास्तुकला के क्षेत्र में दिल्ली के सुल्तानों के साथ प्रतिद्वंद्विता की। गुलबर्गा और बीदर की राजधानियां अपनी सुंदर इमारतों पर गर्व करती थी। इनमें से कुछ के निर्माण में पुरानी शैली का अनुसरण हुआ। कुछ इमारतें जैसे गुलबर्गा की जामा मस्जिद और बीदर का मदरसा फारस की शैली में बनाए गए। बीजापुर का गोल गुंबद और बीजापुर के बादशाहों में से एक का मकबरा इन इमारतों में संभवत सबसे प्रसिद्ध इमारतें हैं। कहा जाता है कि इस इमारत का गुंबद संसार के सबसे बड़े गुंबदों में से एक है। दक्षिण के शासक अपने किलो के अंदर भी शानदार इमारतें बनवाते थे दौलताबाद और गोलकुंडा के किले इसके उदाहरण हैं।
सुधर दक्षिण में विजयनगर के शासकों ने मंदिरों के निर्माण के लिए बहुत सा-धन दिया। दुआर्ते बारबारोसा नुनेज तथा पेइस जैसे विदेशी व्यापारियों और यात्रियों ने हंपी नगर के ऐश्वर्य-वैभव का बड़े सुंदर शब्दों में वर्णन किया है। विजयनगर के राजाओं ने चोल राजाओं के बनवाए मंदिरों की मरम्मत और पुनर्निर्माण में बहुत सा-धन व्यय किया। विजयनगर काल के भवन-निर्माण का कार्य वहीं की इमारतों की सजावट और नक्काशी में देखा जा सकता है।मदुरई के पांड्य वंश के शासकों के संबंध में भी यही सब है।
चित्रकला और संगीत
बारीक लघु चित्रों के बनाने की प्राचीन कला जारी रही। कलाकार इस काल में शासकों और दरबारियों की पुस्तकों को चित्रों से सजाने में लगे हुए थे। अतः वे राज्याश्रम में रहने लगे थे। कभी-कभी वे अपने आश्रय देने वाले राजाओं के चित्र बनाते थे और कभी-कभी केवल पुस्तकों की वर्णित घटनाओं का चित्रण करते थे।
नए रूपों के समावेश से संगीत कला की भी उन्नति हुई। फारस और अरब की संगीत शैलियों का प्रभाव उस काल में विकसित होने वाले भारत के संगीत पर पड़ा। सितार, सारंगी और तबला जैसे वाद्य यंत्र इस समय बड़े लोकप्रिय हो गए। कुछ सूफी संतों ने संगीत में विशेष रुचि दिखलाई। इससे संगीत के नवीन रूपों को लोकप्रिय होने में बड़ी सहायता मिली।
तुर्कों और अफ़गानों के आने से जीवन यापन की शैली में बहुत से नए प्रयोग किए गए। इन प्रयोगों के परिणाम स्वरूप नए धार्मिक आंदोलनों, भाषाओं तथा चित्रकला, वास्तुकला एवं संगीतकला की सुंदर नवीन शैलियों का विकास हुआ।