Vaidikalaya

अध्याय- १ - भारत और संसार


इतिहास में मध्यकाल अथवा मध्ययुग शब्द का प्रयोग उस काल के लिए किया जाता है जो प्राचीन काल और आधुनिक काल के बीच का युग है। हम कैसे जान सकते हैं कि कब प्राचीन काल समाप्त होता है और कब मध्यकाल का आरंभ होता है? हमने ईसा की आठवीं शताब्दी को मध्यकाल का आरंभ तथा अठारहवीं शताब्दी को उसका अंत मान लिया है। ऐसा क्यों? जब तुम इस पुस्तक को पढ़ोगे, तुम देखोगे की आठवीं शताब्दी के आसपास भारत के सामाजिक जीवन में बहुत से परिवर्तन हो रहे थे। इन परिवर्तनों ने भारत के इस काल के सामाजिक जीवन के अनेक पक्षों को प्रभावित किया था। जीवन के राजनीतिक और आर्थिक पक्षों पर उनका प्रभाव पड़ा। सामाजिक नियम, धर्म, भाषा, कला-थोड़े में हम कह सकते हैं कि जीवन के सभी क्षेत्रों को इन परिवर्तनों ने प्रभावित किया। इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत के इतिहास का एक नया युग आरंभ हुआ। हम कह सकते हैं कि ये परिवर्तन आठवीं शताब्दी के आसपास हुए। इसलिए हमने आठवीं शताब्दी को मध्य काल का प्रारंभ माना है। 


         जिस प्रकार एक व्यक्ति एक वर्ष में अचानक नहीं बदल जाता उसी प्रकार समाज भी अल्प समय में नहीं बदलता। उसके बदलने में समय लगता है। नए विचारों से समाज के सभी व्यक्ति एक साथ प्रभावित नहीं होते। यों तो भारत के इतिहास में कुछ परिवर्तन आठवीं शताब्दी से भी पहले आरंभ हो गए थे पर देश के कुछ भागों में उनका प्रभाव कुछ समय बाद ही अनुभव किया गया। इसलिए सामान्य दृष्टि से देखते हुए हम कह सकते हैं कि नए विचारों का बीजारोपण आठवीं शताब्दी में हुआ। इसी प्रकार मुगल साम्राज्य के पतन और अंग्रेजों के आने के समय अठारहवीं शताब्दी में भी परिवर्तन हुए। इसी कारण हम मध्य काल का अंत किस शताब्दी में मानते हैं।


मध्यकालीन भारत का इतिहास प्राचीन भारत के इतिहास से अनेक प्रकार से भिन्न है क्योंकि हम मध्यकाल की घटनाओं से अधिक परिचित हैं। भारत में बोली जाने वाली वर्तमान काल की सभी भाषाओं का विकास इसी काल में हुआ। आज प्रयोग में आने वाले खाद्य पदार्थ एवं वस्त्र इसी कारण से लोकप्रिय हुए। हम लोगों में प्रचलित अनेक धार्मिक विश्वासों का विकास भी इसी काल में हुआ। प्राचीन भारत की अपेक्षा हमको मध्यकालीन भारत की अधिक जानकारी प्राप्त है अतः इसके संबंध में हमारा ज्ञान भी अधिक है। मध्यकाल हमारे अधिक निकट है अतः इस काल का इतिहास जानने के लिए अनेक साधन मिलते हैं और हमारे सामने इस काल का चित्र अधिक स्पष्ट आता है।


तुम्हें स्मरण होगा कि प्राचीन काल के इतिहास की सामग्री हमको दो प्रमुख साधनों से प्राप्त हुई। पहला साहित्यिक और दूसरा पुरातत्त्वीय। मध्य काल के संबंध में भी यही सत्य है। मध्यकाल के आरंभिक भाग अर्थात आठवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक की अनेक सूचनाएं हमको अभिलेखों से प्राप्त होती हैं। यह लेख या तो ताम्रपत्रो पर लिखे गए थे या शिलाओ पर और ये सारे भारत के गांवों और मंदिरों में बहुत बड़ी संख्या में मिलते हैं। यह आश्चर्य की बात नहीं कि इन अभिलेखों का अध्ययन इस काल में इतिहास जानने का एक मुख्य साधन बन गया है।


मध्य काल के इतिहास को जानने के लिए विभिन्न प्रकार के साहित्यिक साधन भी प्राप्त हैं। यह साहित्य आरंभ में ताड़ पत्रों और भोज पत्रों पर लिखा गया था। पर तेरहवीं शताब्दी से कागज पर लिखा जाने लगा। इन पुस्तकों में से अनेक अब तक मौजूद हैं। इनमें से कुछ में राजाओं के जीवन और राजवंशों द्वारा किए गए कार्यों का विस्तार से वर्णन किया गया है।कुछ में प्राचीन संस्मरण हैं और कुछ में आत्मचरित्र के रूप में शासकों के जीवन के वर्णन है जैसे; बाबर और जहांगीर के संस्मरण। इस काल में भारत की यात्रा करने वाले विदेशी यात्रियों के यात्रा-वर्णन भी मिलते हैं। कुछ धार्मिक कथा साहित्यिक ग्रंथ भी हैं जिनमें से अनेक छोटे-छोटे चित्रों से जिनको लघु-चित्र कहते हैं, सजे हुए हैं। इस काल के इतिहास के अध्ययन को सरल बनाने के लिए इस को दो भागों में बांट दिया गया है। आठवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक के काल को पूर्व मध्यकाल कहते हैं। इसके अंतर्गत प्रतिहार, पाल और राष्ट्रकूट राजाओं के शासनकाल, उनके द्वारा कन्नौज के लिए किए गए पारस्परिक संघर्ष तथा उत्तर भारत के राजपूत राज्यों और दक्षिण भारत के चोल साम्राज्य का इतिहास आता हैं। तेरहवीं शताब्दी के बाद के काल को उत्तर मध्यकाल कहते हैं जिसके अंतर्गत दिल्ली के सुल्तानों, बहमनी और विजयनगर के राज्यों और मुगल साम्राज्य का इतिहास आता है।


पूर्व मध्यकाल में भारतीय समाज में जो परिवर्तन हुए उनके विकास के कारण प्राचीन प्रणाली में निहित थे। इस पर इतिहास की पुस्तक 'प्राचीन भारत' में विचार किया जा चुका है। उत्तर मध्यकाल में ये परिवर्तन समाज के द्वारा इस प्रकार स्वीकार कर लिए गए कि उनमें कुछ नवीनता ही न‌ रही। अब कुछ और नवीन विचार एवं परिवर्तन समाज में आए जो भारत के बाहर से नवीन राजवंशों द्वारा लाए गए। ये राजवंश उस समय इस विशाल देश के कुछ भागों पर शासन कर रहे थे। प्रमुख रूप से यह शासक तुर्क, अफगान तथा मुगल थे जो भारतवर्ष में आकर बस गए थे। जो विचार ये अपने साथ लाए उनमें भारतीय समाज में कोई मूल परिवर्तन नहीं हुआ परंतु उनसे भारतीय संस्कृति और अधिक समृद्ध बन गई। इसलिए बावजूद इस बात के कि इस देश की तेरहवीं शताब्दी के बाद के शासक प्रायः विदेशी ही थे हम इसको भारतीय इतिहास का मध्य युग कहते हैं। केवल शासकों के अदल-बदल जाने से साधारणतया सामाजिक जीवन में परिवर्तन नहीं होते। पूर्व मध्यकाल में तुर्क और मुगल भारतीयों पर शासन करते हुए भी उन्हीं की तरह जीवन व्यतीत करते थे। तुर्को और मुगलों ने भारत को अपना देश बना लिया और वे स्वयं भारतीय समाज के अंग बन गए।


     इस काल में विदेशियों के भारत में आने के कारण भारत का बाहरी संसार से घनिष्ठ संबंध स्थापित हो गया। भारत में विदेशियों के आगमन को समझने के लिए यह जानना आवश्यक हो जाता है कि इस समय पश्चिम एशिया, यूरोप, मध्य एशिया, चीन और दक्षिण-पूर्वी एशिया में किस प्रकार घटनाएं हो रही थी।

जैसा कि हमने पहली पुस्तक में देखा है, ईसा की सातवीं शताब्दी में अरब में एक बड़ी महत्वपूर्ण घटना हुई थी। पैगंबर मुहम्मद ने एक नवीन धर्म इस्लाम का उपदेश दिया। इससे अरब जातियों का संगठन हुआ और शीघ्र ही उनका राजनैतिक समूह बन गया। उन्होंने पश्चिम एशिया के अनेक भागों जैसे जॉर्डन, सीरिया, इराक, तुर्की, फारस, सिंध और मिस्र आदि को भी जीत लिया। पैगंबर की मृत्यु के पश्चात् अरब जातियों पर एक के बाद एक कई ख़लीफा शासन करते रहे (ख़लीफा का शाब्दिक अर्थ है उत्तराधिकारी अथवा प्रतिनिधि शासक) पहले चार ख़लीफा हजरत मुहम्मद के साथी थे। उसके बाद उमैययदों का शासनकाल आया। ये दमिश्क से शासन करते थे। उमैययदों के बाद अब्बासी वंश के शासकों ने बग़दाद से शासन किया। हारून-उल-रशीद जिनका दरबार सारे संसार में प्रसिद्ध था, बग़दाद के ख़लीफा थे।


धीरे-धीरे अरबों ने अन्य प्रदेश, विशेष रूप से उत्तरी अफ्रीका के क्षेत्र जीत लिए। शीघ्र ही वे स्पेन पहुंच गए और फ्रांस की ओर बढ़े किंतु फ्रांस के दक्षिण में रोक दिए गए। अरबों का उद्देश्य केवल विजय प्राप्त करना ही नहीं था। वे अपने साम्राज्य के अंदर व्यापार पर अधिकार करके उसको प्रोत्साहित भी करते थे। शीघ्र ही अरब लोग संसार के विभिन्न भागों-भारत, चीन, यूरोप तथा पूर्व और पश्चिम अफ्रीका से व्यापार करने लगे। इस व्यापार से अरब लोग धनवान हो गए और उन्होंने एक नवीन सभ्यता के विकास में अपने धन का उपयोग किया। इस काल में  यूनान, फारस, चीन तथा भारत की विद्या में विशेष रूचि दिखलाई और अपने विद्या-केंद्रों में उसका और अधिक विकास किया। इस युग में अरब सभ्यता संसार की सबसे विकसित सभ्यताओं में से थी।


 इस समृद्धि और सांस्कृतिक विकास के बीच अरब निवासियों को दो दलों से युद्ध करने की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। पहला समूह था यूरोप-निवासियों का और दूसरा मंगोलों का। रोमन साम्राज्य के पतन के साथ यूरोप की शक्ति का ह्रास हो चुका था। रोम के ऊपर हूण (उसी जाति की एक शाखा जिस ने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण किया था) गाथ, वैंडल्स आदि जातियों के लगातार आक्रमण होते रहे और सन् ५०० ई० के लगभग रोमन साम्राज्य का अंत हो गया। इसके परिणामस्वरूप यूरोप को बड़ी हानि हुई। पांचवी से लेकर ग्यारहवीं शताब्दी का समय यूरोप के इतिहास का अंधकार काल कहा जाता है। लगातार युद्ध के कारण यूरोप में राजनैतिक सुरक्षा नहीं थी, नियम और कानून की कोई व्यवस्था नहीं थी और विशेष रूप से किसानों का कभी-कभी अनाज भी लूट लिया जाता था। व्यापार की अवनति हुई जिसके परिणामस्वरूप यूरोप के बड़े-बड़े नगरों का भी पतन हो गया। ज्ञान का महत्व बहुत घट गया क्योंकि साधारण व्यक्तियों को शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा नहीं रही। ज्ञानाजंन केवल धार्मिक केंद्रों, मठों और गिरजाघरों तक सीमित रह गया। इस काल में जिस संस्कृतिक जीवन का विकास हुआ वह केवल ईसाई धर्म से संबंधित था। ईसाई पादरी सारे महाद्वीप में यात्रा करते थे और लोगों को ईसाई बनाते थे। फलतः ईसाई धर्म लोकप्रिय होता गया। जर्मनी के कुछ राजाओं ने ईसाई धर्म के प्रचार में उत्साह दिखाया और दसवीं शताब्दी ईसवी में जर्मनी, इटली तथा कुछ अन्य क्षेत्रों को मिलाकर एक साम्राज्य की स्थापना की गई जो पवित्र रोम साम्राज्य कहलाया।


 यूरोप के अंधकार युग का दूसरा प्रमुख परिवर्तन सामंतवादी व्यवस्था (फ्यूडलिज्म) की उत्पत्ति थी। फ्यूडलिज्म (Feudalism) शब्द लैटिन भाषा के फ्यूडम (Feudum) शब्द से बना है जिसका अर्थ है" जमीन का एक टुकड़ा जो किसी सेवा के बदले दिया गया हो।" राजा अफसरों को नगद वेतन के बदले जमीन देता था। जमीन उन अन्य लोगों को भी दी जाती थी जिनको राजा पुरस्कृत करना चाहता था। इसलिए किसानों को, जमींदारों या अन्य व्यक्तियों के लिए जिन्हें जमीन दे दी जाती थी और जो सामंत कहलाते थे काम करना पड़ता था। सामंत का कर्तव्य राजा के लिए सैनिक एकत्र करना था। बहुत से किसान मजदूर होते थे और उनको सामंत की भूमि पर काम करना पड़ता था। किसान ना गुलाम होते थे और ना उन पर जमींदार का अधिकार होता था पर कभी-कभी उनके साथ बड़ा बुरा व्यवहार किया जाता था। सामंती व्यवस्था की सारी सुविधाएं इन जमींदारों को ही प्राप्त थी। भूमि पर किसान कठिन परिश्रम करते थे पर धन का समान वितरण नहीं था। जमींदार और राजा धन का अधिकांश भाग ले लेते थे और विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। किसान गरीब ही बने रहे।


 अंधकार युग में यूरोप का अरब जगत से संबंध टूट गया पर बाद में यूरोप के लोग अरब देशों में रुचि लेने लगे। यूरोप के निवासियों में यह रूचि धर्म और व्यापार के कारण उत्पन्न हुई। व्यापार के कारण अरब लोग धनवान हो गए थे। इस कारण यूरोप के कुछ व्यापारी भी इस व्यापार में भाग लेना चाहते थे। यूरोप के नए बने ईसाई इस्लाम धर्म के प्रचार के कारण चिंतित थे। इस कारण अनेक धर्मयुद्ध संगठित किए गए। इन धर्म युद्धों को क्रूसेड कहते हैं। इन युद्ध में यूरोप के राजा और वीर सरदार अपनी-अपनी सेनाएं लेकर पूर्वी भूमध्य सागरीय प्रदेशों में मुसलमानों से लड़ने जाते थे। इन्हें धर्म युद्धों में भूमि प्राप्त करने में सफलता नहीं मिली पर इन युद्ध से यूरोप-निवासी अरब-निवासियों के अधिक निकट संपर्क में आए और वे अरब व्यापार में भाग लेने लगे। यूरोप के लोग अरबविद्याओं में भी रुचि लेने लगे। पंन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी के यूरोप में विद्या का विकास करने में अरब-निवासियों के ज्ञान का महत्वपूर्ण हाथ है।


    नवीं शताब्दी में अब्बासी ख़लीफाओं की शक्ति घट गई। उनका राज्य क्षेत्र जो प्रांतों में विभाजित था, उनके नियंत्रण में न रहा और सभी प्रांत स्वतंत्र हो गए (उन प्रांतों में राज़नी और गौर के प्रांत भी थे)। सलजुक तुर्क जो मध्य एशिया में शक्तिशाली थे, पश्चिम की ओर बढ़े और उन्होंने इनमें से कुछ प्रांतों पर अपना शासन स्थापित कर लिया। ग्यारहवीं शताब्दी तक सलजुक तुर्क पश्चिम एशिया में शक्तिशाली बन रहे थे और अपने शासन की स्थापना कर रहे थे। उन्होंने फारस, इराक, सीरिया और बैंज़टाइन साम्राज्य पर आक्रमण किया और शीघ्र ही उस क्षेत्र में बस गए। बैंज़टाइन साम्राज्य की राजधानी कुस्तुनतुनिया (आधुनिक इस्तंबोल) थी और किसी समय वह साम्राज्य वैभव और विस्तार में रोम साम्राज्य का प्रतिद्वंदी था। बैंज़टाइन सभ्यता प्राचीन यूनानी सभ्यता की नींव पर खड़ी हुई थी। पूर्वी भूमध्यसागर, रूस तथा स्कैंडिनेविया के व्यापार पर उसका अधिकार था और चीन से लेकर फारस तक मध्यएशिया से होकर आने वाले व्यापारियों के व्यापार में भी यह साम्राज्य भाग लेता था और इसी कारण यह वैभव-संपन्न बनता जा रहा था।‌ तेरहवीं शताब्दी में चंगेज खा़ॅ के नेतृत्व में मध्य एशिया के मंगोलों ने फिर बैंज़टाइन पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण ने पश्चिम एशिया में सलजुक तुर्की को कमजोर कर दिया। इससे केवल आटोमन तुर्क ही बच सके जो अनातूलिया में बस गए थे जिनको १४५३ ई० में कुस्तुनतुनिया को विजय करने में सफलता मिली। पश्चिम एशिया के इस भाग पर वे अपना अधिकार जमाए रहे।


      इस बीच में मंगोलों की शक्ति बढ़ी और उन्होंने पश्चिम एशिया और दक्षिण रूस से लेकर मध्य एशिया के उस पार चीन तक  के क्षेत्र पर अपना अधिकार जमा लिया। तेरहवीं शताब्दी के मध्य से लेकर चौदहवीं शताब्दी के मध्य तक मंगोल चीन पर शासन करते रहे। सातवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक टाॅग और सुंग वंशों के शासन काल में चीन भी वैभवशाली और शक्तिशाली देश रहा था। इससे चीन पर विजय प्राप्त करके मंगोलों ने अपनी राजनैतिक शक्ति भी बढ़ा ली और वह धनवान भी हो गए। इस समय मध्य एशिया के क्षेत्र का महत्व बढ़ गया था क्योंकि चीन और पश्चिम एशिया का व्यापार इसी क्षेत्र द्वारा हो रहा था। व्यापार करने वाले काफिले (कारवां) जिस मार्ग से होकर जाते थे उसको रेशम का मार्ग कहते थे क्योंकि चीन का रेशम व्यापार की महत्वपूर्ण वस्तु थी। इसके अतिरिक्त चीन के नवीन आविष्कार भी अन्य वस्तुओं के साथ पश्चिम एशिया में आए। बारूद, कागज और कंपास (कुतुबनुमा) बनाने की तथा छापने की कला आदि सब चीन से यूरोप पहुंचे। इसलिए व्यापार के कारण मध्य एशिया के क्षेत्र पर अपना अधिकार रखना बहुत महत्वपूर्ण हो गया था। मंगोलों ने इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लिया इसलिए उन्होंने चीन के कुछ भागों और मध्य एशिया में रहने वाली जातियों को इस्लाम धर्म को मानने वाला बना लिया।


      चीन के व्यापार में केवल रेशम के मार्ग का ही प्रयोग नहीं किया जाता था बल्कि चीन के व्यापारी जहाजों से भी अपना सामान ले जाते थे। यह जहाज कैंटन अमाॅय तथा दक्षिण चीन के अन्य बंदरगाहों से चलते थे। इनमें से कुछ जहाज भारत और पूर्वी अफ्रीका तक की यात्रा करते थे और अन्य दक्षिणी-पूर्वी एशिया के बंदरगाहों में रुक जाते थे। अनाम, लाओस, कंबोडिया, जावा-सुमात्रा और मलाया जैसे देशों में चीन और भारत के व्यापारियों में प्रतिद्वंदिता चलती थी। यह व्यापारी केवल सामग्री ही नहीं अपने साथ अपने-अपने देश की सभ्यता और संस्कृति भी लाते थे। चौदहवीं शताब्दी में अरब के व्यापारियों ने भी दक्षिण-पूर्वी एशिया में अपने पैर जमा लिए थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि मध्य काल में संपूर्ण संसार के विभिन्न देश एक दूसरे के निकट आ रहे थे। व्यापार के द्वारा विभिन्न क्षेत्रों के लोगों का पारस्परिक संपर्क स्थापित हो रहा था। अब कोई देश अकेला नहीं रह सकता था। 


      भारत भी इन सब घटनाओं के बीच में खींच आया। भारत का अरब और चीन के साथ संबंध व्यापार के माध्यम से ही स्थापित हुआ। मध्य एशिया के तुर्को और मुगलों ने इस व्यापार को प्रोत्साहित किया। कुछ समय बाद वे भी भारत में विजय बनकर आए। उनका भारत में आना यूरोप-निवासियों के आने की तरह ही था जो पहले व्यापारी बनकर आए और फिर शासक बन गए। 

      पूर्व मध्यकाल में उत्तर भारत अनेक राज्यों में बटा हुआ था। ये राज्य प्रायः एक दूसरे से लड़ा करते थे। दक्षिण भारत में इस काल में शक्तिशाली चोल राजाओं का शासन था। उन्होंने दक्षिण भारत के विस्तृत क्षेत्र को जीत लिया और उनकी सेनाएं उत्तर भारत में गंगा नदी तक आ गई। वे लोग बड़े धनवान थे क्योंकि दक्षिण भारत के व्यापारी इस समय दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों और चीन के साथ व्यापार करते थे। उनका धन बहुत बड़ी मात्रा में उन सुन्दर मन्दिरो के निर्माण करने में व्यय होता था जो ज्ञानार्जन के केन्द्र भी थे। इस समय वहां ऐसे विचारक और दार्शनिक विद्यमान थे। जिनकी शिक्षा और उपदेशों ने संपूर्ण भारतीय विचारधारा को प्रभावित किया। दक्षिण भारत में ही मध्यकाल में भारतीय सभ्यता और संस्कृति और भी अधिक संपन्न होकर विकसित हुई।