Vaidikalaya

अध्याय ९ - मुगल साम्राज्य का पतन


जैसा कि प्रायः होता आया है, सन् १७०७ ई० में औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात उत्तराधिकार का युद्ध आरंभ हुआ। उसके तीन पुत्र जीवित थे जिन्होंने सिंहासन के लिए परस्पर युद्ध किया। जो विजय हुआ उसने बहादुरशाह की पदवी धारण करके सन् १७०७ ई० में  शासन करना आरंभ किया। चार वर्षों का उसका छोटा-सा शासनकाल कठिनाइयों से पूर्ण था। बहादुरशाह ने राजपूतों पर अपना अधिकार स्थापित करने का प्रयत्न किया। राजपूतों ने विद्रोह कर दिया। इस बीच में सिक्खों ने भी विद्रोह कर दिया। इस कारण बहादुरशाह राजपूतों के विरुद्ध कुछ न कर सका। मराठे इस समय परस्पर युद्ध में लगे हुए थे अतः वे मुगल साम्राज्य के सामने कोई गंभीर समस्या प्रस्तुत करने के योग्य नहीं थे। यो वे समय-समय पर आक्रमण करते रहे। मराठा राजा शाहू ने मुगल दरबार में एक मनसब स्वीकार कर लिया था। 


एक बार फिर उत्तराधिकार का युद्ध सन् 1712 ई० में बहादुरशाह की मृत्यु हो जाने पर उसके पुत्रों के बीच आरंभ हुआ। बहुत से शक्तिहीन शासक हुए जिन्होंने थोड़े-थोड़े काल तक शासन किया। इसके बाद मुहम्मदशाह ने फिर साम्राज्य को संगठित करने का प्रयत्न किया। पर साम्राज्य का विघटन पहले ही आरंभ हो गया था। बंदा ने सिक्ख विद्रोह का नेतृत्व किया। उसने पहले ही पंजाब में अपना स्वतंत्र साम्राज्य स्थापित करने का निश्चय कर लिया था। यद्यपि अपने इस उद्देश्य में वह सफल नहीं हुआ फिर भी मुगलों को परेशान करने में वह सफल रहा। ब्राह्मण मंत्री पेशवाओं की नई शासन-प्रणाली में मराठे फिर से अपना संगठन कर रहे थे। धीरे-धीरे वे उत्तर भारत की ओर अपना अधिकार बढ़ा रहे थे। रुहेलखंड में बसे हुए अफगान भी मुगल शासक के विरुद्ध विद्रोह कर रहे थे।


मुगल शासन के लिए सबसे बड़ी परेशानी की बात तो यह थी कि साम्राज्य में चारों और स्वतंत्र हो जाने की भावना फैल गई थी। उदाहरण के लिए हैदराबाद, बंगाल और अवध के महत्वपूर्ण प्रांतों के सूबेदारों ने अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिए थे।


मुगल शासकों के लिए जैसे अपनी ही परेशानी काफी न रही हो इसलिए उन पर उत्तर-पश्चिम से भी हमले किए जा रहे थे। इन आक्रमणों ने मुगल साम्राज्य की शक्ति बहुत कम कर दी। सबसे पहला आक्रमण सन् १७३९ ई० में ईरान के बादशाह नादिरशाह ने किया। उसने मुगलों से काबुल को पहले ही जीत लिया था। उसने उत्तर-पश्चिम से आक्रमण किया और दिल्ली नगर को तहस-नहस कर डाला। मुगल उसके सामने झुक गए। वे आशा करते थे कि नादिरशाह मनचाहा धन लेकर चला जाएगा। नादिरशाह की सेना ने नगर को बुरी तरह से लूटा और उसको खंडहर बना दिया। नादिरशाह शाहजहां का तख्ते ताऊस और कोहिनूर हीरा भी ईरान ले गया।


एक साहसी अफगान अहमदशाह अब्दाली ने नादिरशाह के चरण चिन्हों का अनुसरण किया। उसने पंजाब को जीत कर अपने अफगानिस्तान के राज्य में मिला लिया। इस बीच मराठे पेशवा के नेतृत्व में शक्ति संचय कर रहे थे और वे पहले पश्चिम भारत, फिर मध्य तथा उत्तर भारत में अपने राज्य का विस्तार करने लगे। अब मराठे सीधे मुगल साम्राज्य पर आक्रमण नहीं करते थे। वे शक्तिहीन मुगल सम्राटों को अपने वश में रखकर अपने अधिकार का विस्तार करना चाहते थे। पर इसी समय अहमदशाह अब्दाली से उनका संघर्ष हो गया और उनको उससे युद्ध करना पड़ा। अफ़गानों और मराठों के बीच में सन् १७६१ ई० में पानीपत का तीसरा युद्ध हुआ। मराठों की पराजय हुई और उनको उत्तर भारत से हटने के लिए बाध्य होना पड़ा। मुगल साम्राज्य अब दिल्ली के आसपास के क्षेत्र तक सीमित रह गया। मुगल सम्राट सन् १८५७ ई० तक केवल नाम के शासक बने रहे। अठारहवीं शताब्दी में वास्तविक राजनीतिक शक्ति न‌ए राज्यों के हाथ में थी।


यूरोपीय व्यापारी

अठारहवीं शताब्दी में मुगल राज्य का पतन हुआ और नए राज्य शक्तिशाली बन गए। इसी समय कुछ नए लोग भारत पर अपना अधिकार जमाने का प्रयत्न कर रहे थे ये लोग यूरोप के निवासी थे। इनको दो विशेष सुविधाएं प्राप्त थी। एक तो मुगल साम्राज्य के स्थान पर मराठों का राज्य तथा हैदराबाद, अवध और बंगाल जैसे बहुत से नए राज्य बन गए थे। यूरोप के लोगों के लिए अकबर अथवा औरंगजेब के समय के मुगल राज्य की संगठित शक्ति का सामना करने की अपेक्षा इन राज्यों से युद्ध करना अधिक सरल था। दूसरी सुविधाएं यह थी कि यह समुद्र के मार्ग से आए और वे सभी समुद्री लड़ाई में बड़े कुशल थे। मुगल शासकों ने समुद्री शक्ति के महत्व को कभी नहीं समझा इसलिए उनके पास वास्तव में एक अच्छा जहाजी बेड़ा भी नहीं रहा। इसलिए जब यूरोप के निवासी भारत के समुद्र तट के नगरों पर अधिकार करने लगे तो न तो उन्हें मुगल रोक सके न कोई अन्य राज्य। इसके साथ-साथ यूरोप के लोगों को अपने श्रेष्ठ तकनीकी ज्ञान का भी लाभ था।


यूरोप निवासियों ने किस प्रकार इन नगरों पर अधिकार किया और कैसे उन्होंने अपने को भारत में शक्तिशाली बना लिया? यह एक अलग कहानी है जिसको तुम आधुनिक भारत पर लिखी गई पुस्तक में पढ़ोगे। पर इस कहानी का आरंभ मुगल काल से ही हो जाता है। यूरोप निवासियों में भारत में सबसे पहले उपनिवेश बनाने वाले पुर्तगाली थे। हमने पहले अध्याय में देखा है कि किस प्रकार गोवा पर अपना अधिकार करके वह वहां बस गए।


बहुत दिनों तक यूरोप निवासियों में से केवल पुर्तगाली ही भारत के साथ व्यापार करते रहे। समुद्री क्षेत्र में अपनी बड़ी हुई शक्ति का उन्होंने फायदा उठाया। वह इस तरह की भारतीय तथा एशिया के अन्य देशों के व्यापारियों को व्यापार चलाने की आज्ञा प्रदान करने के लिए वे उनसे जबरदस्ती धन लेने लगे। ‌ इस प्रकार भारत के समुद्री व्यापार पर वे हावी हो गए। किंतु सत्रहवीं शताब्दी में यूरोपीय देशों में बहुत से अन्य व्यापारी भी भारत आए। यह व्यक्तिगत व्यापारियों की हैसियत से नहीं आए बल्कि उन्होंने अपना संगठन करके व्यापारिक कंपनियां बनाई। व्यापार से होने वाले लाभ-हानि को वे आपस में बांट लेते थे। यूरोप के लोगों के यहां आने के अनेक कारण थे। पहले तो यूरोप में भारतीय वस्तुओं की, विशेषकर वस्त्रों और मसालों की विशेष मांग थी। अरब व्यापारी इन वस्तुओं को यूरोप पहुंचाते थे और यूरोप के व्यापारियों के हाथ ऊंचे मूल्य में बेच देते थे। इसलिए यूरोप के व्यापारियों ने सीधे भारत में व्यापार करने का निश्चय किया। इससे भी अधिक महत्व इस बात का था कि यूरोप का व्यापारी-वर्ग बड़ा संपन्न हो गया था और व्यापारिक माल का उत्पादन भी बढ़ गया था। इसलिए व्यापारी नए-नए बाजार खोल रहे थे और ऐसे क्षेत्र भी खोज रहे थे जहां से उनको सस्ता, कच्चा माल प्राप्त हो सके। भारत के पश्चिमी तट पर आने वाले जहाज वापसी में भारत से रुई और नील ले जाते थे और दक्षिण में मालाबार से काली मिर्च और मसालों का निर्यात होता था। मद्रास के चारों ओर के केंद्रों से रुई और चीनी भेजी जाती थी। बंगाल से विशेष रूप से रेशम और शोरा का व्यापार होता था।


यूरोप की कंपनियां

यूरोप के एक छोटे से राज्य डेनमार्क ने डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी बनाकर भारत भेजी। उन्होंने पूर्वी समुद्र तट पर मद्रास के दक्षिण में ट्रैवीबार में एक फैक्ट्री बनाई। लेकिन इस कंपनी को अधिक सफलता नहीं मिली। हॉलैंड से भी एक कंपनी भारत से व्यापार करने आई इसका नाम 'यूनाइटेड ईस्ट इंडिया कंपनी ऑफ द नीदरलैंड्स' था। डेनमार्क की कंपनी की असफलता कुछ सीमा तक इस नई कंपनी की प्रतिद्वंद्विता के कारण थी। हालैंड के लोग एशिया में उन क्षेत्रों की खोज करते हुए आए जिनमें बहुत अधिक मसाले उत्पन्न होते थे। जावा और सुमात्रा में उनको ये क्षेत्र प्राप्त हो गए और वे मसाले का व्यापार करने लगे। अब उनको भारत से केवल इतनी ही दिलचस्पी रह गई कि यूरोप से दक्षिण-पूर्वी एशिया जाने वाले उनके जहाजों के लिए ठहरने को कुछ स्थान मिल जाए। इंग्लैंड के व्यापारी भी मसालों की खोज करते हुए यहां आए। जब इंग्लैंड के व्यापारियों ने दक्षिण-पूर्वी एशिया के मसालों के व्यापार पर अधिकार कर लिया तब अंग्रेज व्यापारी विशेष रूप से भारतीय वस्त्रों का व्यापार करने लगे। शीघ्र ही उनका भारत के साथ होने वाले यूरोपीय व्यापार के एक बड़े भाग पर अधिकार हो गया।


अंग्रेज भारत के व्यापार पर अधिकार प्राप्त करने के अनेक प्रयत्न कर रहे थे। जैसा कि हम देख चुके हैं उन्होंने केवल इसी उद्देश्य से जहांगीर के दरबार में अपना राजदूत भेजा। अंत में उनको सफलता मिली और उन्होंने सन् १६०० ई० में अपनी व्यापारिक कंपनी की स्थापना की। अंग्रेजों ने मछलीपट्टनम, सूरत, फोर्ट सैंट जॉर्ज और फोर्ट विलियम ने अपनी फैक्ट्रियां बनाई। अंतिम दो स्थान बाद में मद्रास और कलकत्ता के प्रसिद्ध नगर बन गए। पुर्तगाली राजकुमारी का इंग्लैंड के शासक चार्ल्स द्वितीय के साथ विवाह होने पर अंग्रेजों को पुर्तगालियों से दहेज के रूप में बंब‌ई प्राप्त हुआ। व्यापार और जहाजरानी की दृष्टि से सभी स्थानों की स्थिति बहुत अच्छी थी।


धीरे-धीरे हालैंड और पुर्तगाल के व्यापारियों को भारतीय व्यापार से बाहर निकाल देने में अंग्रेजी सफल हुए। पुर्तगाली भारत में लोकप्रिय नहीं रहे। इसके अतिरिक्त पुर्तगालियों और हॉलैंडवासियों की सामुद्रिक शक्ति की अपेक्षा अंग्रेजों की सामुद्रिक शक्ति अब बहुत बढ़ गई थी और इस बात से अंग्रेजों को भारतीय व्यापार पर अधिकार करने में बड़ी सहायता मिली। भारत से व्यापार करने वाली दो अंग्रेजी कंपनियां थी। इससे कुछ कठिनाइयां उत्पन्न हुई। सन् १७०३ ई० में ये दोनों कंपनियां मिलकर एक हो गई और उसका नाम 'दि यूनाइटेड कंपनी आफ मर्चेंट्स आफ इंग्लैंड ट्रेडिंग टू दि ईस्ट इंडीज' रखा गया। 


परंतु आगे चलकर भी अंग्रेजों को प्रतिद्वंदिता का सामना करना पड़ा। सन् १६६४ ई० में फ्रांस के लोगों ने भी भारत से व्यापार करने के लिए एक कंपनी बनाई। मद्रास के दक्षिण में फ्रांसीसी एक स्थान पर बस गए जो पांडिचेरी कहलाया। आश्चर्य है कि यह लगभग वही स्थान था जो ईसा की पहली शताब्दी में प्राचीन रोमन व्यापार का केंद्र अरिकमेदु था। अन्य यूरोपीय कंपनियों की अपेक्षा फ्रांसिसी अंग्रेजों के अधिक शक्तिशाली प्रतिद्वंदी थे। जैसा कि हम देखेंगे उन्हें अठारहवीं शताब्दी में बड़ी गंभीर प्रतिद्वंदिता चली। फ्रांसीसी और अंग्रेजी कंपनियां केवल भारतीय व्यापार पर ही अधिकार करने में सफल नहीं हुई अपितु वे अठारहवीं शताब्दी में स्थापित होने वाले नए राज्यों की राजनीति में भी दखल देने लगी।


मुगल साम्राज्य के पतन के कारण

अठारहवीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। पतन के कुछ कारण तो सत्रहवीं शताब्दी में ही जड़ पकड़ चुके थे। पर वास्तविक कमजोरियां अठारहवीं शताब्दी में दिखाई पड़ी। औरंगजेब के उत्तराधिकारी कमजोर शासक थे। वे साम्राज्य का पतन होने से रोक न सके। उनको अपनी प्रजा का सम्मान प्राप्त नहीं था। शासक के मरने के बाद हर बार उत्तराधिकार के लिए युद्ध होता था। इस प्रकार बहुत-सा धन और शक्ति नष्ट होती थी। जो शहजादा अंत में विजय होता था वह अपने अधिकारियों और दरबारियों से सशंकित रहता था। जब सम्राट कमजोर हो जाते थे, प्रांतीय गवर्नर शक्तिशाली बन जाते थे। जैसे कि हम देख चुके हैं हैदराबाद, अवध और बंगाल जैसे कुछ प्रांत इसी प्रकार स्वतंत्र हो गए।


मुगल साम्राज्य के पतन का दूसरा महत्वपूर्ण कारण आर्थिक कठिनाइयां थी। इस समय तक न तो पर्याप्त धन बचा था और ना जागीरें ही जो विभिन्न अधिकारियों को दी जा सकती थी। जमीदार असंतुष्ट थे क्योंकि उन पर शासन का कठोर नियंत्रण था। वह समझने लगे कि सरदार राज्य की आमदनी का बहुत बड़ा भाग स्वयं ले लेते हैं। अतः उनका सरदारों से संघर्ष आरंभ हो गया। एक अवसर पर जमीदारों के विरोध ने विद्रोह का रूप धारण कर लिया। लगान अदा करने के बाद किसानों के पास बहुत कम धन बचता था अतः वे अधिकाधिक गरीब होते गए। कभी-कभी किसान भी असंतुष्ट जमींदारों का साथ देते थे। मुगल इस समय बहुत-से युद्धों में फंसे हुए थे अतः उनको नियमित रूप से धन की आवश्यकता बनी रहती थी। औरंगजेब के दक्षिण के अभियान में मुगल आय निरंतर व्यय होती रही। मराठे और शिक्ख बराबर मुगलों को धमकी देते रहते थे अतः मुगलों की एक बड़ी सेना इन दोनों क्षेत्रों को अपने अधिकार में बनाए रखने में व्यस्त रहती थी।


लगान का कुछ भाग प्रशासन पर भी खर्च किया जाता था। मुगल प्रशासन अब इतना सक्षम नहीं रहा जितना अकबर के शासन-काल में था। मनसबदारी प्रथा के अनेक परिवर्तन हो गए थे। अब मनसबों की संख्या अकबर के काल से तीन गुना बढ़ गई थी। मनसबदार अब इतने ईमानदार नहीं रहे गए थे। ये जो लगान जमा करते थे उसका सही हिसाब नहीं रखते थे। वे बादशाह के लिए निश्चित संख्या में घुड़सवार भी नहीं रखते थे। वास्तव में कुछ ने तो इतना अधिक धोखा देना आरंभ कर दिया कि घोड़ों को संख्या दागना आवश्यक हो गया। अकबर ने अधिकारियों को एक प्रांत से दूसरे प्रांत को स्थानांतरित करते रहने पर अधिक बल दिया था। इससे वे किसी क्षेत्र में बहुत अधिक शक्तिशाली नहीं हो पाते थे। अठारहवीं शताब्दी में

अधिकारियों का प्रायः स्थानांतरण नहीं होता था जिससे उनमें से बहुत से अधिकारी छोटे स्थानीय शासकों का सा व्यवहार करने लगे।


मुगलों का सैनिक प्रशासन भी कमजोर हो गया था। अब उच्च अधिकारियों की संख्या का अनुपात बहुत बढ़ गया था। सेना की निपुणता भी अब पहले जैसी नहीं रह गई थी। किसी समय मुगल सेना अपने तोपखाने पर घमंड करती थी किंतु अब अन्य सेनाओं की तुलना में मुगल‌  तोपखाना टेक्नोलॉजी में बहुत पिछड़ गया था। बंदूकों और तोपों के उन नवीनतम नमूनों में मुगलों की अब कोई रुचि नहीं रह गई थी जिनका प्रयोग संसार के अन्य देशों में किया जा रहा था। भारतीय सैनिकों को प्रशिक्षित करने के स्थान पर वे विदेशियों को अपनी तोपों को चलाने के लिए नियुक्त करके संतुष्ट हो जाते थे। मुगलों ने नौसेना के विकास करने की ओर भी अधिक ध्यान नहीं दिया। उनको यूरोप के देशों के आक्रमण की कोई आशंका नहीं थी इसलिए उन्होंने यह नहीं सोचा कि एक शक्तिशाली नौसेना का निर्माण बड़ा उपयोगी हो सकता है। पुर्तगालियों और अंग्रेजो के द्वारा प्रयोग में लाए जाने वाले न‌ए ढंग के जहाजों को देखकर भी मुगलों के मन में उनके निर्माण का कोई उत्साह जागृत नहीं हुआ।


यूरोप में नवीन विज्ञान का विकास हो रहा था। वहां के विचारशील व्यक्ति नया ज्ञान प्राप्त करके नवीन अनुसंधान कर रहे थे। मुगलकालीन भारत इन नवीन खोजों की ओर से पूर्णतः उदासीन रहा। घड़ी जैसी महत्वपूर्ण उपयोगी यांत्रिक वस्तु की ओर भी उस समय के लोगों का ध्यान नहीं गया। अभिजात वर्ग के लोग और धनी व्यापारी अपने ऐश्वर्य, वैभव और विलासिता की वस्तुओं से इतने संतुष्ट थे कि ज्ञान के नवीन विकास में उनकी कोई रुचि नहीं थी।


विलासिता का जीवन मुगल कालीन भारत का दूसरा पक्ष था जिसमें व्यापार की आमदनी और भूमि के लगान से प्राप्त बहुत-सा धन व्यय हो जाता था। किसानों और कारीगरों को जितना ही कठिनाई का जीवन व्यतीत करना पड़ता था, शहरों के अभिजात वर्ग के लोग और व्यापारी उसने ही सुख का जीवन व्यतीत करते थे। चारों ओर से देश में धन आ रहा था इससे मुगल बड़ी शान-शौकत का जीवन व्यतीत करने लगे। घरेलू शान-शौकत, कीमती वस्तुओं के प्रयोग, मूल्यवान रत्न धारण करने और कवि, कलाकारों तथा संगीतकारों को संरक्षण देने में धनी लोग आपस में प्रतिद्वंद्विता करने लगे। कवियों, कलाकारों और संगीतकारों के संरक्षण से उनका जीवन अधिक आनंदमय हो गया। यह सारे कार्य वैभवशाली जीवन के प्रतीक बन गए और इन पर बड़ी मात्रा में धन व्यय होने लगा। इस विलासिता पूर्ण जीवन से अठारहवीं शताब्दी में देश का चारित्रिक और सामाजिक पतन हो गया। अभिजात कुलों के लोग अपना समय आलस्य और शराब पीने में नष्ट कर देते थे। अंत में जब साम्राज्य का पतन हो रहा था तब भी वह अपनी और साम्राज्य की रक्षा के लिए कुछ न कर सके। फिर भी सभी प्रांतीय दरबारों में इस प्रकार के आलसी और अयोग्य उच्च वर्ग के लोग नहीं थे। नवीन राज्यों के स्थानीय गवर्नर महत्वकांक्षी थे और उन्होंने अपने अधिकारियों को अनुशासन में रखने का प्रयत्न किया।


मुगल साम्राज्य का पतन हो गया और दिल्ली, जिसने कभी शाही शान देखी थी, एक अरक्षित कमजोर नगर बन गया। पर उस संस्कृति और जीवन के उन तरीकों का जो इस ऐश्वर्य‌-वैभव के अंग थे, पतन नहीं हुआ। सभ्यता और संस्कृति अब दिल्ली से उन प्रांतीय छोटे राज्यों में पहुंच गई जिनका उदय अठारहवीं शताब्दी में हुआ था। अठारहवीं शताब्दी के भारत का इतिहास इन्हीं राज्यों का इतिहास है। इन राज्यों में मुगल वैभव का अवशिष्ट अब भी देखा जा सकता था। इन राज्यों में घटित होने वाली घटनाओं ने ही भारत के भविष्य के इतिहास का निर्णय किया।