Vaidikalaya

अध्याय ८ - वैभव विलास का युग

अकबर का शासन काल मुगल वंश के लिए बड़ा महत्वपूर्ण था क्योंकि उसने बड़ी योग्यता से अपने साम्राज्य का संगठन किया और बड़े कौशल से उसको व्यवस्थित किया। इससे उसके उत्तराधिकारी जहांगीर और बाद के दो शासकों शाहजहां और औरंगजेब को अपना शासन आरंभ करने में अच्छी सुविधाएं मिली। इन तीनों शासकों के शासनकाल में साम्राज्य के क्षेत्र का विस्तार बढ़ा और उसके लगान में भी वृद्धि हुई। दरबार का जीवन बड़ा विलासिता पूर्ण रहा। न‌ए फैशन का आरंभ दरबार से ही होता था। केवल धनवान व्यक्ति ही समाज के नेता नहीं थे बल्कि विभिन्न बौद्धिक और सामाजिक रूचि वाले लोग भी थे। भारत में सत्रहवीं शताब्दी वास्तव में वैभव विलास का युग था।

जहांगीर

जैसा कि प्रायः सभी राज परिवारों के शहजादों के साथ होता था जहांगीर को भी युवावस्था में अवध और बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया गया जिससे कि उसको प्रशासन का कुछ अनुभव प्राप्त हो। सन् 1605 ई० में अकबर की मृत्यु के बाद जहांगीर बादशाह हुआ। जहांगीर अपने व्यक्तित्व में अपने पिता से बिल्कुल भिन्न था। अकबर की भांति वह भी धार्मिक और सामाजिक सुधारों में रुचि रखता था पर अपने पिता के भांति उसने धार्मिक समस्याओं का गंभीरता से अध्ययन नहीं किया। उसके पास अपने पिता के समान कुशाग्र बुद्धि भी न थी। किंतु वह साहित्य में रुचि रखता था और उसका अध्ययन अच्छा था। उसने अपने संस्मरण 'तुजुके जहांगीरी' स्वयं लिखे जिसमें उसकी सुंदर फारसी की शैली देखी जा सकती है। इन संस्मरणों में हमको जहांगीर का व्यक्तित्व भी देखने को मिलता है और उसके शासन काल के अनेक सूचनाएं भी। उसको चित्रकला का अच्छा ज्ञान था और उसको अपने दरबार के श्रेष्ठ चित्रकारों पर गर्व भी था।


सन् १६११ में जहांगीर ने नूरजहां से विवाह किया। वह एक सुंदर और बुद्धिमान स्त्री थी। उसने राज दरबार के लिए केवल फैशन और आचार-विचार ही नहीं निर्धारित किए बल्कि वह राज्य प्रशासन में भी रुचि रखती थी। जहांगीर बहुत समय तक बीमार रहा। इस बीच में उसने ही उसके कार्य को संभाला और साम्राज्य का प्रबंध चलाया। प्रत्येक महत्वपूर्ण कार्य में जहांगीर उसकी राय लिया करता था। अंत में वह इतनी शक्तिशाली हो गई कि राज्य के सिक्कों में जहांगीर के नाम के साथ उसका नाम भी लिखा जाने लगा।


बाद के मुगल शासकों के शासनकाल की तुलना में जहांगीर का शासनकाल सामान्यतः शांतिपूर्ण था। इस काल में अधिक युद्ध नहीं हुए। जहांगीर ने बंगाल पर मुगलों के अधिकार को शक्तिशाली बनाया। अकबर का मेवाड़ के महाराणा प्रताप से आरंभ में जो संघर्ष हुआ था उसको समाप्त कर दिया गया। जहांगीर ने राजपूतों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित करने की अपने पिता की नीति जारी रखी। उसने स्वयं अपना विवाह जोधाबाई और मानबाई जैसी राजपूत राजकुमारियों के साथ किया। उसने पंजाब की पहाड़ियों पर एक सेना भेजी और कांगड़ा को जीत लिया। अहमदनगर राज्य के साथ संघर्ष परेशानी का कारण बना हुआ था इस संघर्ष को समाप्त कर दिया गया। भारत के विभिन्न भागों पर किए गए इन आक्रमणों का परिणाम यह हुआ कि बहुत-से छोटे अफगान सरदारों को, जो मुगल शासन की अधीनता नहीं स्वीकार करते थे, ऐसा करने के लिए विवश कर दिया गया। इस प्रकार उसने साम्राज्य को शक्तिशाली बनाया।


पर जहांगीर की कठिनाइयों का अंत नहीं हुआ। अफगानिस्तान में कंधार के प्रांत को फारस के बादशाह ने जीत लिया। इससे साम्राज्य की गंभीर हानि हुई क्योंकि भारत के पश्चिमी एशिया के साथ व्यापार में कंधार नगर का बहुत बड़ा महत्व था। इसके अतिरिक्त जब तक कंधार मुगलों के अधिकार में था, वे पश्चिमी एशिया और मध्य एशिया में अपनी रक्षा अधिक अच्छी तरह कर सकते थे।‌ जहांगीर के सामने उसके पुत्र शाहजहां ने भी कठिनाई उत्पन्न में की। उसमें जहांगीर के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। शाहजहां को इस बात की चिंता हुई कि कहीं उसके भाइयों में से कोई दूसरा जहांगीर का उत्तराधिकारी न बना दिया जाए। इसलिए उसने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह करके यह सिद्ध करने का निश्चय किया कि वह सबसे अधिक शक्तिशाली है। जहांगीर को अपने पुत्र पर नियंत्रण रखने में बड़ी कठिनाई हुई। फिर कुछ कठिनाइयां पुर्तगालियों के द्वारा भी उपस्थित की गई। भारत के व्यापार में बड़ा लाभ प्राप्त करके भी पुर्तगाली संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने समुद्री डकैती आरंभ की और भी भारतीय जहाजों पर आक्रमण करने लगे। उन्होंने मुगल राज्य के एक जहाज पर आक्रमण कर दिया। इससे जहांगीर इतना अधिक नाराज हुआ कि जब तक पुर्तगालियों ने अपनी भूल को स्वीकार नहीं किया तब तक उसने मुगल राज्य के व्यापारियों के साथ उन्हें व्यापार करने की आज्ञा नहीं दी। 


इस समय तक अंग्रेजों ने भी भारत के साथ व्यापारिक संबंध स्थापित करने का प्रयत्न किया। पुर्तगालियों ने अंग्रेजों को इस क्षेत्र से दूर रखने का भरसक प्रयत्न किया क्योंकि दोनों एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या की भावना रखते थे। जहांगीर के शासनकाल में ही इंग्लैंड के बादशाह ने सर टॉमस रो को आगरा के दरबार में अपना राजदूत बनाकर भेजा। सर टॉमस ने जहांगीर के साथ एक व्यापारिक संधि करने का प्रयत्न किया पर जहांगीर इसके लिए राजी न हुआ। सर टॉमस तीन वर्ष तक आगरे में रहा। उसने मुगल दरबार के जीवन का बहुत सजीव वर्णन किया है।


जहांगीर को उसकी न्याय की जंजीर के लिए अभी स्मरण किया जाता है। वह चाहता था कि उसके अधिकारी प्रजा के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करें। उसने सोने की एक लंबी जंजीर बनवाई जिसमें घंटियां बंधी हुई थी और उसको राजमहल की दीवार से लटका दिया गया। उसने यह घोषणा की कि यदि किसी के साथ सरकार ने अन्याय पूर्ण व्यवहार किया हो तो वह इस जंजीर को खींचकर सरकारी अधिकारियों के विरुद्ध अपनी फरियाद सुना सकता है। यह विचार तो बहुत सुंदर था पर प्रश्न तो यह है कि कितने व्यक्तियों ने इस जंजीर को खींचकर किसी अधिकारी के विरुद्ध शिकायत करने का साहस किया होगा।


औरंगजेब

औरंगजेब ने अपने सभी भाइयों को सफलता के साथ पराजित किया और सन् १६५८ में सिंहासन पर अधिकार कर लिया उसने लगभग पचास वर्ष तक शासन किया। उसका शासनकाल कठिनाइयों से पूर्ण था। औरंगजेब के शासनकाल में मुगल साम्राज्य का सबसे अधिक विस्तार हुआ। वह लगभग संपूर्ण भारत पर शासन करता था। पर उसके समय में शासन प्रणाली में अनेक परिवर्तन हो गए थे। अकबर के समय की शासन प्रणाली अब नहीं रह गई थी। उसके साम्राज्य के अनेक भागों में लोगों ने विद्रोह किया इस कारण औरंगजेब की कठिनाइयां बढ़ गई। इन विद्रोह को दबाने में उसका बहुत-सा समय लग गया।

जैसा कि हम देख चुके हैं कि दक्षिण के बीजापुर और गोलकुंडा के राज्य वास्तव में कभी भी पूर्ण रूप से मुगल साम्राज्य के अंतर्गत नहीं रहे। औरंगजेब के शासनकाल तक ये राज्य शक्तिहीन हो गए। इस बीच मराठ शक्तिशाली होते जा रहे थे। अतः औरंगजेब को मराठों से गोलकुंडा और बीजापुर की रक्षा करने के लिए अपनी सेनाएं दक्षिण भेजनी पड़ी। मराठे दक्षिण में अपनी शक्ति का विस्तार कर रहे थे। अतः वहां की समस्याएं बहुत बढ़ गई थी।


मराठे

मराठे दक्षिण के राज्यों की अधीनता में रहने वाले छोटे सरदार थे। इनमें से अनेक दक्षिण के राज्यों के और मुगल साम्राज्य के भी अधिकारी थे। जब उन्होंने देखा कि मुगलों के उन राज्यों पर आक्रमण होने लगे तब उन्होंने उन राज्यों का साथ देना छोड़ दिया। कुछ सैनिक एकत्र करके वे दक्षिण के राज्यों के विरुद्ध विद्रोह करने लगे। पूना और कोंकण के आसपास का क्षेत्र पहाड़ी प्रदेश है। इसी क्षेत्र में मराठे शक्तिशाली थे। यदि उनके विरुद्ध कोई सेना भेजी जाती तो वह पहाड़ियों में छिप जाते थे। इसी कारण वे आसानी से राज्यों का विरोध कर सके। छापामार गोरिल्ला-युद्ध-प्रणाली को अपनाकर वे मुगल सेनाओं को भी परेशान करने में सफल होते रहे। धीरे-धीरे भी इतने शक्तिशाली बन गए कि स्थानीय राज्यों का ही नहीं मुगल साम्राज्य का भी विरोध करने लगे।


शिवाजी सबसे अधिक शक्तिशाली मराठा सरदार था। उसका पिता बीजापुर के शासक के अधीन था और उसकी सेना का अधिकारी था। परंतु शिवाजी महत्वकांक्षी था। बीजापुर को शक्तिहीन होता देखकर उसने अपने को स्वतंत्र बनाने का प्रयत्न किया। बीजापुर के शासक ने अपने सेनापति अफजल खां को उसके विरुद्ध युद्ध करने को भेजा। किंतु शिवाजी ने उसका वध कर दिया। तब औरंगजेब ने अपने अधिकारी जयसिंह को शिवाजी के विरुद्ध भेजा। जयसिंह को मराठों की शक्ति का अनुमान था। इसलिए वह इसके लिए बड़ा उत्सुक था कि मराठों और मुगलों में संधि हो जाए। जयसिंह ने समझा-बुझाकर शिवाजी को राजी कर लिया कि वह उसके साथ औरंगजेब के दरबार में जाए। पर शिवाजी के स्वतंत्र व्यवहार से औरंगजेब असंतुष्ट हो गया और उसने शिवाजी को कैद कर लिया। शिवाजी चालाकी से कैद से बाहर निकल आया। उसने मुगलों को परेशान करके अपमानित करने का निश्चय कर लिया। उसने अपने को मराठा राज्य का स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया और सन् १६७४ ई० में वह राजसिंहासन पर बैठा। सन् १६८० ई० में अपनी मृत्यु के पूर्व के छः वर्षों में वह शक्तिशाली मराठा राज्य स्थापित करने में सफल हुआ।


शिवाजी यह सफलता दो कारणों से प्राप्त कर सका। पहला तो दक्षिण पर मुगलों का नियंत्रण बड़ा कमजोर हो गया था। मुगल शासन न विद्रोह का दमन कर सकता था और न सरदारों को स्वतंत्र होने से रोक सकता था। दूसरे मराठों ने लगान वसूली की एक ऐसी प्रणाली अपनाई जिससे लगान के रूप में उनको बहुत-सा धन प्राप्त होता था और वे अच्छी सेनाएं रख सकते थे।


मराठा राज्य का शासन राजा के हाथ में था। राजा को सहायता और मंत्रणा देने के लिए आठ मंत्रियों की एक समिति थी जो 'अष्टप्रधान' कहलाती थी। राज्य की आय का मुख्य साधन भूमि-कर था। राज्य को उपज का २/५ भाग लेने का अधिकार था पर हम नहीं कह सकते कि वास्तव में किसानों से कितना वसूल किया जाता था। इस नियम से लगान उन किसानों से वसूल किया जाता था जो मराठा राज्य में रहते थे। जो मराठा राज्य के बाहर मुगल साम्राज्य या दक्षिण के राज्यों में रहते थे उनसे मराठा सरकार दो प्रकार के कर वसूल करती थी। एक कर 'चौथ' कहलाता था। यह उस कर का चौथाई भाग था जो किसान दक्षिण के राज्यों को या मुगल साम्राज्य को देते थे। यह एक अतिरिक्त कर था जिसको वसूल करके मराठे यह विश्वास दिला देते थे कि वे उस क्षेत्र में अब लूटमार नहीं करेंगे और न आक्रमण ही करेंगे। दूसरा कर 'सरदेशमुखी' था जो उपयुक्त कर के अतिरिक्त दसवां भाग होता था। इस प्रकार जो किसान मराठा राज्य के बाहर रहता था उसको यह अतिरिक्त कर भी अदा करने पड़ते थे। इस सारे धन का प्रयोग मराठा राज्य का निर्माण करने में किया जाता था। इससे भी दक्षिण में मुगल शासन की कमजोरी का पता चल जाता है।


शिवाजी के उत्तराधिकारी अयोग्य शासक थे। केवल रानी ताराबाई जो अपने छोटे पुत्र की संरक्षक थी, योग्य थी। शासकों की अयोग्यता के कारण धीरे-धीरे शासन का अधिकार पेशवाओं के हाथ में चला गया। पेशवा राज्य के ब्राह्मण मंत्री थे। आगे चलकर ये बहुत शक्तिशाली बन गए। जब तक औरंगजेब शासन करता रहा मुगलों ने किसी प्रकार मराठों के ऊपर अपना अधिकार बनाए रखा। पर औरंगजेब की मृत्यु के बाद शीघ्र ही मराठों ने बड़ी उन्नति कर ली और उनका राज्य भारत का सबसे शक्तिशाली राज्य बन गया।


मुगल साम्राज्य में होने वाले अन्य विद्रोह

औरंगजेब के शासनकाल में मुगल साम्राज्य में अनेक विद्रोह हुए। ये सभी शासकों और सरदारों के ही विद्रोह नहीं थे। कुछ विद्रोहों के पीछे किसानों का भी हाथ था। मथुरा जिले के जाटों ने विद्रोह किया। किसानों को यह शिकायत थी कि उनका लगान अकबर के शासनकाल में उपज का केवल एक तिहाई था। उसको अब धीरे-धीरे बढ़ाकर आधा कर दिया गया है। लगान का यह बोझ उनके वहन करने की शक्ति से बाहर था। फिर भी औरंगजेब इस लगान को कम न कर सका क्योंकि अपनी सेनाओं के लिए उसको अधिक धन की आवश्यकता थी।


मुगल सेनाएं अब पूर्ण रूप से दक्षिण में व्यस्त हो गई थी। बीजापुर और गोलकुंडा के घेरे वर्षों तक चलते रहे। अंत में यह दोनों राज्य सन् १६८६ और १६८७ ई० में मुगल साम्राज्य में मिला लिए गए। किंतु इसी बीच में औरंगजेब का राजपूतों के साथ ही संघर्ष आरंभ हो गया। राजस्थान के दो प्रमुख राज्यों में मेवाड़ और मारवाड़ के शासक औरंगजेब के विरोधी हो गए।

मुगलों का सिखों के साथ युद्ध आरंभ हो जाने से परिस्थिति और भी अधिक बिगड़ गई। यह संघर्ष मुगलों के लिए बड़ा हानिकारक रहा क्योंकि पंजाब एक धनी प्रदेश था और उससे मुगलों को बहुत अधिक लगान प्राप्त होता था। लगान की यह समस्या धर्म की समस्याओं से भी उलझ गई।


सिक्ख

गुरु नानक द्वारा स्थापित किए गए नए धर्म के अनुयायी सिक्ख थे। सत्रहवीं शताब्दी तक सिक्ख धर्म पंजाब के अनेक क्षेत्रों के किसानों और कारीगरों का धर्म बन गया।

गुरु नानक के पश्चात इस धर्म में एक के बाद एक नौ गुरु हुए। आरंभिक गुरुओं का ध्यान केवल धार्मिक पहलू पर ही केंद्रित रहा। किंतु धीरे-धीरे सिक्खों के गुरु उनके सैनिक नेता भी बनाने लगे। सातवें गुरु की मृत्यु के पश्चात औरंगजेब ने गुरुओं के उत्तराधिकार के झगड़े से फायदा उठाने का प्रयत्न किया। इस बीच सिक्खों की शक्ति लगातार बढ़ रही थी। इस बढ़ती हुई शक्ति को रोकने के लिए मुगल प्रशासन ने १६७५ में गुरु तेगबहादुर को फांसी का हुक्म दिया। इससे स्वाभावतः सिक्ख उससे बहुत नाराज हो गए। दसवें गुरु गोविंदसिंह ने सिक्खों का सैनिक के रूप में संगठन आरंभ किया और उनको मुगल सेनाओं के विरुद्ध युद्ध करने के लिए तैयार किया। अब सिक्खों के लिए 'खालसा' शब्द का प्रयोग होने लगा जिसका अर्थ है 'शुद्ध'। गुरु गोविंदसिंह के नेतृत्व में अब उनके सैनिक दल बन गए। गोविंद सिंह की सेना में अफगानिस्तान के सैनिक भी भर्ती किए जाने लगे। मराठों के समान सिखों ने भी अनेक स्थानों पर आक्रमण किए। किंतु औरंगजेब के शासनकाल में मराठों की भांति सिक्ख अपने स्वतंत्र राज्य की स्थापना नहीं कर सके। इस कार्य में सिक्खों को अठारहवीं शताब्दी में सफलता मिली। 


इस प्रकार धार्मिक आंदोलन के रूप में जो कुछ आरंभ हुआ था उसने राजनैतिक रूप भी ग्रहण कर लिया। मुगल साम्राज्य अब इतना शक्तिशाली नहीं रह गया था कि वह सिक्खों के विद्रोह का दमन कर सके। अठारहवीं शताब्दी में मुगल और अधिक कमजोर हो गए और उनके साम्राज्य की छीना-झपटी आरंभ हो गई। सिक्ख सरदारों ने भी इस अवसर से लाभ उठाया और वे छोटे-छोटे राज्यों के शासक बन गए।


पुर्तगालियों और अंग्रेजों ने भी औरंगजेब के लिए समस्या उत्पन्न की। पुर्तगाली समुद्री डाकूओं ने बंगाल की खाड़ी में जहाज के लूटने का कार्य प्रारंभ कर दिया था। इस बार उन्होंने चटगांव को अपना केंद्र बनाया। उनके विरुद्ध युद्ध करने के लिए औरंगजेब ने अपनी सेना भेजी। इस सेना को पूर्ण सफलता मिली क्योंकि उसने केवल से चटगांव पर ही अधिकार नहीं किया बल्कि बंगाल के पूर्वी भाग को भी मुगल साम्राज्य में मिला लिया। पश्चिमी समुद्र तट पर इस समय अंग्रेज समुद्री डाकू उपद्रव कर रहे थे। वे भारतीय जहाजों को लूट लेते थे। मुगल सरकार उनसे बहुत नाराज हो गई। सूरत में अंग्रेजों का एक कारखाना था। वहीं से अंग्रेज लोग भारत से व्यापार करते थे। इसलिए मुगल सरकार ने उन को धमकी दी कि जब तक वे समुद्री डाकूजनी का कार्य बंद नहीं करते और जुर्माने के डेढ़ लाख रुपए जमा नहीं करते तब तक उनको भारत के साथ व्यापार नहीं करने दिया जाएगा। इससे अंग्रेज भयभीत हो गए। उन्होंने जुर्माने का रुपया अदा कर दिया और समुद्री डाकुओं को पश्चिमी समुद्र तट पर आक्रमण करने से रोक दिया।


औरंगजेब के शासनकाल के अंतिम दिनों में मुगल साम्राज्य इतना शक्तिशाली नहीं रह गया था जितना वह अकबर के शासनकाल में था। वास्तव में उस समय साम्राज्य का पतन आरंभ हो गया था। पर साम्राज्य किस ओर जा रहा है इसका औरंगजेब को कुछ भी ज्ञान न था। औरंगजेब कुछ परंपरावादी मुसलमानों के प्रभाव में आ गया और उसने इस्लाम धर्म के नियमों के अनुसार शासन करने का निश्चय किया, इससे परिस्थिति कुछ और बिगड़ गई। उसकी यह नीति उसके पूर्वजों की शासन-नीति से भिन्न थी। पूर्वजों की धार्मिक नीति उदारता और सहिष्णुता की नीति थी। भारत जैसे देश में, जिसमें अनेक प्रकार के अनेक धर्मों के लोग रहते हैं, इस प्रकार की धार्मिक कट्टरता की नीति बरतना बड़ी भारी भूल थी। अकबर ने जितनी अच्छी तरह भारत की समस्याओं को समझा था, औरंगजेब उनको उतनी अच्छी तरह नहीं समझ सका।


मुगल दरबार में धर्म

सत्रहवीं शताब्दी में मुगल दरबार धार्मिक दृष्टि से दो दलों में विभाजित था। कुछ लोग कट्टर परंपरावादी थे और कुछ का दृष्टिकोण उदार था। भारत के बहुत से मुसलमान अब भी उन प्राचीन परंपराओं का अनुसरण कर रहे थे जिनको वे इस्लाम धर्म स्वीकार करने की पूर्व अपनाए हुए थे। उनमें से अनेक पर उदार विचारधारा का प्रभाव पड़ा। अनेक उदार मुसलमान जो अकबर के ही समान विचार वाले थे अकबर के द्वारा चलाई गई धार्मिक परंपराओं को अपनाए हुए थे। उदार व्यक्तियों में नवयुवक शहजादा दाराशिकोह सबसे अधिक लोकप्रिय था। वह बड़ा ही प्रतिभाशाली और विद्वान व्यक्ति था। उन्नीस वर्ष की अवस्था से ही वह धर्म और दर्शन के गंभीर विषयों पर लिखने लगा था। सूफी और वेदांत दर्शन पर उसकी सबसे प्रसिद्ध रचना वह है जिसमें उसने दोनों दर्शनों की समानता दिखलाई है। सन् १६५७ ई० में दाराशिकोह ने उपनिषदों का भी फारसी में अनुवाद किया। सन् १८०१ ई० मे इस अनुवाद का फिर लैटिन भाषा में अनुवाद किया गया और इस प्रकार यूरोप के दार्शनिकों ने भारतीय दर्शन का प्रथम बार अध्ययन किया। दुर्भाग्य से दाराशिकोह उत्तराधिकार के लिए अपने भाई औरंगजेब के साथ होने वाले संघर्ष में मारा गया।


परंपरावादी मुसलमानों का नेता शेख अहमद सरहिंदी था। वह अकबर और जहांगीर के शासनकाल में रहा। वह एक प्रतिभाशाली व्यक्ति और प्रभावशाली धर्मोंपदेशक था। इस कारण उसके जीवन काल में और उसकी मृत्यु के पश्चात उसकी शिक्षाओं का दरबार के लोगों पर बहुत प्रभाव पड़ा। उसने एक धार्मिक केंद्र की स्थापना की जहां उसके अनुयायियों और शिष्यों ने उसके कार्य को आगे बढ़ाया।


औरंगजेब एक परंपरावादी मुसलमान बन गया था और वह अपने धार्मिक सिद्धांतों के प्रति पूर्ण निष्ठावान था। वह दरबार के विलासिता पूर्ण जीवन से विरक्त हो गया था और धार्मिक विश्वासों पर आधारित सादा जीवन व्यतीत करना चाहता था। जब उसने उन पर जो मुसलमान नहीं थे फिर से जजिया कर लगा दिया और मंदिरों को नष्ट करने लगा तब उसने अपनी लोकप्रियता खो दी। वह यह नहीं समझ सका कि बादशाह का काम बुद्धिमता से शासन करना है और प्रशासन में धार्मिक हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।


लगान

जहांगीर के शासनकाल से सत्रहवीं शताब्दी में लोगों की प्रवृत्ति शानोशौकत से रहने की हो गई थी। जहां तक संभव था लोग ऐश्वर्य-वैभव के बीच रहना पसंद करते थे। सरदार और उच्च अधिकारी राजमहलों में रहते थे, कीमती वस्त्र पहनते थे, रत्नाभूषण धारण करते थे और गायन-वादन से अपना मनोरंजन करते थे। मुगल दरबार वैभव-विलास का प्रतीक बन गया था। जब बादशाह शिकार खेलने जाता था तब उसके शिकार की व्यवस्था में बड़ा धन व्यय होता था। राज्य की आमदनी खूब होती थी इसलिए विलासिता का यह जीवन व्यतीत करना संभव हो सका था। किसान और शिल्पकार कठिन परिश्रम करते थे इससे साम्राज्य की आमदनी बढ़ी हुई थी।


किसानों के जीवन में किसी प्रकार का आराम नहीं था। वे जैसे कि शताब्दियों से करते आए हैं अपने खेतों पर प्रातः काल से रात तक कठोर परिश्रम करते थे। उनका प्रमुख उद्देश्य अच्छी फसल उत्पन्न करना था। जिससे वे आसानी से अपना लगान अदा कर सकें। सत्रहवीं शताब्दी में लगान उपजी की एक तिहाई से बढ़कर लगभग आधा हो गया था। इससे किसानों का जीवन बड़ी कठिनाई का बन गया था। करो से प्राप्त यह अतिरिक्त आमदनी शीघ्र ही निगल ली जाती थी। अफसरों को उनका वेतन देना पड़ता था। साम्राज्य का विस्तार बहुत बढ़ गया था इसलिए प्रशासन को चलाने के लिए अधिक अधिकारियों की आवश्यकता थी। सेनाएं भी रखी जाती थी। इसके अतिरिक्त मुगल दरबार की शान-शौकत और विलासिता के लिए भी अधिक धन की आवश्यकता थी।


शिल्पकारों को भी कठिन परिश्रम करना पड़ता था क्योंकि व्यापार से भी साम्राज्य को कुछ आमदनी होती थी। अब भारत, चीन, पूर्वी, अफ्रीका, रूस और पश्चिमी यूरोप से भारत का व्यापार होता था। जैसा कि हमने देखा है कि पुर्तगाल और इंग्लैंड आदि यूरोपीय देशों से जहाज आते थे और भारत से सामान ले जाते थे। मुगल इस विदेशी व्यापार को प्रोत्साहन देते थे क्योंकि इससे उनको बड़ा लाभ होता था। भारत के व्यापारी ऊंचे दामों पर अपना सामान बेचते थे। इस आमदनी से भारत संपन्न देश बन रहा था। व्यापार विशेष रूप से हिंदू व्यापारियों के हाथ में था। व्यापार की उन्नति से नगरों के शिल्पकारों को अधिक कार्य करने को मिलता था। नगर भी उन्नति कर रहे थे। इस काल के बहुत से यात्रियों ने लाहौर, दिल्ली, आगरा, बनारस, सूरत और मछलीपट्टनम आदि नगरों की संपन्नता का विस्तृत वर्णन किया है। यूरोप के व्यापारियों की भारतीय वस्त्र उद्योग में विशेष रूचि थी और वे बंगाल से ढाके की मलमल, बनारस के रेशमी वस्त्र, पश्चिम समुद्र तट से सूरत और अहमदाबाद तथा मदुरै के सूती वस्त्र ले जाते थे। विदेशी व्यापारियों के मन में मालाबार की काली मिर्च की बहुत अधिक लालसा रहती थी।


भारतीय व्यापार में अंग्रेजों की रुचि अधिकाधिक बढ़ती जा रही थी। अंग्रेज व्यापारियों ने अपनी एक व्यापार कंपनी बना ली थी। यह ईस्ट इंडिया कंपनी कहलाती थी। उन्होंने अपनी पहली कोठी (फैक्ट्री) सूरत में स्थापित की और फिर धीरे-धीरे समुद्र तट के क्षेत्रों में फैलते गए। बंगाल में उनको अपनी इच्छा के अनुसार सभी स्थानों से व्यापार करने का अधिकार मिल गया था। इसके बदले में अंग्रेज स्थानीय सूबेदार को कुछ धन दे देते थे। कंपनी के द्वारा प्राप्त किए गए लाभ की तुलना में इस धन का कुछ भी महत्व नहीं था।


वास्तुकला एवं अन्य कलाएं

मुगल साम्राज्य की आमदनी बढ़ गई तो केवल दरबार का जीवन ही अधिक विलासिता पूर्ण नहीं हुआ बल्कि शासकों की बनवाई गई इमारतें भी अधिक सुंदर होने लगी और उनको अधिक मूल्यवान वस्तुओं से सजाया जाने लगा। अकबर के समय में बहुत सी इमारतें लाल पत्थर की बनाई गई थी। अब इमारतों को राजस्थान से लाए गए अधिक मूल्यवान संगमरमर पत्थर से बनाया जाने लगा। इन इमारतों में दिल्ली, आगरा व लाहौर के किलो की मस्जिदें और राजमहल तथा आगरा के एतमादुद्दौला और ताजमहल जैसे मकबरे आते हैं।

शाहजहां ने बड़ी सुंदर इमारतें बनवाई। उसके शासनकाल का विशेष रूप से उनके लिए ही स्मरण किया जाता है।‌ दो कारणों से यह इमारतें बड़ी सुंदर है। एक तो उनमें भारतीय और विदेशी वास्तुकला के विभिन्न तत्वों का समन्वय किया गया है। इनमें अनेक आकार के गुंबद, सजी हुई मेहराबें, ऊंची मीनारें, झरोखे, चौड़े झुके हुए छज्जे, छोटे दर्शक-मंडप और सजावट के अन्य उपकरण आते हैं जो भारतीय वास्तुकला में सामान्यता पाए जाते हैं। दूसरे इन इमारतों के विभिन्न अंगों के अनुपात में बड़ा संतुलन रखा गया है। इन्हीं दोनों कारणों से ताजमहल सारे संसार में अपनी सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध हो गया है। औरंगजेब के शासनकाल तक साम्राज्य के अवनित आरंभ हो गई थी और अब मुगलों की वास्तुकला उतनी प्रभावशाली नहीं रह गई थी जैसे कि वह पहले थी। इस काल की इमारतें प्रायः पहले की बनी इमारतों की नकल होती थी। जब लोग पुरानी वस्तुओं की नकल करने लगते हैं तब इसका अर्थ होता है कि उनके पास अपने मौलिक विचार और कल्पनाएं नहीं है।


मुगल बादशाह में जहांगीर को चित्रकला का सबसे अधिक शौक था। वह केवल चित्र-रचना की शैली देखकर कलाकार को पहचान लेता था। विशनदास, मुराद, मनसूर और बहजाद जैसे उस काल के श्रेष्ठ कलाकारों को उसके दरबार में संरक्षण मिला। वह अपने चित्रकारों को चित्रकला की अन्य शैलियों में रूचि लेने के लिए प्रोत्साहित करता था। जब टॉमस रो ने यूरोप के कुछ चित्र उसे दिखाएं तो उसे यूरोपीय कला शैली की विशेषताएं समझने की उत्सुकता हुई। जब औरंगजेब बादशाह बना तब कलाओं के क्षेत्र में एक भारी परिवर्तन हुआ। उसने चित्रकला का विरोध किया और अपने दरबार में चित्रकारों को चित्र बनाने से रोक दिया। इसलिए प्रोत्साहन न मिलने से चित्रकार मुगल दरबार को छोड़कर प्रांतीय शासकों के यहां चले गए। प्रांतीय सूबेदारों ने उनको अपने दरबार में रख लिया। कुछ कांगड़, गुलेर और गढ़वाल जैसे पंजाब के छोटे पहाड़ी राज्यों में चले गए और कुछ राजस्थान के मेवाड़, बीकानेर, बूंदी, कोटा और किशनगढ़ आदि स्थानों में। चित्रकला की दूसरी शैली का विकास दक्षिण के बीजापुर राज्य के संरक्षण में हुआ। इन्हीं अनेक स्थानों में चित्रकला के प्रति विशेष रुचि उत्पन्न हुई और यही पर अठारहवीं शताब्दी के सुंदरतम चित्रों की रचना की गई।


संगीत

आरंभिक शासक अपने दरबार में श्रेष्ठ संगीतकारों को एकत्र करते थे और उनकी संख्या पर गर्व करते थे। संगीत की हिंदुस्तानी या उत्तर भारतीय शैली मुगल दरबार में बड़ी लोकप्रिय रही।‌ लेकिन औरंगजेब ने अपने दरबार में संगीत के प्रति अरुचि का प्रदर्शन किया। इससे संगीतकार बड़े निरुत्साहित हुए और बहुत से मुगल दरबार को छोड़कर प्रांतीय शासकों और राज्य के दरबारों में चले गए। कुछ मुगल दरबार में भी रह गए क्योंकि कुछ सरदारों ने उनको संरक्षण प्रदान किया। खयाल और ठुमरी जैसे संगीत की नवीन शैलियां, जिनका विकास मुगल दरबार में हुआ था, नए केंद्र में भी लोकप्रिय हो गई।


साहित्य

मुगल बादशाह शास्त्र और काव्य के प्रेमी थे और इन दोनों में उनकी वास्तविक रुचि थी। जैसा कि हमने देखा है राज परिवार में भी उच्च कोटि के विद्वान और लेखक हुए। भारतीय विद्वानों के वैज्ञानिक ज्ञान का विवेचन करने वाली एक पाठ्यपुस्तक औरंगजेब के आदेश से उसके पोते के लिए लिखी गई थी। राज दरबार की भाषा फारसी ही बनी रही पर गांवों और कस्बों में लोग उर्दू और हिंदी भाषा का प्रयोग करते थे। कबीर और तुलसी के साथ-साथ अन्य कवियों की रचनाएं भी बड़ी लोकप्रिय हुई। सूरदास आगरे का एक नेत्र-विहीन कवि था जिसका लिखा हुआ 'सूरसागर' आज तक पढ़ा जाता है। रसखान एक मुसलमान सरदार था जिसकी कृष्ण के जीवन से संबंधित रचनाएं 'प्रेम वाटिका' के नाम से प्रसिद्ध है। बिहारी की लिखी 'सतसई' भी बड़ी लोकप्रिय हुई। बहुत से कवियों ने उर्दू भाषा में काव्य रचना आरंभ की। अठारहवीं शताब्दी में दिल्ली और लखनऊ उर्दू काव्य के केंद्र बन गए।

सत्रहवीं शताब्दी भारत के लिए वैभव और ऐश्वर्य का युग थी। मुगल दरबार ने उच्च रहन-सहन के तौर-तरीकों और रीति-रिवाजों के उदाहरण प्रस्तुत किए। अठारहवीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य का पतन हो गया पर जिस सभ्यता और संस्कृति का इस काल में विकास हुआ वे बाद में भी चलती रही। मुगल साम्राज्य के छिन्न-भिन्न हो जाने पर जो छोटे-छोटे राज्य बने उनमें मुगलों के द्वारा स्थापित किए गए रीति-रिवाज और तौर-तरीके चलते रहे।