Vaidikalaya

अध्याय 2 - दक्षिण भारत के राज्य

(8 0 0 ई० से 1 2 0 0 ई० तक)


भारतीय इतिहास के मध्यकाल में हमारे विशाल देश के उत्तरी और दक्षिणी अर्ध्दभाग अधिक निकट संपर्क में आ गए। विंध्याचल पर्वत ने अब इस संपर्क में बाधा डालने का काम नहीं किया। यह क्षेत्र उत्तर भारत और दक्षिण भारत के बीच संबंध स्थापित करने का साधन बन गया। यह कथन विशेष रूप से आगे भी लिखे तीन कारणों से स्पष्ट हो जाता है। पहला यह कि दक्षिण भारत के उत्तरी राज्यों ने अपने राज्य अधिकार को गंगा नदी की घाटी तक फैलाने का प्रयत्न किया। दूसरा यह कि दक्षिण भारत के धार्मिक आंदोलन उत्तर भारत में भी लोकप्रिय बन गए और तीसरा यह कि उत्तर भारत के बहुत से ब्राह्मण दक्षिण भारत में बस जाने के लिए आमंत्रित किए गए और उनको भूमि प्रदान की गई। इस विशाल देश के राज्य अब एक दूसरे से उस प्रकार अलग नहीं रहे जिस प्रकार वे प्राचीन काल में थे। प्रायद्वीप के राज्य दक्षिण प्रायद्वीप के राज्यों में उत्तरी क्षेत्र का राष्ट्रकूट राज्य सबसे अधिक महत्वपूर्ण राज्य था जिसने गंगा की घाटी के एक भाग पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न किया। जैसा कि हम अगले अध्याय में देखेंगे, राष्ट्रकूट बार-बार दो शक्तिशाली वंशों- प्रतिहारो और पालों- से कन्नौज और आसपास के क्षेत्रों पर अधिकार पाने के लिए लड़ते रहते थे। प्रतिहारों ने पश्चिम और मध्य भारत मे अपना राज्य स्थापित कर लिया था और पालों ने पूर्वी भारत में। किन्तु राष्ट्रकूटो को दक्षिण के शक्तिशाली चोल‌ शासकों के विरुद्ध भी अनेक युद्ध करने पड़े थे। चोल राजाओं ने तंजौर के आसपास के क्षेत्र तमिलनाडु से अपना शासन आरंभ किया। धीरे+धीरे उन्होंने पल्लव वंश के शासक और अन्य स्थानीय शासकों को पराजित करके अपने को शक्तिशाली बना लिया। ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी में दक्षिण भारत में सबसे अधिक महत्वपूर्ण साम्राज्य उन्ही का था। आधुनिक मदुरै क्षेत्र में चोल साम्राज्य के दक्षिण में पाड्य राज्य था। पश्चिमी किनारे पर आधुनिक केरल प्रांत में चेर वंश का राज्य था। बारहवीं शताब्दी तक इन राज्यों में से कुछ का पतन हो गया और इन क्षेत्रों में नवीन राज्यों की स्थापना हुई। सातवीं शताब्दी के चालुक्य वंश से सम्बंध रखने वाले एक वंश ने राष्ट्रकूटो के राज्य पर अधिकार कर लिया। इतिहासकारों ने इस वंश को‌ उत्तर-चालुक्य वंश कहा हैं। बाद में यादव वंश के शासकों ने उत्तर-चालुक्य वंश के शासकों को पराजित करके अपना राज्य स्थापित कर लिया और देवगिरी (महाराष्ट्र में आधुनिक दौलताबाद) से शासन किया। वारंगल (आधुनिक आन्ध्र प्रदेश) में काकतेय वंश का शासन आरंभ हुआ और आधुनिक मैसूर के निकट द्वारसमुद्र में होयसल वंश ने अपना राज्य स्थापित कर लिया।  चोल शासकों को अपनी शक्ति की रक्षा के लिए इन सभी राज्यों से युद्ध करने पड़े। चोल शासक तेरहवीं शताब्दी तक अपनी महत्ता को दक्षिण भारत में स्थापित किए रहे।


चोल शासक

साम्राज्य की स्थापना करने वाले आरंभिक चोल शासकों में विजयालय (८४६-८७१) था, जिसने तंजौर को जीता। इसमें भी अधिक महत्वपूर्ण परांतक प्रथम (९०७-९५५) था जिसने पांड्य राज्य को जीता और "मदुरैकोण्डवन" की उपाधि ग्रहण की जिसका अर्थ होता है मदुरई का विजेता परंतु परांतक को भी राष्ट्रकूट राज्य कृष्ण द्वितीय ने पराजित कर दिया। परांतक ने यह अनुभव कर लिया कि वह तब तक युद्ध में सफल नहीं हो सकता जब तक वह अपने राज्य को शक्तिशाली नहीं बना लेता। वह यह भी जानता था कि उसका राज्य तभी शक्तिशाली होगा जब उसकी प्रजा को पर्याप्त भोजन मिलेगा, उसके जीवन की सभी आवश्यकताएं पूर्ण होंगी और उस पर अच्छा शासन होगा। इसलिए उसने अपने राज्य में कृषि को प्रोत्साहन दिया। कृषि कार्य अधिक सरल नहीं था, क्योंकि राज्य की कुछ भूमि चट्टानी थी और उस पर फसलें नहीं उगाई जा सकती थी। इसके अतिरिक्त खेतों की सिंचाई की भी समस्या थी। नदी के पास के खेतों में तो सिंचाई के लिए नदी के जल का प्रयोग किया जा सकता था पर अन्य क्षेत्रों में केवल वर्षा के जल पर ही निर्भर रहना पड़ता था। इसलिए बड़े-बड़े तालाब खोदे गए जिनमें वर्षा के जल को एकत्र किया जा सकता था। तालाबों के जल को खेतों तक पहुंचाने के लिए सिंचाई की नहरों का निर्माण किया गया।


चोल वंश के राजाओं में सबसे उल्लेखनीय राजराज प्रथम और उसका पुत्र राजेंद्र है। राजराज प्रथम (९८५-१०१६) एक कुशल सेना संचालक था और उसने अनेक दिशाओं में आक्रमण किए। उसने पांड्य और चेर वंश के राज्यो पर और मैसूर के कुछ भागों पर भी आक्रमण किए। उसने उत्तर की ओर आधुनिक आंध्र प्रदेश के वंगी क्षेत्र पर आक्रमण किया। चोल राज्य की सैनिक शक्ति को दूसरे राज्यों से अधिक श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए ही उसने यह युद्ध लड़े। राजराज समुद्र पर अधिकार रखने के महत्व को भी समझता था। वह समझता था कि यदि वह दक्षिण भारत के समुद्र तट को अपने अधिकार में रखेगा तो चोल राज्य और अधिक शक्तिशाली हो जाएगा। अतः वह एक सामुद्रिक विजय के लिए निकला और उसने लंका और मालदीव नामक द्वीपों पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण के अन्य कारण भी थे। केरल, लंका और मालदीप के व्यापारी समुद्र तटीय व्यापार से प्राप्त धन से बड़े धनवान बन गए थे। भारत से पश्चिम एशिया को वस्त्र, मसाले और बहुमूल्य रत्न आदि अनेक वस्तुएं भेजी जाती थी। अरब व्यापारी इन वस्तुओं का व्यापार करने पश्चिम एशिया से भारत आते थे। उनमें से अनेक भारत के पश्चिम समुद्र तठ के नगरों में बस गए थे। वहां वे स्थानीय स्त्रियों से विवाह करके शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे और अपने व्यापार में लगे रहते थे। चूंकि वे भारतवासियों से मिलजुल कर रहते थे और अपने व्यापार से भारत में धन लाते थे, इसलिए उनका सम्मान किया जाता था और उनके साथ अच्छा व्यवहार होता था।


चेरॅ राज्य, मालदीप द्वीप समूह और लंका इस व्यापार के प्रमुख केंद्र थे। इस प्रकार इन क्षेत्रों की विजय से पश्चिमी व्यापार से प्राप्त होने वाला धन चोल साम्राज्य में आने लगा। यद्यपि राजराज ने इन क्षेत्रों पर आक्रमण करके उनको अपने अधिकार में कर लिया पर बहुत अधिक समय तक वह उनको अपने नियंत्रण में नहीं रख सका।


राजराज का पुत्र राजेंद्र भी उससे अधिक महत्वकांक्षी था। उसमें १०४४ ई० तक दीर्घकालीन शासन किया। उसने अपने पिता की विजय-नीति को जारी रखा और दक्षिण प्रायद्वीप में अनेक युद्ध लड़े। उसके इन युद्ध में से दो युद्ध बड़े ही साहसिक और वीरतापूर्ण थे। एक तो वह जिसमें उसकी सेनाएं पूर्वी भारत के समुद्र तट से होकर उड़ीसा को पार करती हुई गंगा नदी तक पहुंच गई। दक्षिण लौटने से पूर्व उन्होंने बंगाल में शासन करने वाले पाल वंश के राजा को आतंकित किया। राजेंद्र का उत्तर भारत का यह युद्ध-अभियान सात सौ वर्ष पूर्व किए गए समुद्रगुप्त के दक्षिण भारत के युद्ध-अभियान के समान ही था।


राजेंद्र का दूसरा साहस पूर्ण युद्ध दक्षिण-पूर्व एशिया में हुआ था जिसमें उसने सामुद्रिक अभियान किया था। अनेक शताब्दियों से भारत के व्यापारी दक्षिण-पूर्वी एशिया के विभिन्न भागों से व्यापार करते आ रहे थे। यह व्यापार दक्षिण चीन तक फैल गया था। भारत की वस्तुएं जहाजों से दक्षिण की भेजी जाती थी और वह जहाज केवल चीन से ही नहीं, दक्षिण-पूर्वी एशिया के अन्य भागों से भी सामग्री लाते थे। भारतीय जहाजों को मोलक्का की जलसंधि (जलडमरूमध्य) से होकर गुजरना पड़ता था। उस समय इस पर श्रीविजय का अधिकार था। इस राज्य के अंतर्गत मालया द्वीप और सुमित्रा का द्वीप भी था।


श्रीविजय के व्यापारियों ने स्वाभाविक रूप से यह अनुभव किया कि यदि वे इस व्यापार पर अधिकार कर ले तो इसका लाभ उनको प्राप्त होने लगे। इसलिए वे भारतीय जहाजों के मार्गों में कठिनाइयां उत्पन्न करने लगे। भारतीय व्यापारियों ने राजेंद्र चोल से अपनी सुरक्षा की प्रार्थना की और उसने एक विशाल जन-सेना भेज दी। श्रीविजय की पराजय हुई और उसने भारतीय जहाजों को उस जलमार्ग से सुरक्षा के साथ यात्रा करने की आज्ञा दे दी। राजेंद्र इन व्यापारियों की सहायता करने के लिए इसलिए तैयार हो गया कि उनमें से अधिकतम चोल राज्य के निवासी थे और वे व्यापार में जो लाभ प्राप्त करते थे उससे चोल राज्य की आय में वृद्धि होती थी।


          राजेंद्र प्रथम के उत्तराधिकारियों ने अपनी शक्ति, समय और धन का बहुत बड़ा भाग प्रायद्वीप के अन्य राज्यों के साथ युद्ध करने में व्यय कर दिया। इनमें से कुछ युद्ध में उन्हें सफलता भी नहीं मिली। धीरे-धीरे चोल राज्य शक्तिहीन हो गया और अन्य राज्य अधिक शक्तिशाली बन गए। तेरहवीं शताब्दी के अन्त तक चोल राज्य का अन्त हो गया।

चोल शासन-प्रणाली


राज्य में राजा सबसे अधिक शक्तिशाली व्यक्ति होता था। फिर भी यह आशा की जाती थी कि वह अपनी मंत्रि-परिषद या अपने पुरोहित की सलाह से शासन कार्य का संचालन करेगा। शासन के विभिन्न विभागों के विशेष अधिकारी होते थे। राज्य का प्रांतों में विभाजन किया गया था जिसको मंडलम कहते थे। प्रत्येक मंडलम को कई वलनाडुओं में बांट दिया गया था। प्रत्येक वलनाडु में निश्चित संख्या में गांव होते थे। आरंभ में चोल राज्य की राजधानी तंजौर थी पर बाद में आधुनिक मद्रास के निकट कांचीपुरम को राजधानी बनाया गया। कुछ समय तक तंजौर के निकट बने नए नगर गंगईकोण्ड-चोलपुरम को राजधानी बनाया गया था। इस नगर के नाम का अर्थ है "गंगा पर विजय पाने वालों का नगर"।


बहुत से गांवों में शासन का संचालन राज्य कर्मचारियों के द्वारा नहीं बल्कि स्वयं ग्रामवासियों के द्वारा किया जाता था। इन गांव वालों की एक ग्राम परिषद होती थी जिसको उर या सभा कहते थे। गांवों के मंदिरों की दीवारों पर लंबे अभिलेख (शिला-लेख) मिलते हैं जिनमें विस्तार के साथ वर्णन किया गया है कि उर अथवा सभा किस प्रकार आयोजित की जाती थी।  जिनके पास भूमि थी अथवा गांव के जो लोग ऊंची जाति के होते थे वे सभा के लिए लाटरी द्वारा चुन लिए जाते थे। इन सभाओं में गांव के जीवन और वहां के कार्यों के संबंध में विचार किया जाता था। यह लोकप्रिय शक्ति का स्त्रोत था क्योंकि गांव के लोग संगठित हो जाते थे। गांव की संपन्नता का उत्तरदायित्व गांव में रहने वाले लोगों पर भी आता था। यह सभा कभी-कभी कई छोटी समितियों में विभाजित कर दी जाती थी और प्रत्येक समिति गांव के शासन के एक-एक अंग की देखरेख करती थी। उदाहरण के लिए एक गांव की सभा में एक तालाब-समिति थी जिसका काम इस बात की देखभाल करना था कि गांव के तालाब में पानी रहता है या नहीं और उस पानी का ठीक वितरण ग्रामवासियों के लिए होता है या नहीं।


              चोल राज्य की आय दो साधनों से प्राप्त होती थी-भूमि और भूमि की उपज पर लगाए गए कर से तथा व्यापार कर से। इस लगान का एक भाग राजा के लिए रख दिया जाता था और शेष भाग सार्वजनिक निर्माण कार्यों, जैसे सड़क और तालाब बनाने, राज कर्मचारियों को वेतन देने, स्थल सेना और जल सेना का व्यय वहन करने अथवा मंदिर-निर्माण में खर्च किया जाता था। भूमि कर प्रायः ग्राम परिषद से एकत्र किया जाता था। भूमि के मालिक अधिकारियों को कर देते थे। व्यापार कर व्यापारियों से, जो प्रायः नगरों में रहते थे, वसूल किया जाता था।


समाज

राजा राजदरबार और दरबारियों के अतिरिक्त दो अन्य श्रेणी के लोग थे जिनका समाज में अत्यधिक सम्मान किया जाता था। ये ब्राह्मण और व्यापारी थे। ब्राह्मणों का इसलिए आदर किया जाता था कि वे धार्मिक कृत्यों को करते थे और विद्वान थे। वास्तव में जो ब्राह्मण बहुत बड़े विद्वान होते थे उनको राजा से भूमि और ग्राम उपहार के रूप में मिलते थे। यह ब्रह्मदेय उपहार कहलाते थे। इसलिए कुछ ब्राह्मण बड़े धनवान हो गए।  उनकी सन्तान इस भूमि और इन गांवों को उत्तराधिकार में प्राप्त करती थी और बड़े आराम का जीवन व्यतीत करती थी। कुछ ब्राह्मण तो इतने धनी हो गए कि वे अपना धन व्यापार में भी लगाने लगे। 


        चोल राज्य में व्यापारी बड़े संपन्न हो गए थे। उनका चीन, दक्षिण-पूर्व एशिया और पश्चिम एशिया के साथ व्यापार होता था। इसके अतिरिक्त उनका विशाल भारत के अनेक प्रांतों से भी व्यापार होता था तथा उत्तरी-दक्षिणी राज्यों के बीच वस्तुओं का अदान-प्रदान होता था। कुछ व्यापारी मिलकर एक व्यापार-मंडल बना लेते थे जिनको मणिग्रामम कहा जाता था। व्यापार-मंडल प्रायः एक ही व्यवसाय में लगे हुए व्यक्तियों का संगठन होता है। ऐसी परिस्थिति में सभी व्यापारियों का धन मिलकर एक प्रकार का बैंक बन जाता था। हर व्यापारी अपने भाग का धन देता था। हर प्रणाली बड़ी उपयोगी थी क्योंकि मंडल के रूप में उनके पास अधिक धन हो जाता था और वह अकेले व्यापारी क्षेत्र से अधिक विस्तृत क्षेत्र में व्यापार कर सकते थे। हर एक व्यापार-मंडल के पास सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाने के लिए अपना एक काफिला होता था। उनमें से कुछ के पास सशस्त्र सैनिक भी होते थे जो डाकुओं के आक्रमण से काफिलो की रक्षा करने के लिए उनके साथ यात्रा करते थे।


       नगरों में नगर के व्यापार-मंडल वही के बनी हुई वस्तुओं को एकत्र करके बेचते थे। व्यापार-मंडल इन नगर-मंडलों से वस्तुओं को खरीदते थे और उन स्थानों को भेजते थे जहां उनकी मांग अधिक होती थी। वस्तुएं कभी तो अन्य वस्तुओं के बदले में दे दी जाती थी और कभी नगद बेची जाती थी। व्यापारियों की संपन्नता का अर्थ था नगर की संपन्नता। राजा भी चाहता था कि व्यापार-मंडल वैभव-संपन्न बने क्योंकि यदि वे धनवान हुए और राज्य को उन्होंने अधिक कर प्रदान किया तो राजकोष में अधिक धन एकत्र होगा। यह जानकर आश्चर्य होना चाहिए कि १०७७ ई० में ७२ व्यापारियों का एक राजदूत-मंडल यह देखने के लिए चीन भेजा गया कि उस देश के साथ व्यापार बढ़ाने की और कौन सी संभावनाएं हैं।


प्रत्येक व्यक्ति धनी और वैभव संपन्न नहीं था। नगरों के मजदूर और गांवों के किसान प्रायः बहुत गरीब होते थे। उनको कठोर परिश्रम करना पड़ता था जिससे राजा और कुछ अन्य व्यक्ति विलासिता का जीवन व्यतीत कर सके। शूद्रो को प्रायः बड़ी मुसीबत उठानी पड़ती थी। कुछ शुद्रो को तो मन्दिर में जाने तक की मनाही थी।


शिक्षा

जैसा कि हम देख चुके हैं मंदिर पूजा का स्थान तो था ही साथ ही परस्पर एकत्र होने का स्थान भी था। मंदिर में ही गांव सभाएं अपनी बैठक किया करती थी। व्यापार पर होने वाले विचार विमर्श को मंदिर की दीवारों पर अंकित कर दिया जाता था। मंदिर के पुजारी स्थानीय अध्यापक भी होते थे क्योंकि वहां कोई अच्छा विद्यालय नहीं होता था। मंदिर के प्रांगण में ही विद्यालय लगता था। विद्यार्थी प्रायः ब्राह्मण होते थे और वे दो भाषाओं में शिक्षा प्राप्त करते थे जिनमें एक भाषा संस्कृत होती थी। अधिकतर धार्मिक शिक्षा संस्कृत भाषा के माध्यम से दी जाती थी क्योंकि वेद आदि धार्मिक ग्रंथों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक था। विद्यार्थी चोल राज्य से विस्तृत क्षेत्र में बोले जाने वाली तमिल भाषा भी पढ़ते थे। संस्कृत भाषा का प्रयोग किए जाने से पहले भी भारत के इस भाग में तमिल भाषा बोली जाती थी। तमिल के ऊपर संस्कृत भाषा का प्रभाव पड़ा और धीरे-धीरे उसमें कुछ संस्कृत शब्दों का भी प्रयोग किया जाने लगा। कंवन की रामायण जैसे प्रसिद्ध ग्रंथ जब तमिल में लिखे गए तब संस्कृत के बहुत से साहित्यिक और धार्मिक ग्रंथ लोकप्रिय हो गए। चोल राजाओं के अनेक शिला-लेख संस्कृत और तमिल दोनों भाषाओं में लिखे हुए हैं। इस काल में प्रसिद्ध कवियों और नाटककारों के द्वारा तमिल भाषा में काव्य-ग्रंथों तथा नाटकों की भी रचना की गई।


तमिल यद्यपि दक्षिण भारत की सबसे प्राचीन भाषा हैं पर इस काल में दक्षिण भारत में केवल इसी एक भाषा का प्रयोग नहीं होता था। आन्ध्रप्रदेश में स्थानीय जनसमुदाय द्वारा तेलुगू भाषा का प्रयोग किया जाता था। तेलुगू भाषा में भी रामायण और महाभारत की कथाओं को लिखा गया। कुछ अन्य मौलिक साहित्य भी इसी भाषा में लिखा गया जो बड़ा लोकप्रिय रहा। महाभारत की कुछ कथाओं को लेकर श्रेष्ठ रचना करने वाले नन्नयुया का आज भी स्मरण किया जाता है। आगे चलकर कवि तिकूकनन्ना और यरनन्ना ने उसकी रचना में अपनी रचनाओं को भी जोड़ दिया। आधुनिक मैसूर के चारों ओर के क्षेत्र में अधिक संख्या में लोग कन्नड़ भाषा बोलते थे जैसे कि आज भी उस क्षेत्र में वही भाषा बोली जाती है। अपनी श्रेष्ठ साहित्यिक रचनाओं के कारण पंप, पौन्न और रन्न कन्नड़ साहित्य के तीन रत्न कहे जाते हैं। धार्मिक उपदेशकों का एक दल जिसको लिंगायत कहते थे अपने धार्मिक उपदेश संस्कृत में न दे कर कन्नड़ भाषा में देता था। इस कारण कन्नड़ भाषा लोकप्रिय हो गई। तुम्हें स्मरण होगा कि तमिल महात्मा आलवार और नायन्नार प्राचीन काल में संस्कृत के स्थान पर तमिल भाषा के प्रयोग को अधिक पसंद करते थे और उसी का उन्होंने प्रयोग भी किया। लिंगायत महात्माओं ने कन्नड़ का प्रयोग इस लिए किया कि प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह धनी हो या गरीब, उनकी भाषा को समझ सके और यह जान सके कि लिंगायत महात्मा किस प्रकार की शिक्षा देते थे। यदि उन्होंने संस्कृत में उपदेश दिए होते तो केवल कुछ सीमित वर्ग के शिक्षित व्यक्ति ही उनके उपदेशों को समझ सकते थे।


धर्म

इस काल में दक्षिण भारत में कुछ लोकप्रिय धार्मिक आंदोलन भी आरंभ हुए। इनमें से कुछ तो आलवारों और नायन्नारों की दि हुई शिक्षाओं को लेकर चल रहे थे। अन्य ने नवीन विचारों का प्रचार आरंभ किया। इनमें से अनेक ने यह उपदेश दिया कि केवल मूर्तियों की पूजा तथा पुजारियों की गाई हुई प्रार्थनाओं को दुहराना ही धर्म नहीं है। उन्होंने कहा कि ईश्वर से प्रेम करना और मनुष्यो के प्रति अपने हृदय में दया की भावना जागृत करना धर्म है। वे यह नहीं चाहते थे कि समाज का वर्णों और जातियों में विभाजन किया जाए क्योंकि उनका विश्वास था कि सभी मनुष्य समान है। इन संप्रदायों में सबसे महत्वपूर्ण संप्रदाय था लिंगायत, जिसका संस्थापक वासव बारहवीं शताब्दी में हुआ।


इस साल में अनेक विद्वानों ने दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में भी अपनी प्रतिभा दिखलाई। प्रसिद्ध दार्शनिक ने दक्षिण भारत में अपने दार्शनिक सिद्धांतों का प्रचार किया पर उनके सिद्धांतों का ज्ञान भारत के विभिन्न क्षेत्रों के विद्वानों को हो गया। अनेक धार्मिक महात्मा दक्षिण भारत के उत्तर में आए यद्यपि बाद में उत्तर भारत में भी कुछ धार्मिक महात्मा उत्पन्न हुए और उन्होंने भी अपने सिद्धांतों का प्रचार किया।


   इन महात्माओं में शंकर और रामानुज सबसे अधिक प्रसिद्ध थे। शंकर जो आठवीं शताब्दी में हुए थे, केरल के रहने वाले थे। उनका दर्शन अद्वैत सिद्धांत कहलाता हैं जिसका अर्थ है विश्व में केवल एक सत्ता है, उसके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं है। उन्होंने ज्ञान मार्ग का उपदेश दिया। उनका कहना था कि केवल ज्ञान प्राप्त करके ही ईश्वर की उपासना की जा सकती हैं। शंकर ने अपने दर्शन के जिज्ञासुओं को शिक्षा देते हुए संपूर्ण भारत की यात्रा की। उन्होंने अन्य विद्वानों, दार्शनिकों और उपदेशकों से शास्त्रार्थ किया। उन्होंने दर्शनशास्त्र के अनेक केन्द्र स्थापित किए।


रामानुज का जन्म ग्यारहवीं शताब्दी में हुआ। उन्होंने उपदेश दिया कि व्यक्ति को भक्ति भाव से अपने को पूर्ण रूप से ईश्वर की शरण में छोड़कर उसकी उपासना करनी चाहिए। अतः उनका मत शंकर के मत के अनुकूल नहीं था। उनका कहना था ईश्वर उपासना ज्ञान की अपेक्षा प्रेम और भक्ति भाव से की जानी चाहिए। रामानुज को इसकी भी चिंता हुई कि कुछ  लोगों को मंदिर में इस कारण प्रवेश नहीं करने दिया जाता कि वे नीच-जाति के हैं। उनकी दृष्टि में ऊंच नीच का कुछ अर्थ नही था। क्योंकि वे सभी मनुष्यों को समान समझते थे। दूसरे धार्मिक महात्मा मध्व थे जिनके बहुत से अनुयायी थे। यह तेरहवीं शताब्दी के महात्मा थे। उनके विचार और उनकी शिक्षा बहुत कुछ रामानुज के विचारों और शिक्षाओं के समान थी।


इस प्रकार चोल शासन-काल का भारतीय संस्कृति को अच्छा योगदान रहा। चोल राजाओं की राजनीतिक शक्ति ने उनके राज्य को दक्षिण का सबसे अधिक शक्तिशाली राज्य बना दिया। कुछ समय तक उनका राज्य इस विशाल देश के सबसे अधिक शक्तिशाली राज्यों में रहा। इस काल के व्यापार से राज्य के व्यापारी धनवान हो गए और चोल राजकोष की भी वृद्धि हुई। तमिल तेलुगु और कन्नड़ कवियों और लेखकों ने अपनी अपनी भाषाओं में अनेक ग्रंथों की रचना की। भव्य मंदिरों का निर्माण किया गया। लोकप्रिय धार्मिक आंदोलन ने भक्ति भावना का प्रचार किया और हिन्दू धर्म में नवीन विचारों का समावेश किया। इस काल के दार्शनिकों ने भारतीय दर्शन को‌ अपने विचारों से अधिक पुष्ट किया। इन‌ परिवर्तनों का प्रभाव केवल दक्षिण भारत के ही जीवन पर नही, संपूर्ण भारत के अनेक क्षेत्रों की जनता के जीवन पर भी पड़ा।