अध्याय 6 - मुगलों और यूरोप वासियों का भारत में आगमन
मुगलों के उत्तर भारत पर विजय प्राप्त करने के पूर्व दिल्ली से शासन करने वाले राजवंशों में लोदी वंश का अंतिम था। सल्तनत छोटी और कमजोर हो गई थी क्योंकि उसके बहुत से प्रांतों ने उससे अपना संबंध तोड़ लिया था और वे स्वतंत्र हो गए थे।
लोदी सुल्तानों ने सरदारों पर अपना अधिकार जमाने का प्रयत्न किया पर सरदार इसको पसंद नहीं करते थे। उनको अपनी स्वतंत्र शक्ति के प्रयोग करने का अभ्यास हो गया था अतः उन्होंने लोदी सुल्तानों के शासक बाबर के साथ मिलकर षंड्यत्र किया और उससे सहायता मांगी। बाबर तैमूर का उत्तराधिकारी था ।बाबर ने हिंदुस्तान की सीमाओं तक आक्रमण किए। वह जानता था कि भारत एक धनवान और उपजाऊ देश है। जब भारत के सरदारों ने उससे सहायता मांगी तो वह सहायता देने के लिए तैयार हो गया और अपनी सेनाएं लेकर पंजाब में पहुंच गया। लोदी सुल्तानों का विरोध करने वाले केवल अफगान सरदार ही नहीं थे। लोदी सुल्तानों के विरुद्ध बाबर की सहायता करने के लिए मेवाड़ का राजपूत शासक राणा सांगा भी तैयार हो गया।
बाबर
सन् 1526 ई० में पानीपत के प्रसिद्ध मैदान में एक युद्ध हुआ जिसमें बाबर ने लोदी सुल्तान की सेना को पराजित कर दिया। वह मध्य एशिया से अपने साथ तोपखाना भी लाया था जो भारत की सेनाओं के लिए नई चीज थी। यह तोपखाना उसकी विजय के कारणों में एक प्रमुख कारण बन गया। बाबर के पास एक छोटी कुशल व प्रशिक्षित घुड़सवार सेना भी थी। उसने अपनी सेना के सैनिकों को इस प्रकार खड़ा किया कि वे एक युद्ध क्षेत्र से दूसरे युद्ध क्षेत्र की ओर आसानी से जा सकते थे। वास्तव में वह एक कुशल सेनाध्यक्ष था। वह जानता था कि अपने सैनिकों का सबसे अधिक उपयोग किस प्रकार किया जा सकता है। भारत के सरदार सोचते थे कि बाबर लोदी सुल्तान को पराजित करके तथा लूट के धन का अपना भाग लेकर काबुल लौट जाएगा किंतु ऐसा नहीं हुआ। बाबर ने भारत में ठहरने का निश्चय किया और इसलिए उसने दिल्ली और आगरा पर भी अधिकार कर लिया। अब अफगान और राणा सांगा उसके विरोधी बन गए। उन्होंने यह प्रयत्न किया कि बाबर अपने राज्य का और अधिक विस्तार न कर सकें पर उसने सभी को पराजित कर दिया।
इसके बाद वह बहुत समय तक जीवित नहीं रहा। सन् १५३० में उसकी मृत्यु हो गई। उसने पंजाब, दिल्ली और बिहार तक गंगा के मैदान पर अपना अधिकार कर लिया था। बाबर केवल एक बहादुर सेनापति ही नहीं था जो केवल यही जानता हो कि सेना को संगठित और व्यवस्थित करके किस प्रकार युद्ध किया जाता है बल्कि वह तुर्की भाषा का उच्च कोटि की शैली में रचना करने वाला कवि और लेखक भी था। वह अपनी डायरी भी लिखता था जिसमें उसके विचार और उसके समय की घटनाओं का उल्लेख मिलता है। वह प्राकृतिक सौंदर्य से बहुत प्रभावित होता था। पर्वतों, वृक्षों, फूलों और पशुओं के सौंदर्य को देखकर वह मुग्ध हो जाता था। इसी कारण जहां कहीं भी वह रहा, वहां उसने सुंदर बाग बगीचे लगवाए। उसको पोलो खेलने में बड़ा आनंद आता था। उस समय यह खेल सरदारों में बड़ा लोकप्रिय हो गया था।
हुमायूं
यद्यपि बाबर ने भारत के एक क्षेत्र की विजय करके मुगल वंश के शासन की स्थापना कर दी थी किंतु वह शत्रुओं से उसको सुरक्षित बनाने के लिए बहुत अधिक समय तक जीवित नहीं रहा। इसी कारण उसके पुत्र को आरंभ से ही मुसीबतों का सामना करना पड़ा। भारत में मुगल अभी नए-नए आए थे इसलिए उनको अपनी स्थिति को जमाए रखने की बड़ी कठिनाई हो रही थी। अफगान सरदार जो अभी मुगलों को भारत से निकाल देना चाहते थे, नवनिर्मित साम्राज्य पर आक्रमण कर रहे थे। गुजरात का शासक बहादुर शाह भी दिल्ली पर आक्रमण करने की ताक में था। हुमायूं को शासन तथा लगान के प्रबंध का अवसर ही नहीं मिला। वह गुजरात और मालवा के प्रांतों की विजय करने में तो सफल हुआ पर पश्चिमी भारत पर वह अपना अधिकार स्थापित न कर सका। पूर्वी भारत में इस समय एक महत्वकांक्षी और शक्तिशाली अफगान सरदार शासन कर रहा था जो दिल्ली को जीतकर अपनें को सुल्तान घोषित करना चाहता था। वह शेरशाह था। उसने मुगल बादशाह को केवल धमकाया ही नहीं, उस पर आक्रमण कर दिया। उसने हुमायूं के साथ दो लड़ाइयां लड़ी और दोनों में ही हुमायूं को पराजय हुई। पंजाब और काबुल में शासन करने वाले उसके भाई ने उसकी सहायता नहीं की। मुगलों को उत्तर भारत छोड़ देना पड़ा। बाबर का विजय किया हुआ राज्य हुमायूं के हाथों से निकल गया। हुमायूं सिंध और राजस्थान में एक स्थान से दूसरे स्थान को भटकता फिरा। इसी अवसर पर जब वह अमरकोट में था उसके एक पुत्र उत्पन्न हुआ।यही पुत्र आगे चलकर महान् सम्राट अकबर के नाम से भारत का शासक बना। अंत में हुमायूं को सिन्ध छोड़कर फारस चले जाना पड़ा।
शेरशाह
शेरशाह का असली नाम फरीद था किंतु एक शेर को मार डालने के बाद उसका नाम से शेरखां पड़ गया था। वह एक सरदार का पुत्र था जिसकी एक छोटी जागीर जौनपुर के पास थी। शेरशाह ने भूमि के विस्तृत क्षेत्र पर अधिकार कर लिया, एक शक्तिशाली सेना बनाई और फिर अपने को एक स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। हुमायूं को पराजित करने के बाद वह भारत का बादशाह बन बैठा। वही उसकी सफलता की चरम सीमा थी। उसकी अभिलाषा केवल भारत का शासक बनने की ही नहीं थी बल्कि वह एक योग्य शासक बनना चाहता था। वह अलाउद्दीन की नीतियों से बहुत प्रभावित हुआ विशेषकर उसकी सेना-संगठन तथा लगान वसूल करने की नीति से।
सुल्तान होते ही उसने अपनी सेना का संगठन किया और अपनी सैनिक-शक्ति को बढ़ा लिया। उसने अधिकारियों को नियमित रूप से वेतन देने पर जोर दिया, उनको असंतुष्ट नहीं होने दिया और इस प्रकार उसने अपने प्रशासन को सुधारा। यदि किसी को कोई शिकायत होती तो वह सीधे शेरशाह के पास जाकर उससे कह सकता था। इससे वह अपनी प्रजा में लोकप्रिय हो गया। वह स्वयं दौरे पर जाता था। इससे वह अपने अधिकारियों के कार्य की देखभाल कर सकता था लगान की वसूली में वह बड़ा सतर्क था और इस बात का ध्यान रखता था कि उसके किसानों को बहुत अधिक लगान न देना पड़े। उचित लगान निश्चित करने के लिए उसने अपने राज्य की सारी भूमि का नए ढंग से बंदोबस्त किया। अलाउद्दीन के शासनकाल की भांति उसने भूमि की नाप करा कर लगान निश्चित किया।
शेरशाह को अपनी सड़कों पर विशेष गर्व था। ये सड़के उसी के आदेश से बनवाई गई थी। इन सड़कों के दोनों ओर छायादार वृक्ष लगवाए गए तथा कुएं खुदवाए गए थे और थके हुए यात्रियों के विश्राम के लिए सराएं बनवाई गई थी। उत्तरी भारत से बंगाल तक मौर्य की बनवाई हुई सड़क की फिर से मरम्मत कराई गई। आधुनिक काल की पेशावर से कोलकाता तक की ग्रैंड ट्रंक रोड इसी का नया रूप है। सड़कों के द्वारा दिल्ली को बरहानपुर और जौनपुर से जोड़ दिया गया था। इन सड़कों का निर्माण बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ क्योंकि इससे जनता की यात्रा ही नहीं सरल हो गई बल्कि सुल्तान के अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए भी एक स्थान से दूसरे स्थान को शीघ्रता से आना-जाना सुविधाजनक हो गया। इन सड़कों के कारण व्यापारियों को भी अपने माल को एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र को ले जाने में सुविधा हो गई। शेरशाह ने ही एक नए सिक्के, रुपया का चलन आरंभ किया जो आज तक प्रचलित है।
शेरशाह एक महान सुल्तान था पर दुर्भाग्य से वह केवल पांच ही वर्ष शासन कर सका और इस थोड़े से समय में वह अपनी नीति को पूर्ण रूप से कार्यान्वित भी नहीं कर सका। सन् १५५४ ई० मे कलिंजर के घेरे में उसके चेहरे के सामने एक बंदूक फट गई और इसी दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो गई। शेरशाह की मृत्यु की यह घटना हुमायूं के लिए वरदान सिद्ध हुई। बिना योग्य शासक के उत्तरी भारत के राज्य की स्थिति डांवाडोल हो गई। हुमायूं ने इस अवसर को देखा और उसने दिल्ली के सिंहासन को फिर से प्राप्त करने का प्रयत्न आरंभ कर दिया। फारस के सफावी वंश के शासक की सहायता से हुमायूं ने कंधार को जीत लिया और काबुल पर फिर से अपना अधिकार स्थापित कर लिया। भारत पर आक्रमण के लिए वह काबुल को अब आधार-स्थल बना सकता था। सन् १५५५ में पंजाब को जीत कर उसमें दिल्ली और आगरा पर अधिकार कर लिया और इस प्रकार फिर से भारत में मुगलों के साम्राज्य की स्थापना हो गई। हुमायूं अपनी इस सफलता का आनंद केवल एक वर्ष ले सका। सांयकाल की नमाज के बाद जब वह सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था, फिसल गया और गिरकर मर गया। उसका पुत्र अकबर उत्तराधिकारी बना और उसके शासनकाल में भारत फिर एक बार अपनी सभ्यता पर गर्व कर सका।
बहमनी राज्य
उत्तर भारत में होने वाली इन घटनाओं का दक्षिण के राज्यों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा पर मुगलों की शक्ति स्थापित हो जाने पर यह स्थिति बदल गई। मुगलों को अपने अधिकार का विस्तार दक्षिण भारत में भी करना था और इस प्रकार उनको लगभग संपूर्ण भारत को एक साम्राज्य के रूप में संगठित करना था।
पंन्द्रहवीं शताब्दी मेक बहमनी राज्य की बड़ी उन्नति हुई। अंशतः इसका श्रेय बुद्धिमान मंत्री महमूद गवां के कुशल शासन को दिया जाता है। सन् १४५३ ई० में फारस का एक व्यापारी महमूद गवां भारत आया और उसने बहमनी राज्य के सुल्तान की नौकरी कर ली। धीरे-धीरे उन्नति करके वह बहमनी राज्य का मुख्यमंत्री बन गया। लगभग 25 वर्षों तक महमूद गवां ने बहमनी सुल्तानों को कौशल और बुद्धिमानी से न्यायपूर्ण शासन चलाने में सलाह दी। उसने लगान वसूल करने की फिर से व्यवस्था बनाई जिससे राज्य को एक शक्तिशाली सेना का व्यय वहन करने के लिए पर्याप्त धन प्राप्त हो सके। लेकिन अन्य मूर्ख शासकों की भांति उसने धन एकत्र करने के लिए प्रजा पर अत्याचार नहीं किए। वह इस बात पर विशेष सतर्कता के साथ ध्यान रखता था कि वह जनता से कितना कर वसूल करता है। इसके अतिरिक्त लगान प्राप्त करने के अन्य साधनों पर भी उसने विचार किया। उदाहरण के लिए उसने विजयनगर से गोवा जीत लिया जिससे वहां के व्यापार के लाभ का सारा धन अब बहमनी राज्य को होने लगा।
यद्यपि महमूद गवां जनता में बड़ा लोकप्रिय था पर उसके शत्रु भी हो गए थे। बहमनी सुल्तानों के दरबार में दो दल थे। एक दल तो स्थानीय मुसलमानों का था जो दक्षिण भारत के रहने वाले थे और दूसरा दल महमूद गवां जैसे मुसलमानों का था जो विदेश से आए थे और बहमनी सुल्तानों की नौकरी करने लगे थे। इन दोनों दलों में मित्रता की भावना न थी और दोनों परस्पर एक दूसरे से ईर्ष्या द्वेष रखते थे। अंत में सन् १४८१ ई० में स्थानीय दल के लोगों ने सुल्तान को महमूद गवां की हत्या करवाने के लिए राजी कर लिया।
गवां एक योग्य मंत्री था। अतः उसकी हत्या से बहमनी राज्य को बड़ी क्षति पहुंची। बाद के कुछ शासक कमजोर थे अतः उनके शासनकाल में राज्य भी कमजोर हो गया था। सरदार आपस में लड़ने लगे और सुल्तान उन पर नियंत्रण नहीं रख सका। कुछ सरदारों ने सुल्तान की शक्ति को भी चुनौती दी। इसके अतिरिक्त विजयनगर राज्य के आक्रमण भी बढ़ रहे थे। परिणामस्वरूप बहमनी राज्य पांच नए राज्यों में विभाजित हो गया। ये बीजापुर, गोलकुंडा, अहमदनगर, बीदर और बरार के राज्य थे। बाद में अहमदनगर ने बरार को और बीजापुर में बीदर को विजय कर लिया। इस प्रकार अहमदनगर, गोलकुंडा और बीजापुर के केवल तीन राज्य रह गए।
विजयनगर राज्य
इस काल में विजयनगर में किस प्रकार की घटनाएं हो रही थी? वंशों के परिवर्तन के साथ इस राज्य में भी अपनी आंतरिक कठिनाइयां पैदा हो रही थी। पंन्द्रहवीं शताब्दी में इन समस्याओं ने विजयनगर राज्य को शक्तिहीन कर दिया। परंतु पंन्द्रहवीं शताब्दी के अंत में महमूद गवां की मृत्यु के पश्चात जब बहमनी राज्य का पतन हो रहा था, विजयनगर साम्राज्य फिर बड़ा शक्तिशाली हो गया। इस समय विजयनगर राज्य का शासक कृष्णदेव राय था। उसने सन् १५०९ से १५३० ई० तक शासन किया। कृष्णदेव राय ने केवल रायचूर दोआब पर ही विजय नहीं प्राप्त की बल्कि वह अपनी सेनाएं लेकर बहमनी राज्य के अंदर प्रवेश कर गया। ऐसा उसने केवल यह सिद्ध करने के लिए किया कि विजयनगर राज्य बहमनी राज्य से अधिक शक्तिशाली है। उसने उड़ीसा के राज्य पर आक्रमण किया और वहां के राजा को भी पराजित किया। पश्चिमी समुद्र तट पर सभी स्थानीय राज्यों के साथ उसका व्यवहार मैत्रीपूर्ण था। ये शासक पश्चिमी एशिया और दक्षिण-पूर्वी एशिया के व्यापार पर निर्भर थे। कृष्णदेव राय समझता था कि यदि वह इन राज्यों को शांतिमय जीवन व्यतीत करने देगा तो वे विजयनगर से व्यापार करेंगे और इस व्यापार से विजयनगर राज्य समृद्धिशाली बनेगा। कृष्णदेव राय प्रायः अपनी प्रजा की दशा को समझने के लिए अपने संपूर्ण राज्य की यात्रा करता था। वह चाहता था कि उसके अधिकारी अपने कर्तव्य का पालन करें और उसकी प्रजा सुखी रहे। वह अपने राज्य में कृषि की उन्नति के लिए भी प्रयत्नशील रहा जिससे प्रजा को अधिक अन्न प्राप्त हो सके और राज्य को अधिक लगान मिले। इसके लिए विस्तृत सिंचाई योजना की आवश्यकता थी। इसलिए जहां पानी एकत्र किया जा सकता था वहां उसने बड़े बांध बनाने का आदेश दिया जिससे आवश्यकता पड़ने पर एकत्रित किया पानी नहरों द्वारा खेतों तक ले जाया जा सके। उसने मंदिरों के निर्माण और उनकी मरम्मत पर भी बड़ा धन व्यय किया। कृष्णदेव राय को संस्कृत और तेलुगु की अच्छी शिक्षा मिली थी। उसने तेलुगु में एक लंबे काव्य 'अमुक्तमाल्यदा' की रचना की जिसमें उसने यह बतलाया कि राजा को किस प्रकार शासन करना चाहिए।
दक्षिण के तीन राज्य
सन् १५३० ई० में कृष्णदेव राय की मृत्यु हो गई और उनकी मृत्यु के साथ विजयनगर राज्य का पतन आरंभ हो गया। दक्षिण भारत के उत्तरी क्षेत्र के तीन राज्य अहमदनगर, गोलकुंडा और बीजापुर विजयनगर पर आक्रमण करने के अवसर की प्रतीक्षा कर रहे थे। यह अवसर १५६५ ई० में आया जब इन राज्यों ने मिलकर तालीकोट की लड़ाई में विजयनगर को पराजित किया। अब विजयनगर का ऐश्वर्य-वैभव नष्ट हो गया। किंतु दक्षिण के इन तीन राज्यों को भी अधिक समय तक अपनी विजय का आनंद भोगने का अवसर नहीं मिला। उत्तर भारत की घटनाओं का प्रभाव दक्षिण के इतिहास पर भी पड़ा। हम देख चुके हैं की सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में दिल्ली की सल्तनत का पूर्ण पतन और मुगल वंश की नवीन शक्ति का उदय हो चुका था। मुगल यहां समझते थे कि संपूर्ण भारत पर अधिकार करने के लिए उनको दक्षिण भारत पर भी अपना अधिकार स्थापित करना पड़ेगा। अतः मुगल राज्य का दक्षिण की ओर विस्तार बढ़ने से दक्षिण के ये राज्य नष्ट हो गए।
भारत और यूरोप
भारत के इतिहास की गतिविधि को केवल मुगलों ने ही प्रभावित नहीं किया। पंन्द्रहवीं शताब्दी के अंत में एक नितांत भिन्न प्रकार के लोग बड़े-बड़े जहाजों में भारत के पश्चिमी समुद्र तट पर आए। यह पुर्तगाली थे। सन् १४९८ ई० में वास्कोडिगामा का पहला पुर्तगाली जहाज भारत के समुद्र तट पर पहुंचा। पुर्तगाली व्यापार करने के लिए भारत आए थे। इस व्यापार से उनको बहुत अधिक लाभ हुआ जिससे और अधिक संख्या में यहां आने का उन्हें प्रोत्साहन मिला। पुर्तगाल से भारत तक की इस लंबी यात्रा में कई महीनों का समय लग जाता था क्योंकि व्यापारियों को अफ्रीका की दक्षिणी नोक आशा अंतरीप (केप आफ गुड होप) का चक्कर काट कर आना पड़ता था। फिर भी वे आते थे। धीरे-धीरे उन लोगों ने छोटे-छोटे भूमि भागों पर अपना अधिकार कर लिया और वहां अपने कारखाने बना लिए। कभी वे भूमि का मूल्य दे देते थे और कभी बलपूर्वक अधिकार कर लेते थे। पुर्तगाली व्यापारी अपने कारखानों और बंदरगाहों के निकट होते थे। यही उनकी बस्तियां थी। जहां पुर्तगालियों की बस्तियां थी वही उनके धर्म प्रचारक भी रहते थे जो भारतवासियों को ईसाई बनाने के लिए आते थे। गोआ उनका प्राचीन उपनिवेश था जिसको पुर्तगालियों ने सन् १५१० ई० में प्राप्त किया था।
यूरोप से भारत आने वाले व्यापारियों में पुर्तगाली ही सबसे पहले नहीं थे। जैसा कि हमने देखा है कि व्यक्तिगत रूप से यूरोपीय व्यापारी व्यापार के लिए भारत के विभिन्न भागों की यात्रा पहले भी कर चुके थे। वेनिस का यात्री मार्को पोलो दक्षिण भारत आया था। निकितिन रूस से आया था और उसने दक्षिण भारत की यात्रा की थी। पर ये सब व्यापारी अकेले आते थे। जब पुर्तगाली आए तो वे समूहों में आए और बस्तियां बनाने के लिए उनको अपने सम्राट से भी सहायता मिली। वे अपने साथ सैनिकों को भी लाते थे और विभिन्न क्षेत्रों को जीतकर वहां अपनी बस्तियां बनाते थे। यूरोप के अन्य देशों में भी सोलहवीं शताब्दी में व्यापारियों के साथ अपने जहाज भेजें और व्यापार करने के उद्देश्य से अपनी बस्तियां बसाने की चेष्टा की। इंग्लैंड, फ्रांस, डेनमार्क, हॉलैंड और स्पेन से ये जहाज आए। यूरोप के सभी देश केवल भारत से ही नहीं बल्कि एशिया के बहुत से देशों के साथ व्यापारिक संबंध स्थापित करने के लिए उत्सुक थे। मुख्यतः वे व्यापार करने के लिए ही आए पर उनका उद्देश्य केवल व्यापार करना ही नहीं था। वे संसार की खोज करना चाहते थे और नए लोगों और उनकी सभ्यताओं का परिचय प्राप्त करना चाहते थे। वे ऐसा क्यों करना चाहते थे यह जानने के लिए हमें यूरोप में होने वाली घटनाओं का अधिक विस्तार से अध्ययन करना होगा।
यूरोप में पुनर्जागरण
पंन्द्रहवीं शताब्दी में इटली में पुनर्जागरण हुआ जिसको 'रिनैसों' कहा जाता है। 'रिनैसो' शब्द का अर्थ है 'पुनर्जन्म'। यूरोप में अज्ञान के लंबे अंधकार-युग के बाद एक नया आंदोलन आरंभ हुआ। जिससे कुछ ऐसे प्रवृत्तियां विकसित हुई। जिनका संबंध हमारे आधुनिक जीवन और विचारधारा से है। रिनैसो आंदोलन में लोगों के मन में यूरोप की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के प्रति रुचि उत्पन्न हुई। लोगों का ध्यान ईसाई धर्म के आरंभ होने से पूर्व की यूनान और रोम की सभ्यताओं और संस्कृतियों की ओर गया। इन सभ्यताओं के इतिहास, दर्शन, साहित्य और कलात्मक उपलब्धियों का ध्यानपूर्वक अध्ययन किया गया। इस अध्ययन के परिणाम स्वरूप नवीन विचारशैलियों का विकास हुआ। विद्वान समाज, न्याय, दर्शन और धर्म से संबंध रखने वाले प्रश्न करने लगे। पहले लोग ईसाइ चर्च के द्वारा किए गए इन प्रश्नों के उत्तर को स्वीकार कर लेते थे पर अब वे अन्य उत्तरा की खोज करने लगे। चारों और जिज्ञासा दिखाई देने लगी। इटली के छोटे-छोटे अनेक राज्यों के शासक ही नहीं बल्कि धनी व्यापारी भी इस ज्ञान में रुचि लेने लगे। अरब-निवासियों के साथ वर्षों के व्यापारिक संबंध के कारण अब देशों की विद्याएं इटली और स्पेन भी पहुंची। इससे भी यूरोप निवासियों की जिज्ञासा की प्रवृत्ति अधिक तीव्र हुई।
धीरे-धीरे विद्वानों पर चर्च का प्रभाव कम होने लगा। मध्य युग में यह प्रभाव बहुत अधिक था। ब्रह्मांड, ईश्वर और मनुष्य-जीवन के संबंध में चर्च में जो कुछ बताया जाता उसको अब लोग पूर्णतः स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। व्यक्ति की विचारधारा अब उसको दिलाए गए विश्वासों पर निर्भर नहीं करती थी। उसकी विचारधारा का आधार वह था जो वह देखता था और अनुभव करता था। इस प्रक्रिया से आधुनिक विज्ञान का जन्म हुआ। विद्वान अपने चारों ओर होने वाली घटनाओं का निरीक्षण करते और सभी वस्तुओं के साथ वैज्ञानिक प्रयोग भी करते थे और इस प्रकार अपने ज्ञान की वृद्धि करते थे। वे इस पर विश्वास नहीं करते थे कि ज्ञान ईश्वर प्रदत्त हैं। उनका विश्वास था कि अपने चारों ओर के संसार का बुद्धिमानी से अध्ययन करके ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। प्रयोग में लाए जाने वाले औजारों और विधियों के ओर और भी ध्यान आकर्षित किया गया और प्रतिविधिक ज्ञान की उन्नति का प्रयत्न किया गया।
इस शब्द का अर्थ था मनुष्य को विश्व के केंद्र के रूप में देखना और उसको विशेष महत्व प्रदान करना। 'रिनैसो' युग के विचारक इस पर विशेष बल देते थे कि ज्ञान का प्रयोग मानव कल्याण के लिए किया जाना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के महत्व को स्वीकार किया गया और साथ ही सहयोग और सामूहिक भावना के विकास पर भी बल दिया गया। मनुष्य को मनुष्य के साथ इसलिए भलाई नहीं करनी चाहिए कि ऐसा करना ईश्वर का आदेश है बल्कि इसलिए कि वह सब मनुष्य हैं।
ज्योतिष विद्या के विकास में रिनैसा युग की विचारधारा का परिचय प्राप्त होता है। पंन्द्रहवीं शताब्दी में पोलैंड की एक दार्शनिक कोपर्निकस ने एक नया क्रांतिकारी सिद्धांत संसार के सामने रखा। उसने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि सूर्य ब्रह्मांड का केंद्र है और पृथ्वी तथा अन्य ग्रह उसके चारों ओर चक्कर काटते हैं। उसका यह सिद्धांत क्रांतिकारी समझा गया क्योंकि अभी तक चर्च का कहना था कि पृथ्वी को ईश्वर ने बनाया है अतः पृथ्वी ही ब्रह्मांड का केंद्र है। गणित की गणना से कोपर्निकस ने अपने सिद्धांत को उसी प्रकार सत्य सिद्ध करने का प्रयत्न किया जिस प्रकार भारत में कई शताब्दियों पूर्व आर्यभट्ट ने किया था। सत्रहवीं शताब्दी के आरंभ में इटली के ज्योतिषी और वैज्ञानिक गैलीलियो ने इसी तथ्य को सिद्ध किया। उसके परिणाम केवल सैद्धांतिक गणना पर ही आधारित नहीं थे। उसमें निरीक्षण और प्रयोगों की विधि का प्रयोग किया। दूरबीन का आविष्कार उन्हीं दिनों हुआ था। उसने दूरबीन से सूर्य और अन्य ग्रहों को देखा फिर अपने इस निष्कर्ष पर पहुंचा। गैलीलियो का यह कार्य बड़ा महत्वपूर्ण था। अपने सिद्धांत को सिद्ध करने के लिए वह वैज्ञानिक तरीकों का प्रयोग कर रहा था। वह चर्च के ज्ञान को असत्य घोषित करके उसको चुनौती दे रहा था। इससे चर्च के साथ उसका संघर्ष आरंभ हुआ। चर्च में उसको यह घोषित करने के लिए विवश किया कि उसका सिद्धांत अब ठीक नहीं यद्यपि वह ठीक था। किंतु उसके निरीक्षण और प्रयोगों के द्वारा प्राप्त यह ज्ञान यूरोप के अन्य देशों में फैलने लगा और परिणाम स्वरूप क्रमशः अन्य वैज्ञानिक खोजें की गई।
यह सब परिवर्तन बहुत शीघ्र नहीं हो गए। इस आंदोलन के यूरोप के सभी देशों में फैलने और लोगों की विचारधारा को प्रभावित होने में कम से कम दो शताब्दियों का समय लगा। यह आंदोलन इटली के नगरों से आरंभ हुआ और धीरे-धीरे यूरोप के अन्य देशों विशेष रूप से फ्रांस, हालैंड, बेल्जियम और इंग्लैंड के नगरों में फैल गया। नगरों के व्यापारी यहा नहीं चाहते थे कि चर्च बहुत शक्तिशाली बन जाए। सामांतो के साथ भी उनके संबंध बहुत अच्छे नहीं थे क्योंकि वह हमेशा व्यापारियों से अधिक कर प्राप्त करने का प्रयत्न करते थे। इस प्रकार रिनैसा युग की विचारधारा व्यापारियों में बहुत लोकप्रिय हो गई क्योंकि उसमें चर्च और सामांतशाही शक्ति का विरोध किया जाता था।
वह व्यक्ति जिसको प्रायः रिनैसा आंदोलन का प्रतीक माना जाता है लियानार्डो द विन्सी था। उसकी विचारधारा में इस नए आंदोलन के प्रभाव की झलक दिखती है। लियोनार्डो (१४५२-१५१९) इटली का रहने वाला एक अत्यंत प्रतिभावान चित्रकार था। उसके चित्रों में रूप और रंग का सूक्ष्म देखने को मिलता है। लेकिन वह एक कलाकार भी था और वैज्ञानिक भी। उदाहरण के लिए जब उसे कार्यशील व्यक्तियों का चित्रण करना होता तो वह पहले शरीर की मांसपेशियों और व्यक्ति की क्रियाओं पर उनके प्रभाव का अध्ययन करता था। विज्ञान में रुचि होने के कारण उसने अनेक प्रकार की मशीनों का आविष्कार किया। उड़ने वाली मशीन के अविष्कार का प्रयत्न उसका सबसे अधिक रोमांचक प्रयोग था। सारे संसार के लोग पक्षियों को उड़ते देखते थे और उनके मन में भी उन्हीं की तरह उड़ने की इच्छा उत्पन्न होती थी। अनेक कवियों ने आकाश में उड़ने की कल्पना की थी। कुछ ने उड़न खटोला का वर्णन भी किया पर ये सब वर्णन कलात्मक थे। लियोनार्डो मनुष्य के उड़ने की केवल कल्पना करके संतुष्ट नहीं हो गया। उसने विद्यमान तकनीकी ज्ञान और आविष्कृत मशीनों का प्रयोग करके एक ऐसी मशीन बनाने का प्रयत्न किया जिसकी सहायता से मनुष्य आकाश में उड़ सके। उसके बनाए इस मशीन के चित्रों और वर्णन से हमको पता चलता है कि उसका मस्तिष्क कितने अच्छे वैज्ञानिक का मस्तिष्क था।
अनुसंधान का युग
रिनैसा के विचार एक शहर से दूसरे शहर में फैल गए। व्यापारी बहुत से विचार यूरोप के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में ले गए। शहरों के दुकानदार भी इन विचारों में रुचि रखते थे और शीघ्र ही एक ऐसा समय आने वाला था जब वैज्ञानिकों के साथ मिलकर दोनों का एक दूसरे की सहायता के लिए संगठन होने वाला था। सन् १४५३ ई० में आटोमन तुर्को ने कुस्तुनतुनिया पर आक्रमण किया और उस पर अधिकार कर लिया। पश्चिमी एशिया का एक बहुत बड़ा भाग पहले से ही तुर्को के अधिकार में था। इससे यूरोप को बहुत बड़ा धक्का लगा क्योंकि एशिया के साथ बहुत-सा व्यापार इसी क्षेत्र से होता था। अब एशिया के साथ यूरोप का व्यापारिक संबंध टूट गया। इसलिए यूरोप के व्यापारियों के लिए यह आवश्यक हो गया कि वह एशिया और भारत के लिए एक नया मार्ग खोज निकाले।
यूरोप को दो कारणों से एशिया के साथ अपने व्यापारिक संबंध बनाए रखना आवश्यक था। एक तो यूरोप को एशिया के मसालों की आवश्यकता पड़ती थी। मांस को बहुत समय तक उपयोग में लाए जाने योग्य बनाए रखने के लिए इन मसालों का उपयोग किया जाता था। उत्तरी यूरोप में जाड़े के मौसम की भयानक सर्दी में केवल इन्हीं साधनों का प्रयोग करके लोग मांस खा सकते थे। एशिया के मसालों का व्यापार अरब निवासियों के हाथ में था। वे पश्चिमी एशिया के बाजारों में मसाले लाते थे और लाभ लेकर इटली के व्यापारियों के हाथ बेच देते थे। फिर इटली के व्यापारी बहुत अधिक लाभ पर उनको यूरोप के अन्य क्षेत्रों में बेचते थे। दूसरा कारण यह था कि यूरोप में बहुत से नगर एशिया के इसी व्यापार पर निर्भर थे और यदि यह व्यापार रुक जाता तो उन नगरों का पतन हो जाता। इसलिए इन नगरों के धनी व्यापारी इस व्यापार को कायम रखने के लिए और व्यापार के नए साधन खोजने के लिए धन व्यय करने को तैयार रहते थे।
यदि तुम यूरोप के मानचित्र को देखो तो तुम्हें यह पता चलेगा कि यूरोप में एशिया के लिए सबसे सीधा और सरल स्थल मार्ग पश्चिमी एशिया से होकर है। अब यह मार्ग यूरोप निवासियों के लिए बंद हो गया था। अतः उनको इसके स्थान पर समुद्री मार्ग पर विचार करना था। परंतु उत्तरी भागों को छोड़कर अफ्रीका के विषय में उन दिनों लोगों की बहुत कम जानकारी थी। उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका के अस्तित्व का कोई भी ज्ञान नहीं था। रिनैसा युग के वैज्ञानिक इन व्यापारियों को भारत के लिए नए समुद्री मार्ग खोजने में सहायता प्रदान करने के लिए तैयार थे। इसी के परिणाम स्वरुप यूरोप में 'नई खोजों का युग' आरंभ हुआ और भारत की ओर से जाने वाले समुद्री मार्ग खोजने के लिए यूरोप के बंदरगाहों से विभिन्न दिशाओं की ओर जहाज चलने लगे।
इस क्षेत्र में सबसे पहले पुर्तगाली आए। सन् १४८८ ई० में बार्थोलोम्यू डियाज ने अफ्रीका के पश्चिमी समुद्री तट की यात्रा की और अफ्रीका की दक्षिणी नोक आशा अंतरीप (केप आफ गुड होप) तक गया। 10 वर्ष बाद वास्को-डि-गामा ने डियाज के मार्ग का अनुसरण करते हुए अपनी यात्रा पूर्वी समुद्र तट पर भी जारी रखीं। वह अरब सागर को पार कर सन् १४९८ ई० में भारत पहुंच गया। एक अरबी समुद्र-यात्री की सहायता से भारत का समुद्री मार्ग की खोज कर पुर्तगालियों ने अरब के व्यापारी उपनिवेशों पर आक्रमण किया और अरबों के व्यापार पर अपना अधिकार कर लिया। वे यूरोप को मसाले देने लगे और इस व्यापार से उनको बड़ा लाभ हुआ।
स्पेन के निवासी इस क्षेत्र में बहुत पीछे नहीं रहे। प्रसिद्ध यात्री क्रिस्टोफर कोलंबस के नेतृत्व में एक सामुद्रिक अभियान के व्यय को स्पेन के बादशाह वहन किया। कोलंबस ने सोचा कि यदि वह स्पेन से पश्चिम की दिशा में समुद्र को पार करेगा तो वह भारत पहुंच जाएगा क्योंकि उस समय लोगों को यह जानकारी न थी कि बीच में अमेरिका के महाद्वीप हैं। इसलिए उसने पश्चिम की ओर यात्रा आरंभ की और वह वेस्टइंडीज के द्वीपों तक जा पहुंचा जिनको वहां भारत का ही भाग समझता था। इसलिए उसने उसको वेस्टइंडीज कहा। यह घटना सन् १४९२ ई० की है।
सन् १४९७ ई० में अमेरिकी वेस्पुस्सी ने अमेरिका की यात्रा की। अब तक उस समय के भूगोलवेत्ता यह जान गए थे कि वह अमेरिका महाद्वीप था, एशिया नहीं। उसका नामकरण अमेरिगो वेस्पुस्सी के नाम पर अमरीका (अमेरिका) हुआ। बाद में सन् १५१९ ई० में जब मैगलन ने संसार के चारों ओर समुद्र यात्रा की तो अमेरिका महाद्वीप का अस्तित्व सिद्ध हो गया। स्पेन निवासी भारत के समुद्री मार्ग का पता नहीं लगा पाए इसलिए एशिया के व्यापार में कोई भाग नहीं ले सके। लेकिन उन्होंने अमेरिका में दो बड़ी महान् सभ्यताओं की खोज की। एक मेक्सिको की एजटेक्स सभ्यता थी और दूसरी पेरू की इनकैस सभ्यता। यहां उन्होंने बहुत बड़ी मात्रा में सोना, चांदी और बहुमूल्य रत्न प्राप्त किए। इसलिए उन्होंने इन क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की, इन सभ्यताओं को नष्ट किया और वहां का सोना-चांदी स्पेन ले आए। इस प्रकार स्पेन बड़ा धनी देश बन गया।
वैज्ञानिकों ने नए व्यापार और नए देशों की खोज में इन व्यापारियों की किस प्रकार सहायता की? भौगोलिक ज्ञान और वैज्ञानिक साधनों के सहारे ही संसार के विभिन्न भागों की खोज इतनी शीघ्रता से संभव हो सकी। सबसे पहले तो मानचित्र की रचना में उन्नति और सुधार हुए। आरंभ में यूनानी और रोमन लोगों के बनाए मानचित्रो का प्रयोग यूरोप के नाविकों द्वारा किया गया। पर अब जब कोई जहाज किसी ने देश को जाता तो अपने साथ जो नया ज्ञान और नई सूचना लाता वह भूगोलवेक्ताओं के पास पहुंच जाती जिसके आधार पर वे मानचित्र में सुधार कर देते। दूसरे बहुत से नए यंत्रों और विधियों का प्रयोग किया जाने लगा। इनके द्वारा कुछ नए प्रयोग भी किए गए। परिणाम स्वरूप नाविक कला के ज्ञान की बड़ी उन्नति हुई यूरोप-निवासियों ने अरब-निवासियों के दो यंत्रों का प्रयोग किया। वे लगातार उनका बार-बार परीक्षण करते रहे और धीरे-धीरे उन्होंने उनको और अधिक शुद्ध तथा निश्चित सूचना देने वाला बना दिया। ये वेधयंत्र तथा क्वाद्रांत (चतुर्थांश) है जिनकी सहायता से किसी निश्चित स्थान के देशांतर की नाप की जाती थी। पृथ्वी से दूर मध्य समुद्र में यात्रा करता हुआ जहाज अपनी दिक्स्थिति नहीं खो सकता था क्योंकि गणना करके वह अपनी स्थिति का पता लगा सकता था। इन यंत्रों के प्रयोग के पहले नाविकों को अपनी दिशा को पता लगाने के लिए तारों की स्थिति पर निर्भर रहना पड़ता था। 'मैरीनर्स कंपास' (कुतुबनुमा) के अविष्कार के बाद समुद्र में खो जाने का भय और कम हो गया। अब जहाजों को समुद्र तट के सहारे यात्रा नहीं करनी पड़ती थी। वे समुद्र को सीधे पार कर सकते थे। इससे अब वे अधिक तेज गति से एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा करने लगे। व्यापारियों को भी अब सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने में कम व्यय करना पड़ता था। पुर्तगालियों ने अनेक प्रकार के पालों के प्रयोग आरंभ किए और अंत में उन्होंने घूमने वाले पाल का अविष्कार किया। जिसको वायु की दिशा के अनुसार ठीक किया जा सकता था। इसका यह अर्थ हुआ कि समुद्र के आर-पार चलने वाली हवाओं का प्रयोग किसी भी दिशा में किया जा सकता था और उनसे अधिक गति भी प्राप्त की जा सकती थी। पुर्तगालियों ने ही सबसे पहले अपने जहाजों में अच्छी किस्म की तोपें लगाई और इस प्रकार अपनी लड़ने की शक्ति को बढ़ाया। यही कारण था कि वे समुद्र तट के स्थानीय लोगों से सफलता के साथ युद्ध कर सके। वे बंदरगाहों के ऊपर गोलाबारी कर सकते थे और समुद्र में भाग सकते थे। जब वे समुद्र तट की सेनाओं को कमजोर कर देते थे तब अपने सैनिकों को तट पर उतारकर युद्ध करते थे। विद्वान और वैज्ञानिक केवल पुस्तकीय ज्ञान का सहारा नहीं लेते ये बल्कि स्वयं मशीनों और यंत्रों का अध्ययन करते थे और उन व्यक्तियों के साथ मिलकर काम करते थे जो इन मशीनों और यंत्रों का उपयोग करते थे। इसी कारण उनको अपने प्रयोगों और अविष्कारों में सफलता मिली थी।
स्पेन और पुर्तगाल के निवासी एशिया के लिए नए समुद्री मार्गों की खोज में लग गए। वे संसार के दूसरे क्षेत्रों से व्यापार करना चाहते थे पर यूरोप के अन्य देश हालैंड, बेल्जियम, इंग्लैंड और डेनमार्क भी इसमें उनके साथ सम्मिलित हो गए। यह देश इस क्षेत्र के बाद में आए और सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में पुर्तगाल और स्पेन का पतन हुआ तभी इनका महत्व बढ़ सका।
धीरे-धीरे चर्च और पोप के अधिकारों को चुनौती दी जाने लगी। लोग राजनीति जैसे धर्मनिरपेक्ष विषयों में चर्च के हस्तक्षेप पर आपत्ति प्रकट करने लगे। अभी तक चर्च को लोगों से अनेक प्रकार के कर लेने का अधिकार था लेकिन अब लोग इन करो का विरोध करने लगे। चर्च धन एकत्र करता था और उसको भूमि के अनुदान मिले हुए थे इसलिए पादरी विलासिता का जीवन व्यतीत करते थे। यह ईसा मसीह की शिक्षाओं के विरुद्ध था। रोमन कैथोलिक चर्च के विरुद्ध भावनाएं शक्तिशाली होती गई और अंत में बहुत बड़ी संख्या में लोगों ने उस से अपना संबंध विच्छेद कर लिया। मार्टिन लूथर, इरैस्मस, जान कैल्विन जैसे ईसाई धर्म शास्त्रियों ने चर्च को त्याग दिया। सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में चर्च से संबंध विच्छेद में एक नवीन की ईसाई दल का निर्माण किया जो प्रोटैस्टैंट कहलाया। ये वे लोग थे जो रोमन कैथोलिक चर्च का विरोध करते थे। यह आंदोलन धार्मिक सुधार आंदोलन कहलाया। ईसाई धर्म के इस विभाजन के परिणामस्वरूप बड़ी खून-खराबी हुई क्योंकि कैथोलिक और प्रोटेस्टैंट दलों में बहुत लंबें समय तक लड़ाइयां होती रही।
उत्तरी यूरोप के नगरों के व्यापारियों ने प्रोटेस्टैंट आंदोलन की विचारधारा को स्वीकार किया और उसको सहायता प्रदान की। प्रोटेस्टैंट लोगों ने चर्च के अधिकारियों को चुनौती दी। धार्मिक मामलों में छानबीन करने की प्रवृत्ति को उत्साहित किया गया और व्यक्ति के जीवन को महत्व मिला। अतः उनकी विचारधारा का रिनैसा के नवीन विचारों से किसी प्रकार का संघर्ष नहीं हुआ। हालैंड, इंग्लैंड, नॉर्वे और स्वीडन जैसे उत्तरी यूरोप के देशों ने कैथोलिक चर्च से अपना संबंध तोड़ लिया और प्रोटेस्टैंट धर्म को स्वीकार कर लिया। फ्रांस दोनों धर्मों को मानने वालों में विभाजित हो गया। इन्हीं देशों के व्यापारियों ने नवीन वैज्ञानिक ज्ञान का प्रयोग किया और नवीन विचारधारा का विकास हुआ।
उत्तरी यूरोप में धार्मिक सुधार हो जाने पर दक्षिणी यूरोप के कैथोलिक देशों में इस सुधार आंदोलन के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में सुधार का एक दूसरा आंदोलन आरंभ हुआ। स्पेन के कैथोलिक इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। कैथोलिक धर्म में सुधार करने के प्रयत्न आरंभ हुए। जेसस या जेसुइट्स दल का प्रसिद्ध फ्रांसिस जेवियर था जिसने अपने जीवन के बहुत से वर्ष भारत में धर्म प्रचार में व्यतीत किए और अंत में उसकी मृत्यु यहीं पर हुई। किंतु कैथोलिक चर्च ने इस सुधार के आंदोलन को स्वीकार करने से इनकार किया। साथ ही वह और अधिक परंपरावादी बन गया। यदि कोई व्यक्ति चर्च का विरोध करता था तो उस पर धार्मिक मुकदमा चलाया जाता था और उस को दंड दिया जाता था। प्रायः इस प्रकार के धर्म विरोधियों को आग में जीवित जला दिया जाता था इन मुकदमों को इंक्वीजिशन (Inquisition) कहा जाता हैं। लोगों को नवीन ढंग से विचार करने का अधिकार नहीं था। इससे बहुत बड़ी मात्रा में बौद्धिक पतन हुआ।
इसके विरुद्ध उत्तरी देशों में परिस्थिति बिल्कुल भिन्न थी। चर्च की जायदाद को छीन लिया गया और उसका लगान राजकोष में आने लगा। व्यापारियों को व्यापार में बड़ा प्रोत्साहन प्रदान किया गया क्योंकि इससे देश को बहुत-सा धन प्राप्त होता था। जब कभी आवश्यकता पड़ती थी सरकार इन व्यापारियों की सहायता करती थी। इस प्रकार जैसा कि हम आगे चलकर देखेंगे यूरोप और एशिया के संबंध व्यापार से आरंभ हुए पर धीरे-धीरे इसमें देशों की सरकारें भी रुचि लेने लगी। अंत में एशिया और अफ्रीका में यूरोप के उपनिवेश बन गए।
भारतवर्ष में पुर्तगाली
पुर्तगाली भारत में व्यापार करने के लिए आए। उनका पहला उद्देश्य अरब व्यापारियों के मसाले के व्यापार को अपने अधिकार में लेना था। समुद्री डकैत का भी सहारा लेकर उन्होंने इस उद्देश्य को पूर्ण करने में सफलता प्राप्त की। मसाले के इस व्यापार को कायम रखने के लिए उनको पश्चिमी एशिया, भारत और बाद में दक्षिण-पूर्वी एशिया में भी अपने उपनिवेश स्थापित करने पड़े। एशिया में आकर वे मसाले के अतिरिक्त वस्त्रों आदि अन्य वस्तुओं का भी व्यापार करने लगे। पुर्तगाली कभी भारत को अपना घर नहीं बनाना चाहते थे। वे केवल कुछ समय तक अस्थाई रूप में उपनिवेशों में रहते थे और फिर पुर्तगाल लौट जाते थे। भारत ने उनकी केवल इतनी रुचि थी कि यह एक ऐसा स्थान है जहां व्यापार से बड़ा लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
उनको एक और दिलचस्पी भी थी। वह अधिक से अधिक संख्या में भारतवासियों को रोमन कैथोलिक चर्च का ईसाई बनाना चाहते थे। वे भारत में प्रचलित धर्मों के प्रति सहिष्णु न थे और लोगों को ईसाई बनने के लिए मजबूर करने में संकोच नहीं करते थे। उन्होंने भारत में अपने धार्मिक न्यायालय (इंक्वीजिशन) भी स्थापित किए। ईसाई धर्म भारत के लिए नवीन धर्म न था। यहां के सबसे पहले ईसाई सीरिया के ईसाई थे जिन्होंने पुर्तगालियों के यूरोप में ईसाई बनने से बहुत पहले इस धर्म को स्वीकार किया था। सीरिया के ईसाई शांतिपूर्ण ढंग से कई शताब्दियों से भारत में रह रहे थे पर पुर्तगाली इतने से ही संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने अधिक संख्या में भारतवासियों को ईसाई बनाने के लिए जो कुछ भी कर सकते थे किया।
भारत में मुगल
इसके विरुद्ध भारत में मुगलों के आगमन के भिन्न परिणाम रहे। मुगल भारत में व्यापार करने के लिए नहीं आए। वे अपना साम्राज्य स्थापित करने आए और इसमें उनको सफलता मिली। सबसे बड़ा अंतर तो यह था कि मुगलों ने भारत को अपना निवास स्थान बना लिया और यहां बस गए तथा भारतीय जनता का अंग बन गए।
भारत की भलाई को वे सदैव अपनी दृष्टि के सामने रखते थे। मुगल यह भी नहीं चाहते थे कि बहुत बड़ी संख्या में हिंदुओं को मुसलमान बना लिया जाए। भारत में पहले ही से बड़ी संख्या में मुसलमान रहते थे। औरंगजेब को छोड़कर अन्य मुगल शासक अपने धार्मिक नीति में बड़े उदार थे। मुगल-शासन का परिणाम एक शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना थी जिसमें संपूर्ण भारत सम्मिलित था। भारत को एक नई सभ्यता का युग देखने को मिला। अकबर इस नई सभ्यता का प्रतीक था।