अध्याय ७ - अकबर
सन् 1556 ई० में पिता की मृत्यु होने पर जब अकबर को बादशाह घोषित किया गया तब वह केवल तेरह वर्ष का था। इस छोटी अवस्था के बालक के लिए यह एक बहुत बड़ा उत्तरदायित्व था। अकबर को कबूतर उड़ाने और चीतों के शिकार पर जाने का बड़ा शौक था। पढ़ने-लिखने में उसकी अधिक रूचि नहीं थी पर उसकी स्मरणशक्ती बड़ी अच्छी थी और पुस्तकें पढ़वाकर सुनने में उसको आनंद प्राप्त होता था। चूंकि वह अभी बहुत छोटा था इसलिए उसका अभिभावक बैरम खां उसके लिए राज्य की देखभाल करने लगा। जब तक अकबर इस योग्य नहीं हो गया कि वह अपने राज्य का शासन चला सके तब तक राज्य के सारे मामलों की देखभाल, प्रशासन और युद्ध के कार्य बैरम खां ही करता था।
उत्तर भारत में मुगलों के राज्य को सुदृढ़ बनाने का हुमायूं को अवसर नहीं मिला। यह कार्य अकबर के लिए रह गया था। सबसे पहला संघर्ष हेमू से हुआ। हेमू अफगान राजाओं (सरदार) में से एक का सेनापति था और उसने शेरशाह के राज्यकाल में अपनी शक्ति को सुदृढ़ कर लिया था। बैरम खां और हेमू के बीच पानीपत का दूसरा युद्ध हुआ। हेमू की पराजय हुई और दिल्ली और आगरा पर जो मुगलों के हाथ से निकल गए थे, अकबर का फिर से अधिकार हो गया। अब एक बार फिर मुगलों की शक्ति की उत्तर भारत में स्थापना की जाने लगी। जब अकबर बालिग हो गया तो उसने बैरम खां से शासन की बाग-डोर अपने हाथ में ले ली। दिल्ली और आगरा में अपनी स्थिति को सुदृढ़ बनाने के बाद अकबर ने मुगल शासन क्षेत्र को देश के अन्य भागों तक विस्तृत करने का निश्चय किया। वह ग्वालियर, अजमेर और जौनपुर जैसे अन्य प्रमुख नगरों और किलों को जीतने के लिए अग्रसर हुआ। उसने मालवा को भी अपने राज्य में मिला लिया। इससे अकबर का राज्य राजपूत राज्यों का पड़ोसी बन गया।
अकबर राजपूतों के साथ मित्रता का संबंध स्थापित करने के लिए उत्सुक था। अपने परिवार और विभिन्न राजपूतों के राजपरिवारों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित करके उसने इस मित्रता को स्थापित करने का एक उपाय खोजा। उसने स्वयं अनेक राजकुमारियां के साथ विवाह किए। राजपूतों के साथ संधि करने और मित्रता स्थापित करने की इस नीति से उसकी स्थिति बड़ी सदृढ़ हो गई। उसने अपने प्रशासन में राजपूतों को उच्च पदों पर भी नियुक्त किया। उसके कुछ महत्वपूर्ण और स्वामिभक्त अधिकारी राजा मानसिंह जैसे राजपूत ही थे। उसको राणा प्रताप जैसे उन राजपूत राजाओं के साथ भी युद्ध करने पड़े जो उसका विरोध करते थे। रणथंभौर और चित्तौड़ जैसे राजस्थान के दो शक्तिशाली दुर्गों पर मुगलों का अधिकार हो गया।
अकबर ने संपूर्ण भारत को एक राष्ट्र समझा और उसने संपूर्ण भारत पर शासन करने की इच्छा की। इसलिए विजय करके राज्यों को अपने साम्राज्य में मिलाने के लिए उसने सब दिशाओं में अपनी सेनाएं भेजी। उसने गुजरात को विजय कर लिया। वह विजय इस कारण और महत्वपूर्ण थी कि गुजरात के समुद्र पार व्यापार से प्राप्त होने वाला कर अब मुगल साम्राज्य को मिलने लगा। गुजरात के व्यापारी, अरब और यूरोप दोनों देशों से व्यापार करते थे। इसलिए उसको बड़ा लाभ होता था। बाद में बंगाल को भी विजय करके साम्राज्य में मिला लिया गया। इस क्षेत्र का भी महत्व था क्योंकि यहां की उपजाऊ भूमि से बहुत-सा लगान और विदेशी व्यापार का बहुत-सा कर मिलता था। बंगाल में दक्षिण-पूर्वी एशिया और चीन के व्यापारी आते थे। बंगाल के व्यापारी मसालों के बदले कपड़े लेते थे।
सन् १५९५ ई० तक अकबर ने कश्मीर, सिंध, उड़ीसा, मध्य भारत और अफगानिस्तान में कंधार को जीत लिया। उत्तर भारत का संपूर्ण क्षेत्र अब मुगलों के अधिकार में आ गया। अब भारत का उसके उत्तर तथा पश्चिम के क्षेत्रों से मित्रता का संबंध स्थापित करके अकबर ने उत्तरी सीमा को सुरक्षित कर लिया। साथ ही साथ फारस और मध्य एशिया के साथ व्यापारिक संबंध और अधिक बढ़ गए। भारत के केवल असम और दक्षिणी प्रायद्वीप के राज्य स्वतंत्र रह गए। अकबर दक्षिण को विजय करने के लिए अधिक उत्सुक नहीं था। किंतु उसने यह अनुभव कर लिया कि दक्षिण पर अधिकार करके ही वह संपूर्ण प्रायद्वीप पर अधिकार कर सकता है। इसलिए अहमदनगर राज्य के विरुद्ध अभियान आरंभ हुआ। यह घेरा आठ साल चला क्योंकि दक्षिण के राज्यों ने मुगलों का विरोध करने में अपनी सारी शक्ति लगा दी थी। अंत में मुगलों ने खानदेश, बरार और अहमदनगर के कुछ भागों को अपने राज्य में मिला लिया। अब दक्षिण में गोदावरी नदी तक मुगल साम्राज्य का विस्तार हो गया। अकबर अब भारत के बहुत बड़े भाग का सम्राट बन गया।
प्रशासन
मुगलों की शासन-प्रणाली भारत में विद्यमान तथा मध्य एशिया और भारत से मुगलों के द्वारा ग्रहण की गई शासन-प्रणालियों का सम्मिश्रण थी। गांवों और नगरों के प्रशासन में बहुत कम परिवर्तन किया गया। प्राचीन प्रणाली चलती रही और बहुत से हिंदुओं को स्थानीय अधिकारियों के पद पर नियुक्त किया गया। कहीं-कहीं पर दूर के गांवों में लोगों को इस बात का भी पता नहीं चला कि दिल्ली में नए राजवंश का शासन आरंभ हो गया है पर धीरे-धीरे मुगल शासन का प्रभाव अनुभव किया जाने लगा।
मनसबदारी प्रथा मुगलों की शासन-प्रणाली की सबसे प्रमुख विशेषता थी। हर एक सरदार, अधिकारी और नागरिक कर्मचारी को एक पद या मनसब दिया जाता था। उसको मनसबदार कहा जाता था। मनसब सैनिकों की संख्या के अनुसार छोटा-बड़ा होता था। अधिकारियों और सरदारों को दिए गए ये मनसब १० से ५००० तक के होते थे। अपने जीवनकाल में ही अधिकारी इस मनसब या पद पर रहता था। उसका पुत्र यदि बादशाह की नौकरी करना चाहता तो वही पदवा उत्तराधिकार में प्राप्त नहीं कर सकता था। उसको अपनी योग्यता के अनुसार अपने पद पर नियुक्ति मिलती थी। इस प्रकार सम्राट अपने अधिकारियों और सरदारों की शक्ति पर पूर्ण नियंत्रण रखता था। सम्राट अपने मनसबदार की सेना का जब उसकी इच्छा होती थी प्रयोग कर सकता था। अकबर की एक चुनी हुई सेना उसके अपने अधिकार में रहती थी और उसका अपना तोपखाना भी था। अतः इस बात का भय नहीं था कि मनसबदार अपनी सेना का प्रयोग सम्राट के विरुद्ध करेगा।
सम्राट अनेक अफसरों के सहारे शासन करता था। इन अफसरों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण वज़ीर और बख़्शी होते थे। वजीर लगान वसूल करने के प्रबंध की और बख्शी सेना के प्रबंध की देखभाल करता था। इस प्रकार इन अधिकारियों का महत्व तो था पर इनमें से कोई भी शासन पर पूर्ण अधिकार नहीं रखता था। इनके होते हुए भी सबसे अधिक शक्तिशाली व्यक्ति सम्राट ही होता था। खानसामा बादशाह के घरेलू प्रबंध की देखभाल के लिए रहता था। न्यायाधीशों में सबसे ऊंचा स्थान प्रमुख काजी का था। एक अन्य अधिकारी बादशाह और उसके परिवार के सदस्यों द्वारा दिए गए दान का हिसाब रखता था।
वजीर और बख्शी के नीचे काम करने वाले अनेक अधिकारी थे। केंद्रीय शासक को साम्राज्य में होने वाले सभी कार्यों का पूर्ण ज्ञान रहता था। सम्राट दूसरों से भी राय लेता था। प्रायः वह उनको दीवाने-खास या अपने राजमहल में आमंत्रित करता था और उनके साथ विचार-विमर्श करता था। दीवाने-आम में वह अपनी प्रजा के सामने उपस्थित होता था। जहां हर एक व्यक्ति उससे मिल सकता था। वह अपने राजमहल के झरोखे पर भी आता था जिसके नीचे से सामान्य जनता उसका दर्शन कर सकती थी।
मुगल साम्राज्य बहुत से सूबों या प्रांतों में बंटा हुआ था। सूबों की शासन प्रणाली वैसी ही थी जैसी राजधानी की। अकबर के शासन काल में मुगल साम्राज्य पंन्द्रह सूबों में विभाजित था। प्रत्येक सूबा बहुत-सी सरकारों में बंटा हुआ था और प्रत्येक सरकार बहुत से परगनों में विभाजित थी। कई गांवों के एक समुदाय से एक परगना बनता था। सूबें में सूबेदार सबसे अधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति होता था जो अन्य अधिकारियों की सहायता से सूबे के प्रशासन की देखभाल करता था। दीवान भूमि के लगान का लेखा रखता था। बख़्शी नियमित रूप से राजधानी को सूचनाएं भेजता था और सूबे में सेना की आवश्यकताओं की पूर्ति करता था। एक अन्य अधिकारी भी था जिसके नाम से आज भी उत्तर भारत के कस्बों और गांवों में लोग परिचित हैं। यह कोतवाल होता था जिसके अधिकार में नगर का प्रशासन रहता था। पुलिस स्टेशनों को अब भी कहीं-कहीं कोतवाली कहा जाता है। अपराधियों को पकड़ने का उत्तरदायित्व कोतवाल पर था। वह व्यापारियों के द्वारा नाप-तोल में प्रयोग किए जाने वाले बांटो की भी देखभाल करता था जिससे वे किसी को धोखा नहीं दे सकते थे। कोतवाल का दूसरा काम पड़ोस के सभी व्यक्तियों का नाम एक रजिस्टर में दर्ज करना था। वह विदेश से आने वाले यात्रियों का नाम भी लिखता था। इस प्रकार वह जनगणना अधिकारी का कार्य भी करता था।
अकबर ने यह अनुभव किया कि यदि कोई अधिकारी एक ही नौकरी में या एक ही स्थान पर अधिक समय तक रहता तो वह बड़ा शक्तिशाली हो जाता था और अपने नीचे रहने वाले लोगों पर अत्याचार करने लगता था। इसलिए वह इस पर विशेष जोर देता था कि कोई अधिकारी एक ही स्थान पर बहुत अधिक समय तक रह चुका हो तो उसको स्थानांतरित कर दिया जाए। प्राचीन काल में वजीर और मंत्री बड़े शक्तिशाली थे और वह बहुत से कार्य जैसा चाहते थे कर सकते थे। अब सम्राट अधिक शक्तिशाली हो गया था।
राज्यों की आमदनी
मुगल राज्य को जो साधनों से धन प्राप्त होता था। एक साधन था भूमि का लगान और दूसरा व्यापार पर कर। बहुत बड़ी मात्रा में धन अधिकारियों के वेतन में व्यय किया जाता था। बड़े अधिकारियों को ऊंचा वेतन दिया जाता था जिससे वे अपना विलासिता पूर्ण जीवन व्यतीत करते थे।
यद्यपि अकबर चाहता था कि नगद वेतन दिया जाए पर वास्तव में बहुत से अधिकारियों को भूमि के लगान का अनुदान मिला था जिसको जागीर कहते हैं। अधिकारी अपनी जागीर से लगान वसूल करते थे जो उनके वेतन के बराबर होता था। चूंकि इन अधिकारियों को लगान के अनुदान से वेतन दिया जाता था अतः यह निश्चित करना आवश्यक हो गया था कि किस गांव से कितना लगान वसूल किया जाना चाहिए। इससे सम्राट के लिए अनुदान देना सरल हो जाता था। भूमि के विभिन्न क्षेत्रों की उपज अलग-अलग होती है और समय-समय पर इस उपज में भी अंतर होता रहता है। अतः सरकार के लिए लाभदायक होता है कि लगान का बंदोबस्त समय-समय पर किया जाए। अकबर चाहता था कि उसको साम्राज्य की उपज और उससे वसूल किए जाने वाले लगान का विस्तृत विवरण दिया जाए। सरकार को भेजे जाने वाले लगान की जांच के लिए भी इसकी आवश्यकता थी। राज्य उपज का एक तिहाई भाग लगान के रूप में वसूल करता था। राज्य लगान को धन के रूप में प्राप्त करना अधिक पसंद करता था। राजा टोडरमल से भूमि के लगान का लेखा बनाने के लिए कहा गया। जब यह कार्य कर लिया गया तब इसका लेखा बहुत सावधानी से रखा गया। अकबर ने इस बात पर बड़ा जोर दिया कि इस हिसाब को सदैव तैयार रखा जाए। इस बंदोबस्त से किसानों को भी बड़ी सुविधा प्राप्त हुई। अब वे यह जान सकते थे कि अपनी उपज का कितना भाग उनको अपने पास रखना है और कितना राज्य को देना है।
व्यापार से इतना कर नहीं प्राप्त होता था जितना भूमि से लगान। किंतु गुजरात और बंगाल जैसे क्षेत्रों में जहां व्यापार की बड़ी उन्नति हो रही थी इस व्यापार-कर से सूबे बहुत धनवान बन गए। व्यापारियों के ऊंटों के काफिले और उनकी बैलगाड़ियां देश के अंदर सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाती थी। कुछ व्यापारी देश की सीमा को पार करके अपना सामान मध्य एशिया, फारस और रूस तक ले जाते थे। समुद्र पार व्यापार की मुगल काल में बड़ी उन्नति हुई। भारत के समुद्र तट पर बहुत बड़े-बड़े बंदरगाह थे। भारत के व्यापारी कपड़े, नील, शोरा और मसाले दूसरे देशों को भेजते थे।
सामुद्रिक व्यापार के संबंध में बहुत से यूरोप निवासी अकबर के दरबार में आए। पुर्तगालियों ने पहले ही अपनी व्यापारिक केंद्रों की स्थापना कर ली थी और वे भारत के पश्चिमी समुद्र तट के व्यापारियों के साथ व्यापार करते थे। इंग्लैंड के व्यापारी पुर्तगालियों के इस व्यापार से होने वाले लाभ को देखकर उनसे ईर्ष्या करते थे। इसलिए उन्होंने कुछ व्यापारियों को अकबर के दरबार में इस उद्देश्य से भेजा कि वे उन्हीं स्थानों पर व्यापार करने की आज्ञा प्राप्त करें जिन स्थानों पर पुर्तगाली व्यापार करते थे। पर अकबर यूरोप के इतने अधिक व्यापारियों की अनुमति प्रदान करने के लिए तैयार न था।
साहित्य और ललित कलाएं
अकबर ने कभी पढ़ना लिखना नहीं सीखा था पर वह श्रेष्ठ पुस्तकों से परिचित था और अपने को शिक्षित बनाने में उसने अपना बहुत-सा समय व्यतीत किया। उसने अनेक पुस्तकें पढ़वाकर सुनी और सभी प्रकार के दार्शनिकों, विद्वानों और लेखकों के साथ विचार-विमर्श किया। उसको काव्य में भी रूचि थी और वह बहुत-सी कविताओं को उद्धृत कर सकता था। प्राकृतिक विज्ञान में उसकी रुचि न थी। यह भारत का दुर्भाग्य था क्योंकि यदि उसने रिनैसा के विचारों में या पुर्तगालियों की टेक्नोलॉजी में दिलचस्पी ली होती तो भारत में और अधिक शीघ्रता से विज्ञान का विकास होता।
उसके दो घनिष्ठ मित्र जिनसे वह बहुधा तर्क-वितर्क करता था, दो भाई अबुलफजल और फैजी थे। अबुलफजल ने 'अकबरनामा' (अकबर का जीवन चरित्र) नामक पुस्तक की रचना की। 'आईने अकबरी' इसी पुस्तक का एक भाग है। इस भाग में साम्राज्य के नियम, कानून और लगान व्यवस्था का विवेचन किया गया है। इसमें उस काल की देश की दशा का भी वर्णन किया गया है। फैजी एक कवि था और वह फारसी भाषा में कविता लिखता था। मुगल साम्राज्य की राजभाषा फारसी थी। इसलिए बहुत से शिक्षित व्यक्ति और विशेषकर वे लोग जो प्रशासन में कार्य करते थे फारसी भाषा जानते थे। अकबर और उसके मित्रों ने संस्कृत के प्रमुख ग्रंथों का फारसी में अनुवाद करने को प्रोत्साहन दिया। इस काल में संपूर्ण 'महाभारत' और 'रामायण' का फारसी में अनुवाद किया गया और अबुलफजल ने इन अनुवादों की भूमिका लिखी। कुछ विद्वानों ने संस्कृत में कई सुल्तानों के जीवन चरित्र लिखे और उनको उन सुल्तानों से इन रचनाओं के लिए बहुत से पुरस्कार और अनुदान प्राप्त हुए।
इसी काल में बहुत से कवियों ने हिंदी में काव्य रचना आरंभ की। बल्लभाचार्य, केशवदास और रहीम उनमें प्रमुख थे। रहीम के दोहे आज भी पढ़े जाते हैं। तुलसी की रचना और अधिक महत्वपूर्ण थी। उन्होंने रामायण की कथा लिखी और उसका नाम 'रामचरितमानस', रखा। तुलसी का काव्य हिंदीभाषी जनसमुदाय में बहुत लोकप्रिय हुआ।
अबुलफजल और फैजी के अतिरिक्त दूसरा व्यक्ति जो प्रायः अकबर के दरबार में देखा जाता था, प्रसिद्ध संगीतकार तानसेन था। उसने अनेक रागों की गायन शैली में नवीनता का समावेश करके भारतीय संगीत को समृद्ध किया। राग दरबारी इन रागों में बहुत लोकप्रिय था जिसके संबंध में कहा जाता है कि तानसेन में उसकी रचना विशेष रूप से अकबर के लिए की थी। इस काल तक भारतीय संगीत में फारस के संगीत कला की बहुत-सी विशेषताएं आ गई थी।
अकबर के दरबार में बहुत से चित्रकार भी थे जो उसके पुस्तकालय और पुस्तकों को सजाने के लिए छोटे आकार के चित्र (लघु चित्र) बनाते थे। ये चित्रकार भारत और फारस की मिश्रित शैली में चित्र रचना करते थे। वे जिन रंगों का प्रयोग करते थे। वे विशेषतः भारतीय थे और उनके चित्रों की कोमलता और बारीक विशेष रूप से फारसी शैली की थी। बहुत से चित्रकार नीची जाति के हिंदू थे पर इसमें सम्राट को किसी प्रकार की परेशानी नहीं होती थी। इसमें से कुछ ने अपने चित्र पर हस्ताक्षर कर दिए हैं अतः हम इनके नाम भी जानते हैं। लेकिन कभी-कभी किसी चित्र का अंकन चित्रकारों का एक समुदाय करता था। यह चित्रकार भारत के विभिन्न भागों - गुजरात, कश्मीर और दक्षिण भारत आदि से आते थे और इन क्षेत्रों की स्थानीय शैलियों का प्रभाव इन चित्रों में परिलक्षित होता है। जब ये चित्रकार किसी पुस्तक को सजाने के लिए चित्र नहीं बनाते थे तब वे प्रायः भारत और भारत की लोक कथाओं के दृश्यों का चित्रण करते थे। उदाहरण के लिए वे कृष्ण की लीलाओं या लैला मजनू की प्रेम कथाओं के दृश्यों का चित्रण करते थे। पर अकबर के दरबार में बहुत से चित्रों का संबंध अकबर के जीवन और उसके दरबार की घटनाओं से था।
पुस्तके ताड़ के पत्तों या वृक्षों की छालों पर नहीं लिखी जाती थी बल्कि कागज पर लिखी जाती थी। कागज का आविष्कार चीन में हुआ और पश्चिम एशिया में उसका निर्यात होता था। चौदहवीं शताब्दी तक भारतीय व्यापारी भी कागज का आयात करने लगे थे और बाद में वह भारत में भी बनाया जाने लगा। इस काल में भी भारत में पुस्तकें हाथ से ही लिखी जाती थी यद्यपि चीन और यूरोप में छापेख़ाने का आविष्कार किया जा चुका था और उसका प्रयोग भी किया जाता था। हाथ से पुस्तकों को लिखने में बड़ा समय लगता था अतः उतनी संख्या में पुस्तकें नहीं तैयार की जाती थी किसी संख्या में छापेखाने से। फारसी की पुस्तकें नास्तालिक जैसी विभिन्न प्रकार के सुंदर फारसी लिपि में लिखी जाती थी। हिंदी और संस्कृत के पुस्तकों को लिखने में सामान्यतः देवनागरी लिपि का प्रयोग किया जाता था।
वास्तुकला
दिल्ली और आगरा में अकबर का दरबार लगता था। पर अकबर ने अपनी राजधानी बनाने के लिए एक नए नगर के निर्माण का निश्चय किया। यह आगरा के निकट फतेहपुर सीकरी था। इसी स्थान पर सूफी महात्मा शेख सलीम चिश्ती रहता था और अकबर उसका बड़ा आदर करता था। इसी कारण उसने इस स्थान को अपनी राजधानी बनाने का निश्चय किया। उसने यहां पर लाल पत्थर से शानदार राजमहल और मंडप बनवाए। फतेहपुर सीकरी की वास्तुकला में फारस, मध्य एशिया तथा भारत की विभिन्न शैलियों का अद्भुत सम्मिश्रण देखने को मिलता है। यही बात दिल्ली में अपने पिता हुमायूं के लिए अकबर द्वारा बनवाए गए मकबरे के संबंध में भी सही है। यह सल्लतन काल में बनवाए गए मकबरों से केवल अपनी भवन निर्माण शैली, जिसमें भारतीय शैली की अनेक विशेषताएं हैं, में ही भिन्न नहीं है बल्कि इस कारण भी भिन्न है कि इसका निर्माण एक विस्तृत क्षेत्र में बनवाए गए बाग के बीच में किया गया है। संपूर्ण क्षेत्र में प्रवेश करने का मार्ग एक विशाल फाटक से होकर है जो स्वयं एक स्मारक है। मुगल शैली के बने सभी मकबरों में एक फाटक और एक बाग होता है।
इस काल के मुगल वास्तुकला ने आरंभिक भारतीय शैली की अनेक विशेषताएं ग्रहण की, जैसे प्रवेश द्वारों पर वर्गाकार ब्रैकेट अथवा गुफाओं की डिजाइन इत्यादि। साथ ही साथ इस मुगल काल का प्रभाव हिन्दू राजाओं के राजमहलों और मंदिरों की निर्माण कला पर भी पड़ा। अनेक राजपूतों राजाओं के महलों पर यह प्रभाव स्पष्ट दिखलाई देता है। वृंदावन का गोविंद देव मंदिर, इस कारण कि वह लाल पत्थर का बना है और उसमें यह मिश्रित शैली स्पष्ट है, आसानी से पहचाना जा सकता है।
अकबर की धार्मिक नीति
फतेहपुर सीकरी की एक इमारत का नाम इबादतखाना था। इसी स्थान पर अकबर विभिन्न धर्मों के सिद्धांतों पर विचार-विमर्श करवाता था। अकबर को धर्म की समस्याओं में विशेष रूचि थी। वह अनुभव करता था कि प्रत्येक धर्म ईश्वर की ओर संकेत करता है। अतः उसे आश्चर्य होता था कि सभी धर्मों के मानने वालों के लिए यह संभव क्यों नहीं था कि वे परस्पर मिलजुल कर शांति पूर्वक रहे। वह ऐसा मार्ग खोजना चाहता था जो सभी धर्मों की विशेषताओं से पूर्ण हो और सभी धर्मों के अनुयायियों में परस्पर प्रेम भाव उत्पन्न कर सकें। इसलिए उसने सभी धर्मों और संप्रदायों के आचार्यों को आमंत्रित किया कि वे आकर उसके साथ धर्म पर विचार विमर्श करें।
इबादतखाने में सबसे पहले इस्लाम धर्म के आचार्य आए। बाद में हिंदू, फारसी, जैन और ईसाईयों को भी सम्राट के साथ विचार-विमर्श के लिए आमंत्रित किया गया। पुर्तगाली गवर्नर ने सम्राट को ईसाई बनाने के उद्देश्य से अपने पादरी भेजें। पर उनको सफलता प्राप्त नहीं हुई। सम्राट ने उनको इसलिए आमंत्रित किया था कि उसको ईसाई धर्म की शिक्षाओं को समझने में रूचि थी ना कि उसका ईसाई बन जाने का कोई इरादा रहा हो। वास्तव में इस्लाम धर्म के कुछ उपदेशक अकबर को अन्य धर्म का इतना सम्मान करते देख विचलित हो गए थे।
अंत में इतने अधिक विचार-विमर्श के बाद अकबर ने निश्चय किया कि उसने एक मार्ग पा लिया है। उसने अपना कोई धर्म नहीं चलाया। उसने केवल एक नए धार्मिक मार्ग का सुझाव दिया। वह सब धर्मों के सामान्य सत्यों पर आधारित था और इसमें सब धर्मों के कुछ सिद्धांतों का समावेश कर दिया गया था। बाद में यही धार्मिक मार्ग दीन-ए-इलाही कहलाया जिसका तात्पर्य था एक ईश्वर का धर्म।
सबसे पहले अकबर ने इस बात की घोषणा की कि वह अपनी प्रजा का आध्यात्मिक पथ-प्रदर्शक है। फिर उसने एक धार्मिक मार्ग के नियमों का वर्णन किया। उसमें शांति और सहिष्णुता की भावना को प्रोत्साहन दिया। उसने जीव हिंसा की भावना का विरोध किया और सुझाव दिया कि कम-से-कम वर्ष के एक निश्चित समय में लोगों को मांस खाना बंद रखना चाहिए। उसने कठोर दंड देने की प्रथा को उचित नहीं माना और अपराधियों के अंग-भंग करने के दंड को भी वह उचित नहीं समझता था क्योंकि उसकी धारणा थी कि अंग-भंग करने से अधिक अच्छा अपराधी को उसके अपराध का अनुभव करा देना है। पति की मृत्यु पर स्त्रियों के सती होने की प्रथा का वह घोर विरोध करता था। उसने अपनी प्रजा में सूर्य, अग्नि और प्रकाश को आदर सम्मान देने की भावना का समावेश किया। जिन्होंने सम्राट को अपना आध्यात्मिक पथ-प्रदर्शक मान लिया उन्होंने यह शपथ ली कि वह सम्राट के लिए अपनी संपत्ति, अपने सम्मान और अपने धर्म का उत्सर्ग कर देने को तत्पर रहेंगे।
दरबार के सभी लोगों ने अकबर के आध्यात्मिक नेतृत्व को स्वीकार नहीं किया। कुछ सरकार जैसे बीरबल, जो अकबर को बहुत प्रिय था, उसके सच्चे अनुयायी बन गए। अन्य ने केवल सम्राट को प्रसन्न करने के लिए ऐसा किया। राजा मानसिंह जैसे कुछ लोग और भी थे जिन्होंने इस सब का विरोध किया और स्पष्ट रूप से अपने विचारों को व्यक्त कर दिया। अकबर ने उनके भी धार्मिक विचारों का सम्मान किया और उनको अपना धर्म मानने के लिए बाध्य नहीं किया। कुछ मुसलमान सरदार बहुत चिंतित हो गए क्योंकि वे समझते थे कि अकबर इस्लाम धर्म को नष्ट करना चाहता है। अपने नए धर्म की घोषणा करके अकबर किसी धर्म को नष्ट करने का प्रयत्न नहीं कर रहा था। वह केवल देश में एकता स्थापित करने के लिए उत्सुक था। उसका दीन-ए-इलाही भारत के निवासियों में एकता उत्पन्न करने का ही एक प्रयत्न था।
अकबर को एक महान सम्राट इसलिए नहीं कहा जाता कि उसने एक विशाल साम्राज्य पर शासन किया बल्कि इसलिए कि उसको अपने राज्य और अपनी प्रजा का बड़ा ध्यान रहता था। वह समझता था कि शासक प्रजा का संरक्षक होता है। अतः उसका कर्तव्य है कि वह अपनी प्रजा की भलाई के लिए कार्य करें। अनेक दृष्टिकोणों से अकबर के शासन संबंधी विचार बहुत कुछ वे ही थे जो सम्राट अशोक के थे। अपनी एक राजघोषणा में अशोक कहता है, सभी मनुष्य मेरे बच्चे हैं। यदि अकबर को इसका पता होता तो वह भी इसको स्वीकार करता। भारत को एक राष्ट्र के रूप में संगठित करना अकबर का महान् स्वप्न था। वह चाहता था कि लोग अपने क्षेत्रीय और धार्मिक भेदभाव को भूल जाएं और सभी अपने को केवल भारत का नागरिक समझे। अपने शासनकाल में वह कुछ सीमा तक अपने इस उद्देश्य में सफल हुआ। यह दुर्भाग्य था कि उसके उच्चाधिकारियों ने उसकी इस नीति का सदैव अनुसरण नहीं किया। अकबर का यह भी विश्वास था कि यदि लोग उसके नवीन धार्मिक दृष्टिकोण को स्वीकार कर ले तो देश में एकता और शांति हो जाए। उसकी विचारधारा की यही कमजोरी थी। एकता और शांति तभी हो सकती है जब प्रत्येक व्यक्ति उस पर विश्वास करें और उसके लिए प्रयत्नशील रहे। केवल एक व्यक्ति के प्रयत्न से चाहे वह सम्राट ही क्यों न हो, न एकता उत्पन्न हो सकती है और न शांति की स्थापना की जा सकती है।
अकबर में एक बड़ा भारी गुण था। वह गुण था उसकी निर्भीकता। जब वह क्रोधित हाथियों पर सवारी करके उनको पालतू बनाता था या जब वह वर्षा की बढ़ी हुई नदियों को तैर कर पार करता था तब उसका महान् साहस दिखलाई पड़ता था। उसने उस समय भी अपने महान् साहस का प्रदर्शन किया जब उसने उन व्यक्तियों का विरोध किया जो अपनी शक्ति का प्रयोग नए विचारों का प्रचार और भारतीय समाज और विचारधारा में होने वाले परिवर्तनों को रोकने में कर रहे थे। उसकी निर्भीकता की जड़े उसकी इमानदारी के ऊपर जमीन हुई थी और वह उसका एक अद्भुत गुण था जो प्रायः प्रत्येक व्यक्ति के चरित्र में नहीं मिलता।
सन् 1605 ई० में अकबर की मृत्यु होने पर उसे उसी मकबरे में दफनाया गया जिसको उसने आगरे के निकट सिकंदराबाद में स्वयं अपने लिए बनवाना आरंभ किया था। उस का मकबरा उसके महान व्यक्तित्व का प्रतीक है। यह अकबर बड़ा सीधा-साधा किंतु प्रभावित करने वाला है।