अध्याय 3 - उत्तर भारत के राज्य
(800 ई० से 1200 ई० तक)
उत्तर भारत के इतिहास में गुप्त शासनकाल के पश्चात छोटे-छोटे राज्यों का युग आया। समय-समय पर हर्ष जैसे शासकों ने अपना साम्राज्य स्थापित करने के प्रयत्न किए किन्तु ये प्रयत्न कदाचित ही सफल हुए। फिर भी साम्राज्य स्थापित करने की इच्छा समाप्त नहीं हुई। सन् ७५० से १००० तक तीन बड़े राज्य उत्तर भारत पर अपना अधिकार स्थापित करने के प्रयास में परस्पर युद्ध करते रहे लेकिन किसी भी राज्य को अधिक काल के लिए सफलता नहीं मिली।
कन्नौज के लिए संघर्ष
उत्तर भारत में कन्नौज नगर पर अधिकार करने के लिए कई लड़ाइयां लड़ी गई। यह नगर हर्ष की राजधानी और उत्तर भारत का एक प्रसिद्ध नगर था। उत्तर भारत में इस नगर की बड़ी अच्छी स्थिति थी क्योंकि जो इस नगर पर अधिकार कर लेता वह गंगा के मैदान पर अधिकार कर सकता था। तीन प्रमुख राज्य इस संघर्ष में लगे हुए थे और बारी-बारी से उन्होंने कन्नौज पर अधिकार किया। आधुनिक इतिहासकारो ने इसको कन्नौज के लिए त्रिदलीय (तीन दलों का) संघर्ष कहा हैं। ये तीन राज्य राष्ट्रकूट, प्रतिहार और पाल थे।
ढक्कन के उत्तरी भाग में नासिक के आसपास के क्षेत्र पर राष्ट्रकूटों का शासन था। मालखेद उनकी राजधानी थी। यह एक सुंदर और वैभवशाली नगर था। जैसा कि हम देख चुके हैं , जो राष्ट्रकूटों को उत्तर भारत में भी उतना ही शक्तिशाली बना देना चाहता था जितना कि वे दक्कन में थे। इसलिए कन्नौज पर अधिकार करके उसने उत्तर भारत पर शासन करने का प्रयत्न किया।
प्रतिहार दक्षिण राजस्थान के कुछ भागों और अवंति पर शासन करते थे। वे पहले स्थानीय अधिकारियों के परिवार थे पर अब वे स्वतंत्र राजवंश बन गए थे। उस समय के इतिहास जानने के साधनों से एक म्लेच्छ वंश का पता चलता है। पहले प्रतिहार इन्हीं म्लेच्छो को पराजित करके शक्तिशाली बन गए। म्लेच्छ शब्द का अर्थ है असभ्य जाति अथवा बहिष्कृत व्यक्ति। इस शब्द का प्रयोग विदेशियों के लिए किया जाता था हम निश्चित रूप से नहीं जानते कि इस प्रसंग में म्लेच्छ किसको कहा गया। पर संभवत इस शब्द का प्रयोग अरब निवासियों के लिए किया गया है। इस समय तक अरब-निवासी सिंध प्रदेश को जीतकर उसमें बस गए थे। अरबों के साथ संघर्ष में सफलता प्राप्त करके प्रतिहार अपनी सेनाओं को पूर्व की ओर ले गए और उन्होंने आठवीं शताब्दी के अंत तक कन्नौज पर अधिकार कर लिया।
किंतु बंगाल पर शासन करने वाले पाल वंश के राजा भी कन्नौज पर अधिकार करना चाहते थे। पाल वंश के राजाओं ने लगभग चार सौ वर्ष राज किया। संपूर्ण बंगाल और बिहार के बहुत से भागों में उनका राज्य फैला हुआ था। गोपाल, पाल वंश का पहला राजा था। राजवंश का पहला राजा बिना किसी उत्तराधिकारी के मर गया था अतः वहां के सरदारों में गोपाल को अपना शासक चुन लिया था। पाल वंश की स्थापना के लिए गोपाल का ही स्मरण किया जाता है।
गोपाल के पुत्र धर्मपाल ने अपने राजवंश को और अधिक शक्तिशाली बनाया। अपने शासन के आरंभिक काल में वह राष्ट्रकूट राजा से पराजित हुआ। फिर भी उसने अपनी सेना का संगठन किया और कन्नौज पर आक्रमण कर दिया। इस बार उसको सफलता मिली और उसने अपने संरक्षित शासक को कन्नौज की गद्दी पर बैठाया। पाल शासकों ने कुछ तो शक्तिशाली सेना बनाकर अपनी शक्ति का संगठन किया पर साथ ही साथ उन्होंने पड़ोसी राज्यों से भी संधियां की। उदाहरण के लिए पाल वंश के राजा और तिब्बत के राजा के बीच एक मित्रता की संधि हुई थी। इसके अतिरिक्त दक्षिण भारत के चोल शासकों की भांति पाल राजाओं ने भी दक्षिण-पूर्वी एशिया के व्यापार में अपनी रुचि दिखलाई। उन्होंने इस व्यापार में भाग लेने के लिए अपने व्यापारियों को प्रोत्साहित किया।
किंतु पाल शासकों का कन्नौज पर बहुत अधिक समय तक अधिकार नहीं रहा। राजा भोज के शासनकाल में प्रतिहारों ने अपनी खोई हुई शक्ति को फिर से प्राप्त कर लिया। उसने ८३६ ई० से ८८२ ई० तक राज किया। वह अपने समय का उत्तर भारत का सबसे अधिक प्रसिद्ध राजा था। वह एक शक्तिशाली योद्धा था और प्रतिहारों के लिए उसने कन्नौज पर फिर से अधिकार कर लिया। फिर भी जब भोज ने राष्ट्रकूट राज्य पर आक्रमण करना चाहा, तब प्रसिद्ध राष्ट्रकूट राजा ध्रुव ने उसको पराजित कर दिया। ८५१ ई० के लगभग एक अरब सौदागर सुलेमान ने भारत का हाल लिखा हैं। इस वर्णन में उसने जुज के राजा का उल्लेख किया है जो बड़ा शक्तिशाली था और वैभवशाली नगर पर शासन करता था। इतिहासकारों का विश्वास है कि संभवत जुज गुजरात का अरबी नाम था और जिस राजा का सुलेमान ने उल्लेख किया है वह राजा भोज ही था। भोज अपनी साहित्यिक रुचि और वैष्णव धर्म के संरक्षण के लिए भी याद किया जाता है। इसके कुछ सिक्कों मे विष्णु के अवतार वाराह के चित्र मिलते हैं और उसमें आदि वराह की पदवी भी धारण की थी। कहा जाता है कि एक लंबे शासन के बाद उसने अपने राज्य का परित्याग कर दिया पर हो सकता है कि यह सही न हो।
सन् ९१६ ई० में राष्ट्रकूटों ने अपनी शक्ति का फिर से संगठन किया। और उन्होंने फिर से कन्नौज पर आक्रमण किया। इस समय तक कन्नौज पर अपना अधिकार स्थापित करने की इच्छा रखने वाले तीनों राज्य राष्ट्रकूट, पाल और प्रतिहार लगातार परस्पर युद्ध करते-करते थक गए थे। वे आपस के युद्धों में इतने व्यस्त हो गए कि उनको यह भी पता न चला कि वह कितने अधिक कमजोर हो गए हैं। सौ वर्षों के अंदर तीनों राज्यों का पतन हो गया। जिस क्षेत्र पर राष्ट्रकूटों का राज्य था उस पर उत्तरकालीन चालुक्य शासन कर रहे थे। पाल राज्य पर चोल सेनाओं ने आक्रमण किया और बाद में उस राज्य पर सेन वंश का शासन स्थापित हुआ।प्रतिहार राज्य बहुत से छोटे-छोटे राज्यों में बट गया जिनमें से कुछ का संबंध राजपूतों के उत्थान से था।
राजपूत
राजपूतों का एक लंबा और मनोरंजक इतिहास है। वह कौन थे और कहां से आए यह आज भी रहस्य है। इतिहासकारों का विचार है कि उनमें से कुछ मध्य एशिया की उन जनजातियों से संबंधित है जो हूणों के उत्तर भारत के आक्रमण के बाद भारत में बस गई। वे कुलों में विभाजित थी। राजपूत हमेशा जोर देकर कहते थे कि वे क्षत्रिय जाति के हैं। राजपूत राजाओं ने अपने वंशों के इतिहास लिखवाए जिनमें उनका संबंध प्राचीन सूर्यवंशी या चंद्रवंशी राजाओं से जोड़ा गया। किंतु चार ऐसे राजपूत वंश भी थे जो अपने को इन दो प्राचीन वंशों का उत्तराधिकारी नहीं कहते थे। अपने को अग्निकुल का बतलाते थे। ये चारों वंश इस काल के इतिहास में सबसे अधिक प्रसिद्ध है। वे प्रतिहार (या परिहार), चौहान (या चहमान), सोलंकी (या चालुक्य) और पंवार (या परमार) थे।
अग्निकुल के इन चार राजपूत राज्यों में पश्चिम भारत, राजपूताना और मध्य भारत के कुछ भागों में अपने राज्य स्थापित किए। परिहार कन्नौज क्षेत्र पर शासन करते थे। राजपूतों के मध्य भाग में चौहानों का शक्तिशाली राज्य था। काठियावाड़ और उसके आसपास के क्षेत्र में सोलंकियों की शक्ति का उदय हुआ। पंवारों ने इंदौर के निकट धार को अपनी राजधानी बनाकर मालवा प्रदेश में अपना राज्य स्थापित किया। इनमें से बहुत से वंशों ने प्रतिहार और राष्ट्रकूट राजाओं के संरक्षण में अपना शासन प्रारंभ किया और बाद में अपने संरक्षकों के विरुद्ध विद्रोह किया और अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया।
दूसरे छोटे शासक भी शक्तिशाली बन गए और धीरे-धीरे उन्होंने उत्तर भारत के विभिन्न भागों में अपने छोटे-छोटे राज्य स्थापित कर लिए। नेपाल, आसाम में कामरूप, कश्मीर और उड़ीसा में उत्कल इसी प्रकार के राज्य थे। इसी समय पंजाब के पर्वतीय राज्यों चंबक (चंबा), दुर्गरा (जम्मू) और कुलूत (कुलू) आदि की स्थापना हुई। ये राज्य या तो पहाड़ियों पर थे या राजपूत राज्यों से बहुत दूर थे और राजपूतों के इतिहास से कोई संबंध नहीं रखते थे। जो राज्य राजपूतों के इतिहास से संबंध रखते थे वे मध्य भारत और राजस्थान के राजा थे जैसे बुंदेलखंड के चंदेले या चौहानों के दक्षिण में राज्य करने वाले मेवाड़ के गुहिल। चौहान राज्य के उत्तर-पूर्व में तोमर वंश का राज्य था और वे हरियाणा और दिल्ली के चारों ओर के क्षेत्र पर शासन करते थे। उन्होंने भी प्रतिहारों के संरक्षण में छोटे शासक के रूप में राज करना आरंभ किया किंतु जब प्रतिहार कमजोर हो गए तो वे स्वतंत्र हो गए। तोमरों ने ७३६ ई० में ढिल्लिका (दिल्ली) नगर का निर्माण कराया। बाद में चौहानों ने तोमरों पराजित करके उनके राज्य को अपने राज्य में मिला लिया। हिंदी के कवि चंदबरदायी के लिखे "पृथ्वीराज रासो" नामक प्रसिद्ध गाथागीत का नायक पृथ्वीराज तृतीय चौहान वंश का ही था।
ये राज्य अधिकतर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए परस्पर युद्ध करते रहते थे। इन युद्धों ने उनको कमजोर कर डाला। जब उन पर उत्तर पश्चिम से आक्रमण हुए तब वे उचित ढंग से अपनी रक्षा ना कर सके। इन आक्रमण करने वालों में सबसे पहला महमूद गजनवी था।
महमूद गजनवी
गज़नी अफगानिस्तान का एक छोटा-सा राज्य था। एक तुर्क सरदार ने दसवीं शताब्दी में इस राज्य की स्थापना की थी। उसके उत्तराधिकारियों में एक महमूद था। वह गज़नी को एक बड़ा शक्तिशाली साम्राज्य बनाना चाहता था। अतः उसने मध्य एशिया के कुछ भागों को जीत लेना चाहा। पर इस कार्य के लिए उसको एक विशाल सुसज्जित सेना की आवश्यकता थी। इसका अर्थ था कि पहले वह सैनिकों को वेतन देने के लिए और हथियार खरीदने के लिए धन एकत्र करे। उसने सुना था कि अफगानिस्तान के पड़ोस में भारत एक बहुत धनी देश है अतः धन प्राप्त करके अपनी विशाल सेना को सुसज्जित करने के लिए उसने भारत पर आक्रमण करने की योजना बनाई।
पहला आक्रमण १००० ई० में आरंभ हुआ। पच्चीस वर्षों के थोड़े से समय में महमूद ने भारत पर सत्रह आक्रमण किए। इस बीच उसने मध्य एशिया और अफगानिस्तान में भी लड़ाइयां लड़ी। उसके इन आक्रमणों से उत्तर भारत के निवासी बड़े भयभीत हो गए क्योंकि लूटमार करके वह धन और सोना एकत्र करना चाहता था। इस काम में जो भी उसका विरोध करके रोकना चाहता था उसी को वह अपने रास्ते से साफ कर देता था। बाद में उसने पंजाब को जीत कर अपने साम्राज्य में मिला लिया।
१०१० और १०२५ ई० के बीच महमूद ने उत्तर भारत के केवल उन नगरों पर आक्रमण किया जिनमें बहुत से मंदिर थे। उसने सुना था कि भारत के मंदिरों में धन और सोना बहुत है। इसी कारण उसने मंदिरों को नष्ट किया और उसका सोना तथा बहुमूल्य रत्न लूटकर ले गया। उसके आक्रमणों में से पश्चिम भारत के सोमनाथ के मंदिर पर आक्रमण और विनाश का सबसे अधिक उल्लेख किया जाता है। मंदिर नष्ट करने से उसको एक और लाभ हुआ। उसने मूर्तियों को तोड़ा और इससे वह धार्मिक नेता भी बन गया।
१०३० ई० में महमूद की मृत्यु हो गई और इससे उत्तर भारत के निवासियों को बड़ी राहत मिली। यद्यपि भारत में महमूद ने विनाश करने का ही कार्य किया परंतु अपने देश में उसने एक बड़ी सुंदर मस्जिद और एक बड़ा पुस्तकालय बनवाया। शहनामा नामक महाकाव्य का लेखक फिरदौसी उसी के संरक्षण में रहा। उसी ने मध्य एशिया के प्रसिद्ध विद्वान अलबेरूनी को भारत भेजा। अलबेरूनी भारत में कई वर्षों तक रहा और उसने भारत के संबंध में एक बड़ी सुंदर पुस्तक की रचना की। इस पुस्तक में भारत का और यहां के निवासियों के सामाजिक जीवन का विस्तार से वर्णन किया गया है।
मुहम्मद गौरी
महमूद गजनवी के आक्रमणों का उद्देश्य केवल धन लूटना था। पर बारहवीं शताब्दी के अंत में मुहम्मद गौरी के आक्रमण हुए। वह भी अफगानिस्तान के एक छोटे से राज्य का शासक था पर उसकी इच्छा केवल लूटमार करने की ही नहीं थी बल्कि वह उत्तर भारत को भी जीत कर अपने राज्य में मिला लेना चाहता था। पंजाब पहले भी गजनी राज्य का भाग रहा। मुहम्मद गौरी को भारत की योजना बनाने में इससे बड़ा उत्साह मिला।
मुहम्मद के अभियान बड़े व्यवस्थित होते थे। जब वह देश जीत लेता था तो अपनी अनुपस्थिति में देश की शासन व्यवस्था को चलाने के लिए अपना एक जनरल (सेनापति) छोड़ जाता था। मुहम्मद को प्रायः अफगानिस्तान में भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था इसलिए वह भारत से अफगानिस्तान और अफगानिस्तान से भारत आता-जाता रहता था। उसका भारत पर सबसे महत्वपूर्ण आक्रमण चौहान शासक पृथ्वीराज तृतीय पर हुआ। ११९२ ई० में मुहम्मद ने उसको तराइन की दूसरी लड़ाई में पराजित किया। इससे दिल्ली का क्षेत्र मुहम्मद के अधिकार में आ गया और वह अपनी शक्ति को बढ़ाने लगा। किंतु १२०६ ई० में मुहम्मद की हत्या कर दी गई। उत्तर भारत में उसका राज्य कुतुबुद्दीन ऐबक के अधिकार में आ गया। कुतुबुद्दीन ऐबक उसका जनरल था।
इस प्रकार दिल्ली पर तुर्कों का शासन आरंभ हुआ। प्रायः यह प्रश्न पूछा जाता है कि किस प्रकार चौदह वर्ष के थोड़े से समय में तुर्क उत्तर भारत के प्रमुख नगरों और व्यापार के मार्गों के ऊपर विजय प्राप्त करने में सफल हुए। इसका उत्तर केवल उत्तर भारत के राज्यों की राजनैतिक परिस्थिति में ही नहीं बल्कि उनकी आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था में भी निहित हैं।
आर्थिक व्यवस्था
मध्यकाल में जो सबसे बड़ा परिवर्तन हुआ वह यह कि मध्यकाल में भूमि के लगान को वसूल करने की वह प्रणाली नहीं रही जो प्राचीनकाल से चली आ रही थी। लगान के ऊपर अब राजा का सीधा अधिकार नहीं रहा। इस परिवर्तन का जीवन के अन्य पहलुओं पर भी प्रभाव पड़ा।
हमने देखा था कि गुप्त काल में कुछ अधिकारियों को नगद वेतन नहीं दिया जाता था। उनको लगान वसूल करने का अधिकार मिल गया था। किसी गांव या भूमि भाग के लगान को वसूल करने का अधिकार अधिकारी को दे दिया जाता था। यह लगान उस धन के बराबर था जो सामान्यतया उसको वेतन के रूप में मिलता। आरंभ में अधिकारी उस भूमि भाग पर अपना कोई स्वामित्व नहीं समझता था। वह केवल उस भूमि का लगान ही वसूल कर सकता था। पर मध्यकाल तक आते-आते ऐसे अनेक अधिकारी उस भूमि भाग पर अपना स्वामित्व भी समझने लगे। वेतन की बजाय भूमि के लगान वसूल करने का अधिकार देकर वेतन देने की प्रणाली मध्यकाल में बढ़ गई। इस प्रकार लगान वसूल करने का अधिकार पाने वाले राय या ठाकुर कहलाते थे। ये अनेक प्रकार के होते थे। इनमें से कुछ तो राजकीय अधिकारी थे और कुछ वे स्थानीय सरदार थे जिनको युद्ध में पराजित कर दिया गया था पर उनको अनुदान के रूप में भूमि पर अधिकार मिला हुआ था। अनुदानित व्यक्तियों का दूसरा बड़ा समुदाय ब्राह्मणों और विद्वानों का था जिनको वास्तव में भूमि तो मिली ही हुई थी साथ ही उस भूमि के लगान को वसूल करने का अधिकार भी मिला हुआ था।
इस प्रकार अनुदान अग्रहार या ब्रह्मदेय अनुदान कहलाते थे। जिन ब्राह्मणों को यह अनुदान प्राप्त थे उन पर राजा का अन्य किसी प्रकार का बंधन नहीं था। वे और उनके परिवार भूमि के लगान पर अपना सुखमय जीवन व्यतीत कर सकते थे। वह परिस्थिति बहुत कुछ उसी प्रकार की थी जैसी दक्षिण भारत के ब्रह्मदेय अनुदान की थी। परंतु दूसरे अनुदानित व्यक्तियों पर राजा के बंधन भी थे। अनुदानित किसानों से लगान वसूल करता था और उसका बड़ा भाई अपने उपयोग के लिए ले लेता था किंतु उसका थोड़ा भाग उसको राजा को भी देना पड़ता था। उसको राजा की सेवा के लिए कुछ सैनिक ही रखने पड़ते थे जिनको आवश्यकता पड़ने पर राजा मांग भी सकता था।
जैसे-जैसे अनुदानित व्यक्तियों की संख्या बढ़ती गई वैसे-वैसे और भी अधिक भूमि उनके अधिकार में चली गई। अतः राजा को प्राप्त होने वाली लगान की धनराशि कम हो गई। कभी-कभी राजा के किसी बड़े अधिकारी जैसे मंत्री को एक पूरा जिला जिसमें बहुत से गांव होते थे अनुदान में दे दिया जाता था। चूंकि उसके लिए सभी गांव से लगान वसूल कर लेना संभव नहीं था अतः वह अपने अधीन कर्मचारियों को अपने गांव को अनुदान में दे देता था। ये अधीन कर्मचारी गांव के किसानों से लगान वसूल करते थे। इस प्रकार राजा और किसानों के बीच में बहुत से मध्यवर्ती लोग आ गए।
लगान वसूल करने की प्रणाली में परिवर्तन के परिणामस्वरूप अनेक अन्य परिवर्तन हुए। अब अधिकारी राजा पर बहुत कम निर्भर रहते थे। जिन लोगों के पास बड़े-बड़े भूमि भागों के अनुदान थे वे राया स्वतंत्र शासकों का सा व्यवहार करने लगे। भूमि पर खेती करने वाले किसान अब सामंतों को अधिक महत्व प्रदान करने लगे क्योंकि उन पर सामंतों का ही सीधा अधिकार होता था। आरंभिक युग में अधिकारी राजा के नाम पर लगान वसूल करते थे। अब लगान सामंतों और अधिकारियों के नाम पर वसूल किया जाता था। अतः अब राजा किसानों से दूर रहने लगा और उसका उनसे संबंध टूट गया। पहले सब लगान राजकोष में जाता था अतः यदि राजा को एक बड़ी शक्तिशाली सेना संगठित करनी होती तो वह लगान में से कुछ अतिरिक्त धन अपनी सेना पर व्यय कर सकता था। अब लगान राजा और सामंतों में बॅंट जाता था इसलिए राजा अपनी सेना पर अतिरिक्त धन नहीं व्यय कर सकता था। यह भी एक कारण था जिससे उत्तर भारत के राज्य तुर्कों के आक्रमणों से अपना समुचित बचाव ना कर सके।
राजा और सामंतों को ठीक पारस्परिक संबंध कायम रखना भी कठिन हो गया। यह आशा की जाती थी कि राजा सामंतों पर नियंत्रण रखेंगा पर सामंत जब चाहते कठिनाइयां उत्पन्न करते रहत।कोई सामंत राजा के भाग का लगान समय पर ना भेज कर या आवश्यकता पड़ने पर सैनिक सहायता देने में धोखा देकर राजा की स्थिति को कमजोर कर सकता था परंतु ऐसा बहुत कम होता था क्योंकि सामंत प्रायः बड़े शक्तिशाली होते थे। इस प्रकार अपने सामंत से व्यवहार करने में राजा को बड़ा सतर्क रहना पड़ता था।
सामंतो में एक-दूसरे के प्रति बड़ी ईर्ष्या होती थी। यद्यपि वे एक ही राजा के लिए कार्य करते थे पर वह एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी होते थे। इस प्रतिद्वंदिता के कारण अनेक युद्ध होते थे। यदि उनकी इच्छा के विरुद्ध कोई कार्य किया जाता था या कोई बात कहीं जाती थी तो वे तुरंत अपमानित अनुभव करते थे। प्रत्येक झगड़े का निपटारा लड़ाई से होता था। एक सामंत दूसरे को चुनौती देता और परिणामस्वरूप युद्ध होता था। युद्ध ही अपनी शक्ति के प्रदर्शन का एकमात्र साधन था। इस प्रकार इस काल में लगान का अधिकतर भाग व्यर्थ ही युद्ध में व्यय होने लगा।
जब कोई सामंत यह अनुभव करता है कि वहां पर्याप्त मात्रा में शक्तिशाली बन गया है तो वह अपने को स्वतंत्र घोषित कर देता और अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लेता था। प्रायः राजा इतना कमजोर होता कि वह अपने सामंत को ऐसा करने से रोक नहीं सकता था। इस प्रकार राष्ट्रकूट जो आरंभ में चालुक्यों के सामंत थे स्वतंत्र हो गए और अंत में उन्होंने चालुक्यों के राज्य पर कब्जा कर लिया। आगे चलकर इनके सामंत उत्तर चालुक्य बने और उन्होंने भी इसी रीति से राष्ट्रकूटों के हाथ से राज्य छीन लिया। इसी प्रकार प्रतिहार राजाओं के संरक्षण में शासन करने वाले चंदेले भी स्वतंत्र हो गए। दक्षिण के चोल वंश के शासक भी आरंभ में सामंत ही थे। जब कभी किसी सामंत को स्वतंत्र होना होता था तब वह पहले महाराजाधिराज जैसी बड़ी-बड़ी पदवियां धारण करता था। वास्तव में यह पदवियां सही नहीं होती थी। पर सुनने में बड़ी प्रभावशाली प्रतीत होती थी।
इस परिस्थिति में सबसे अधिक कष्ट किसानों को होता था। उनको अपने सामंत को केवल लगान ही नहीं देना पड़ता था बल्कि उसके लिए बेगार भी करनी पड़ती थी। प्रायः सामंत किसानों से अतिरिक्त कर भी वसूल करते थे जैसे किसानों को सड़कों, कारखानों और सिचाई के पानी के प्रयोग के लिए भी कर देना पड़ता था। किसान इसकी शिकायत राजा से नहीं कर सकते थे क्योंकि राजा का सामंतों के ऊपर अधिक अंकुश नहीं था। ऐसी परिस्थितियों में किसान के लिए कोई अंतर नहीं था चाहे उसका राजा राजपूत हो या तुर्क। किसान अधिक से अधिक परिश्रम करता था किंतु वह गरीब ही बना रहा।
समाज
यद्यपि राजा की राजनितिक और आर्थिक शक्ति प्राचीनकाल के मुकाबले में बहुत कम हो गई फिर भी वह बड़ी शान-शौकत से रहता था। उसकी आमदनी का बहुत सा धन राजमहलों और मंदिरों के निर्माण में व्यय होता था।वह बहुमूल्य वस्त्रों, अलंकारों और रत्नों को धारण करने में तथा अपने दरबार की शान-शौकत में अपना अधिकतर धन व्यय करता था। राजा के द्वारा अपनाए गए फैशन को सामंत भी अपनाते थे।
राजा के दरबार में केवल सामंत ही नहीं धनवान ब्राह्मण भी उपस्थित होते थे। ब्राह्मणों में से बहुत से धनवान और शक्तिशाली होते थे क्योंकि उनको भी अनुदान में भूमि प्राप्त थी। इस भूमि से उनको अधिक लगान मिलता था क्योंकि उस पर उनका पूरा अधिकार था और उनको राजा को कोई लगान नहीं देना पड़ता था। भूमि अधिकारी ब्राह्मणों को स्वयं खेती भी नहीं करनी पड़ती थी अतः वे बड़ा सुख में जीवन व्यतीत करते थे। उनकी जमीन पर किसान उनके लिए खेती करते थे। भूमि के बदले में कुछ ब्राह्मण राजा के लिए धार्मिक कर्मकांड और पूजापाठ करते थे और और कुछ राजा का जीवन-चरित्र, उसके वंश का इतिहास और उसकी प्रशंसा में काव्य लिखते थे। बहुत से ब्राम्हण राज्य अधिकारी और राज्य कर्मचारी भी थे।
शहरों में रहने वाले लोग अभी मुख्यतया उद्योग-धंधों और व्यापार में लगे हुए थे। भारत के पश्चिमी समुद्र तट पर अरब-व्यापारियों के निवास करने के कारण भूमध्य सागर के प्रदेशों तथा एशिया के देशों के साथ व्यापार की उन्नति हो रही थी। भारत की बनी हुई वस्तुएं पूर्वी अफ्रीका के नगरों में भी बिक्री के लिए भेजी जाती थी। केसर, रेशम, रुई, ऊनी वस्त्रों, बहुमूल्य रत्नों, सुगंधित लकड़ी (चंदन) और मसालों का निर्यात होता था। भारत में विदेशों से घोड़े मंगाए जाते थे। यह घोड़े मध्य एशिया व अरब से आते थे और भारत के व्यापारी अच्छे घोड़ों को बहुत अधिक मूल्य देकर खरीदते थे। पश्चिमी एशिया से खजूर और शराब का बहुत बड़ी मात्रा में आयात होता था।
समाज के सभी वर्गों में शूद्रों का जीवन सबसे अधिक कष्टपूर्ण था। उनमें से अधिकांश किसान थे। इस कारण वे सबसे अधिक गरीब थे। इस काल में संसार के सभी देशों में किसानों के साथ बड़ा बुरा व्यवहार किया जाता था। यूरोप और चीन के किसानों का जीवन भी बड़ा कष्टपूर्ण था। वह अन्न का उत्पादन करते थे और इस कारण सबको उन पर निर्भर रहना पड़ता था। फिर भी उनको समाज में कोई अधिकार प्राप्त नहीं थे न तो वे किसी से कोई प्रार्थना कर सकते थे और न अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों का विरोध ही कर सकते थे। भारत के किसान नीची जातियों के थे इसलिए उनको नीची निगाह से देखा जाता था। कभी-कभी जब उनके साथ बहुत बुरा व्यवहार किया जाता तो वे देश के दूसरे भागों में भागने का प्रयत्न करते थे। पर यह भी बहुत कम संभव हो पाता था। इन शूद्रों के अतिरिक्त अछूत वर्ग के लोग भी थे जो बहुत नीच कामों को करते रहते थे।
शिक्षा और ज्ञान
ब्राह्मणों पर धार्मिक कर्मकांड ओं के अलावा शिक्षा देने का भी उत्तरदायित्व था। मंदिरों में स्कूल लगते थे और वहां ऊंची जातियों के बच्चों को शिक्षा दी जाती थी। उनमें से बहुत से संस्कृत और गणित का अध्ययन करते तथा धार्मिक पुस्तकें पढ़ते थे। नालंदा (बिहार) में एक प्रसिद्ध बौद्ध मठ और विश्वविद्यालय था। गुप्त काल में सभी विषयों पर विशेषकर विज्ञान के अध्ययन में विशेष रुचि दिखलाई गई थी। पर अब परिस्थिति बदल चुकी थी। विज्ञान के अध्ययन के प्रति रुचि कम हो गई थी। भारतीय विद्वान नई खोजे करने में कोई उत्साह नहीं दिखलाते थे। वे जो कुछ पहले से जानते थे उसी को दुहराने में संतुष्ट रहते थे। उनके पास जो ज्ञान था उसका भी वह दुरुपयोग करते थे उदाहरण के लिए ज्योतिष शास्त्र के क्षेत्र में आर्यभट्ट द्वारा की गई खोजों का प्रयोग सूर्य, पृथ्वी और ब्रह्मांड के संबंध में नवीन खोजों के लिए नहीं बल्कि फलित ज्योतिष के अज्ञान और अंधविश्वास से पूर्ण विचारों से जोड़ दिया गया था। भारत का आयुर्वेद का ज्ञान संपूर्ण विश्व में प्रसिद्ध था koपरंतु इस विषय के ज्ञान की वृद्धि भी रुक गई थी क्योंकि यह कहा जाने लगा कि जो कोई मृतक शरीर का स्पर्श करेगा वह जाति-च्युत हो जाएगा। यह भारत का दुर्भाग्य था क्योंकि इस काल में संसार के अन्य देशों में और विशेष रूप से चीन और अरब देशों मे ज्ञान का बहुत अधिक विकास हो रहा था। इस प्रकार भारतवर्ष अन्य देशों से बहुत पिछड़ा जा रहा था।
अब भी ज्ञान और साहित्य की भाषा संस्कृत थी। इस काल की सबसे अधिक लोकप्रिय पुस्तक "कथा सरित्सागर" थी। यह एक कहानी-संग्रह है। राजाओं के जीवन-चरित्र भी लिखे जाते थे। विल्हण ने "विक्रमाकदेव-चरित्र" की रचना की। कल्हण ने"राजतरंगिणी" नामक कश्मीर का संसार प्रसिद्ध इतिहास बारहवीं शताब्दी में लिखा। उत्तर भारत में कृष्ण की उपासना का प्रचार बढ़ा और राधा और कृष्ण की प्रेम-कथा बड़ी लोकप्रिय हो गई इस कथा को आधार पर बहुत सी कविताएं लिखी गई जयदेव का "गीत-गोविंद" उनमें से एक हैं।
संस्कृत के अतिरिक्त दूसरी भाषाओं का भी विकास हो रहा था। यह वही भाषाएं थी जिन्हें क्षेत्रीय भाषाओं के रूप में हम अच्छी तरह जानते हैं। इनका विकास सर्वसाधारण के द्वारा बोले जाने वाली अपभ्रंश भाषाओं से हुआ। अपभ्रंश का शाब्दिक अर्थ है बिगड़ी हुई भाषा। इस समय विद्वानों की भाषा संस्कृत थी किंतु साधारण जन अपभ्रंश भाषाओं का व्यवहार करते थे। पश्चिमी भारत में गुजराती और मराठी के आरंभिक रूप और पूर्वी भारत में बंगाला के आरंभिक रूप का बोलचाल में व्यवहार होता था।
धर्म
हिंदू धर्म के अंतर्गत भक्ति भावना के प्रचार से इन भाषाओं के विकास में बड़ी सहायता मिली। दक्षिणी भारत के तमिल भक्त संतों ने इस भावना को आरंभ किया और धीरे-धीरे यह भावना उत्तर भारत में भी फैलने लगी। भक्त उपदेशक क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग करते थे क्योंकि वे निम्न वर्ग के लोगों, नगर के शिल्पकारों और गांव के किसानों को उपदेश देते थे। भक्ति संप्रदाय की बढ़ती हुई लोकप्रियता के कारण भी बौद्ध धर्म का कुछ सीमा तक पतन हुआ। मध्यकाल में केवल पूर्वी भारत में बौद्ध धर्म लोकप्रिय रहा। वहां उसको पाल राजाओं और धनी व्यापारियों से प्रोत्साहन मिला। बौद्ध धर्म अब वह सामान्य धर्म नहीं रह गया था जिसकी शिक्षा गौतम बुद्ध ने दी थी। जब तुर्को ने नालंदा के मठ पर आक्रमण किया तब बौद्ध भिक्षु दक्षिण-पूर्व एशिया के विभिन्न भागों में भाग गए।
उत्तर भारत में वैष्णव और शैव दोनों संप्रदायों को मानने वाले लोग बहुत बड़ी संख्या में थे। विष्णु की उपासना का सर्वश्रेष्ठ रूप उनका कृष्ण का अवतार था। कृष्ण के बाल जीवन की, उनकी गोपों के साथ मथुरा में गाय चराने की, राधा के प्रेम की तथा उनसे कंस के युद्ध की अनेक कथाएं प्रचलित हो गई। इन कहानियों को कविता के रूप में गाया जाता था और मंदिरों की दीवारों पर मूर्तियों के द्वारा प्रदर्शित किया जाता था। अयोध्या के राजकुमार के रूप में विष्णु का राम-अवतार भी बड़ा लोकप्रिय था।
वास्तुकला और चित्रकला
प्रत्येक प्रसिद्ध राजा और शक्तिशाली सामंत मंदिर बनवाया था। इस काल के बने हुए सैकड़ों छोटे-बड़े मंदिर हैं। उड़ीसा के पुरी और भुवनेश्वर के मंदिर तथा कोणार्क का सूर्य मंदिर सबसे अधिक प्रसिद्ध व प्रभावोत्पादक मंदिर है। चंदेल राजाओं ने मध्य भारत में खुजराहों के मंदिर बनवाए। राजस्थान और गुजरात में भी बहुत से सुंदर मंदिरों का निर्माण हुआ। राजस्थान में आबू पर्वत पर बने सफेद संगमरमर के जैन मंदिरों का एक समूह है। हिंदुओं के लगभग सभी मंदिरों में विष्णु और शिव की मूर्तियां थी।
पाल वंश के राजा हिंदू और बौद्ध दोनों धर्मों के संरक्षक थे। उनके मंदिरों में कांसे की अथवा स्थानीय काले पत्थर की बनी देवी देवताओं की अनेक मूर्तियां सुशोभित थी। इन मूर्तियों में से अनेक नालंदा के पड़ोस में हुई खुदाई से प्राप्त हुई है।
वास्तुकला और मूर्तिकला के अतिरिक्त इस काल में चित्रकला का भी विकास हुआ। मंदिरों और राजमहलों की दीवारों को सजाने के लिए भित्ति चित्रों की प्राचीन परंपरा को जारी रखा गया। इस काल में एक भिन्न प्रकार की चित्रकला का आरंभ हुआ जो बाद में मुगल काल में बड़ी लोकप्रिय हुई। यह लघुचित्रों के बनाने की कला थी। चित्रकार पुस्तकों को सचित्र करने के लिए चित्र बनाते थे। पश्चिम भारत के जैन भिक्षुओं और पूर्वी भारत तथा नेपाल के बौद्ध भिक्षुओं को अपनी हस्तलिखित पुस्तकों को सचित्र बनाने का बड़ा शौक था। पुस्तक के तार पत्र के बने प्रश्नों पर वे छोटे-छोटे चित्र बनाते थे जिसमें वे उस पृष्ठ में लिखे हुए विषय और दृश्य को चित्रण करते थे। आरंभ में यह चित्र बड़े साधारण होते थे। धीरे-धीरे उनमें अधिक बारीकी का प्रदर्शन और अधिक रंगों का प्रयोग किया जाने लगा जिससे वे अपने आप चित्रकला के आदर्श नमूने बन गए।
८०० ई० से १२०० ई० तक के समय में भारत के सामाजिक और आर्थिक जीवन में बड़े परिवर्तन हुए। इन परिवर्तनों ने जीवन के नवीन आदेशों का निर्माण किया। इस काल में उत्तर और दक्षिण भारत में एक ही प्रकार की घटनाएं हुई। इस काल में इस विशाल देश के विभिन्न भाग एक दूसरे के अधिक निकट संपर्क में आए। तुर्क और अफगान शासक संपूर्ण भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने का स्वप्न देखते थे। इससे संपर्क बढ़ाने की यह भावना और अधिकरण बनती गई।
ब्राह्मणों पर धार्मिक कर्मकांड ओं के अलावा शिक्षा देने का भी उत्तरदायित्व था। मंदिरों में स्कूल लगते थे और वहां ऊंची जातियों के बच्चों को शिक्षा दी जाती थी। उनमें से बहुत से संस्कृत और गणित का अध्ययन करते तथा धार्मिक पुस्तकें पढ़ते थे। नालंदा (बिहार) में एक प्रसिद्ध बौद्ध मठ और विश्वविद्यालय था। गुप्त काल में सभी विषयों पर विशेषकर विज्ञान के अध्ययन में विशेष रुचि दिखलाई गई थी। पर अब परिस्थिति बदल चुकी थी। विज्ञान के अध्ययन के प्रति रुचि कम हो गई थी। भारतीय विद्वान नई खोजे करने में कोई उत्साह नहीं दिखलाते थे। वे जो कुछ पहले से जानते थे उसी को दुहराने में संतुष्ट रहते थे। उनके पास जो ज्ञान था उसका भी वह दुरुपयोग करते थे उदाहरण के लिए ज्योतिष शास्त्र के क्षेत्र में आर्यभट्ट द्वारा की गई खोजों का प्रयोग सूर्य, पृथ्वी और ब्रह्मांड के संबंध में नवीन खोजों के लिए नहीं बल्कि फलित ज्योतिष के अज्ञान और अंधविश्वास से पूर्ण विचारों से जोड़ दिया गया था। भारत का आयुर्वेद का ज्ञान संपूर्ण विश्व में प्रसिद्ध था koपरंतु इस विषय के ज्ञान की वृद्धि भी रुक गई थी क्योंकि यह कहा जाने लगा कि जो कोई मृतक शरीर का स्पर्श करेगा वह जाति-च्युत हो जाएगा। यह भारत का दुर्भाग्य था क्योंकि इस काल में संसार के अन्य देशों में और विशेष रूप से चीन और अरब देशों मे ज्ञान का बहुत अधिक विकास हो रहा था। इस प्रकार भारतवर्ष अन्य देशों से बहुत पिछड़ा जा रहा था।
वास्तुकला और चित्रकला