Vaidikalaya

हल्दीघाटी - प्रथम सर्ग

वण्डोली है यही¸ यहीं पर

है समाधि सेनापति की।

महातीर्थ की यही वेदिका¸

यही अमर–रेखा स्मृति की॥1॥

एक बार आलोकित कर हा¸

यहीं हुआ था सूर्य अस्त।

चला यहीं से तिमिर हो गया

अन्धकार–मय जग समस्त॥2॥

आज यहीं इस सिद्ध पीठ पर

फूल चढ़ाने आया हूँ।

आज यहीं पावन समाधि पर

दीप जलाने आया हूँ॥3॥

आज इसी छतरी के भीतर

सुख–दुख गाने आया हूँ।

सेनानी को चिर समाधि से

आज जगाने आया हूँ॥4॥

सुनता हूँ वह जगा हुआ था

जौहर के बलिदानों से।

सुनता हूँ वह जगा हुआ था

बहिनों के अपमानों से॥5॥

सुनता हूँ स्त्री थी अँगड़ाई

अरि के अत्याचारों से।

सुनता हूँ वह गरज उठा था

कड़ियों की झनकारों से॥6॥

सजी हुई है मेरी सेना¸

पर सेनापति सोता है।

उसे जगाऊँगा¸ विलम्ब अब

महासमर में होता है॥7॥

आज उसी के चरितामृत में¸

व्यथा कहूँगा दीनों की।

आज यही पर रूदन–गीत में

गाऊँगा बल–हीनों की॥8॥

आज उसी की अमर–वीरता

व्यक्त करूँगा गानों में।

आज उसी के रणकाशल की

कथा कहूँगा कानों में॥9॥

पाठक! तुम भी सुनो कहानी

आँखों में पानी भरकर।

होती है आरम्भ कथा अब

बोलो मंगलकर शंकर॥10॥

विहँस रही थी प्रकृति हटाकर

मुख से अपना घूँघट–पट।

बालक–रवि को ले गोदी में

धीरे से बदली करवट॥11॥

परियों सी उतरी रवि–किरण्ों

घुली मिलीं रज–कन–कन से।

खिलने लगे कमल दिनकर के

स्वर्णिम–कर के चुम्बन से॥12॥

मलयानिल के मृदु–झोकों से

उठीं लहरियाँ सर–सर में।

रवि की मृदुल सुनहली किरण्ों

लगीं खेलने निझर्र में॥13॥

फूलों की साँसों को लेकर

लहर उठा मारूत वन–वन।

कुसुम–पँखुरियों के आँगन में

थिरक–थिरक अलि के नर्तन॥14॥

देखी रवि में रूप–राशि निज

ओसों के लघु–दर्पण में।

रजत रश्मियाँ फैल गई

गिरि–अरावली के कण–कण में॥15

इसी समय मेवाड़–देश की

कटारियाँ खनखना उठीं।

नागिन सी डस देने वाली

तलवारें झनझना उठीं॥16॥

धारण कर केशरिया बाना

हाथों में ले ले भाले।

वीर महाराणा से ले खिल

उठे बोल भोले भाले॥17॥

विजयादशमी का वासर था¸

उत्सव के बाजे बाजे।

चले वीर आखेट खेलने

उछल पड़े ताजे–ताजे॥18॥

राणा भी आलेट खेलने

शक्तसिंह के साथ चला।

पीछे चारण¸ वंश–पुरोहित

भाला उसके हाथ चला॥19॥

भुजा फड़कने लगी वीर की

अशकुन जतलानेवाली।

गिरी तुरत तलवार हाथ से

पावक बरसाने वाली॥20॥

बतलाता था यही अमंगल

बन्धु–बन्धु का रण होगा।

यही भयावह रण ब्राह्मण की

हत्या का कारण होगा॥21॥

अशकुन की परवाह न की¸

वह आज न रूकनेवाला था।

अहो¸ हमारी स्वतन्त्रता का

झण्डा झुकनेवाला था॥22॥

घोर विपिन में पहुँच गये

कातरता के बन्धन तोड़े।

हिंसक जीवों के पीछे

अपने अपने घोड़े छोड़े॥23॥

भीषण वार हुए जीवों पर

तरह–तरह के शोर हुए।

मारो ललकारों के रव

जंगल में चारों ओर हुए॥24॥

चीता यह¸ वह बाघ¸ शेर वह¸

शोर हुआ आखेट करो।

छेको¸ छेको हृदय–रक्त ले

निज बरछे को भेंट करो॥25॥

लगा निशाना ठीक हृदय में

रक्त–पगा जाता है वह।

चीते को जीते–जी पकड़ो

रीछ भगा जाता है वह॥26॥

उडे. पखेरू¸ भाग गये मृग

भय से शशक सियार भगे।

क्षण भर थमकर भगे मत्त गज

हरिण हार के हार भगे॥27॥

नरम–हृदय कोमल मृग–छौने

डौंक रहे थे इधर–उधर।

एक प्रलय का रूप खड़ा था

मेवाड़ी दल गया जिधर॥28॥

किसी कन्दरा से निकला हय¸

झाड़ी में फँस गया कहीं।

दौड़ रहा था¸ दौड़ रहा था¸

दल–दल में धँस गया कहीं॥29॥

लचकीली तलवार कहीं पर

उलझ–उलझ मुड़ जाती थी।

टाप गिरी¸ गिरि–कठिन शिक्षा पर

चिनगारी उड़ जाती थी॥30॥

हय के दिन–दिन हुंकारों से¸

भीषण–धनु–टंकारों से¸

कोलाहल मच गया भयंकर

मेवाड़ी–ललकारों से॥31॥

एक केसरी सोता था वन के

गिरि–गह्वर के अन्दर।

रोओं की दुर्गन्ध हवा से

फैल रही थी इधर उधर॥32॥

सिर के केसर हिल उठते

जब हवा झुरकती थी झुर–झुर;

फैली थीं टाँगे अवनी पर

नासा बजती थी घुरघुर॥33॥

नि:श्वासों के साथ लार थी

गलफर से चूती तर–तर।

खून सने तीखे दाँतों से

मौत काँपती थी थर–थर॥34॥

अन्धकार की चादर ओढ़े

निर्भय सोता था नाहर॥

मेवाड़ी–जन–मृगया से

कोलाहल होता था बाहर॥35॥

कलकल से जग गया केसरी

अलसाई आँखें खोलीं।

झुँझलाया कुछ गुर्राया

जब सुनी शिकारी की बोली॥36॥

पर गुर्राता पुन: सो गया

नाहर वह आझादी से।

तनिक न की परवाह किसी की

रंचक डरा न वादी से॥37

पर कोलाहल पर कोलाहल¸

किलकारों पर किलकारें।

उसके कानों में पड़ती थीं

ललकारों पर ललकारें॥38॥

सो न सका उठ गया क्रोध से

अँगड़ाकर तन झाड़ दिया।

हिलस उठा गिरि–गह्वर जब

नीचे मुख कर चिग्धाड़ दिया॥39॥

शिला–शिला फट उठी; हिले तरू¸

टूटे व्योम वितान गिरे।

सिंह–नाद सुनकर भय से जन

चित्त–पट–उत्तान गिरे॥40॥

धीरे–धीरे चला केसरी

आँखों में अंगार लिये।

लगे घ्ोरने राजपूत

भाला–बछरी–तलवार लिये॥41॥

वीर–केसरी रूका नहीं

उन क्षत्रिय–राजकुमारों से।

डरा न उनकी बिजली–सी

गिरने वाली तलवारों से॥42॥

छका दिया कितने जन को

कितनों को लड़ना सिखा दिया।

हमने भी अपनी माता का

दूध पिया है दिखा दिया॥43॥

चेत करो तुम राजपूत हो¸

राजपूत अब ठीक बनो।

मौन–मौन कह दिया सभी से

हम सा तुम निभीर्क बनो॥44

हम भी सिंह¸ सिंह तुम भी हो¸

पाला भी है आन पड़ा।

आओ हम तुम आज देख लें

हम दोनों में कौन बड़ा॥45।

घोड़ों की घुड़दौड़ रूकी

लोगों ने बंद शिकार किया।

शक्तसिंह ने हिम्मत कर बरछे

से उस पर वार किया॥46॥

आह न की बिगड़ी न बात

चएड़ी के भीषण वाहन की।

कठिन तड़ित सा तड़प उठा

कुछ भाले की परवाह न की॥47॥

काल–सदृश राणा प्रताप झट

तीखा शूल निराला ले¸

बढ़ा सिंह की ओर झपटकर

अपना भीषण–भाला ले॥48॥

ठहरो–ठहरो कहा सिंह को¸

लक्ष्य बनाकर ललकारा।

शक्तसिंह¸ तुम हटो सिंह को

मैंने अब मारा¸ मारा॥49॥

राजपूत अपमान न सहते¸

परम्परा की बान यही।

हटो कहा राणा ने पर

उसकी छाती उत्तान रही॥50॥

आगे बढ़कर कहा लक्ष्य को

मार नहीं सकते हो तुम।

बोल उठा राणा प्रताप ललकार

नहीं सकते हो तुम॥51॥

शक्तसिंह ने कहा बने हो

शूल चलानेवाले तुम।

पड़े नहीं हो शक्तसिंह सम

किसी वीर के पाले तुम॥52

क्यों कहते हो हटो¸ हटो¸

हूँ वीर नहीं रणधीर नहीं?

क्या सीखा है कहीं चलाना

भाला–बरछी–तीर नहीं?॥53॥

बोला राणा क्या बकते हो¸

मैंने तो कुछ कहा नहीं।

शक्तसिंह¸ बखरे का यह

आखेट¸ तुम्हारा रहा नहीं॥54॥

राजपूत–कुल के कलंक¸

धिक्कार तुम्हारी वाणी पर¸

बिना हेतु के झगड़ पड़े जो

वज` गिरे उस प्राणी पर॥55॥

राणा का सत्कार यही क्या¸

बन्धु–हृदय का प्यार यही?

क्या भाई के साथ तुम्हारा

है उत्तम व्यवहार यही?॥56॥

अब तक का अपराध क्षमा

आगे को काल निकाला यह

तेरा काम तमाम करेगा

मेरा भीषण भाला यह॥57॥

बात काटकर राणा की यह

शक्तसिंह फिर बोल उठा

बोल उठा मेवाड़ देश

इस बार हलाहल घोल उठा॥58॥

धार देखने को जिसने

तलवार चला दी उँगली पर।

उस अवसर पर शक्तसिंह वह

खेल गया अपने जी पर॥59॥

बार–बार कहते हो तुम क्या

अहंकार है भाले का?

ध्यान नहीं है क्या कुछ भी

मुझ भीषण–रण–मतवाले का॥60॥

राजपूत हूँ मुझे चाहिए

ऐसी कभी सलाह नहीं।

तुष्ट रहो या रूष्ट रहो¸

मुझको इसकी परवाह नहीं॥61॥

रूक सकता है ऐ प्रताप¸

मेरे उर का उद््गार नहीं।

बिना युद्ध के अब कदापि

है किसी तरह उद्धार नहीं॥62॥

मुख–सम्मुख ठहरा हूँ मैं¸

रण–सागर में लहरा हूँ मैं।

हो न युद्ध इस नम्र विनय पर

आज बना बहरा हूँ मैं॥63॥

विष बखेर कर बैर किया

राणा से ही क्या¸ लाखों से।

लगी बरसने चिनगारी

राणा की लोहित आँखों से॥64॥

क्रोध बढ़ा¸ आदेश बढ़ा¸

अब वार न रूकने वाला है।

कहीं नहीं पर यहीं हमारा

मस्तक झुकने वाला है॥65॥

तनकर राणा शक्तसिंह से

बोला – ठहरो ठहरो तुम।

ऐ मेरे भीषण भाला¸

भाई पर लहरो लहरो तुम॥66॥

पीने का है यही समय इच्छा

भर शोणित पी लो तुम।

बढ़ो बढ़ो अब वक्षस्थल में

घुसकर विजय अभी लो तुम॥67॥

शक्तसिंह¸ आखेट तुम्हारा

करने को तैयार हुआ।

लो कर में करवाल बचो अब

मेरा तुम पर वार हुआ॥68॥

खड़े रहो भाले ने तन को

लून किया अब लून किया!

खेद¸ महाराणा प्रताप ने¸

आज तुम्हारा खून किया॥69॥

देख भभकती आग क्रोध की

शक्तसिंह भी क्रुद्ध हुआ।

हा¸ कलंक की वेदी पर फिर

उन दोनों का युद्ध हुआ॥70॥

कूद पड़े वे अहंकार से

भीषण–रण की ज्वाला में।

रण–चण्डी भी उठी रक्त

पीने को भरकर प्याला में॥71॥

होने लगे वार हरके से

एकलिंग प्रतिकूल हुए।

मौत बुलानेवाले उनके

तीक्ष्ण अग्रसर शूल हुए॥72॥

क्षण–क्षण लगे पैतरा देने

बिगड़ गया रुख भालों का।

रक्षक कौन बनेगा अब इन

दोनों रण–मतवालों का॥73॥

दोनों का यह हाल देख

वन–देवी थी उर फाड़ रही।

भाई–भाई के विरोध से

काँप उठी मेवाड़–मही॥74॥

लोग दूर से देख रहे थे

भय से उनके वारों को।

किन्तु रोकने की न पड़ी

हिम्मत उन राजकुमारों को॥75॥

दोनों की आँखों पर परदे

पड़े मोह के काले थे।

राज–वंश के अभी–अभी

दो दीपक बुझनेवाले थे॥76॥

तब तक नारायण ने देखा

लड़ते भाई भाई को।

रूको¸ रूको कहता दौड़ा कुछ

सोचो मान–बड़ाई को॥77॥

कहा¸ डपटकर रूक जाओ¸

यह शिशोदिया–कुल–धर्म नहीं।

भाई से भाई का रण यह

कर्मवीर का कर्म नहीं॥78॥

राजपूत–कुल के कलंक¸

अब लज्जा से तुम झुक जाओ।

शक्तसिंह¸ तुम रूको रूको¸

राणा प्रताप¸ तुम रूक जाओ॥79॥

चतुर पुरोहित की बातों की

दोनों ने परवाह न की।

अहो¸ पुरोहित ने भी निज

प्राणों की रंचक चाह न की॥80॥

उठा लिया विकराल छुरा

सीने में मारा ब्राह्मण ने।

उन दोनों के बीच बहा दी

शोणित–धारा ब्राह्मण ने॥81॥

वन का तन रँग दिया रूधिर से

दिखा दिया¸ है त्याग यही।

निज स्वामी के प्राणों की

रक्षा का है अनुराग यही॥82॥

ब्राह्मण था वह ब्राह्मण था¸

हित राजवंश का सदा किया।

निज स्वामी का नमक हृदय का

रक्त बहाकर अदा किया॥83॥

जीवन–चपला चमक दमक कर

अन्तरिक्ष में लीन हुई।

अहो¸ पुरोहित की अनन्त में

जाकर ज्योति विलीन हुई॥84॥

सुनकर ब्राह्मण की हत्या

उत्साह सभी ने मन्द किया।

हाहाकार मचा सबने आखेट

खेलना बन्द किया॥85॥

खून हो गया खून हो गया

का जंगल में शोर हुआ।

धन्य धन्य है धन्य पुरोहित –

यह रव चारों ओर हुआ॥86॥

युगल बन्धु के दृग अपने को

लज्जा–पट से ढाँप उठे।

रक्त देखकर ब्राह्मण का

सहसा वे दोनों काँप उठे॥87॥

धर्म भीरू राणा का तन तो

भय से कम्पित और हुआ।

लगा सोचने अहो कलंकित

वीर–देश चित्तौर हुआ॥88॥

बोल उठा राणा प्रताप –

मेवाड़–देश को छोड़ो तुम।

शक्तसिंह¸ तुम हटो हटो¸

मुझसे अब नाता तोड़ो तुम॥89॥

शिशोदिया–कुल के कलंक¸

हा जन्म तुम्हारा व्यर्थ हुआ।

हाय¸ तुम्हारे ही कारण यह

पातक¸ महा अनर्थ हुआ॥90॥

सुनते ही यह मौन हो गया¸

घूँट घूँट विष–पान किया।

आज्ञा मानी¸ यही सोचता

दिल्ली को प्रस्थान किया॥91

हाय¸ निकाला गया आज दिन

मेरा बुरा जमाना है।

भूख लगी है प्यास लगी

पानी का नहीं ठिकाना है॥92

मैं सपूत हूँ राजपूत¸

मुझको ही जरा यकीन नहीं।

एक जगह सुख से बैठूँ¸ दो

अंगुल मुझे जमीन नहीं॥93

अकबर से मिल जाने पर हा¸

रजपूती की शान कहाँ!

जन्मभूमि पर रह जायेगा

हा¸ अब नाम–निशान कहाँ॥94॥

यह भी मन में सोच रहा था¸

इसका बदला लूँगा मैं।

क्रोध–हुताशन में आहुति

मेवाड़–देश की दूँगा मैं॥95॥

शिशोदिया में जन्म लिया यद्यपि

यह है कर्तव्य नहीं।

पर प्रताप–अपराध कभी

क्षन्तव्य नहीं¸ क्षन्तव्य नहीं॥96॥

शक्तसिंह पहुँचा अकबर भी

आकर मिला कलेजे से।

लगा छेदने राणा का उर

कूटनीति के तेजे से॥97॥

युगल–बन्धु–रण देख क्रोध से

लाल हो गया था सूरज।

मानों उसे मनाने को अम्बर पर

चढ़ती थी भू–रज॥98॥

किया सुनहला काम प्रकृति ने¸

मकड़ी के मृदु तारों पर।

छलक रही थी अन्तिम किरणें

राजपूत–तलवारों पर॥99॥

धीरे धीरे रंग जमा तक का

सूरज की लाली पर।

कौवों की बैठी पंचायत

तरू की डाली डाली पर॥100॥

चूम लिया शशि ने झुककर।

कोई के कोमल गालों को।

देने लगा रजत हँस हँसकर¸

सागर–सरिता–नालों को॥101।

हिंस्त्र जन्तु निकले गह्वर से

घ्ोर लिया गिरि झीलों को।

इधर मलिन महलों में आया

लाश सौंपकर भीलों को॥102॥

वंश–पुरोहित का प्रताप ने

दाह कर्म करवा डाला।

देकर घन ब्राह्मण–कुल के

खाली घर को भरवा डाला॥103॥

जहाँ लाश थी ब्राह्मण की

जिस जगह त्याग दिखलाया था।

चबूतरा बन गया जहाँ

प्राणों का पुष्प चढ़ाया था॥104॥

गया बन्ध¸ पर गया न गौरव¸

अपनी कुल–परिपाटी का।

पर विरोध भी कारण है

भीषण–रण हल्दीघाटी का॥105॥

मेवाड़¸ तुम्हारी आगे

अब हा¸ कैसी गति होगी।

हा¸ अब तेरी उन्नति में

क्या पग पग पर यति होगी?॥106॥