Vaidikalaya

हल्दीघाटी - तृतीय सर्ग

अखिल हिन्द का था सुल्तान¸

मुगल–राज कुल का अभिमान।

बढ़ा–चढ़ा था गौरव–मान¸

उसका कहीं न था उपमान॥1॥

सबसे अधिक राज विस्तार¸

धन का रहा न पारावार।

राज–द्वार पर जय जयकार¸

भय से डगमग था संसार॥2॥

नभ–चुम्बी विस्तृत अभिराम¸

धवल मनोहर चित्रित–धाम।

भीतर नव उपवन आराम¸

बजते थे बाजे अविराम॥3॥

संगर की सरिता कर पार

कहीं दमकते थे हथियार।

शोणित की प्यासी खरधार¸

कहीं चमकती थी तलवार॥4॥

स्वर्णिम घर में शीत प्रकाश

जलते थे मणियों के दीप।

धोते आँसू–जल से चरण

देश–देश के सकल महीप॥5॥

तो भी कहता था सुल्तान –

पूरा कब होगा अरमान।

कब मेवाड़ मिलेगा आन¸

राणा का होगा अपमान॥6॥

देख देख भीषण षड्यन्त्र¸

सबने मान लिया है मन्त्र।

पर वह कैसा वीर स्वतन्त्र¸

रह सकता न क्षणिक परतन्त्र॥7॥

कैसा है जलता अंगार¸

कैसा उसका रण–हुंकार।

कैसी है उसकी तलवार¸

अभय मचाती हाहाकार॥8॥

कितना चमक रहा है भाल¸

कितनी तनु कटि¸ वक्ष विशाल।

उससे जननी–अंक निहाल¸

धन्य धन्य माई का लाल॥9॥

कैसी है उसकी ललकार¸

कैसी है उसकी किलकार।

कैसी चेतक–गति अविकार¸

कैसी असि कितनी खरधार॥10॥

कितने जन कितने सरदार¸

कैसा लगता है दरबार।

उस पर क्यों इतने बलिहार¸

उस पर जन–रक्षा का भार॥11॥

किसका वह जलता अभिशाप¸

जिसका इतना भ्ौरव–ताप।

कितना उसमें भरा प्रताप¸

अरे! अरे! साकार प्रताप॥12॥

कैसा भाला कैसी म्यान¸

कितना नत कितना उत्तान!

पतन नहीं दिन–दिन उत्थान¸

कितना आजादी का ध्यान॥13॥

कैसा गोरा–काला रंग¸

जिससे सूरज शशि बदरंग।

जिससे वीर सिपाही तंग¸

जिससे मुगल–राज है दंग॥14॥

कैसी ओज–भरी है देह¸

कैसा आँगन कैसा गेह।

कितना मातृ–चरण पर नेह¸

उसको छू न गया संदेह॥15॥

कैसी है मेवाड़ी–आन;

कैसी है रजपूती शान।

जिस पर इतना है कुबार्न¸

जिस पर रोम–रोम बलिदान॥16॥

एक बार भी मान–समान¸

मुकुट नवा करता सम्मान।

पूरा हो जाता अरमान¸

मेरा रह जाता अभिमान॥17॥

यही सोचते दिन से रात¸

और रात से कभी प्रभात।

होता जाता दुबर्ल गात¸

यद्यपि सुख या वैभव–जात॥18॥

कुछ दिन तक कुछ सोच विचार¸

करने लगा सिंह पर वार।

छिपी छुरी का अत्याचार

रूधिर चूसने का व्यापार॥19॥

करता था जन पर आघात¸

उनसे मीठी मीठी बात।

बढ़ता जाता था दिन–रात¸

वीर शत्रु का यह उत्पात॥20॥

इधर देखकर अत्याचार¸

सुनकर जन की करूण–पुकार।

रोक शत्रु के भीषण–वार¸

चेतक पर हो सिंह सवार॥21॥

कह उठता था बारंबार¸

हाथों में लेकर तलवार –

वीरों¸ हो जाओ तैयार¸

करना है माँ का उद्धार॥22॥