Vaidikalaya

हल्दीघाटी - चतुर्दश सर्ग

भर तड़प–तड़पकर

घन ने आँसू बरसाया।

लेकर संताप सबेरे

धीरे से दिनकर आया॥1॥

था लाल बदन रोने से

चिन्तन का भार लिये था।

शव–चिता जलाने को वह

कर में अंगार लिये था॥2॥

निशि के भीगे मुरदों पर

उतरी किरणों की माला।

बस लगी जलाने उनको

रवि की जलती कर–ज्वाला॥3॥

लोहू जमने से लोहित

सावन की नीलम घासें¸

सरदी–गरमी से सड़कर

बजबजा रही थीं लाशें॥4॥

आँखें निकाल उड़ जाते¸

क्षण भर उड़कर आ जाते¸

शव–जीभ खींचकर कौवे

चुभला–चुभलाकर खाते॥5॥

वर्षा–सिंचित विष्ठा को

ठोरों से बिखरा देते¸

कर काँव–काँव उसको भी

दो–चार कवर ले लेते॥6॥

गिरि पर डगरा डगराकर

खोपड़ियां फोर रहे थे।

मल–मूत्र–रूधिर चीनी के

शरबत सम घोर रहे थे॥7॥

भोजन में श्वान लगे थे

मुरदे थे भू पर लेटे।

खा माँस¸ चाट लेते थे

चटनी सम बहते नेटे॥8॥

लाशों के फार उदर को

खाते–खाते लड़ जाते।

पोटी पर थूथुन देकर

चर–चर–चर नसें चबाते॥9॥

तीखे दाँतों से हय के

दाँतों को तोर रहे थे।

लड़–लड़कर¸ झगड़–झगड़कर

वे हाड़ चिचोर रहे थे॥10॥

जम गया जहाँ लोहू था

कुत्ते उस लाल मही पर!

इस तरह टूटते जैसे

मार्जार सजाव दही पर॥11॥

लड़ते–लड़ते जब असि पर¸

गिरते कटकर मर जाते।

तब इतर श्वान उनको भी

पथ–पथ घसीटकर खाते।12॥

आँखों के निकले कींचर¸

खेखार–लार¸ मुरदों की।

सामोद चाट¸ करते थे

दुर्दशा मतंग–रदों की॥13॥

उनके न दाँत धंसते थे

हाथी की दृढ़ खालों में।

वे कभी उलझ पड़ते थे

अरि–दाढ़ी के बालों में॥14॥

चोटी घसीट चढ़ जाते

गिरि की उन्नत चोटी पर।

गुर्रा–गुर्रा भिड़ते थे

वे सड़ी–गड़ी पोटी पर॥15॥

ऊपर मंडरा मंडराकर

चीलें बिट कर देती थीं।

लोहू–मय लोथ झपटकर

चंगुल में भर लेती थीं॥16॥

पर्वत–वन में खोहों में¸

लाशें घसीटकर लाते¸

कर गुत्थम–गुत्थ परस्पर

गीदड़ इच्छा भर खाते॥17॥

दिन के कारण छिप–छिपकर

तरू–ओट झाड़ियों में वे

इस तरह मांस चुभलाते

मानो हों मुख में मेवे॥18॥

खा मेदा सड़ा हुलककर

कर दिया वमन अवनी पर।

झट उसे अन्य जम्बुक ने

खा लिया खीर सम जी भर॥19॥

पर्वत–श्रृंगों पर बैठी

थी गीधों की पंचायत।

वह भी उतरी खाने की

सामोद जानकर सायत॥20॥

पीते थे पीव उदर की

बरछी सम चोंच घुसाकर¸

सानन्द घोंट जाते थे

मुख में शव–नसें घुलाकर॥21॥

हय–नरम–माँस खा¸ नर के

कंकाल मधुर चुभलाते।

कागद–समान कर–कर–कर

गज–खाल फारकर खाते॥22॥

इस तरह सड़ी लाशें खाकर

मैदान साफ कर दिया तुरत।

युग–युग के लिए महीधर में

गीधों ने भय भर दिया तुरत॥23॥

हल्दीघाटी संगर का तो

हो गया धरा पर आज अन्त।

पर¸ हा¸ उसका ले व्यथा–भार

वन–वन फिरता मेवाड़–कन्त॥24॥