Vaidikalaya

हल्दीघाटी - षोडश सर्ग

आधी रात अँधेरी

तम की घनता थी छाई।

कमलों की आँखों से भी

कुछ देता था न दिखाई॥1॥

पर्वत पर¸ घोर विजन में

नीरवता का शासन था।

गिरि अरावली सोया था

सोया तमसावृत वन था॥2॥

धीरे से तरू के पल्लव

गिरते थे भू पर आकर।

नीड़ों में खग सोये थे

सन्ध्या को गान सुनाकर॥3॥

नाहर अपनी माँदों में

मृग वन–लतिका झुरमुट में।

दृग मूंद सुमन सोये थे

पंखुरियों के सम्पुट में॥4॥

गाकर मधु–गीत मनोहर

मधुमाखी मधुछातों पर।

सोई थीं बाल तितलियां

मुकुलित नव जलजातों पर॥5॥

तिमिरालिंगन से छाया

थी एकाकार निशा भर।

सोई थी नियति अचल पर

ओढ़े घन–तम की चादर॥6॥

आँखों के अन्दर पुतली

पुतली में तिल की रेखा।

उसने भी उस रजनी में

केवल तारों को देखा॥7॥

वे नभ पर काँप रहे थे¸

था शीत–कोप कंगलों में।

सूरज–मयंक सोये थे

अपने–अपने बंगलों में॥8॥

निशि–अंधियाली में निद्रित

मारूत रूक–रूक चलता था।

अम्बर था तुहिन बरसता

पर्वत हिम–सा गलता था॥9॥

हेमन्त–शिशिर का शासन¸

लम्बी थी रात विरह–सी।

संयोग–सदृश लघु वासर¸

दिनकर की छवि हिमकर–सी॥10॥

निर्धन के फटे पुराने

पट के छिद्रों से आकर¸

शर–सदृश हवा लगती थी

पाषाण–हृदय दहला कर॥11॥

लगती चन्दन–सी शीतल

पावक की जलती ज्वाला।

बाड़व भी काँप रहा था

पहने तुषार की माला॥12॥

जग अधर विकल हिलते थे

चलदल के दल से थर–थर।

ओसों के मिस नभ–दृग से

बहते थे आँसू झर–झर॥13॥

यव की कोमल बालों पर¸

मटरों की मृदु फलियों पर¸

नभ के आँसू बिखरे थे

तीसी की नव कलियों पर॥14॥

घन–हरित चने के पौधे¸

जिनमें कुछ लहुरे जेठे¸

भिंग गये ओस के जल से

सरसों के पीत मुरेठे॥15॥

वह शीत काल की रजनी

कितनी भयदायक होगी।

पर उसमें भी करता था

तप एक वियोगी योगी॥16॥

वह नीरव निशीथिनी में¸

जिसमें दुनिया थी सोई।

निझर्र की करूण–कहानी

बैठा सुनता था कोई॥17॥

उस निझर्र के तट पर ही

राणा की दीन–कुटी थी।

वह कोने में बैठा था¸

कुछ वंकिम सी भृकुटी थी॥18॥

वह कभी कथा झरने की

सुनता था कान लगाकर।

वह कभी सिहर उठता था¸

मारूत के झोंके खाकर॥19॥

नीहार–भार–नत मन्थर

निझर्र से सीकर लेकर¸

जब कभी हवा चलती थी

पर्वत को पीड़ा देकर॥20॥

तब वह कथरी के भीतर

आहें भरता था सोकर।

वह कभी याद जननी की

करता था पागल होकर॥21॥

वह कहता था वैरी ने

मेरे गढ़ पर गढ़ जीते।

वह कहता रोकर¸ माँ की

अब सेवा के दिन बीते॥22॥

यद्यपि जनता के उर में

मेरा ही अनुशासन है¸

पर इंच–इंच भर भू पर

अरि का चलता शासन है॥23॥

दो चार दिवस पर रोटी

खाने को आगे आई।

केवल सूरत भर देखी

फिर भगकर जान बचाई।24॥

अब वन–वन फिरने के दिन

मेरी रजनी जगने की।

क्षण आँखों के लगते ही

आई नौबत भगने की॥25॥

मैं बूझा रहा हूँ शिशु को

कह–कहकर समर–कहानी।

बुद–बुद कुछ पका रही है

हा¸ सिसक–सिसककर रानी॥26॥

आँसू–जल पोंछ रही है

चिर क्रीत पुराने पट से।

पानी पनिहारिन–पलकें

भरतीं अन्तर–पनघट से॥27॥

तब तक चमकी वैरी–असि

मैं भगकर छिपा अनारी।

काँटों के पथ से भागी

हा¸ वह मेरी सुकुमारी॥28॥

तृण घास–पात का भोजन

रह गया वहीं पकता ही।

मैं झुरमुट के छिद्रों से

रह गया उसे तकता ही॥29॥

चलते–चलते थकने पर

बैठा तरू की छाया में।

क्षण भर ठहरा सुख आकर

मेरी जर्जर–काया में॥30॥

जल–हीन रो पड़ी रानी¸

बच्चों को तृषित रूलाकर।

कुश–कण्टक की शय्या पर

वह सोई उन्हें सुलाकर॥31॥

तब तक अरि के आने की

आहट कानों में आई।

बच्चों ने आँखें खोलीं

कह–कहकर माई–माई॥32॥

रव के भय से शिशु–मुख को

वल्कल से बाँध भगे हम।

गह्वर में छिपकर रोने

रानी के साथ लगे हम॥33॥

वह दिन न अभी भूला है¸

भूला न अभी गह्नर है।

सम्मुख दिखलाई देता

वह आँखों का झर–झर है॥34॥

जब सहन न होता¸ उठता

लेकर तलवार अकेला।

रानी कहती– न अभी है

संगर करने की बेला॥35॥

तब भी न तनिक रूकता तो

बच्चे रोने लगते हैं।

खाने को दो कह–कहकर

व्याकुल होने लगते हैं॥36॥

मेरे निबर्ल हाथों से

तलवार तुरत गिरती है।

इन आँखों की सरिता में

पुतली–मछली तिरती है॥37॥

हा¸ क्षुधा–तृषा से आकुल

मेरा यह दुबर्ल तन है।

इसको कहते जीवन क्या¸

यह ही जीवन जीवन है॥38॥

अब जननी के हित मुझको

मेवाड़ छोड़ना होगा।

कुछ दिन तक माँ से नाता

हा¸ विवश तोड़ना होगा॥39॥

अब दूर विजन में रहकर

राणा कुछ कर सकता है।

जिसकी गोदी में खेला¸

उसका ऋण भर सकता है॥40॥

यह कहकर उसने निशि में

अपना परिवार जगाया।

आँखों में आँसू भरकर

क्षण उनको गले लगाया॥41॥

बोला –"तुम लोग यहीं से

माँ का अभिवादन कर लो।

अपने–अपने अन्तर में

जननी की सेवा भर लो॥42॥

चल दो¸ क्षण देर करो मत¸

अब समय न है रोने को।

मेवाड़ न दे सकता है

तिल भर भी भू सोने को॥43॥

चल किसी विजन कोने में

अब शेष बिता दो जीवन।

इस दुखद भयावह ज्वर की

यह ही है दवा सजीवन।"॥44॥

सुन व्यथा–कथा रानी ने

आँचल का कोना धरकर¸

कर लिया मूक अभिवादन

आँखों में पानी भरकर॥45॥

हाँ¸ काँप उठा रानी के

तन–पट का धागा–धागा।

कुछ मौन–मौन जब माँ से

अंचल पसार कर माँगा॥46॥

बच्चों ने भी रो–रोकर

की विनय वन्दना माँ की।

पत्थर भी पिघल रहा था

वह देख–देखकर झाँकी॥47॥

राणा ने मुकुट नवाया

चलने की हुई तैयारी।

पत्नी शिशु लेकर आगे

पीछे पति वल्कल–धारी॥48॥

तत्काल किसी के पद का

खुर–खुर रव दिया सुनाई।

कुछ मिली मनुज की आहट¸

फिर जय–जय की ध्वनि आई॥49।

राणा की जय राणा की

जय–जय राणा की जय हो।

जय हो प्रताप की जय हो¸

राणा की सदा विजय हो॥50॥

वह ठहर गया रानी से

बोला – "मैं क्या हूँ सोता?

मैं स्वप्न देखता हूँ या

भ्रम से ही व्याकुल होता॥51॥

तुम भी सुनती या मैं ही

श्रुति–मधुर नाद सुनता हूँ।

जय–जय की मन्थर ध्वनि में

मैं मुक्तिवाद सुनता हूँ।"॥52॥

तब तक भामा ने फेंकी

अपने हाथों की लकुटी।

'मेरे शिशु्' कह राणा के

पैरों पर रख दी त्रिकुटी॥53॥

आँसू से पद को धोकर

धीमे–धीमे वह बोला –

"यह मेरी सेवा्" कहकर

थैलों के मुँह को खोला॥54॥

खन–खन–खन मणिमुद्रा की

मुक्ता की राशि लगा दी।

रत्नों की ध्वनि से बन की

नीरवता सकल भगा दी॥55॥

"एकत्र करो इस धन से

तुम सेना वेतन–भोगी।

तुम एक बार फिर जूझो

अब विजय तुम्हारी होगी॥56॥

कारागृह में बन्दी माँ

नित करती याद तुम्हें है।

तुम मुक्त करो जननी को

यह आशीर्वाद तुम्हें हैं।"॥57॥

वह निबर्ल वृद्ध तपस्वी

लग गया हाँफने कहकर।

गिर पड़ी लार अवनी पर¸

हा उसके मुख से बहकर॥58॥

वह कह न सका कुछ आगे¸

सब भूल गया आने पर।

कटि–जानु थामकर बैठा

वह भू पर थक जाने पर॥59॥

राणा ने गले लगाया

कायरता धो लेने पर।

फिर बिदा किया भामा को

घुल–घुल कर रो लेने पर॥60॥

खुल गये कमल–कोषों के

कारागृह के दरवाजे।

उससे बन्दी अलि निकले

सेंगर के बाजे–बाजे॥61॥

उषा ने राणा के सिर

सोने का ताज सजाया।

उठकर मेवाड़–विजय का

खग–कुल ने गाना गाया॥62॥

कोमल–कोमल पत्तों में

फूलों को हँसते देखा।

खिंच गई वीर के उर में

आशा की पतली रेखा॥63॥

उसको बल मिला हिमालय का¸

जननी–सेवा–अनुरक्ति मिली।

वर मिला उसे प्रलयंकर का¸

उसको चण्डी की शक्ति मिली॥64॥

सूरज का उसको तेज मिला¸

नाहर समान वह गरज उठा।

पर्वत पर झण्डा फइराकर

सावन–घन सा वह गरज उठा॥65॥

तलवार निकाली¸ चमकाई¸

अम्बर में फेरी घूम–घूम।

फिर रखी म्यान में चम–चम–चम¸

खरधार–दुधारी चूम–चूम॥66॥