Vaidikalaya

हल्दीघाटी - सप्तदश सर्ग

था शीत भगाने को

माधव की उधर तयारी थी।

वैरी निकालने को निकली

राणा की इधर सवारी थी॥1॥

थे उधर लाल वन के पलास¸

थी लाल अबीर गुलाल लाल।

थे इधर क्रोध से संगर के

सैनिक के आनन लाल–लाल॥2॥

उस ओर काटने चले खेत

कर में किसान हथियार लिये।

अरि–कण्ठ काटने चले वीर

इस ओर प्रखर तलवार लिये॥3॥

उस ओर आम पर कोयल ने

जादू भरकर वंशी टेरी।

इस ओर बजाई वीर–व्रती

राणा प्रताप ने रण–भेरी॥4॥

सुनकर भेरी का नाद उधर

रण करने को शहबाज चला।

लेकर नंगी तलवार इधर

रणधीरों का सिरताज चला॥5॥

दोनों ने दोनों को देखा¸

दोनों की थी उन्नत छाती।

दोनों की निकली एक साथ

तलवार म्यान से बल खाती॥6॥

दोनों पग–पग बढ़ चले वीर

अपनी सेना की राजि लिये।

कोई गज लिये बढ़ा आगे

कोई अपना वर वाजि लिये॥7॥

सुन–सुन मारू के भैरव रव

दोनों दल की मुठभेड़ हुई।

हर–हर–हर कर पिल पड़े वीर¸

वैरी की सेना भेंड़ हुई॥8॥

उनकी चोटी में आग लगी¸

अरि झुण्ड देखते ही आगे।

जागे पिछले रण के कुन्तल¸

उनके उर के साहस जागे॥9॥

 प्रलयंकर संगर–वीरों कोजो

मुगल मिला वह सभय मिला।

वैरी से हल्दीघाटी का

बदला लेने को समय मिला॥10॥

गज के कराल किलकारों से

हय के हिन–हिन हुंकारों से।

बाजों के रव¸ ललकारों से¸

भर गया गगन टंकारों से॥11॥

पन्नग–समूह में गरूड़–सदृश¸

तृण में विकराल कृशानु–सदृश।

राणा भी रण में कूद पड़ा

घन अन्धकार में भानु–सदृश॥12॥

राणा–हय की ललकार देख¸

राणा की चल–तलवार देख।

देवीर समर भी काँप उठा

अविराम वार पर वार देख॥13॥

क्षण–क्षण प्रताप का गर्जन सुन

सुन–सुन भीषण रव बाजों के¸

अरि कफन काँपते थे थर–थर

घर में भयभीत बजाजों के॥14॥

आगे अरि–मुण्ड चबाता था

राना हय तीखे दांतों से।

पीछे मृत–राजि लगाता था

वह मार–मार कर लातों से॥15॥

अवनी पर पैर न रखता था

अम्बर पर ही वह घोड़ा था।

नभ से उतरा अरि भाग चले¸

चेतक का असली जोड़ा था॥16॥

अरि–दल की सौ–सौ आँखों में

उस घोड़े को गड़ते देखा।

नभ पर देखा¸ भू पर देखा¸

वैरी–दल में लड़ते देखा॥17॥

वह कभी अचल सा अचल बना¸

वह कभी चपलतर तीर बना।

जम गया कभी¸ वह सिमट गया¸

वह दौड़ा¸ उड़ा¸ समीर बना॥18॥

नाहर समान जंगी गज पर

वह कूद–कूद चढ़ जाता था।

टापों से अरि को खूंद–खूंद

घोड़ा आगे बढ़ जाता था॥19॥

यदि उसे किसी ने टोक दिया¸

वह महाकाल का काल बना।

यदि उसे किसी ने रोक दिया¸

वह महाव्याल विकराल बना॥20॥

राणा को लिये अकेला ही

रण में दिखलाई देता था।

ले–लेकर अरि के प्राणों को

चेतक का बदला लेता था॥21॥

राणा उसके ऊपर बैठा

जिस पर सेना दीवानी थी।

कर में हल्दीघाटी वाली

वह ही तलवार पुरानी थी॥22॥

हय–गज–सवार के सिर को थी¸

वह तमक–तमककर काट रही।

वह रूण्ड–मुण्ड से भूतल को¸

थी चमक–चमककर पाट रही॥23॥

दुश्मन के अत्याचारों से

जो उज़ड़ी भूमि विचारी थी¸

नित उसे सींचती शोणित से

राणा की कठिन दुधारी थी॥24॥

वह बिजली–सी चमकी चम–चम

फिर मुगल–घटा में लीन हुई।

वह छप–छप–छप करती निकली¸

फिर चमकी¸ छिपी¸ विलीन हुई॥25।

फुफुकार भुजंगिन सी करती

खच–खच सेना के पार गई।

अरि–कण्ठों से मिलती–जुलती

इस पार गई¸ उस पार गई॥26॥

वह पीकर खून उगल देती

मस्ती से रण में घूम–घूम।

अरि–शिर उतारकर खा जाती

वह मतवाली सी झूम–झूम॥27॥

हाथी–हय–तन के शोणित की

अपने तन में मल कर रोली¸

वह खेल रही थी संगर में

शहबाज–वाहिनी से होली॥28॥

वह कभी श्वेत¸ अरूणाभ कभी¸

थी रंग बदलती क्षण–क्षण में।

गाजर–मुली की तरह काट

सिर बिछा दिये रण–प्रांगण में॥29॥

यह हाल देख वैरी–सेना

देवीर–समर से भाग चली।

राणा प्रताप के वीरों के

उर में हिंसा की आग जली॥30॥

लेकर तलवार अपाइन तक

अरि–अनीकिनी का पीछा कर।

केसरिया झण्ड़ा गाड़ दिया

राणा ने अपना गढ़ पाकर॥31॥

फिर नदी–बाढ़ सी चली चमू

रण–मत्त उमड़ती कुम्भलगढ़।

तलवार चमकने लगी तुरत

उस कठिन दुर्ग पर सत्वर चढ़॥32॥

गढ़ के दरवाजे खोल मुगल

थे भग निकले पर फेर लिया¸

अब्दुल के अभिमानी–दल को¸

राणा प्रताप ने घेर लिया॥33॥

इस तरह काट सिर बिछा दिये

सैनिक जन ने लेकर कृपान।

यव–मटर काटकर खेतों में¸

जिस तरह बिछा देते किसान॥34॥

मेवाड़–देश की तलवारें

अरि–रक्त–स्नान से निखर पड़ीं।

कोई जन भी जीता न बचा

लाशों पर लाशें बिखर पड़ीं॥35॥

जय पाकर फिर कुम्हलगढ़ पर

राणा का झंडा फहर उठा।

वह चपल लगा देने ताड़न¸

अरि का सिंहासन थहर उठा॥36॥

फिर बढ़ी आग की तरह प्रबल

राणा प्रताप की जन–सेना।

गढ़ पर गढ़ ले–ले बढ़ती थी

वह आँधी–सी सन–सन सेना॥37॥

वह एक साल ही के भीतर

अपने सब दुर्ग किले लेकर¸

रणधीर–वाहिनी गरज उठी

वैरी–उर को चिन्ता देकर॥38॥

मेवाड़ हँसा¸ फिर राणा ने

जय–ध्वजा किले पर फहराई।

मां धूल पोंछकर राणा की

सामोद फूल–सी मुसकाई॥39॥

घर–घर नव बन्दनवार बँधे¸

बाजे शहनाई के बाजे।

जल भरे कलश दरवाजों पर

आये सब राजे महराजे॥40॥

मंगल के मधुर स–राग गीत

मिल–मिलकर सतियों ने गाये।

गाकर गायक ने विजय–गान

श्रोता जन पर मधु बरसाये॥41॥

कवियों ने अपनी कविता में

राणा के यश का गान किया।

भूपों ने मस्तक नवा–नवा

सिंहासन का सम्मान किया॥42॥

धन दिया गया भिखमंगों को

अविराम भोज पर भोज हुआ।

दीनों को नूतन वस्त्र मिले¸

वर्षों तक उत्सव रोज हुआ॥43॥

हे विश्ववन्द्य¸ हे करूणाकर¸

तेरी लीला अद्भुत अपार।

मिलती न विजय¸ यदि राणा का

होता न कहीं तू मददगार॥44॥

तू क्षिति में¸ पावक में¸ जल में¸

नभ में¸ मारूत में वर्तमान¸

तू अजपा में¸ जग की सांसें

कहती सोहँ तू है महान्॥45॥

इस पुस्तक का अक्षर–अक्षर¸

प्रभु¸ तेरा ही अभिराम–धाम।

हल्दीघाटी का वर्ण–वर्ण¸

कह रहा निरन्तर राम–राम॥46॥

पहले सृजन के एक¸ पीछे¸

तीन¸ तू अभिराम है।

तू विष्णु है¸ तू शम्भु है¸

तू विधि¸ अनन्त प्रणाम है॥47॥

जल में अजन्मा¸ तव करों से

बीज बिखराया गया।

इससे चराचर सृजन–कतातू

सदा गाया गया॥48॥

तू हार–सूत्र समान सब में

एक सा रहता सदा!

तू सृष्टि करता¸ पालता¸

संहार करता सर्वदा॥49॥

स्त्री–पुरूष तन के भाग दो¸

फल सकल करूणा–दृष्टि के।

वे ही बने माता पिता

उत्पत्ति–वाली सृष्टि के॥50॥

तेरी निशा जो दिवस सोने

जागने के हैं बने¸

वे प्राणियों के प्रलय हैं¸

उत्पत्ति–क्रम से हैं बने॥51॥

तू विश्व–योनि¸ अयोनि है¸

तू विश्व का पालक प्रभो!

तू विश्व–आदि अनादि है¸

तू विश्व–संचालक प्रभो!॥52॥

तू जानता निज को तथा

निज सृष्टि है करता स्वयम्।

तू शक्त है अतएव अपने

आपको हरता स्वयम्॥53॥

द्रव¸ कठिन¸ इन्दि`य–ग्राह्य और

अग्राह्य¸ लघु¸ गुरू युक्त है।

आणिमादिमय है कार्य¸ कारण¸

और उनसे मुक्त है॥54॥

आरम्भ होता तीन स्वर से

तू वही ओंकार है।

फल–कर्म जिनका स्वर्ग–मख है

तू वही अविकार है॥55॥

जो प्रकृति में रत हैं तुझे वे

तत्व–वेत्ता कह रहे।

फिर प्रकृति–द्रष्टा भी तुझी को¸

ब्रह्म–वेत्ता कह रहे॥56॥

तू पितृगण का भी पिता है¸

राम–राम हरे हरे।

दक्षादि का भी सृष्टि–कर्ता

और पर से भी परे॥57॥

तू हव्य¸ होता¸ भोग्य¸ भोक्ता¸

तू सनातन है प्रभो!

तू वेद्य¸ ज्ञाता¸ ध्येय¸ ध्याता¸

तू पुरातन है प्रभो!॥58॥

हे राम¸ हे अभिराम¸

तू कृतकृत्य कर अवतार से।

दबती निरन्तर जा रही है

मेदिनी अघ–भार से॥59॥

राणा–सदृश तू शक्ति दे¸

जननी–चरण–अनुरक्ति दे।

या देश–सेवा के लिए

झाला–सदृश ही भक्ति दे॥60॥