Vaidikalaya

हल्दीघाटी - अष्ठम सर्ग

गणपति के पावन पाँव पूज¸

वाणी–पद को कर नमस्कार।

उस चण्डी को¸ उस दुर्गा को¸

काली–पद को कर नमस्कार॥1॥

उस कालकूट पीनेवाले के

नयन याद कर लाल–लाल।

डग–डग ब्रह्माण्ड हिला देता

जिसके ताण्डव का ताल–ताल॥2॥

ले महाशक्ति से शक्ति भीख

व्रत रख वनदेवी रानी का।

निर्भय होकर लिखता हूं मैं

ले आशीर्वाद भवानी का॥3॥

मुझको न किसी का भय–बन्धन

क्या कर सकता संसार अभी।

मेरी रक्षा करने को जब

राणा की है तलवार अभी॥4॥

मनभर लोहे का कवच पहन¸

कर एकलिंग को नमस्कार।

चल पड़ा वीर¸ चल पड़ी साथ

जो कुछ सेना थी लघु–अपार॥5॥

घन–घन–घन–घन–घन गरज उठे

रण–वाद्य सूरमा के आगे।

जागे पुश्तैनी साहस–बल

वीरत्व वीर–उर के जागे॥6॥

सैनिक राणा के रण जागे

राणा प्रताप के प्रण जागे।

जौहर के पावन क्षण जागे

मेवाड़–देश के व्रण जागे॥7॥

जागे शिशोदिया के सपूत

बापा के वीर–बबर जागे।

बरछे जागे¸ भाले जागे¸

खन–खन तलवार तबर जागे॥8॥

कुम्भल गढ़ से चलकर राणा

हल्दीघाटी पर ठहर गया।

गिरि अरावली की चोटी पर

केसरिया–झंडा फहर गया॥9॥

प्रणवीर अभी आया ही था

अरि साथ खेलने को होली।

तब तक पर्वत–पथ से उतरा

पुंजा ले भीलों की टोली॥10॥

भ्ौरव–रव से जिनके आये

रण के बजते बाजे आये।

इंगित पर मर मिटनेवाले

वे राजे–महाराजे आये॥11॥

सुनकर जय हर–हर सैनिक–रव

वह अचल अचानक जाग उठा।

राणा को उर से लगा लिया

चिर निद्रित जग अनुराग उठा॥12॥

नभ की नीली चादर ओढ़े

युग–युग से गिरिवर सोता था।

तरू तरू के कोमल पत्तों पर

मारूत का नर्तन होता था॥13॥

चलते चलते जब थक जाता

दिनकर करता आराम वहीं।

अपनी तारक–माला पहने

हिमकर करता विश्राम वहीं॥14॥

गिरि–गुहा–कन्दरा के भीतर

अज्ञान–सदृश था अन्धकार।

बाहर पर्वत का खण्ड–खण्ड

था ज्ञान–सदृश उज्ज्वल अपार॥15॥

वह भी कहता था अम्बर से

मेरी छाती पर रण होगा।

जननी–सेवक–उर–शोणित से

पावन मेरा कण–कण होगा॥16॥

पाषाण–हृदय भी पिघल–पिघल

आँसूं बनकर गिरता झर–झर।

गिरिवर भविष्य पर रोता था

जग कहता था उसको निझर्र॥17॥

वह लिखता था चट्टानों पर

राणा के गुण अभिमान सजल।

वह सुना रहा था मृदु–स्वर से

सैनिक को रण के गान सजल॥18॥

वह चला चपल निझर्र झर–झर

वसुधा–उर–ज्वाला खोने को;

या थके महाराणा–पद को

पर्वत से उतरा धोने को॥19॥

लघु–लघु लहरों में ताप–विकल

दिनकर दिन भर मुख धोता था।

निर्मल निझर्र जल के अन्दर

हिमकर रजनी भर सोता था॥20॥

राणा पर्वत–छवि देख रहा

था¸ उन्नत कर अपना भाला।

थे विटप खड़े पहनाने को

लेकर मृदु कुसुमों की माला॥21॥

लाली के साथ निखरती थी

पल्लव–पल्लव की हरियाली।

डाली–डाली पर बोल रही

थी कुहू–कुहू कोयल काली॥22॥

निझर्र की लहरें चूम–चूम

फूलों के वन में घूम–घूम।

मलयानिल बहता मन्द–मन्द

बौरे आमों में झूम–झूम॥23॥

जब तुहिन–भार से चलता था

धीरे धीरे मारूत–कुमार।

तब कुसुम–कुमारी देख–देख

उस पर हो जाती थी निसार॥24॥

उड़–उड़ गुलाब पर बैठ–बैठ

करते थे मधु का पान मधुप।

गुन–गुन–गुन–गुन–गुन कर करते

राणा के यश का गान मधुप॥25॥

लोनी लतिका पर झूल–झूल¸

बिखरते कुसुम पराग प्यार।

हंस–हंसकर कलियां झांक रही

थीं खोल पंखुरियों के किवार॥26॥

तरू–तरू पर बैठे मृदु–स्वर से

गाते थे स्वागत–गान शकुनि।

कहते यह ही बलि–वेदी है

इस पर कर दो बलिदान शकुनि॥27॥

केसर से निझर्र–फूल लाल

फूले पलास के फूल लाल।

तुम भी बैरी–सिर काट–काट

कर दो शोणित से धूल लाल॥28॥

तुम तरजो–तरजो वीर¸ रखो

अपना गौरव अभिमान यहीं।

तुम गरजो–गरजो सिंह¸ करो

रण–चण्डी का आह्वान यहीं॥29॥

खग–रव सुनते ही रोम–रोम

राणा–तन के फरफरा उठे।

जरजरा उठे सैनिक अरि पर

पत्ते–पत्ते थरथरा उठे॥30॥

तरू के पत्तों से¸ तिनकों से

बन गया यहीं पर राजमहल।

उस राजकुटी के वैभव से

अरि का सिंहासन गया दहल॥31॥

बस गये अचल पर राजपूत¸

अपनी–अपनी रख ढाल–प्रबल।

जय बोल उठे राणा की रख

बरछे–भाले–करवाल प्रबल॥32॥

राणा प्रताप की जय बोले

अपने नरेश की जय बोले।

भारत–माता की जय बोले

मेवाड़–देश की जय बोले॥33॥

जय एकलिंग¸ जय एकलिंग¸

जय प्रलयंकर शंकर हर–हर।

जय हर–हर गिरि का बोल उठा

कंकड़–कंकड़¸ पत्थर–पत्थर॥34॥

देने लगा महाराणा

दिन–रात समर की शिक्षा।

फूँक–फूँक मेरी वैरी को

करने लगा प्रतीक्षा॥35॥