भगवान विष्णु का मत्स्य अवतार
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धार्मिक मान्यताओं और वेद पुराणों के अनुसार मत्स्य अवतार भगवान विष्णु का प्रथम अवतारा माना जाता हैं। मत्स्य अवतार को लेकर श्रीमद्भागवतमहापुराण, विष्णु पुराण, अग्नि पुराण आदि विभिन पुराणों में कथाएँ मिलती हैं, जिसमे भगवान ने कैसे हयग्रीव राक्षस का वध करके वेदो को पुनः ब्रह्मा को दिया और प्रलय के दौरान राजा मनु की सहायता से पृथ्वी का पुनः निर्वाण किया। इस पोस्ट में हम इस कथा को विस्तार से आपके साथ साझा करेंगे तो चलिए शुरू करते हैं।
मत्स्य अवतार कथा
मत्स्य अवतार की कथा का वर्णन कई पुराणों में देखने को मिलता हैं किन्तु इस लेख में जो कथा श्रीमद्भागवतमहापुराण में वर्णित हैं उसी कथा का वर्णन यहाँ पर करेंगे। श्रीमद्भागवत के अष्टम स्कन्ध के 24वें अध्याय में मत्स्य अवतार की कथा वर्णित है जो इस प्रकार हैं।
एक बार की बात हैं जब राजा परिक्षित के मन में भगवान के मत्स्य अवतार के बारे में जानने की इच्छा उत्पन्न हुई, तब राजा परिक्षित ने वेद और पुराणों के ज्ञाता श्री शुकदेव गोस्वामी जी का बार - बार अभिनंदन किया और उनके आग्रह किया कि वे उन्हें भगवान के मत्स्य अवतार की कथा सुनाए कि भगवान ने किस कारण से मत्स्य अवतार धारण किया था।
तब श्री शुकदेवजी ने राजा परिक्षित को मत्स्य अवतार की कथा इस प्रकार सुनाई -
श्री शुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् ! यों तो भगवान् सबके एकमात्र प्रभु हैं; फिर भी वे गौ, ब्राह्मण, देवता, साधु, वेद, धर्म और अर्थकी रक्षाके लिये शरीर धारण किया करते हैं। वे सर्वशक्तिमान् प्रभु वायु की तरह नीचे-ऊंचे, छोटे-बड़े सभी प्राणियों में अन्तर्यामी रूप से लीला करते रहते हैं। परन्तु उन-उन प्राणियों के बुद्धिगत गुणोंसे वे छोटे-बड़े या ऊँचे-नीचे नहीं हो जाते। क्योंकि वे वास्तव में समस्त प्राकृत गुणों से रहित - निर्गुण हैं।
ब्रह्मा जी के एक दिन को एक कल्प कहते हैं। ब्रह्मा जी का एक दिन भी कम समय का नहीं है। चारों युगों की अवधि इस प्रकार से है – कलियुग की परम आयु है 4 लाख 32 हजार वर्ष, उसकी दुगुनी द्वापर, तिगुनी त्रेता एवं चार गुणी आयु सत्ययुग की है। इन चारों को मिलाने से एक चतुर्युग व दिव्य युग बनता है। इस प्रकार के 1000 चतुर्युग को मिला कर एक कल्प बनता हैं। और ब्रह्माजी का दिन और रात इसी कल्प के बराबर होता हैं अर्थात 1000 चतुर्युग का दिन और 1000 चतुर्युग की रात। जब ब्रह्माजी का दिन होता हैं तब वह श्रष्टि का निर्माण और पालन होता हैं और जब रात्रि होती हैं तो श्रष्टि का अंत (प्रल) हो रहा होता हैं।
श्री शुकदेव जी आगे कहते हैं कि पिछले कल्प की समाप्ति पर अर्थात ब्रह्माजी का दिन पूरा हो जाने पर और उनकी रात्रि के आरम्भ होने के समय ब्रह्माजी के सो जानेके कारण ब्राह्म नामक नैमित्तिक प्रलय हुआ था। उस समय भूर्लोक आदि सारे लोक समुद्र में डूब गये थे। उसी समय जब ब्रह्माजी सोने जा रहे थे तब वेद उनके मुखसे निकल पड़े और उनके पास ही रहनेवाले हयग्रीव नामक बली दैत्य ने उन्हें योगबल से चुरा लिया। और सागर की अथाह गहराई में जाकर छिपा दिए। वेदो के चोरी हो जाने से ब्रह्माजी बहुत चिंतित हो गए तब वह विष्णु भगवान के पास गए और उनसे सहायता के लिए कहा, तब भगवान विष्णु ने उन्हें आश्वासन दिया की वह हयग्रीव राक्षस को मार कर वेदो को वापस लाएंगे और राजा मनु (सत्यव्रत) की मदद से श्रष्टि के जीवों की भी रक्षा करेंगे।
उसी काल में सूर्यपुत्र महाराज सत्यव्रत (जो आगे चलकर वैवस्वत मनु हुए ) ने, जो क्षमाशील, सम्पूर्ण आत्मगुणों से सम्पन्न, सुख-दुःख को समान समझनेवाले एवं उत्कृष्ट वीर थे, पुत्रको राज्य भार सौंपकर मलयाचल पर्वत के एक भाग में जाकर घोर तप का अनुष्ठान किया। वहाँ उन्हें उत्तम योग की प्राप्ति हुई। इस प्रकार उनके तप करते हुए करोड़ों वर्ष व्यतीत होने पर कमलासन ब्रह्मा प्रसन्न होकर वरदातारूप में प्रकट हुए और राजा से बोले -'वर माँगो'। इस प्रकार प्रेरित किये जानेपर वे महाराज मनु पितामह ब्रह्माको प्रणाम करके बोले 'भगवन्! मैं आपसे केवल एक सर्वश्रेष्ठ वर माँगना चाहता हूँ। वह यह है कि प्रलयके उपस्थित होनेपर में सम्पूर्ण स्थावर-जङ्गमरूप जीवसमूह की रक्षा करने में समर्थ हो सकूँ।' तब विश्वात्मा ब्रह्मा 'एवमस्तु ऐसा ही हो' कहकर वहीं अन्तर्धान हो गये। उस समय आकाश से देवताओं द्वारा की गयी महती पुष्पवृष्टि होने लगी॥
इसके बाद कुछ समय बीत जाने के बाद (प्रलय काल शुरू होने के 7 दिन पहले), एक दिन कृतमाला नदी में पितृ-तर्पण करते हुए महाराज मनु की हथेलीपर जलके साथ ही एक मछली आ गयी तब राजा उस मछली को वापस जल में डालने लगे तब बह छोटी सी मछली बहुत कातर भाव से मुनि से बोली- हे दीनवत्सल राजन् ! मैं छोटी सी मछली हूँ इस नदी की बड़ी मछलियाँ मुझे खा लेगी, मुझे बहुत डर लग रहा है। आप मेरी रक्षा कीजिये। मछली की इस प्रकार कातरोक्ति सुनकर राजा उसे अपने कमण्डलु में डालकर अपने आश्रम में ले आये। एक ही दिन रात में वह मत्स्यरूपसे सोलह अङ्गुल बड़ा हो गया और 'रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये' यों कहने लगा। तब राजाने उस जलचारी जीवको मिट्टीके एक बड़े घड़े में डाल दिया। वहाँ भी वह एक (ही) रातमें तीन हाथ बढ़ गया। पुनः उस मत्स्य ने सूर्यपुत्र मनु से आर्तवाणी में कहा- 'राजन् ! मैं आपकी शरणमें हूँ; मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये।' तदनन्तर उन सूर्य नन्दन (वैवस्वत मनु) ने उस मत्स्यको कुएँ में रख दिया, परंतु जब वह मत्स्य उस कुएँ में भी न आ सका, तब राजाने उसे सरोवरमें डाल दिया। वहाँ वह पुनः एक योजन बड़े आकार का हो गया और दीन होकर कहने लगा- 'नृपश्रेष्ठ! मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। तत्पश्चात् मनुने उसे गङ्गा में छोड़ दिया। जब उसने वहाँ और भी विशाल रूप धारण कर लिया, तब भूपाल ने उसे समुद्रमें डाल दिया। जब उस मत्स्य ने सम्पूर्ण समुद्र को आच्छादित कर लिया, तब मनुने भयभीत होकर उससे पूछा-
आप कोई असुरराज तो नहीं हैं ? अथवा वासुदेव भगवान् हैं, अन्यथा दूसरा कोई ऐसा कैसे हो सकता है? भला, इस प्रकार कई करोड़ योजनों के समान विस्तारवाला शरीर किसका हो सकता है? केशव! मुझे ज्ञात हो गया कि 'आप मत्स्य का रूप धारण करके मुझे खित्र कर रहे हैं । हृषीकेश! आप जगदीश्वर एवं जगत्के निवासस्थान हैं, आपको नमस्कार है।' तब मत्स्यरूप धारी वे भगवान् जनार्दन यों कहे जानेपर बोले 'निष्पाप ठीक है, ठीक है, तुमने मुझे भलीभाँति पहचान लिया है। भूपाल थोड़े ही समय में पर्वत, वन और काननों के सहित यह पृथ्वी जलमें निमग्र हो जायगी। इस कारण पृथ्वीपते। सम्पूर्ण जीव- समूहों की रक्षा करनेके लिये समस्त देवगणों द्वारा इस नौका का निर्माण किया गया है। सुव्रत! जितने स्वेदज, अण्डज और उद्भिज जीव हैं तथा जितने जरायुज जीव हैं, उन सभी अनाथों को इस नौकामें चढ़ाकर तुम उन सबकी रक्षा करना राजन्! जब युगान्त की वायुसे आहत होकर यह नौका डगमगाने लगेगी,उस समय राजेन्द्र ! तुम उसे मेरे इस सॉंगमें बाँध देन तदनन्तर पृथ्वीपते। प्रलयकी समाप्तिमें तुम जगत्के समस्त स्थावरजङ्गम प्राणियोंके प्रजापति होओगे। इस प्रकार कृतयुगके प्रारम्भमें सर्वज्ञ एवं धैर्यशाली नरेशके रूपमें तुम मन्वन्तरके भी अधिपति होओगो, उस समय देवगण तुम्हारी पूजा करेंगे।
श्री शुकदेवजी कहते हैं- परिक्षित! भगवान् मस्त्यद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर मनु ने उन मधुसूदन से प्रश्न किया- 'भगवन्! यह युगान्त प्रलय कितने वर्षों बाद आयेगा? नाथ! मैं सम्पूर्ण जीवोंकी रक्षा किस प्रकार कर सकूँगा ? तथा मधुसूदन ! आपके मेरा पुनः सम्मिलन कैसे हो सकेगा ?
मत्स्य भगवान् कहने लगे-'महामुने! आजसे लेकर सौ वर्ष तक इस भूतल पर वृष्टि नहीं होगी, जिसके फलस्वरूप परम अमाङ्गलिक एवं अत्यन्त भयंकर दुर्भिक्ष आ पड़ेगा। तदनन्तर युगान्त प्रलयके उपस्थित होने पर तपे हुए अंगारकी वर्षा करनेवाली सूर्य की सात भयंकर किरणें छोटे-मोटे जीवोंका संहार करनेमें प्रवृत्त हो जायेंगी। बडवानल भी अत्यन्त भयानक रूप धारण कर लेगा। पाताललोक से ऊपर उठकर संकर्षण के मुख से निकली हुई विषाग्नि तथा भगवान् रुद्र के ललाट से उत्पन्न तीसरे नेत्र की अग्नि भी तीनों लोकों को भस्म करती हुई भभक उठेगी। परंतप इस प्रकार जब सारी पृथ्वी जलकर राख की ढेर बन जायगी और गगन-मण्डल ऊष्मा से संतप्त हो उठेगा, तब देवताओं और नक्षत्रों सहित सारा जगत् नष्ट हो जायगा। उस समय संवर्त, भीमनाद, द्रोण, चण्ड, बलाहक, विद्युत्पताक और शोण नामक जो ये सात प्रलयकारक मेघ हैं, ये सभी अग्निके प्रस्वेदसे उत्पन्न हुए जलकी घोर वृष्टि करके सारी पृथ्वीको आप्लावित कर देंगे। तब सातों समुद्र क्षुब्ध होकर एकमेक हो जायँगे और इन तीनों लोकोंको पूर्णरूपसे एकार्णव के आकार में परिणत कर देंगे। सुव्रत! उस समय तुम इस वेदरूपी नौका को ग्रहण करके इसपर समस्त जीवों और बीजोंको लाद देना तथा मेरे द्वारा प्रदान की गयो रस्सी के बन्धन से इस नाव को मेरे सींग में बाँध देना। परंतप (ऐसे भीषण काल में जब कि) सारा देव-समूह जलकर भस्म हो जायगा तो भी मेरे प्रभाव से सुरक्षित होने के कारण एकमात्र तुम्हीं अवशेष रह जाओगे। इस आन्तर प्रलय में सोम, सूर्य, मैं चारों लोकों सहित ब्रह्मा, पुण्यतोया नर्मदा नदी, महर्षि मार्कण्डेय, शंकर, चारों वेद, विद्याओं द्वारा सब ओर से घिरे हुए पुराण और तुम्हारे साथ यह (नौका स्थित) विश्व-ये ही बचेंगे। महीपते ! चाक्षुष- मन्वन्तर के प्रलयकाल में जब इसी प्रकार सारी पृथ्वी एकार्णव में निमग्र हो जायगी और तुम्हारे द्वारा सृष्टि का प्रारम्भ होगा, तब मैं वेदों का (पुनः) प्रवर्तन करूँगा।' ऐसा कहकर भगवान् मत्स्य वहीं अन्तधांन हो गये तथा मनु भी वहीं स्थित रहकर भगवान् वासुदेव की कृपासे प्राप्त हुए योग का तबतक अभ्यास करते रहे, जबतक पूर्वसूचित प्रलय का समय उपस्थित न हुआ। तदनन्तर भगवान् वासुदेव के मुख से कहे गये पूर्वोक्त प्रलयकाल के उपस्थित होनेपर भगवान् जनार्दन एक सींगवाले मत्स्यके रूपमें प्रादुर्भूत हुए। उसी समय एक सर्प भी रज्जु रूप से बहता हुआ मनु के पार्श्वभाग में आ पहुँचा। तब धर्मज्ञ मनु ने अपने योगबलसे समस्त जीवोंको खींचकर नौकापर लाद लिया और उसे सर्परूपी रस्सी से मत्स्य के सींग में बाँध दिया। तत्पश्चात् भगवान् जनार्दन को प्रणाम करके वे स्वयं भी उस नौकापर बैठ गए। मत्स्य विष्णु की कृपा से ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न राजा सत्यव्रत ने वर्तमान कल्प में वैवस्वत मनु ( श्राद्ध देव के रूप में) के रूप में जन्म ग्रहण किया। परिक्षित इस प्रकार उस अतीत प्रलय के अवसर पर योगाभ्यासी मनु द्वारा पूछे जानेपर मत्स्यरूपी भगवान्ने जिस पुराण का वर्णन किया था, वही मत्स्यपुराण के नाम से जाना जाता हैं।
इसके बाद जब तक प्रलय चलता रहा तबतक भगवान उस नाव को सहारा देते रहे और सभी जीवो की रक्षा की, जब प्रलय काल समाप्त हुआ और ब्रह्माजी की नींद टूटी तब भगवान ने हयग्रीव राक्षस को मार कर उससे वेद वापस लिए और ब्रह्माजी को दे दिए। इस प्रकार भगवान ने वेदो की और सत्यव्रत के साथ मिलकर अन्य जीवो और ऋषि मुनियों की भी रक्षा की।